गजलें और शायरी >> इन्तखाब इन्तखाबप्रियदर्शी ठाकुर
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प्रस्तुत है गजलें और नज्में...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इन गजलों में रूढ़ि से बचने का जो प्रयास है
उससे जगह-जगह उर्दू स्पष्ट
रूप से खयाल के नखरे उठाती नजर आती है। जाहिर है इन शेरों में मनोविज्ञान
सामान्य मनोविज्ञान नहीं ये सामान्य सच्चाइयों के खेर होते हुए भी,खास
सच्चाइयों के शेर हैं।
इन्तख़ाब
सन् 1981 से 1995 के पन्द्रह सालों में मेरी
कविताओं, ग़ज़लों और नज़्मों
की चार किताबें शाये हुईं। ‘टूटा हुआ पुल’ (पराग
प्रकाशन, 1981), ‘रात गये’ (पंचशील प्रकाशन, 1990),
‘धूप तितली फूल’ (भारतीय ज्ञानपीठ, 1991) और
‘यह ज़बान भी अपनी है’ (किताबघर, 1995) इनमें से
ज़्यादातर का अब मिलना मुश्किल है। ‘इन्तख़ाब’ इन
संकलनों की कुछ चुनिन्दा रचनाओं और 1995 के बाद की ग़ज़लों और नज़्मों का
गुलदस्ता है। उम्मीद है, आम पढ़नेवालों और अह्ले-अदब दोनों को यह किताब
पसन्द आएगी।
‘इन्तख़ाब’ प्रेस में जाए इससे पहले मैं उन सभी बुजुर्गों, अज़ीजों और साथियों को याद करना चाहता हूँ जिनकी हौसला-अफ़ज़ाई और मदद के बग़ैर या तो ‘ख़याल’ होता ही नहीं या फ़िर ज़िन्दा नहीं रहता, कहता-लिखता तो बिलकुल भी नहीं ! सबसे पहले मेरे पिता स्व. पुष्कर ठाकुर, मेरी माँ श्रीमती सुरेश्वरी ठाकुर और शरीके-हयात रेखा को। फिर बेटी-दामाद, बेटा-बहू-जया, ड़ॉ देवानन्द, भुवन, सोनिया, और उन सबके बीच हमारी नन्हीं और हर-दिल-अज़ीज़ नवासी देवायनी को। मेरे बड़े भाई-प्रो. मुरारी मधुसूदन ठाकुर और बड़े भाई जैसे अज़ीज़ जनाब फ़ज़्लुल मतीन साहब को। मेरे बहनोई कर्नल बी.एन.झा, बड़ी दीदी, छोटी दीदी, प्रभाकरजी-सिप्रू, मानिक- मन्दाकिनी, हिरण्य-रेवती, डॉली-बीरा, छोटी भाभी, बबलू-सोना, चित्रा-नीरज और ऋचा को। मामा ड़ॉ श्री धीरेन्द्र मिश्र, चेयरमैन जनाब तुषार कान्त ठाकुर, निर्मला जीजी, लल्ली जीजी, अनिता-अरविन्द जी, विमला जीजी, विकास, नुनू जी-लीला, भाई शम्भुनाथ, सतीश बाबू-अनुजा, जीबू बाबू, यामिनी-संजीव, लाल भाई, राजेश और मनोरंजन को।
याद करना चाहता हूँ अपने अज़ीज़ दोस्तों और शुभचिन्तकों-ड़ॉ. आदर्श किशोर और मंजरी, अनिल वैश्य, शान्तनु कुमार, युगल किशोर सिन्हा यानी भारत भारद्वाज, ज्योति कुमार सिन्हा, विजय शर्मा, ईश्वर बाबू, सरोज बाबू, चन्द्रभानु भारद्वाज, डॉ. मनोहर प्रभाकर, ओम थानवी, सुरेन्द्र चतुर्वेदी, अनिल लोढ़ा, सुधीर-नीलम, रूपा, चन्द्रभूषण ठाकुर, धीरेन्द्र त्यागी, देवराज-शीलू जी, डॉ. गंगा प्रसाद विमल, उपेन्द्र कुमार, कोमल निषाद बड़ौदा के श्री एस.के.झा को और ग़ज़ल गुलूकार उस्ताद अहमद हुसैन-मोहम्मद हुसैन, श्रीमती सुमन यादव और नीलम साहली को और उन तमाम नामी-गिरामी अदीबों और साहित्यकारों को जो नेक ख़्वाहिशात और दाद से नवाज़ते रहे हैं और जिनमें से कई ने मुझ जैसे हक़ीर लिखनेवाले को दोस्ती का दरजा दे रखा है-डॉ. नामवर सिंह, ड़ॉ. गोपीचन्द्र नारंग, श्री राजेन्द्र यादव, डॉ. केदारनाथ सिंह, डॉ. नन्द किशोर नवल, प्रो. उन्नाव चिश्ती, प्रो. शमीम हनफ़ी, प्रो. मोहम्मद हसन, डॉ. बशीर बद्र, जनाब वसीम बरेलवी और जनाब मख़्मूर सईदी को। इस मौक़े पर टौंक और अजमेर के पुराने दोस्तों को भूलना मुमकिन नहीं: मेरे बुहत अज़ीज़ो-मुहतरम मरहूम बिस्मिल सईदी साहब, मरहूम राशिद टौंकी, बज़्मी साहब, शौकत अली खाँ साहब, शाहीन साहब, डॉ. सईद, ड़ॉ पी.एन.शर्मा, पाती, तीती, प्रेम जी, डॉ. आत्माराम गर्ग, चन्द्र सिंह जी, केदार जी और ‘थर्सडे-क्लब’ के बाक़ी सारे साथी याद आते हैं। याद करने को लोग तो और इतने हैं कि सभी के नाम यहाँ दर्ज करने लगूँ तो प्रकाशक ख़फ़ा हो सकता है, इसलिए बाकी सब बुज़ुर्गों और अज़ीज़ो को इकट्ठा सलाम।
मुसव्विदे को तरतीब देने में श्री जगमोहन भनोट, श्रीमती विवेक मेवावाला, श्री अशोक वर्मा, श्री सतीश लहरी श्रीवास्तव, श्रीमती सिम्मी खन्ना और श्री दयानन्द शर्मा ने बहुत मदद की है, मैं उनका मशकूर हूँ। आख़िर में अपने अज़ीज़ों-संकर्षण ठाकुर और नीलकान्त को बहुत आशीर्वाद देता हूँ, कवर-डिज़ाइन की मनमोहक तस्वीर के लिए।
‘इन्तख़ाब’ प्रेस में जाए इससे पहले मैं उन सभी बुजुर्गों, अज़ीजों और साथियों को याद करना चाहता हूँ जिनकी हौसला-अफ़ज़ाई और मदद के बग़ैर या तो ‘ख़याल’ होता ही नहीं या फ़िर ज़िन्दा नहीं रहता, कहता-लिखता तो बिलकुल भी नहीं ! सबसे पहले मेरे पिता स्व. पुष्कर ठाकुर, मेरी माँ श्रीमती सुरेश्वरी ठाकुर और शरीके-हयात रेखा को। फिर बेटी-दामाद, बेटा-बहू-जया, ड़ॉ देवानन्द, भुवन, सोनिया, और उन सबके बीच हमारी नन्हीं और हर-दिल-अज़ीज़ नवासी देवायनी को। मेरे बड़े भाई-प्रो. मुरारी मधुसूदन ठाकुर और बड़े भाई जैसे अज़ीज़ जनाब फ़ज़्लुल मतीन साहब को। मेरे बहनोई कर्नल बी.एन.झा, बड़ी दीदी, छोटी दीदी, प्रभाकरजी-सिप्रू, मानिक- मन्दाकिनी, हिरण्य-रेवती, डॉली-बीरा, छोटी भाभी, बबलू-सोना, चित्रा-नीरज और ऋचा को। मामा ड़ॉ श्री धीरेन्द्र मिश्र, चेयरमैन जनाब तुषार कान्त ठाकुर, निर्मला जीजी, लल्ली जीजी, अनिता-अरविन्द जी, विमला जीजी, विकास, नुनू जी-लीला, भाई शम्भुनाथ, सतीश बाबू-अनुजा, जीबू बाबू, यामिनी-संजीव, लाल भाई, राजेश और मनोरंजन को।
याद करना चाहता हूँ अपने अज़ीज़ दोस्तों और शुभचिन्तकों-ड़ॉ. आदर्श किशोर और मंजरी, अनिल वैश्य, शान्तनु कुमार, युगल किशोर सिन्हा यानी भारत भारद्वाज, ज्योति कुमार सिन्हा, विजय शर्मा, ईश्वर बाबू, सरोज बाबू, चन्द्रभानु भारद्वाज, डॉ. मनोहर प्रभाकर, ओम थानवी, सुरेन्द्र चतुर्वेदी, अनिल लोढ़ा, सुधीर-नीलम, रूपा, चन्द्रभूषण ठाकुर, धीरेन्द्र त्यागी, देवराज-शीलू जी, डॉ. गंगा प्रसाद विमल, उपेन्द्र कुमार, कोमल निषाद बड़ौदा के श्री एस.के.झा को और ग़ज़ल गुलूकार उस्ताद अहमद हुसैन-मोहम्मद हुसैन, श्रीमती सुमन यादव और नीलम साहली को और उन तमाम नामी-गिरामी अदीबों और साहित्यकारों को जो नेक ख़्वाहिशात और दाद से नवाज़ते रहे हैं और जिनमें से कई ने मुझ जैसे हक़ीर लिखनेवाले को दोस्ती का दरजा दे रखा है-डॉ. नामवर सिंह, ड़ॉ. गोपीचन्द्र नारंग, श्री राजेन्द्र यादव, डॉ. केदारनाथ सिंह, डॉ. नन्द किशोर नवल, प्रो. उन्नाव चिश्ती, प्रो. शमीम हनफ़ी, प्रो. मोहम्मद हसन, डॉ. बशीर बद्र, जनाब वसीम बरेलवी और जनाब मख़्मूर सईदी को। इस मौक़े पर टौंक और अजमेर के पुराने दोस्तों को भूलना मुमकिन नहीं: मेरे बुहत अज़ीज़ो-मुहतरम मरहूम बिस्मिल सईदी साहब, मरहूम राशिद टौंकी, बज़्मी साहब, शौकत अली खाँ साहब, शाहीन साहब, डॉ. सईद, ड़ॉ पी.एन.शर्मा, पाती, तीती, प्रेम जी, डॉ. आत्माराम गर्ग, चन्द्र सिंह जी, केदार जी और ‘थर्सडे-क्लब’ के बाक़ी सारे साथी याद आते हैं। याद करने को लोग तो और इतने हैं कि सभी के नाम यहाँ दर्ज करने लगूँ तो प्रकाशक ख़फ़ा हो सकता है, इसलिए बाकी सब बुज़ुर्गों और अज़ीज़ो को इकट्ठा सलाम।
मुसव्विदे को तरतीब देने में श्री जगमोहन भनोट, श्रीमती विवेक मेवावाला, श्री अशोक वर्मा, श्री सतीश लहरी श्रीवास्तव, श्रीमती सिम्मी खन्ना और श्री दयानन्द शर्मा ने बहुत मदद की है, मैं उनका मशकूर हूँ। आख़िर में अपने अज़ीज़ों-संकर्षण ठाकुर और नीलकान्त को बहुत आशीर्वाद देता हूँ, कवर-डिज़ाइन की मनमोहक तस्वीर के लिए।
-प्रियदर्शी ठाकुर
आँसू
आँसू की कोई क़ीमत नहीं होती
बेशक़ीमत तो होता है मोती
लेकिन सुनो,
इन सब से बढ़ कर है
वक़्त की उलट-फेर-
आँसू को मोती
मोती को आँसू
होते नहीं लगती देर
मेरी राय मानो
दोनों की क़द्र जानो
बेशक़ीमत तो होता है मोती
लेकिन सुनो,
इन सब से बढ़ कर है
वक़्त की उलट-फेर-
आँसू को मोती
मोती को आँसू
होते नहीं लगती देर
मेरी राय मानो
दोनों की क़द्र जानो
ग़ज़ल
नेकियों की छोड़िये, अपनी बदी1 को देखिये
रौशनी फिर देखियेगा, तीरगी2 को देखिये
शम्मा के चारों तरफ़ परवानगी3 को दिखेये
मौत की आग़ोश में ज़िन्दादिली को देखिये
इक नई सूरत नज़र में आएगी तस्वीर की
ज़िन्दगी से दूर जाकर ज़िन्दगी को देखिये
साहिलों4 से मश्वरा देना बहुत आसान है
बात जब है ग़र्क़5 होकर तिश्नगी6 को देखिये
आख़िरे-शब7 फूल से सरगोशियों8 में हमकलाम9
ओस की बूँदों नहाई चाँदनी को देखिये
सैकड़ों सदियों में आयी थी ज़रा तहज़ीब10 कुछ
आदमी खाने लगे फिर आदमी को देखिये
उसकी आँखें आइना हैं ग़मज़दा11 दिल का मेरे
उसकी आँखों में भला किसकी ख़ुशी को देखिये
राब्ता12 शायद निकल आये दिलों के दरिमियाँ13
दोस्ती के ज़ाविये14 से दुश्मनी को देखिये
क़ुरबतें15 ऐसी कि जिस्मो-जान16 का रिश्ता ‘ख़याल’
फ़ासले इतने कि जैसे अजनबी को देखिये
रौशनी फिर देखियेगा, तीरगी2 को देखिये
शम्मा के चारों तरफ़ परवानगी3 को दिखेये
मौत की आग़ोश में ज़िन्दादिली को देखिये
इक नई सूरत नज़र में आएगी तस्वीर की
ज़िन्दगी से दूर जाकर ज़िन्दगी को देखिये
साहिलों4 से मश्वरा देना बहुत आसान है
बात जब है ग़र्क़5 होकर तिश्नगी6 को देखिये
आख़िरे-शब7 फूल से सरगोशियों8 में हमकलाम9
ओस की बूँदों नहाई चाँदनी को देखिये
सैकड़ों सदियों में आयी थी ज़रा तहज़ीब10 कुछ
आदमी खाने लगे फिर आदमी को देखिये
उसकी आँखें आइना हैं ग़मज़दा11 दिल का मेरे
उसकी आँखों में भला किसकी ख़ुशी को देखिये
राब्ता12 शायद निकल आये दिलों के दरिमियाँ13
दोस्ती के ज़ाविये14 से दुश्मनी को देखिये
क़ुरबतें15 ऐसी कि जिस्मो-जान16 का रिश्ता ‘ख़याल’
फ़ासले इतने कि जैसे अजनबी को देखिये
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1. बुराई, 2.अँधेरा, 3.परवानों का न्यौछावर होना, 4.किनारों, 5.डूबकर, 6.प्यास, 7.रात के आख़िरी पहर, 8.फुसफुसाकर, 9.बात करते हुए, 10.संस्कृति, 11.दु:खी, 12.मेल-जोल, 13.बीच, 14.दृष्टिकोण, 15.नज़दीकियाँ, 16.बदन और जान।
आबे-हयात
और इक दिन निकल गया आख़िर
हाल1 माज़ी2 में ढल गया आख़िर
एक चुल्लू मिला था आबे-हयात3
उँगलियों से फिसल गया आख़िर
रूह रेशम-सी क्या हुई जाने !
जिस्म सोने-सा जल गया आख़िर
ग़म ही ग़म हों हज़ार दुनिया में
दिल भी दिल है बहल गया आख़िर
शम्अ परवाने हैं न साग़रो-मय4
रंगे-महफ़िल बदल गया आख़िर
मंज़िलें थीं, रहीं जहाँ की तहाँ
दिल से ये भी खलल गया आख़िर
बेवफ़ा बावफ़ा5 हुआ है ‘ख़याल’
तेरा जादू भी चल गया आख़िर
हाल1 माज़ी2 में ढल गया आख़िर
एक चुल्लू मिला था आबे-हयात3
उँगलियों से फिसल गया आख़िर
रूह रेशम-सी क्या हुई जाने !
जिस्म सोने-सा जल गया आख़िर
ग़म ही ग़म हों हज़ार दुनिया में
दिल भी दिल है बहल गया आख़िर
शम्अ परवाने हैं न साग़रो-मय4
रंगे-महफ़िल बदल गया आख़िर
मंज़िलें थीं, रहीं जहाँ की तहाँ
दिल से ये भी खलल गया आख़िर
बेवफ़ा बावफ़ा5 हुआ है ‘ख़याल’
तेरा जादू भी चल गया आख़िर
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1.वर्तमान, 2.अतीत, 3.अमृत, जीवन का पानी, 4.प्याले और शराब, 5.वफ़ादार।
जिहादो-जंग वालों के नाम
अलह्दगी का सबब1 तो हमें नहीं मालूम
मगर मुराद2 ये हरगिज़ नहीं रही होगी
कि ता-क़यामतो-ता हश्र रोज़ो-शब3 दोनों
फ़रीक़4 ऐसे ही आपस में एक दूजे को
तबाहियों के बलाख़ेज़5 ज़ख़्म देते रहें
हज़ारहा6 बेगुनाहों की जान लेते रहें
अज़ाब7 लाया करें रोज़ दूसरे के लिए
निसाबे-मज़हबो-मिल्लत के फ़लसफ़े8 के लिए
ज़मीं से अम्न उठा दें कि आक़बत9 सँवरें
मुख़ालिफ़ों10 को मिटा दें कि ख़ुद कभी न मरें
भर-आए ज़ख़्म भी कर दें कुरेद कर नासूर
मुख़ालिफ़त11 के लिए कोई शर्त हो मंज़ूर
कुल एक पुश्त12 की मासूमियत को दे के फ़रेब
कम-उम्र बच्चों के फूलों-से नर्म ज़ह्नों13 को
कि दर्स14 देने को हैवानियत के पेशे का
सुपुर्दे- दस्ते- शयातीन15 कर दिया जाये
हो वादिए-गंगो-जमन16 कि पाँच नदियों का
हरा-भरा हो चमनज़ार17 जो भी सदियों का
मगर मुराद2 ये हरगिज़ नहीं रही होगी
कि ता-क़यामतो-ता हश्र रोज़ो-शब3 दोनों
फ़रीक़4 ऐसे ही आपस में एक दूजे को
तबाहियों के बलाख़ेज़5 ज़ख़्म देते रहें
हज़ारहा6 बेगुनाहों की जान लेते रहें
अज़ाब7 लाया करें रोज़ दूसरे के लिए
निसाबे-मज़हबो-मिल्लत के फ़लसफ़े8 के लिए
ज़मीं से अम्न उठा दें कि आक़बत9 सँवरें
मुख़ालिफ़ों10 को मिटा दें कि ख़ुद कभी न मरें
भर-आए ज़ख़्म भी कर दें कुरेद कर नासूर
मुख़ालिफ़त11 के लिए कोई शर्त हो मंज़ूर
कुल एक पुश्त12 की मासूमियत को दे के फ़रेब
कम-उम्र बच्चों के फूलों-से नर्म ज़ह्नों13 को
कि दर्स14 देने को हैवानियत के पेशे का
सुपुर्दे- दस्ते- शयातीन15 कर दिया जाये
हो वादिए-गंगो-जमन16 कि पाँच नदियों का
हरा-भरा हो चमनज़ार17 जो भी सदियों का
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1.अलग होने के कारण, 2.उद्देश्य, 3.क़यामत और हश्र तक दिन-रात, 4.अलग होने वाले पक्षकार, 5.भयानक, 6.हज़ारों, 7.प्रलय, 8.धर्मग्रन्थों की फिलॉसफी, 9.परलोक, 10.प्रतिद्वन्द्वी, 11.प्रतिद्वन्द्विता, 12.पीढ़ी, 13.दिमाग़ों, 14.सबक़, 15.शैतानों के हाथों सुपुर्द, 16.गंगा-यमुना की वादी, 17.बाग़।
1.अलग होने के कारण, 2.उद्देश्य, 3.क़यामत और हश्र तक दिन-रात, 4.अलग होने वाले पक्षकार, 5.भयानक, 6.हज़ारों, 7.प्रलय, 8.धर्मग्रन्थों की फिलॉसफी, 9.परलोक, 10.प्रतिद्वन्द्वी, 11.प्रतिद्वन्द्विता, 12.पीढ़ी, 13.दिमाग़ों, 14.सबक़, 15.शैतानों के हाथों सुपुर्द, 16.गंगा-यमुना की वादी, 17.बाग़।
उजाड़ कर उसे वीरान कर दिया जाये
हर एक बाग़ को शमशान कर दिया जाये
तमाम दुनिया से ला-ला के अस्लह-ओ-बारूद1
मुजाहिदों2 को बजुज़3 लैस कर दिया जाए
हवाओ-आब4 में यूँ ज़हर भर दिया जाए
जवान बेटों की लाशों पे सर धुनें माँएँ
हवाएँ दोनों तरफ़ सरहदों के मर्सिए5 गायें
सुहागनों में सियापे6 की चीख़ें पड़ती रहें
फ़ज़ा में धज्जियाँ लुटी इस्मतों7 की उड़ती रहें
तमाम दैरो-हरम8 जो भी हों मुख़ालिफ़ के
इक-एक शहरो-दयारो-मकानो-मीनार9
बस एक धमाके से कर दें तमाम ही मिस्मार10
तबाहियाँ ये मगर हैं मुनासिबो-लाज़िम11 ?
कि हो रहा है कोई जुर्म, कोई है मुजरिम12 ?
बताओ, खुद से कभी तुमने ये सवाल किया ?
कभी ये सोच के देखा, कभी ख़याल किया ?
कि पूजा-पाठ भी उस रब13 की ही अक़ीदत14 है
बनाम जिसके तुम्हारी भी हर इबादत15 है
वही है प्रेम का मतलब, जो मानिए-मोहब्बत16 है
वो ज़र्रे-ज़र्रे17 में है, पर उसकी एक अज़्मत18 है
ख़ुदा के नाम तो दो चार क्या, हज़ारों हैं
मगर वो एक ही है, कि दो नहीं होगा
हमारे बीच बुरा है, सो वो नहीं होगा
हर एक बाग़ को शमशान कर दिया जाये
तमाम दुनिया से ला-ला के अस्लह-ओ-बारूद1
मुजाहिदों2 को बजुज़3 लैस कर दिया जाए
हवाओ-आब4 में यूँ ज़हर भर दिया जाए
जवान बेटों की लाशों पे सर धुनें माँएँ
हवाएँ दोनों तरफ़ सरहदों के मर्सिए5 गायें
सुहागनों में सियापे6 की चीख़ें पड़ती रहें
फ़ज़ा में धज्जियाँ लुटी इस्मतों7 की उड़ती रहें
तमाम दैरो-हरम8 जो भी हों मुख़ालिफ़ के
इक-एक शहरो-दयारो-मकानो-मीनार9
बस एक धमाके से कर दें तमाम ही मिस्मार10
तबाहियाँ ये मगर हैं मुनासिबो-लाज़िम11 ?
कि हो रहा है कोई जुर्म, कोई है मुजरिम12 ?
बताओ, खुद से कभी तुमने ये सवाल किया ?
कभी ये सोच के देखा, कभी ख़याल किया ?
कि पूजा-पाठ भी उस रब13 की ही अक़ीदत14 है
बनाम जिसके तुम्हारी भी हर इबादत15 है
वही है प्रेम का मतलब, जो मानिए-मोहब्बत16 है
वो ज़र्रे-ज़र्रे17 में है, पर उसकी एक अज़्मत18 है
ख़ुदा के नाम तो दो चार क्या, हज़ारों हैं
मगर वो एक ही है, कि दो नहीं होगा
हमारे बीच बुरा है, सो वो नहीं होगा
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1.अस्त्र-शस्त्र और बारूद, 2.धर्म युद्ध करने वाले, 3.अतिरिक्त, 4.हवा और पानी, 5.शोक-गीत, 6.मृत्यु-शोक, 7.इज्जत, 8.मन्दिर-मस्जिद, 9.शहर-कस्बे मकान और मीनार, 10.ध्वस्त, 11.सही और ज़रूरी, 12.अपराध और अपराधी, 13.ईश्वर, 14.निष्ठा, 15.प्रार्थना, 16.मोहब्बत का अर्थ, 17.कण-कण, 18.महानता।
1.अस्त्र-शस्त्र और बारूद, 2.धर्म युद्ध करने वाले, 3.अतिरिक्त, 4.हवा और पानी, 5.शोक-गीत, 6.मृत्यु-शोक, 7.इज्जत, 8.मन्दिर-मस्जिद, 9.शहर-कस्बे मकान और मीनार, 10.ध्वस्त, 11.सही और ज़रूरी, 12.अपराध और अपराधी, 13.ईश्वर, 14.निष्ठा, 15.प्रार्थना, 16.मोहब्बत का अर्थ, 17.कण-कण, 18.महानता।
मगर ये ज़िद है तुम्हारी कि ख़ून बहता रहे
फिर अब सितम भी कोई क्यों ख़ामोश सहता रहे
तुम्हें ये ज़िद है कि हम लख़्त-लख़्त1 हो जायें
हमारा क़ौल2 है, अब और हम न टूटेंगे
हमें क़ुबूल नहीं नादिरो-गोरी3 को याद करते रहें
हमारे जिस्म के हिस्से तो मुख़्तलिफ़4 हैं बहुतहम अपने ज़हन से किस-किस को बाद5 करते रहें
पर आओ बात करें फिर कि मुद्दआ6 क्या है
बताओ ऐसी तबाही का ख़ूँबहा7 क्या है
न लें जो भाई के बच्चों का हम लहू सर पर
मगर न होगा ये सब हमसे ऐसे छुप छुप कर
ये साज़िशो-शबख़ून8 शातिरों9 की तरह
ये पीठ पीछे की यल्ग़ार10 कायरों की तरह
हम आये तंग तो मैदाने-जंग11 आयेंगे
न सर कटाएँगे अपना न हम झुकायेंगे
खुली फ़ज़ाओं12 में हम तुमको आज़माऐंगे
दुआ यही है कि बातों से निकले राह कोई
हमारे हाथों से हो भाई क्यों तबाह कोई
‘ख़याल’ आता है फिर ये कि पाण्डवों को भी
जिहादो-जंग13 से आख़िर को क्या हुआ हासिल !
अलहदगी का सबब तो हमें नहीं मालूम
मगर मुराद ये हरगिज़ नहीं रही होगी
फिर अब सितम भी कोई क्यों ख़ामोश सहता रहे
तुम्हें ये ज़िद है कि हम लख़्त-लख़्त1 हो जायें
हमारा क़ौल2 है, अब और हम न टूटेंगे
हमें क़ुबूल नहीं नादिरो-गोरी3 को याद करते रहें
हमारे जिस्म के हिस्से तो मुख़्तलिफ़4 हैं बहुतहम अपने ज़हन से किस-किस को बाद5 करते रहें
पर आओ बात करें फिर कि मुद्दआ6 क्या है
बताओ ऐसी तबाही का ख़ूँबहा7 क्या है
न लें जो भाई के बच्चों का हम लहू सर पर
मगर न होगा ये सब हमसे ऐसे छुप छुप कर
ये साज़िशो-शबख़ून8 शातिरों9 की तरह
ये पीठ पीछे की यल्ग़ार10 कायरों की तरह
हम आये तंग तो मैदाने-जंग11 आयेंगे
न सर कटाएँगे अपना न हम झुकायेंगे
खुली फ़ज़ाओं12 में हम तुमको आज़माऐंगे
दुआ यही है कि बातों से निकले राह कोई
हमारे हाथों से हो भाई क्यों तबाह कोई
‘ख़याल’ आता है फिर ये कि पाण्डवों को भी
जिहादो-जंग13 से आख़िर को क्या हुआ हासिल !
अलहदगी का सबब तो हमें नहीं मालूम
मगर मुराद ये हरगिज़ नहीं रही होगी
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1.टुकड़े-टुकड़े, 2.प्रतिज्ञा, 3.नादिरशाह और मोहम्मद गोरी, 4.भिन्न-भिन्न प्रकार के, 5.कम करना, 6.मूल बात, 7.हत्या का बदला, 8.षड्यन्त्र और रात को छिप कर हमला, 9.बदमाश, 10.हमला, 11.लड़ाई के मैदान में, 12.वातावरण, 13.धर्मयुद्ध और लड़ाई।
1.टुकड़े-टुकड़े, 2.प्रतिज्ञा, 3.नादिरशाह और मोहम्मद गोरी, 4.भिन्न-भिन्न प्रकार के, 5.कम करना, 6.मूल बात, 7.हत्या का बदला, 8.षड्यन्त्र और रात को छिप कर हमला, 9.बदमाश, 10.हमला, 11.लड़ाई के मैदान में, 12.वातावरण, 13.धर्मयुद्ध और लड़ाई।
ग़ज़ल
दावे दानाई1 के, अन्दाज़े-बयाँ2 के, साहब
सब हैं अफ़सूनो-फ़रेब3 अपने गुमाँ4 के साहब
हम समझ जाते हैं लहजे से ज़बाँ5 के साहब
आप भी उधरे6 के हैं, हम हैं जहाँ के साहब *
सरहदे-शहरे-शनासा7 से निकल कर देखें
कौन जागीर है ये, हम हैं कहाँ के साहब !
जिस तरह ज़ेरे-जमीं8 कोई मता-ए-अज्दाद9
राज़ सीने में है कुछ सोज़े-निहाँ10 के साहब
चलिए माना कि नहीं आपका सानी11 कोई
शेर आगे तो पढ़ें आहो-फ़ुग़ाँ12 के, साहब
अपनी छोटी-सी ये दुनियाँ भी मिटा डालेंगे+
ये तलबगार13 किसी और जहाँ के साहब
सब हैं अफ़सूनो-फ़रेब3 अपने गुमाँ4 के साहब
हम समझ जाते हैं लहजे से ज़बाँ5 के साहब
आप भी उधरे6 के हैं, हम हैं जहाँ के साहब *
सरहदे-शहरे-शनासा7 से निकल कर देखें
कौन जागीर है ये, हम हैं कहाँ के साहब !
जिस तरह ज़ेरे-जमीं8 कोई मता-ए-अज्दाद9
राज़ सीने में है कुछ सोज़े-निहाँ10 के साहब
चलिए माना कि नहीं आपका सानी11 कोई
शेर आगे तो पढ़ें आहो-फ़ुग़ाँ12 के, साहब
अपनी छोटी-सी ये दुनियाँ भी मिटा डालेंगे+
ये तलबगार13 किसी और जहाँ के साहब
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1.बुद्धिमानी, 2.बयान की शैली, 3.इन्द्रजाल, धोखा, 4.घमण्ड, 5.बोली, 6.उधर ही; हिन्दी या उर्दू अदब का शब्द न होने पर भी पूर्वी प्रदेशों में बोलचाल की भाषा में अक्सर प्रयोग होता है। * यह मिसरा उस्ताद ‘मीर’ के एक मिसरे जैसा है। 7.जाने-पहचाने शहर की सीमा, 8.ज़मीन में दबी, 9.पुरखों की सम्पत्ति, 10.छिपे हुए दर्द, 11.टक्कर का, 12.आह और रोना धोना, 13.इच्छुक + 11.सितम्बर, 2001
1.बुद्धिमानी, 2.बयान की शैली, 3.इन्द्रजाल, धोखा, 4.घमण्ड, 5.बोली, 6.उधर ही; हिन्दी या उर्दू अदब का शब्द न होने पर भी पूर्वी प्रदेशों में बोलचाल की भाषा में अक्सर प्रयोग होता है। * यह मिसरा उस्ताद ‘मीर’ के एक मिसरे जैसा है। 7.जाने-पहचाने शहर की सीमा, 8.ज़मीन में दबी, 9.पुरखों की सम्पत्ति, 10.छिपे हुए दर्द, 11.टक्कर का, 12.आह और रोना धोना, 13.इच्छुक + 11.सितम्बर, 2001
एक लम्हे की तबाही ये चुनेगी सदियों+
परखचे उड़ते हुए अहदे-अमाँ1 के, साहब
अब्रे-रेज़ा2 से ढँका शहरे-चराग़ाँ3 उनका+
आज औसान-ख़ता4-से हैं जहाँ के साहब
दर-हक़ीक़त5 हैं ख़ुदादाद6 ये अशआर7 ‘ख़याल’
वर्ना8 हम और सुख़नवर9 ! ऐ कहाँ के साहब !
परखचे उड़ते हुए अहदे-अमाँ1 के, साहब
अब्रे-रेज़ा2 से ढँका शहरे-चराग़ाँ3 उनका+
आज औसान-ख़ता4-से हैं जहाँ के साहब
दर-हक़ीक़त5 हैं ख़ुदादाद6 ये अशआर7 ‘ख़याल’
वर्ना8 हम और सुख़नवर9 ! ऐ कहाँ के साहब !
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1.सुरक्षा-शान्ति का युग, 2.धूल-कण के बादल, 3.जगमगाता हुआ शहर, 4.जिसके होश-हवास ग़ायब हों, 5.दरअसल, 6.ईश्वर के दिए हुए, 7.शेर का बहुवचन, 8.नदी तो, 9.शायर। + 11 सितम्बर, 2001
1.सुरक्षा-शान्ति का युग, 2.धूल-कण के बादल, 3.जगमगाता हुआ शहर, 4.जिसके होश-हवास ग़ायब हों, 5.दरअसल, 6.ईश्वर के दिए हुए, 7.शेर का बहुवचन, 8.नदी तो, 9.शायर। + 11 सितम्बर, 2001
ग़ज़ल
निकल पड़े हो सफ़र को तो सोचना क्या है
जो है तो ठीक, नहीं है तो रास्ता क्या है !
कहाँ तलाश करें और अपनी ख़ुशियों को
तुम्हारे पास नहीं अब तो ढूँढ़ना क्या है !
पलट के आने की क़ुव्वत1 उसे नहीं हासिल
कि ज़िक्रे-अहदे-गुज़िश्ता2 से फ़ायदा क्या है
हुआ, तो कैसे किया ? गर नहीं तो क्यों न हुआ ?
ख़बरनवीस3, बता तो ये माजरा4 क्या है
पड़े रहो तो समन्दर हैं सात दूरी के
निकल पड़ो तो सितारों का फ़ासला क्या है
कोई भी साथ नहीं जब हसीन कहने को
नज़रनवाज नज़्ज़रों5 का मर्त्तबा6 क्या है
‘ख़याल’ वादा करे वो तो कुछ न कहना तुम
हज़ार देखे हैं, इक और बेवफा क्या है !
जो है तो ठीक, नहीं है तो रास्ता क्या है !
कहाँ तलाश करें और अपनी ख़ुशियों को
तुम्हारे पास नहीं अब तो ढूँढ़ना क्या है !
पलट के आने की क़ुव्वत1 उसे नहीं हासिल
कि ज़िक्रे-अहदे-गुज़िश्ता2 से फ़ायदा क्या है
हुआ, तो कैसे किया ? गर नहीं तो क्यों न हुआ ?
ख़बरनवीस3, बता तो ये माजरा4 क्या है
पड़े रहो तो समन्दर हैं सात दूरी के
निकल पड़ो तो सितारों का फ़ासला क्या है
कोई भी साथ नहीं जब हसीन कहने को
नज़रनवाज नज़्ज़रों5 का मर्त्तबा6 क्या है
‘ख़याल’ वादा करे वो तो कुछ न कहना तुम
हज़ार देखे हैं, इक और बेवफा क्या है !
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1.शक्ति, 2.ग़ुजर चुके समय का ज़िक्र, 3.पत्रकार, 4.चक्कर, 5.सुन्दर दृश्यों, 6.हैसियत, जगह।
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1.आलसी, 2.साहित्य पसन्द करने वाले, 3.प्रकाशित, 4.क्लासिक, 5.सुबह, 6.इन्तज़ार की रात। 7.आँसू भरी, 8.चमत्कार, 9.राजा जैसा, 10.मुकुट पहने हुए।
1.शक्ति, 2.ग़ुजर चुके समय का ज़िक्र, 3.पत्रकार, 4.चक्कर, 5.सुन्दर दृश्यों, 6.हैसियत, जगह।
ग़ज़ल
जब आँख ही न रही, अश्कबार1 हो कैसे
अब आए दिन तो ये दिल बेक़रार हो कैसे
ख़ुदा भी अबके गवाही न दे सका मेरी
ये मोजज़ा2 भी कि अब बार-बार हो कैसे
कभी जनाब ने देखा न होगा आईना
उन्हें और आपसे, अल्लाह ! प्यार हो कैसे
सुकून जिस से मिले, पाँव पड़ के ले लेना
मेरे मिज़ाज को है नागवार, हो कैसे !
ग़रीब दिल को तबीयत मिली है शाहाना3
है बादशाह मगर ताजदार4 हो कैसे
हरेक शै में तुम्हीं तुम दिखाई देने लगे
कि अपनी आँखों पे अब ऐतबार हो कैसे
कभी अकेले में तुमसे हुनर ये सीखेंगे
कि आँसुओं की नदी हम से पार हो कैसे
तन-आसाँ5 इतने हुए जा रहे हैं अहले-अदब6
किताब शाये7 हुई, शाहकार8 हो कैसे
‘ख़याल’ तू ही बता दे कि सिर्फ़ वादे पर
सहर9 के नाम शबे-इन्तज़ार10 हो कैसे
अब आए दिन तो ये दिल बेक़रार हो कैसे
ख़ुदा भी अबके गवाही न दे सका मेरी
ये मोजज़ा2 भी कि अब बार-बार हो कैसे
कभी जनाब ने देखा न होगा आईना
उन्हें और आपसे, अल्लाह ! प्यार हो कैसे
सुकून जिस से मिले, पाँव पड़ के ले लेना
मेरे मिज़ाज को है नागवार, हो कैसे !
ग़रीब दिल को तबीयत मिली है शाहाना3
है बादशाह मगर ताजदार4 हो कैसे
हरेक शै में तुम्हीं तुम दिखाई देने लगे
कि अपनी आँखों पे अब ऐतबार हो कैसे
कभी अकेले में तुमसे हुनर ये सीखेंगे
कि आँसुओं की नदी हम से पार हो कैसे
तन-आसाँ5 इतने हुए जा रहे हैं अहले-अदब6
किताब शाये7 हुई, शाहकार8 हो कैसे
‘ख़याल’ तू ही बता दे कि सिर्फ़ वादे पर
सहर9 के नाम शबे-इन्तज़ार10 हो कैसे
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1.आलसी, 2.साहित्य पसन्द करने वाले, 3.प्रकाशित, 4.क्लासिक, 5.सुबह, 6.इन्तज़ार की रात। 7.आँसू भरी, 8.चमत्कार, 9.राजा जैसा, 10.मुकुट पहने हुए।
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