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शायरी के नये मोड़-3

अयोध्याप्रसाद गोयलीय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1208
आईएसबीएन :81-263-0027-2

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ शाइरों की श्रेष्ठ रचनाएँ...

Shairi ke naye mode (3)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मजाज़

आग थे इब्तदाए-इश्क़में हम
अब जो हैं, ख़ाक इन्तिहा है यह

मीर

हायरे भाग्यकी विडम्बना ! लखनऊके बलराम हॉस्पिटलमें अत्यन्त दयनीय, शोचनीय एवं असहाय स्थितिमें वही ‘मजाज़’ मर गया, जिसके नाम पर कभी ‘इस्मत’ चुग़ताईके शब्दोंमें—‘‘गर्ल्ज़ कॉलेजोंमें लाटरियाँ डाली जाती थीं, और उसके अशआर तकियोंके नीचे छिपाकर आँसुओंसे सींचे जाते थे; और कुँवारियाँ अपने आइन्दा बेटोंके नाम उसीके नामपर रखनेकी क़समें खाती थीं, न जाने किस अरमान के बदलमें ?’’1

मजाज़की शाइरीपर अलीगढ़ कॉलेजकी लड़कियाँ जिस हदतक फ़रेफ्तः (मुग्ध) थीं ? इस्मत चुग़ाईकी ज़बाने-मुबारकसे सुनिए, जो खुद भी उन दिनों वहाँ पढ़ती थीं—‘‘लड़कियाँ मौसमी छुट्टियाँ गुज़ारने अपने-अपने घरों को सिधार चुकी थीं। सिर्फ़ चन्द फूटे नसीबोंवाली, जिनके घर दूर थे, या कोई हमसफ़र न मिला था, होस्टल में सहमी हुई नज़र आती थीं।...दिन तो वो किसी-न-किसी तरह ज़बर्दस्ती हँसी-खेलमें घसीट डालते पर ज्यूँ ही शामका सुर्मई साया सहनमें रेंगना शुरू करता, दम बौखला उठते और ना मालूम-सा धीमा-धीमा ख़ौफ़ दबोचने लगता। चुपके-चुपके गिनतीकी आठ-दस लड़कियाँ एक-दूसरे के क़रीब खिसक आती। घरोंकी याद दिलमें सुलग उठती और बेइख़्तियार सर जोड़कर आँसू बहाने शुरू कर दिये जाते। आँसू पूछे जाते और फिर घुल-मिलकर जीनेकी कोशिश शुरू हो जाती।...वही लम्बा-चौड़ा मक़बरेकी तरह सुनसान
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1. मजाज़ पृ. 26।
म-3-2

होस्टल जहाँ छुट्टियाँ गुज़ारनी थीं। फिर घुटन और बढ़ गयी। खामोशी गहरी हो गयी। एक ख़ला (रिक्तता)-सी दिल में फैलने लगी, उसी खलामें आवाज़ आयी—

ऐ ग़मे-दिल क्या करूँ1 ?

‘‘चौंककर जो हमने देखा तो यह चाकलेट-जैसी सौंधी रंगतवाली महमूदः थी, जो हम सबसे दूर दरी के कोनेपर हाथों का तकिया सरके नीचे रखे अपनी आँसू-भरी आवाज़में गुनगुना रही थी। फिर तो सितारे टूटने लगे, मोतियोंकी लड़ियाँ ठेससे बिखकरकर दुपट्टोंमें उलझ गयीं। सीनोंमें हुकें उठने लगीं। लेकिन जब, शोले भड़क उठे, पैमाने छलक पड़े और सीनोंमें ज़ख़्म महक उठे तो ड्रामा शाइरीकी हदोंसे गुज़रकर भौंडे क़िस्मकी भो-भोमें फिसल आया। वह धूम-धामकी सफ़े-मातम बिछी कि मुहर्रम माँद पड़ गये2।’’

उक्त नज़्म ‘मजाज़’ की ‘आहंग’ नामक पुस्तकसे पढ़ी गयी थी इस पुस्तक की फिर इतनी चाहत बढ़ी कि ‘ईदी-बक़रीदी’ नुमाइशके पैसोंसे छह-छह सात-सात कापियाँ खरीद डालीं। तोहफ़े (उपहार) हैं तो ‘आहंग’-के। ग़रज सारे बोर्डिंड्में आहंग चल पड़ी। दिलो-दमाग़पर कुछ इस तानसे ‘आहंग’ छायी मालूम होता था कोई वबा बोर्डिंड्पर टूट पड़ी है। यहाँ तक कि कान पक गये, सुनते-सनते जी मतला उठे।
‘‘चः तौबा है, तुम तो मर जाओ उसपर जाकर।’’
‘‘पढ़ना-वढ़ना छोड़ो जी, उसके दर पै धरना दे दो जाके।’’
‘‘सफ़िया (मजाज़की बहन) से कहो तुम्हारी शादी करा दे।’’
‘‘वाह तुम न कर लो शादी।’’
कड़वे-कड़वे जुमले चलते, जी जल जाते और मुँह सूज जाते। ‘‘यह सब जिन्सी (शारीरिक) भूक है, जहाँ लड़केका नाम सुना मर मिटीं।’’
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1. यह नज़्म ‘आवारा’ शीर्षकसे अगले पृष्ठोंमें मिलेगी। 2. मजाज़ पृ. 5-9।

नाकपर ऐनक लगाये टीचर्स बड़बड़ायी—‘‘ज़हनी ग़िलाज़त’’ (मानसिक अपवित्र विचार) यह लीजिए मज़ाक़ खत्म, जुर्म साबित, मुजरिम सहम-कर रह गये। होंट साकित हो गये। मगर दिल लर्जां। यहाँ कम्बक्त शाइरसे जान-न-पहचान। सरोकार ही कब थी शाइरीसे ? जो रिश्ता क़ायम हो चुका था, वह क़ायम रहा। उसे तानों-तिश्नोंकी संगबारी (पथराव) न तोड़ सकी1।’’

परिचय


इसरारुलहक़ ‘मजाज़’ उत्तर प्रदेशीय बाराबंकी ज़िलेके रदौली क़सबेंमें ई. सन् 1909 में जन्मे थे। आपके वंश का तारतम्य—अजमेरके ख्वाजा मुहीउद्दीन चिश्तीके गुरु ख्वाजा उस्मान हारुनी तक पहुँचता है। मजाज़के पिता चौधरी सिराजुलहक़ लखनऊके रजिस्ट्रेशन विभागमें मुलाज़िम थे। अपने पिताके पास रहते हुए मजाज़ने लखनऊसे मैट्रिक पास किया। आगरेसे एफ.ए. और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से बी.ए. किया।

दिल्लीमें जब रेडियो विभाग खुला तो मजाज़ 1935 ई. में अलीगढ़से दिल्ली चले गये। वहाँ आपने अनुमानतः दो वर्ष रेडियोके उर्दू-पत्र ‘आवाज़’-का सम्पादन किया, किन्तु रेडियो विभागके तत्कालीन सर्वेसर्वा बुख़ारी बन्धुओंकी दूषित प्रान्तीय मनोवृत्ति और तानाशाही स्वभावके कारण आप वहाँ न टिक सके। रेडियोसे मुलाज़मत छूटनेपर मजाज़को जो मानसिक क्लेश पहुँचा, उसका आभास निम्न नज़्मसे हो सकता है—

दिल्ली से वापसी


(48 में–से 11 शेर)


रुख़सत ऐ दिल्ली ! तिरी महफ़िलसे अब जाता हूँ मैं
नौहागर2 जाता हूँ मैं, नालः-ब-लब3 जाता हूँ मैं

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1. मजाज़ पृ. 9-10, 2.शोकसन्तप्त, 3. दीर्घनिश्वास लिये हुए।

याद आयेंगे मुझे तेरे ज़मीनो-आस्माँ
रह चुके हैं, मेरी जौलाँगाह1 तेरे बोस्ताँ2
क्या कहूँ किस शौक़से आया था तेरी बज़्ममें3
छोड़कर ख़ुल्दे-अलीगढ़की4 हज़ारों महफ़िलें

कितने रंगी अहदों-पैमाँ5 तोड़कर आया था मैं
दिल नवाज़ाने6-चमनको छोड़कर आया था मैं

इक नशेमन7 मैंने छोड़ा इक नशेमन छुट गया
साज़ बस छेड़ा ही था मैंने कि गुलशन छुट गया

दिलमें सोज़े-ग़मकी8 इक दुनिया लिये जाता हूँ मैं
आह तेरे मैकदेसे9 बे-पिये जाता हूँ मैं

जाते-जाते लेकिन इक पैमाँ10 किये जाता हूँ मैं
अपने अज़्मे-सरफ़रोशीकी11 क़सम खाता हूँ मैं

फिर तेरी बज़्में-हसींमें12 लौटकर आऊँगा मैं
आऊँगा मैं और ब-अन्दाज़े-दिगर13 आऊँगा मैं

आह ! वे चक्कर दिये हैं, गर्दिशे-ऐयामने14
खोलकर रख दी हैं, आँख तल्ख़िए-आलामने15

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1.    क्रीड़ास्थल, 2. उद्यान, 3. महफ़िलमें, 4. अलीगढ़ विश्वविद्यालयकी रंगीन जन्नत, 5 वायदे, प्रतिज्ञाएँ, 6 सहृदयोंको, 7. घर, स्थान, 8. दुःखकी जलन, 9. मदिरालयसे, 10. वादा, 11. मस्तक बलिदान कर देनेवाली दृढ़ भावनाकी, 12, कमनीय स्थलीमें, 13. निश्चय पूर्वक। 14. भाग्य फेरने, 15. कष्टोंको कड़ुवाहटने।

फ़ितरते-दिल1 दुश्मने-नग्मः2 हुई जाती है अब
ज़िन्दगी इक बर्क़3 इक शोलः4 हुई जाती है अब

सरसे पातक एक ख़ूनी आग बनकर आऊँगा
लालः ज़ारे रंगो-बँ में5 आग बनकर आऊँगा


रेडियोसे सम्बन्धविच्छेद होनेपर मजाज़ लखनऊ चले गये। वहाँ आपके पिता पेंशन पानेके पश्चात् स्थायी रूपसे बस गये थे। अतः आप भी लखनऊ रहते हुए साहित्यिक कार्योंमें रुचि लेने लगे, साथ ही एम.ए. करनेके लिए कॉलेज भी जाने लगे, किन्तु अपने मौजी स्वभाव के कारण एम.ए. कर न सके। अपने साहित्यिक मित्र सैयद सब्तहसन और अली सरदार जाफ़िरीके सहयोगसे 1939 में ‘नया अदब’ मासिक पत्रका प्रकाशन प्रारम्भ किया।

1941 ई. में मजाज़ का मस्तिष्क विकृत हो गया। स्वस्थ होने पर दिल्ली के हार्डिड़ लाइब्रेरीमें मुलाज़िम हो गये, परन्तु 1944 ई. में वहाँ से भी नौकरी छूट गयी। मुशाअरों में हाथों-हाथ लिया जानेवाला और घरोंमें सबसे ज़्यादा पढ़ा जानेवाला मजाज़ चिन्ताओं और दरिद्रताका जीवन-यापन करते हुए लखनऊके बलराम हस्पताल में केवल 46 वर्ष की आयुमें 5 दिसम्बर 1955 ई. की रातको 10 बजकर 22 मिनिटपर अल्लाह को प्यारा हो गया।
मजाज़ के अनन्य मित्र हयातुल्ला अंसारी उनकी इस दर्दनाक मौत के बारे में लिखते हैं—
‘‘मजाज़ शाम तक अच्छे थे और अपनी बागो-बहार तवीयतके मुताबिक़ अपने दोस्तोंसे पुरलुत्फ़ गुफ़्तगू (मनोरंजक वार्त्तालाप) में रात गये तक मसरूफ़ (व्यस्त, तल्लीन) देखे गये।
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1. सहृदयता, 2, शत्रुका राग, प्रतिहिंसक, 3. बिजली, 4. अंगार, 5 फूलोंके रंग और गन्धमें।

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