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आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के श्रेष्ठ निबन्ध

विनोद तिवारी

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 12282
आईएसबीएन :9789386863867

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का रचना-संसार वैविध्यपूर्ण और साहित्यिक व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे संस्कृत के शास्री थे, ज्योतिष के आचार्य। कवि, आलोचक, उपन्यासकार, निबंधकार, संपादक, अनुवादक और भी न जाने क्या-क्या थे। वे पंडित भी थे और प्रोफेसर भी, आचार्य तो थे ही। वे अपने समय के एक बहुत ही अच्छे वक्ता थे। सबसे बडी बात यह थी कि वे एक कुशल अध्यापक और सच्चे जिज्ञासु अनुसंधाता थे। बलराज साहनी ने उनकी इस अनुसंधान वृति को लक्षित करतें हुए लिखा है, ‘‘सूई से लेकर सोशिलिज्म तक सभी वस्तुओं का अनुसंधान करने के लिए वे उत्सुक रहते।’’ तभी तो वे, बालू से भी तेल निकाल लेने की बात करते हैं, अगर सही और ठीक ढंग का बालू मिल जाये। उनके इस अनुसन्धान और अध्ययन-मनन की सबसे बड़ी ताकत थी एक साथ कई भाषाओं और परम्पराओं की जानकारी। वे, जहाँ संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश जैसी प्राचीन भारतीय भाषाओं के साथ भारतीय साहित्य, दर्शन चिन्तन की ज्ञान-परम्पराओं को अपनी सांस्कृतिक-चेतना में धारण किये हुए थे, वहीं हिन्दी, अंग्रेजी, बांग्ला और पंजाबी जैसी आधुनिक भारतीय व विदेशी भाषाओं के साथ आधुनिक ज्ञान-परम्परा को भी। परम्परा और आधुनिकता का ऐसा मेल कम ही साहित्यकारों में देखने को मिलता है। परम्परा अतर आधुनिकता के इस प्रीतिकर मेल से उन्होंने हिन्दी साहित्य-शास्त्र को मूल्यांकन का एक नया आयाम दिया। लोक और शास्त्र को जिस इतिहास-बोध से द्विवेदी जी ने मूल्यांकित किया है, वह इस नाते महत्वपूर्ण है कि उसमें किसी तरह का महिमामण्डन या भाव-विह्वल गौरव गान नहीं मिलता, बल्कि एक वैज्ञानिक चेतना संपन्न सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि मिलती है, जिसका पहला और आखिरी लक्ष्य मनुष्य हैं-उसका मृत्य, उसकी मबीता और उसका श्रम है।

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