गजलें और शायरी >> उर्दू शायरी मेरी पसंद उर्दू शायरी मेरी पसंदश्रेयांस प्रसाद जैन
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प्रस्तुत है उर्दू शायरी...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इसमें मीर गालिब दाग इकबाल,फिराक,फैज साहिर वगैरह के कितने शेर रोजमर्रा
की बातचीत में इतने घुल-मिल चुके हैं कि उनका इस्तेमाल किये बगैर फूलों का
एक गुलदस्ता तैयार किया जाय,जिससे उनकी खुशबू ज्यादा-से-ज्यादा
काव्य-प्रेमियों तक पहुँच सके।
चंद सतरें अपनी ओर से
प्रथम संस्करण सेअपने वंश और परिवार के जिस वातावरण में मैं
जनमा और बड़ा
हुआ, उसमें धर्म, दर्शन और साहित्य के संस्कार विरासत में ही मिल जाते रहे
हैं-जो जितना ग्रहण कर सके।
बचपन और तरुणाई का काल उत्तर प्रदेश में, नजीबाबाद में, बीता जहाँ एक जाने-माने ज़मींदार परिवार का सदस्य होने के नाते मेरे सम्बन्धों का दायरा विस्तृत हुआ और उस संस्कृति से परिचय प्राप्त हुआ जिसे देश और प्रान्त की भाई-चारे की मिली-जुली संस्कृति कहा जाता है। इस परिवेश में दोहों और चौपाइयों के साथ उर्दू के शे’र शामिल हो गये। उर्दू के शे’र प्राय: ग़जल के अंश होते हैं लेकिन उनकी खूबी यह है कि हर शे’र अपने आप में अलग मज़मून (विषय) बन जाता है। एक अच्छे शे’र का गठन इतना चुस्त होता है और विषय-वस्तु को सार रूप में कहने की पद्धति इतनी आकर्षक कि प्रसंग के अनुसार शे’र कहने पर बात में चार चाँद लग जाते हैं। जो बात बिहारी के दोहों के सम्बन्ध में विख्यात है कि ‘देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर’ यह बात अच्छे अशआर के सम्बन्ध में भी ठीक बैठती है। अन्तर यह है कि बिहारी के दोहों में अर्थ की गहनता है इसलिए शब्द गूढ़ हो जाते हैं। उनका चमत्कार बौद्धिक है। उर्दू का शे’र जितना सरल होता है उतना ही दिलकश हो जाता है।
मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ कि मुझे शायरी का जीवन्त परिचय मिला। शायरी के संकलनों ने मुझे सदा आकर्षित किया और जो शे’र मुझे पसंद आये, वे एक-दो बार पढ़ने-कहने पर कण्ठस्थ होते गये। लेकिन खा़स-ख़ास शे’र मुझे उन अनेक मित्रों और सुधी परिचितों से सुनने को मिले जिन्हें बातचीत के सिलसिले में मौज़ूं शे’र कहने का शौक़ है, इल्म है।
शुरू में सोचा नहीं था कि अपनी पसंद के इन अशआर को प्रकाशित करने का प्रसंग आएगा। लेकिन परिवार के सदस्यों और मित्रों का आग्रह है कि यदि ये अप्रकाशित रहे तो मैं अपने सुख की अनुभूति से दूसरों को वंचित रखूँगा।
अब, यह छोटा-सा संकलन आपके हाथ में है। आभार व्यक्त करूँ तो सबसे पहले उन शायरों का जिनका कलाम इसमें संकलित है। फिर उन सहयोगियों का जिन्होंने इसे तरतीब देने में मदद की। विषय के अनुसार वर्गीकरण के लिए श्री नीरज जैन और उनके दोस्त शायर, बज़्मे-अदब, सतना के सेक्रेटरी जनाब रियाज़ अहमद श्यामनगरी का शुक्रगुजा़र हूँ। पाण्डुलिपि की तैयारी में श्री अश्विनी कुमार जोशी ने पूरी रुचि ली। जिन अन्य साथियों और सहयोगियों का नाम देना चाहता हूँ, उन्होंने स्वयं निर्णय ले लिया कि उपर्युक्त नाम ही पर्याप्त हैं।
जैसा मैंने कहा, इस संकलन को प्रकाशित करने का विचार नहीं था, इसलिए पढ़ते या सुनते समय यह सावधानी नहीं रखी जा सकी कि शायर का नाम दर्ज कर लिया जाय। कठिन शब्दों के अर्थ दे दिये गये हैं ताकि हिन्दी पाठकों को कठिनाई न हो। संकलन पर अन्तिम नज़र डाली तो लगा कि बहुत-से अच्छे शे’र छूट गये हैं। यों निर्दोष तो संसार में कुछ होता नहीं है; जो निर्दोष है वह वीतराग है। मेरी पसंद ने यदि आपकी पसंद के साथ थोड़ा-बहुत भी मेल खाया तो मुझे जानकर सुख होगा।
बचपन और तरुणाई का काल उत्तर प्रदेश में, नजीबाबाद में, बीता जहाँ एक जाने-माने ज़मींदार परिवार का सदस्य होने के नाते मेरे सम्बन्धों का दायरा विस्तृत हुआ और उस संस्कृति से परिचय प्राप्त हुआ जिसे देश और प्रान्त की भाई-चारे की मिली-जुली संस्कृति कहा जाता है। इस परिवेश में दोहों और चौपाइयों के साथ उर्दू के शे’र शामिल हो गये। उर्दू के शे’र प्राय: ग़जल के अंश होते हैं लेकिन उनकी खूबी यह है कि हर शे’र अपने आप में अलग मज़मून (विषय) बन जाता है। एक अच्छे शे’र का गठन इतना चुस्त होता है और विषय-वस्तु को सार रूप में कहने की पद्धति इतनी आकर्षक कि प्रसंग के अनुसार शे’र कहने पर बात में चार चाँद लग जाते हैं। जो बात बिहारी के दोहों के सम्बन्ध में विख्यात है कि ‘देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर’ यह बात अच्छे अशआर के सम्बन्ध में भी ठीक बैठती है। अन्तर यह है कि बिहारी के दोहों में अर्थ की गहनता है इसलिए शब्द गूढ़ हो जाते हैं। उनका चमत्कार बौद्धिक है। उर्दू का शे’र जितना सरल होता है उतना ही दिलकश हो जाता है।
मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ कि मुझे शायरी का जीवन्त परिचय मिला। शायरी के संकलनों ने मुझे सदा आकर्षित किया और जो शे’र मुझे पसंद आये, वे एक-दो बार पढ़ने-कहने पर कण्ठस्थ होते गये। लेकिन खा़स-ख़ास शे’र मुझे उन अनेक मित्रों और सुधी परिचितों से सुनने को मिले जिन्हें बातचीत के सिलसिले में मौज़ूं शे’र कहने का शौक़ है, इल्म है।
शुरू में सोचा नहीं था कि अपनी पसंद के इन अशआर को प्रकाशित करने का प्रसंग आएगा। लेकिन परिवार के सदस्यों और मित्रों का आग्रह है कि यदि ये अप्रकाशित रहे तो मैं अपने सुख की अनुभूति से दूसरों को वंचित रखूँगा।
अब, यह छोटा-सा संकलन आपके हाथ में है। आभार व्यक्त करूँ तो सबसे पहले उन शायरों का जिनका कलाम इसमें संकलित है। फिर उन सहयोगियों का जिन्होंने इसे तरतीब देने में मदद की। विषय के अनुसार वर्गीकरण के लिए श्री नीरज जैन और उनके दोस्त शायर, बज़्मे-अदब, सतना के सेक्रेटरी जनाब रियाज़ अहमद श्यामनगरी का शुक्रगुजा़र हूँ। पाण्डुलिपि की तैयारी में श्री अश्विनी कुमार जोशी ने पूरी रुचि ली। जिन अन्य साथियों और सहयोगियों का नाम देना चाहता हूँ, उन्होंने स्वयं निर्णय ले लिया कि उपर्युक्त नाम ही पर्याप्त हैं।
जैसा मैंने कहा, इस संकलन को प्रकाशित करने का विचार नहीं था, इसलिए पढ़ते या सुनते समय यह सावधानी नहीं रखी जा सकी कि शायर का नाम दर्ज कर लिया जाय। कठिन शब्दों के अर्थ दे दिये गये हैं ताकि हिन्दी पाठकों को कठिनाई न हो। संकलन पर अन्तिम नज़र डाली तो लगा कि बहुत-से अच्छे शे’र छूट गये हैं। यों निर्दोष तो संसार में कुछ होता नहीं है; जो निर्दोष है वह वीतराग है। मेरी पसंद ने यदि आपकी पसंद के साथ थोड़ा-बहुत भी मेल खाया तो मुझे जानकर सुख होगा।
अध्यात्म
जब मयकदा छूटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद,
मस्जिद हो, मदरसा हो, कोई ख़ानक़ाह1 हो।
मस्जिद हो, मदरसा हो, कोई ख़ानक़ाह1 हो।
गा़लि़ब
ये कह दो हज़रते-नासेह2 से गर समझाने आये हैं,
कि हम दैर-ओ-हरम3 होते हुए मयख़ाने आये हैं।
कि हम दैर-ओ-हरम3 होते हुए मयख़ाने आये हैं।
वहशत गोंडवी
निकल कर दैर-ओ-काबा से अगर मिलता न मयख़ाना,
तो ठुकराये हुए इन्साँ, ख़ुदा जाने कहां जाते।
तो ठुकराये हुए इन्साँ, ख़ुदा जाने कहां जाते।
क़तील शिफ़ाई
मैंने पूछा क्या हुआ वो आपका हुस्न-ओ-शबाब,
हँस के बोला वो सनम, शाने-ख़ुदा थी, मैं न था।
हँस के बोला वो सनम, शाने-ख़ुदा थी, मैं न था।
ज़फ़र
हुदूदे-ज़ात से4 बाहर निकल के देख ज़रा
न कोई गै़र, न कोई रक़ीब5 लगता है।
न कोई गै़र, न कोई रक़ीब5 लगता है।
सौदा
तोड़ डालीं मैंने जब क़ैदे-तअय्युन6 की हदें,
मेरी नज़रों में बराबर कुफ़्रों-ईमां हो गया।
मेरी नज़रों में बराबर कुफ़्रों-ईमां हो गया।
हसरत मोहानी
---------------------------1. फ़क़ीरों और साधुओं के रहने का स्थान, 2.
उपदेशक महोदय,
3. मन्दिर-मस्जिद, 4. व्यक्ति-सीमाओं से 5. प्रतिद्वन्द्वी, 6. हठवादिता
का बन्धन।
तेरी मस्जिद में वाइज़1 ख़ास हैं औक़ात2
रहमत के,
हमारे मयकदे में रात-दिन रहमत बरसती है।
हमारे मयकदे में रात-दिन रहमत बरसती है।
अमीर मीनाई
ये दामन और गरेबाँ अब सलामत रह नहीं सकते,
अभी तक कुछ नहीं बिगड़ा है, दीवानों में आ जाओ।
अभी तक कुछ नहीं बिगड़ा है, दीवानों में आ जाओ।
अली सरदार जाफ़री
दुनिया भी उसी की है, दुनिया को जो ठुकरा दे,
जितना उसे ठुकराया, उतनी ही क़रीब आयी।
जितना उसे ठुकराया, उतनी ही क़रीब आयी।
अमरनाथ
भागती फिरती थी दुनिया जब तलब करते थे हम,
जब से नफ़रत हुई, वह बेक़रार आने को है।
जब से नफ़रत हुई, वह बेक़रार आने को है।
दर्द
तुम्हीं तो हो जिसे कहती है नाख़ुदा3 दुनिया,
बचा सको तो बचा लो कि डूबता हूँ मैं।
बचा सको तो बचा लो कि डूबता हूँ मैं।
मजाज़ लखनवी
देखा जो उन्हें सर भी झुकाना न रहा याद,
दरअस्ल नमाज़ आज अता हमसे हुई है।
दरअस्ल नमाज़ आज अता हमसे हुई है।
कृष्णबिहारी नूर
साक़िया, तिश्नगी की ताब नहीं4,
ज़हर दे दे, अगर शराब नहीं।
ज़हर दे दे, अगर शराब नहीं।
रियाज़ ख़ैराबादी
जिस पै बुतखा़ना तसद्दुक़5, जिस पै काबा भी निसार,
एक सूरत ऐसी भी सुनते हैं बुतख़ाने में है।
एक सूरत ऐसी भी सुनते हैं बुतख़ाने में है।
अमीर मीनाई
------------------------
1. धर्मोपदेशक, 2. अवसर, 3. नाविक, 4. प्यास असह्य हो गयी, 5. न्योछावर।
चाप सुनकर जो हटा दी थी, उठा ला साकी़,
शैख़ साहब हैं, मैं समझा था मुसलमाँ है कोई।
शैख़ साहब हैं, मैं समझा था मुसलमाँ है कोई।
अकबर इलाहाबादी
नहीं है ताब ग़मे-ज़िंदगी उठाने की,
बता दे राह कोई अब शराबखा़ने की।
बता दे राह कोई अब शराबखा़ने की।
अब्दुल गफ़्फ़ार
तरदामनी पै शैख़ हमारी न जाइयो,
दामन निचोड़ दें तो फ़रिश्ते वज़ू करें।
दामन निचोड़ दें तो फ़रिश्ते वज़ू करें।
दर्द
हुआ है चार सिज्दों पर ये दावा ज़ाहिदो तुमको,
ख़ुदा ने क्या तुम्हारे हाथ जन्नत बेच डाली है।
ख़ुदा ने क्या तुम्हारे हाथ जन्नत बेच डाली है।
नासिख़
अक़्ल गुस्ताख़ है रिन्दों से उलझ पड़ती है,
इसको मयख़ाने के आदाब सिखा दे कोई।
इसको मयख़ाने के आदाब सिखा दे कोई।
जलील मानिकपुरी
मुझे शरअ1 से कोई चिढ़ नहीं, इस इत्तिफ़ाक़ का क्या करूँ,
कि जो वक़्ते-बादाकशी2 है, वही वक़्त है नमाज़ का।
कि जो वक़्ते-बादाकशी2 है, वही वक़्त है नमाज़ का।
अमीर मीनाई
ख़ुलूसे-दिल से सिज्दे हों तो उन सिज्दों का क्या कहना,
वहीं काबा सरक आया जबीं3 रख दी जहां मैंने।
वहीं काबा सरक आया जबीं3 रख दी जहां मैंने।
सीमाब अकबराबादी
------------------------
1. धर्मशास्त्र, 2. पीने का समय, 3. माथा।
कौन यहाँ छेड़े दैर-ओ-हरम के झगड़े,
सिज्दे से हमें मतलब, काबा हो या बुतख़ाना।
सिज्दे से हमें मतलब, काबा हो या बुतख़ाना।
असग़र गोंडवी
नहीं माँगता साक़िया जाम-ओ-साग़र,
फ़क़त तुझसे इक बेख़ुदी माँगता हूँ।
फ़क़त तुझसे इक बेख़ुदी माँगता हूँ।
रियाज़ खै़राबादी
तुम्हारा नाम लेने से मुझे सब जान जाते हैं,
मैं वो खोयी हुई इक चीज़ हूँ जिसका पता तुम हो।
मैं वो खोयी हुई इक चीज़ हूँ जिसका पता तुम हो।
क़तील शिफ़ाई
कहीं ज़िक्रे-दुनिया, कहीं ज़िक्रे-उक़्बा1,
कहाँ आ गये मयकदे से निकलकर।
कहाँ आ गये मयकदे से निकलकर।
अदम
चोट पै चोट खाये जा, दिल की तरफ़ कभी न देख
इश्क़ पै ऐतमाद रख, हुस्न की बेरुखी़ न देख,
इश्क़ का नूर नूर है, हुस्न की चाँदनी न देख,
तू ख़ुद तो आफ़ताब है, ज़र्रे में रोशनी न देख,
इश्क़ की मंज़िलों से दूर, राहे-नियाज़ कर उबूर2
फ़ितरते-बन्दगी समझ, की़मते-बंदगी न देख।
इश्क़ पै ऐतमाद रख, हुस्न की बेरुखी़ न देख,
इश्क़ का नूर नूर है, हुस्न की चाँदनी न देख,
तू ख़ुद तो आफ़ताब है, ज़र्रे में रोशनी न देख,
इश्क़ की मंज़िलों से दूर, राहे-नियाज़ कर उबूर2
फ़ितरते-बन्दगी समझ, की़मते-बंदगी न देख।
जिगर मुरादाबादी
ये दैरो-काबा की मंज़िलें तो गुज़ारगाहे-बन्दगी3 हैं,
जहाँ पै सिज्दे हैं बेख़ुदी के, वहाँ कोई आस्ताँ4 नहीं है।
जहाँ पै सिज्दे हैं बेख़ुदी के, वहाँ कोई आस्ताँ4 नहीं है।
शेरी भोपाली
--------------------------
1. परलोक-चर्चा, 2. प्रार्थना-पथ पार कर, 3.
वन्दना-पथ, 4. देहरी।
जहाँ सिज्दे को मन आया, वहीं पर कर लिया
सिज्दा,
न कोई संगे-दर मेरा, न कोई आस्ताँ मेरा।
न कोई संगे-दर मेरा, न कोई आस्ताँ मेरा।
हसरत मोहानी
तेरे नक़्शे-क़दम मैंने यहाँ पाये, वहाँ पाये,
तेरे कूचे में जब चाहा, वहीं मैंने जबीं रख दी।
तेरे कूचे में जब चाहा, वहीं मैंने जबीं रख दी।
तमाम ज़ादे-सफ़र1 रास्ते में लुट जाता,
ख़ुदा ने ख़ैर किया, कोई रहनुमा न मिला।
ख़ुदा ने ख़ैर किया, कोई रहनुमा न मिला।
‘राज़’ इलाहाबादी
दिखाया गया है हक़ीक़त का जल्वा,
मगर हर हक़ीक़त छिपायी गयी है।
मगर हर हक़ीक़त छिपायी गयी है।
मीना क़ाजी़
हरदम नज़र को ही न थी जल्वों की आरजू,
जल्वों ने भी नज़र को पुकारा कभी-कभी।
जल्वों ने भी नज़र को पुकारा कभी-कभी।
साबिर दत्त
‘साबिर’
ज़हर मिलता रहा, ज़हर पीते रहे,
यूँ ही मरते रहे, यूँ ही जीते रहे,
ज़िन्दगी भी हमें आज़माती रही,
और हम भी उसे आजमाते रहे।
मयकशो, मय की कमी-बेशी पै नाहक़ जोश है,
ये तो साक़ी जानता है किसको कितना होश है।
यूँ ही मरते रहे, यूँ ही जीते रहे,
ज़िन्दगी भी हमें आज़माती रही,
और हम भी उसे आजमाते रहे।
मयकशो, मय की कमी-बेशी पै नाहक़ जोश है,
ये तो साक़ी जानता है किसको कितना होश है।
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लोगों की राय
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