गजलें और शायरी >> धूप तितली फूल धूप तितली फूलप्रियदर्शी ठाकुर
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प्रस्तुत है श्रेष्ठ उर्दू शायरी....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मेरी बात
‘रात गये’ के बाद
‘धूप तितली फूल’
मेरी ग़ज़लों का दूसरा संकलन है। इस में मेरी कोई पैंतीस ग़ज़लें शामिल
हैं। ये तमाम ग़ज़लें 1989 की कही हुई हैं-आधी से कुछ ज़ियादा अजमेर में
रहते हुए और बाक़ी जयपुर में। हाँ, ‘धूप तितली फूल’
में मैंने
1982 से’ 89 के बीच की लिखी हुई कुछ नज़्में भी शामिल की हैं,
जबकि
‘रात गये’ में सिर्फ़ ग़ज़लें ही थीं।
‘रात गये’ और ‘धूप तितली फूल’ में एक बड़ा फ़र्क़ यह भी है कि यह किताब ‘रात गये’ की तरह देवनागरी और उर्दू लिपियों में एक है जिल्द में शाये न होकर उर्दू लिपि में पहले बज़्में-मआनी, अजमेर से और उसके बाद देवनागरी में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो रही है। ‘रात गये’ वाले प्रयोग को जहाँ एक ओर कई लोगों ने बहुत सराहा, वहीं ज़ियादातर लोगों ने यह तनक़ीद1 की कि दोनों ही लिपियों के पढ़नेवालों के लिए किताब की कीमत बेवजह दुगनी हो गयी। आम राय को मद्देऩजर रखते हुए ‘धूप तितली फूल’ उर्दू और देवनागरी में अलग-अलग शाये की जा रही है।
जैसा कि मैंने ‘रात गये’ के मुक़द्दमें (भूमिका) में लिखा था।, अपनी ग़ज़लें और नज़्में बहुत आसान और आमफ़हम क़िस्म की उर्दू-जिसे गंगा-जमुनी तहज़ीब की नुमाइन्दा ज़बान भी कहा जा सकता है- में ही लिखता हूँ। ‘टूटा हुआ पुल’ से ‘रात गये और ‘रात गये’ से ‘धूप तितली फूल’ तक के सफ़र और तज्रूवात ने मेरे इस शक़ को यक़ीन में तब्दील कर दिया है कि आमफ़हम ज़बान में लिखना मेरी मजबूरी है लेकिन यह मजबूरी मेरी ताक़त भी हो सकती है। क्योंकि यह रोज़मर्रा बोलचाल की हिन्दोस्तानी ज़बान ही मुझे शायरी पसन्द करनेवालों के आम आदमी से जोड़ती है। मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूँ कि मेरी शायरी अगर संस्कृत अल्फाज़2 से बोझल हिन्दी में अरबी-फारसी के अल्फाज़ से लैस ख़ालिस उर्दू में होती, तो उसे पढ़ने, सुनने और समझनेवाले उतने भी न होते, जितने हैं। इसलिए जहाँ तक ज़बान का सवाल है, मैं वहाँ बैठ कर शेर कहता हूँ जहाँ हिन्दी उर्दू मिल कर एक हो जाते हैं।
बारहा लोगों ने मुझसे पूछा है, और कई लोगों ने अगर साफ़ पूछा नहीं तो उनकी आँखों में मैंने यह सवाल तैरता देखा है- अच्छी-भली आज़ाद नज़्में लिखते थे; ये आप शेर-ग़ज़ल, जुल्फो-रूख़सार गुलो-बुलबुल, जामो-मीना और बहर-छन्द के दकियानूसी झगड़ों में कहाँ पड़ गये ! हर एक को
(1) आलोचना (2) शब्द (बहु.)
अलग-अलग जवाब दे पाना मुमकिन नहीं होता, ख़ासकर उन लोगों को जो ज़ाहिर तौर पर यह सवाल पूछते भी नहीं। मैं समझता हूँ यह एक अच्छा मौक़ा है कि इस सवाल का मुख़्तसर-सा जवाब यहाँ दर्ज़ कर दूँ। मेरी राय में ग़ज़ल एक ऐसा ‘आर्ट-फॉर्म’ है जिसके हर एक शेर के गागर में एक-एक सागर भरा जा सकता है-फिर उसी बात को कहने के लिए सफ़हा1 दर सफ़हा रंगने का फ़ायदा ? दूसरे, बहरों की पाबन्दी, उस्लूब,2 और क़वायद ग़ज़ल को वह संगीत, लय और लोच देते हैं जो सच्ची शायरी की रूह होती है। बहर, रदीफ और क़ाफिये की पाबन्दियाँ भी शेर कहनेवाले के लिए एक ‘क्रियेटिव चैलेन्ज’ होती हैं कि इन पाबन्दियों को निभाते हुए वह कितनी खू़बसूरती, सही अल्फाज़ और लॉजिक के साथ अपनी बात कहता है। बहरहाल, इस बात पर नाइत्तेफ़ाक़ी भी हो तो इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि ज़िन्दगी में हर एक शख़्स वही करता है या करने की कोशिश करता है जो उसे अच्छा लगता है, और मेरी राय में सभ्य आचरण और सलीक़े के दायरों में रहते हुए हर एक को करना भी वही चाहिए जो वह चाहता है क्योंकि ज़िन्दगी फिर दुबारा मिलती हो इसका कोई पक्का सबूत नहीं पाया जाता। मुझे ग़ज़ल कहना अच्छा लग रहा है, सो ग़ज़ल कह रहा हूँ।
और मैं इस बात से भी क़तई इत्तेफ़ाक़ नहीं करता कि ग़ज़ल के ज़रिये कोई नयी बात नहीं कही जाती या कही नहीं जा सकती या कही नहीं जा रही है। जो ऐसा सोचते हैं उन्होंने या तो सिर्फ़ रिवायती3 शायरी पढ़ी है या उर्दू शायरी को बहुत सतही तौर पर देखा है।
आज की ग़ज़ल फ़क़त दो प्यार करनेवालों की आपसी बातचीत को वो शायराना तरज़ुमानी4 नहीं, जो वह अपनी इब्तदाई5 दौर में थी। न वह महज़ घिसे-पिटे तश्बीहात6 की बिना7 पर रगड़ी जा चुकी रूमानियत तक महदूद8 है। आज की हिन्दोस्तानी शायरी में तरह-तरह के नये तज्रूबात9 हो रहे हैं- पुराने तश्बीहात और उपमाओं का सहारा लेकर आज के दौर की बातें कही जा रही हैं, कभी पुराने न पड़ सकने वाले जज़्बात, जैसे मोहब्बत-को नये लहजे और अन्दाज़ो-अल्फाज़ का लिबास पहनाया जा रहा है और नई इमेजरी और उपमाएँ अमल में लायी जा रही हैं।
मैं मिसाल ढूंढ़ने दूर क्यों जाऊँ ! माना कि ‘धूप तितली फूल’ की ज़ियादा ग़ज़लें मेरी ज़ाती10 कशमश, काविशों11 ख़ुशियों, रंजों-ग़म और इन्सानी रिश्तों के तज्रूबात का बयान हैं, लेकिन इनमें मैंने उन दरख़्तों का भी ज़िक्र किया
1.पन्ने 2.शैली 3.पारम्परिक 4.अनुवाद 5.प्रारम्भिक 6.उपमाओं 7.आधार 8.सीमित 9.प्रयोग 10.व्यक्तिगत 11.संघर्ष
है जिनके कट जाने पर हमारा साँस लेना दुश्वार हो जायेगा, लेकिन जिनके कटने पर किसी की छाती नहीं फटती। मैं ने नफ़रत की आग में जलते हुए शहरों के बारे में लिखा है जिन्हें धर्म के नाम पर खुद हमने अपने हाथों से जलाया है। जिन बेटियों को जनम लेते ही नमक चटाकर मार डाला गया और जिन बहुओं को ज़िन्दा जला डाला गया, मैंने उनके लिए भी शेर कहा है। मैं ने उन करोड़ों लोगों के लिए भी सोचा है जो ज़मीन से तो पहले ही डरे हुए थे और अब आसमान भी उन्हें ही डरा रहा है। मैं ने उस ज़हनियत1 में भी झाँकने की कोशिश की है जिसकी ज़बान पर सेक्यूलरिज्म2 की बातें भले ही हों, आँखों में फिरक़ापरस्ती होती है। और तो और, मैंने यह निहायत ग़ैर शायराना शेर-बक़ौल कई दोस्तों के-भी कहा है-
‘रात गये’ और ‘धूप तितली फूल’ में एक बड़ा फ़र्क़ यह भी है कि यह किताब ‘रात गये’ की तरह देवनागरी और उर्दू लिपियों में एक है जिल्द में शाये न होकर उर्दू लिपि में पहले बज़्में-मआनी, अजमेर से और उसके बाद देवनागरी में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो रही है। ‘रात गये’ वाले प्रयोग को जहाँ एक ओर कई लोगों ने बहुत सराहा, वहीं ज़ियादातर लोगों ने यह तनक़ीद1 की कि दोनों ही लिपियों के पढ़नेवालों के लिए किताब की कीमत बेवजह दुगनी हो गयी। आम राय को मद्देऩजर रखते हुए ‘धूप तितली फूल’ उर्दू और देवनागरी में अलग-अलग शाये की जा रही है।
जैसा कि मैंने ‘रात गये’ के मुक़द्दमें (भूमिका) में लिखा था।, अपनी ग़ज़लें और नज़्में बहुत आसान और आमफ़हम क़िस्म की उर्दू-जिसे गंगा-जमुनी तहज़ीब की नुमाइन्दा ज़बान भी कहा जा सकता है- में ही लिखता हूँ। ‘टूटा हुआ पुल’ से ‘रात गये और ‘रात गये’ से ‘धूप तितली फूल’ तक के सफ़र और तज्रूवात ने मेरे इस शक़ को यक़ीन में तब्दील कर दिया है कि आमफ़हम ज़बान में लिखना मेरी मजबूरी है लेकिन यह मजबूरी मेरी ताक़त भी हो सकती है। क्योंकि यह रोज़मर्रा बोलचाल की हिन्दोस्तानी ज़बान ही मुझे शायरी पसन्द करनेवालों के आम आदमी से जोड़ती है। मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूँ कि मेरी शायरी अगर संस्कृत अल्फाज़2 से बोझल हिन्दी में अरबी-फारसी के अल्फाज़ से लैस ख़ालिस उर्दू में होती, तो उसे पढ़ने, सुनने और समझनेवाले उतने भी न होते, जितने हैं। इसलिए जहाँ तक ज़बान का सवाल है, मैं वहाँ बैठ कर शेर कहता हूँ जहाँ हिन्दी उर्दू मिल कर एक हो जाते हैं।
बारहा लोगों ने मुझसे पूछा है, और कई लोगों ने अगर साफ़ पूछा नहीं तो उनकी आँखों में मैंने यह सवाल तैरता देखा है- अच्छी-भली आज़ाद नज़्में लिखते थे; ये आप शेर-ग़ज़ल, जुल्फो-रूख़सार गुलो-बुलबुल, जामो-मीना और बहर-छन्द के दकियानूसी झगड़ों में कहाँ पड़ गये ! हर एक को
(1) आलोचना (2) शब्द (बहु.)
अलग-अलग जवाब दे पाना मुमकिन नहीं होता, ख़ासकर उन लोगों को जो ज़ाहिर तौर पर यह सवाल पूछते भी नहीं। मैं समझता हूँ यह एक अच्छा मौक़ा है कि इस सवाल का मुख़्तसर-सा जवाब यहाँ दर्ज़ कर दूँ। मेरी राय में ग़ज़ल एक ऐसा ‘आर्ट-फॉर्म’ है जिसके हर एक शेर के गागर में एक-एक सागर भरा जा सकता है-फिर उसी बात को कहने के लिए सफ़हा1 दर सफ़हा रंगने का फ़ायदा ? दूसरे, बहरों की पाबन्दी, उस्लूब,2 और क़वायद ग़ज़ल को वह संगीत, लय और लोच देते हैं जो सच्ची शायरी की रूह होती है। बहर, रदीफ और क़ाफिये की पाबन्दियाँ भी शेर कहनेवाले के लिए एक ‘क्रियेटिव चैलेन्ज’ होती हैं कि इन पाबन्दियों को निभाते हुए वह कितनी खू़बसूरती, सही अल्फाज़ और लॉजिक के साथ अपनी बात कहता है। बहरहाल, इस बात पर नाइत्तेफ़ाक़ी भी हो तो इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि ज़िन्दगी में हर एक शख़्स वही करता है या करने की कोशिश करता है जो उसे अच्छा लगता है, और मेरी राय में सभ्य आचरण और सलीक़े के दायरों में रहते हुए हर एक को करना भी वही चाहिए जो वह चाहता है क्योंकि ज़िन्दगी फिर दुबारा मिलती हो इसका कोई पक्का सबूत नहीं पाया जाता। मुझे ग़ज़ल कहना अच्छा लग रहा है, सो ग़ज़ल कह रहा हूँ।
और मैं इस बात से भी क़तई इत्तेफ़ाक़ नहीं करता कि ग़ज़ल के ज़रिये कोई नयी बात नहीं कही जाती या कही नहीं जा सकती या कही नहीं जा रही है। जो ऐसा सोचते हैं उन्होंने या तो सिर्फ़ रिवायती3 शायरी पढ़ी है या उर्दू शायरी को बहुत सतही तौर पर देखा है।
आज की ग़ज़ल फ़क़त दो प्यार करनेवालों की आपसी बातचीत को वो शायराना तरज़ुमानी4 नहीं, जो वह अपनी इब्तदाई5 दौर में थी। न वह महज़ घिसे-पिटे तश्बीहात6 की बिना7 पर रगड़ी जा चुकी रूमानियत तक महदूद8 है। आज की हिन्दोस्तानी शायरी में तरह-तरह के नये तज्रूबात9 हो रहे हैं- पुराने तश्बीहात और उपमाओं का सहारा लेकर आज के दौर की बातें कही जा रही हैं, कभी पुराने न पड़ सकने वाले जज़्बात, जैसे मोहब्बत-को नये लहजे और अन्दाज़ो-अल्फाज़ का लिबास पहनाया जा रहा है और नई इमेजरी और उपमाएँ अमल में लायी जा रही हैं।
मैं मिसाल ढूंढ़ने दूर क्यों जाऊँ ! माना कि ‘धूप तितली फूल’ की ज़ियादा ग़ज़लें मेरी ज़ाती10 कशमश, काविशों11 ख़ुशियों, रंजों-ग़म और इन्सानी रिश्तों के तज्रूबात का बयान हैं, लेकिन इनमें मैंने उन दरख़्तों का भी ज़िक्र किया
1.पन्ने 2.शैली 3.पारम्परिक 4.अनुवाद 5.प्रारम्भिक 6.उपमाओं 7.आधार 8.सीमित 9.प्रयोग 10.व्यक्तिगत 11.संघर्ष
है जिनके कट जाने पर हमारा साँस लेना दुश्वार हो जायेगा, लेकिन जिनके कटने पर किसी की छाती नहीं फटती। मैं ने नफ़रत की आग में जलते हुए शहरों के बारे में लिखा है जिन्हें धर्म के नाम पर खुद हमने अपने हाथों से जलाया है। जिन बेटियों को जनम लेते ही नमक चटाकर मार डाला गया और जिन बहुओं को ज़िन्दा जला डाला गया, मैंने उनके लिए भी शेर कहा है। मैं ने उन करोड़ों लोगों के लिए भी सोचा है जो ज़मीन से तो पहले ही डरे हुए थे और अब आसमान भी उन्हें ही डरा रहा है। मैं ने उस ज़हनियत1 में भी झाँकने की कोशिश की है जिसकी ज़बान पर सेक्यूलरिज्म2 की बातें भले ही हों, आँखों में फिरक़ापरस्ती होती है। और तो और, मैंने यह निहायत ग़ैर शायराना शेर-बक़ौल कई दोस्तों के-भी कहा है-
कुछ और हो कि न हो, रोक बढ़ती आबादी
जो सच में मुल्क को आगे तुझे बढ़ाना है
जो सच में मुल्क को आगे तुझे बढ़ाना है
क्योंकि मैं यह मानता हूँ कि चाहे कितनी भी
योजनाऐं क्यों
न बनाई जायें, चाहे कितना भी क़र्ज़ क्यों न बाँटा जाये, इस देश में भूख,
ग़रीबी और बेरोज़गारी मसाइल तब तक हल नहीं हो सकते जब तक कि हम आबादी के
बुनियादी मस्ले से कतराते रहेंगे।
‘रात गये’ के शाये होने के साल भर के अन्दर ही यह दूसरा मजमूआ मैं पेश करने जा रहा हूँ इसकी असली वजह मेरे कुछ अज़ीज़ों और दोस्तों की भरपूर हौसला-अफ़ज़ाई है। इनका शुक्रिया अदा किए बगै़र मेरी बात पूरी नहीं हो सकती। इस सिलसिले में भाई मधुसूदन ठाकुर, तुषारकान्त ठाकुर और निर्मला जीजी, नुनूजी और लीला, सैयद फज़लुल मतीन साहब डॉ. पी. एन. शर्मा और थर्स-डे-क्लब, अजमेर के तमाम और दोस्तों, जनाब अहमद हुसैन और मुहम्मद हुसैन, साहिबज़ादा शौकत अली खाँ साहब, जनाब मख़्मूर सईदी, डॉ. बशीर बद्र, डॉ. राहत बद्र, जनाब वसीम बरेलवी जनाब निदा फाज़ली, अपनी शरीकेहयात रेखा, बेटी जया और बेटा भुवन का मैं बहुत मशकूर हूँ। जामिया मिलिया के उर्दू डिपार्टमेन्ट के प्रो. डॉ. शमीम हनफ़ी और डॉ. उन्वान चिश्ती का भी बहुत शुक्रगुज़ार हूँ कि बज़्में-मानी की दावत पर अजमेर तशरीफ़ लाकर उन्होंने ‘रात गये’ पर तबसरा3 फ़रमाया और भरपूर दाद से मेरी हौसला-अफ़ज़ाई की। भाई क़मर साहब, आबिदा आक़िल, नरेन्द्र कुमार जोशी
1.मानसिकता 2.धर्मनिरपेक्षता 3.समालोचना
राधे गोपाल शर्मा और रवि कुमार पारीक ने ‘धूल तितली फूल’ का मुसव्विदा1 तैयार करने में मेरी बेइन्तहा की है-शुक्रिया
और आख़िर में ख़ास शुक्रिया भाई वसीम बरेलवी साहब का करता हूँ कि उन्होंने ‘धूप तितली फूल पर इज़्हारे-राय की मेरी दरख़्वास्त कुबूल फ़रमाई है।
‘रात गये’ के शाये होने के साल भर के अन्दर ही यह दूसरा मजमूआ मैं पेश करने जा रहा हूँ इसकी असली वजह मेरे कुछ अज़ीज़ों और दोस्तों की भरपूर हौसला-अफ़ज़ाई है। इनका शुक्रिया अदा किए बगै़र मेरी बात पूरी नहीं हो सकती। इस सिलसिले में भाई मधुसूदन ठाकुर, तुषारकान्त ठाकुर और निर्मला जीजी, नुनूजी और लीला, सैयद फज़लुल मतीन साहब डॉ. पी. एन. शर्मा और थर्स-डे-क्लब, अजमेर के तमाम और दोस्तों, जनाब अहमद हुसैन और मुहम्मद हुसैन, साहिबज़ादा शौकत अली खाँ साहब, जनाब मख़्मूर सईदी, डॉ. बशीर बद्र, डॉ. राहत बद्र, जनाब वसीम बरेलवी जनाब निदा फाज़ली, अपनी शरीकेहयात रेखा, बेटी जया और बेटा भुवन का मैं बहुत मशकूर हूँ। जामिया मिलिया के उर्दू डिपार्टमेन्ट के प्रो. डॉ. शमीम हनफ़ी और डॉ. उन्वान चिश्ती का भी बहुत शुक्रगुज़ार हूँ कि बज़्में-मानी की दावत पर अजमेर तशरीफ़ लाकर उन्होंने ‘रात गये’ पर तबसरा3 फ़रमाया और भरपूर दाद से मेरी हौसला-अफ़ज़ाई की। भाई क़मर साहब, आबिदा आक़िल, नरेन्द्र कुमार जोशी
1.मानसिकता 2.धर्मनिरपेक्षता 3.समालोचना
राधे गोपाल शर्मा और रवि कुमार पारीक ने ‘धूल तितली फूल’ का मुसव्विदा1 तैयार करने में मेरी बेइन्तहा की है-शुक्रिया
और आख़िर में ख़ास शुक्रिया भाई वसीम बरेलवी साहब का करता हूँ कि उन्होंने ‘धूप तितली फूल पर इज़्हारे-राय की मेरी दरख़्वास्त कुबूल फ़रमाई है।
प्रियदर्शी ठाकुर ‘ख़याल’
धूप तितली फूल-एक जायजा
प्रियदर्शी ठाकुर
‘ख़याल’ की शायरी धूप की तरह
खिलती, तितली की तरह मचलती और फूल की तरह महकती फ़िकरी तमाज़तों1 का
निगार-ख़ाना2 है।
उनकी शायरी की तरह उनकी शख़्सियत भी जिन तीन रंगों से इबारत3 है उनमें पहला रंग ख़ुद-सोज़ ख़ानक़हियत4 का है जो बनावट से ज़्यादा सादगी, मावराइयत5 से ज़्यादा अर्ज़ियत6 का दिलदादा7 है और उन्हें ग़ज़ल की बारगाह8 तक ले जा सका है। दूसरा रंग आफ़ाक़ी-क़दरों9 से वाबस्तगी का है जो नफ़रत के बजाय मुहब्बत, फुर्क़त10 के बजाय क़ुर्बत11 और रियाकरी12 के बजाय वज़्ज़ादारी13 का कायल है, जो दूसरा सबब बना है उनकी ग़ज़ल के हुजू़र बारयाबी14 का। तीसरा रंग उनकी बेज़रर15 मासूमियत का है जो नफ़े से ज़्यादा नुक़सान, पाने से ज़्यादा खोने और छूने से ज़्यादा देखने की गुनहगार है और जिसे उनके तख़्लीक़ी16 रवैये का ज़ेवर समझना चाहिये। उनसे मिलिए या उन्हें पढ़िये तो ये सभी रंग आपको मुतावज्जह17 करते हैं।
ग़ज़ल का सदाबाहर कशिश को क्या कहिये जो उन हलक़ों को भी मुताअस्सिर किये बग़ैर नहीं रहती जिनकी ज़मीन ज़रा मुख़तलिफ़18 है। ‘ख़याल’ की ज़मीन भी तो हिन्दी है मगर उनका लहजा उर्दू तहज़ीब की ख़ुशबू रखता है।
उनसे मेरी मुलाक़ात कोई पन्द्रह साल पहले टोंक में हुई थी। उनकी मानीखे़ज सादगी, आँखों में तैरती बेनियाज़19-सी उदासी उसी वक़्त बहुत कुछ कह रही थी मगर ये ख़बर न थी कि ये बेचैन रूह उनकी हिन्दी कविताओं में ढलती, हिन्दी पत्रिकाओं की ज़ीनत बनती एक दिन उर्दू शायरी की तरफ़ इस तरह मुलतफ़ित20 होगी कि दिल के दर्द को ग़ज़ल की शायस्तगी21 से हम-आहंग22 करने का हुनर जान जायेगी।
1.सोच की गर्मी 2.तस्वीरों वाला कमरा 3.लिखा हुआ 4.उस मठ या तपोवन जैसा जहाँ सूफी संत ख़ुद अपने तप की आग में जलते हैं 5.आसमान से परे 6.जमीन से जुड़ा हुआ 7.चाहने वाला 8.पवित्र स्थल 9.समस्त ब्रह्माण्ड की संस्कृति 10.जुदाई 11.नज़दीकी 12.मक्कारी 13.अपने स्वभाव पर बना रहने वाला 14.ग़ज़ल की चौखट तक पहुँचने का 15.बिना हानि का 16.रचनात्मक 17.आकर्षित 18.अलग 19.बिना किसी स्वार्थ के 20.प्यार से देखना 21.साफ सुथरापन 22.एक स्तर पर लाना।
‘ख़याल’ की शख़्सियत दर्दमन्द और तहदार2 है। यही उनका सरमाया2 भी है और यही उनका अलमिया3 भी। सरमाया इस तरह कि हिफ़ाजत करते हुए तरहदारी के साथ वह इस बेतरह4 ज़माने में जीते हैं, अलमिया इस तरह कि उनके एहसास के रूबरू आज की बेज़मीरी5 के बेशुमार सवालनामे सर उठाये खड़े हैं और उनके पास में जवाब में धूप तितली फूल के सिवा कुछ भी नहीं।
वे अर्से से नज़्में लिखते रहे हैं। उनकी कुछ नज़्में इस मजमूए6 में शामिल भी हैं। ‘निजी-समय’, याददाश्त’ दावते-फि़क्र देती है। मगर ग़ज़ल से उनका तअल्लुक़ वालिहाना7-सा लगता है। भले ही ‘ख़याल’ ने हिन्दी संस्कारों की बिना पर जुबान, बयाँ या उरूज़8 के मामले में ग़ज़ल की सख़्त गीरी9 से इत्तफा़क़ न किया हो, मगर उनका ख़लूसे-शेरी10 क़ाबिले-क़द्र है। ‘रात-गये’ के बाद में उनका ये शेरी मजमूआ ‘धूप-तितली-फूल’ उनके रूमानी तसव्वुरात की शकिस्त-खुर्दगी11, हसीन ख़्वाबों की टूट-फूट और जमालियाती12 उमंगों की पसपाइयत13 से इबरात है। उनके ये शेर मेरे इस जुमले की ज़रूर ताईद कर सकेंगे-
उनकी शायरी की तरह उनकी शख़्सियत भी जिन तीन रंगों से इबारत3 है उनमें पहला रंग ख़ुद-सोज़ ख़ानक़हियत4 का है जो बनावट से ज़्यादा सादगी, मावराइयत5 से ज़्यादा अर्ज़ियत6 का दिलदादा7 है और उन्हें ग़ज़ल की बारगाह8 तक ले जा सका है। दूसरा रंग आफ़ाक़ी-क़दरों9 से वाबस्तगी का है जो नफ़रत के बजाय मुहब्बत, फुर्क़त10 के बजाय क़ुर्बत11 और रियाकरी12 के बजाय वज़्ज़ादारी13 का कायल है, जो दूसरा सबब बना है उनकी ग़ज़ल के हुजू़र बारयाबी14 का। तीसरा रंग उनकी बेज़रर15 मासूमियत का है जो नफ़े से ज़्यादा नुक़सान, पाने से ज़्यादा खोने और छूने से ज़्यादा देखने की गुनहगार है और जिसे उनके तख़्लीक़ी16 रवैये का ज़ेवर समझना चाहिये। उनसे मिलिए या उन्हें पढ़िये तो ये सभी रंग आपको मुतावज्जह17 करते हैं।
ग़ज़ल का सदाबाहर कशिश को क्या कहिये जो उन हलक़ों को भी मुताअस्सिर किये बग़ैर नहीं रहती जिनकी ज़मीन ज़रा मुख़तलिफ़18 है। ‘ख़याल’ की ज़मीन भी तो हिन्दी है मगर उनका लहजा उर्दू तहज़ीब की ख़ुशबू रखता है।
उनसे मेरी मुलाक़ात कोई पन्द्रह साल पहले टोंक में हुई थी। उनकी मानीखे़ज सादगी, आँखों में तैरती बेनियाज़19-सी उदासी उसी वक़्त बहुत कुछ कह रही थी मगर ये ख़बर न थी कि ये बेचैन रूह उनकी हिन्दी कविताओं में ढलती, हिन्दी पत्रिकाओं की ज़ीनत बनती एक दिन उर्दू शायरी की तरफ़ इस तरह मुलतफ़ित20 होगी कि दिल के दर्द को ग़ज़ल की शायस्तगी21 से हम-आहंग22 करने का हुनर जान जायेगी।
1.सोच की गर्मी 2.तस्वीरों वाला कमरा 3.लिखा हुआ 4.उस मठ या तपोवन जैसा जहाँ सूफी संत ख़ुद अपने तप की आग में जलते हैं 5.आसमान से परे 6.जमीन से जुड़ा हुआ 7.चाहने वाला 8.पवित्र स्थल 9.समस्त ब्रह्माण्ड की संस्कृति 10.जुदाई 11.नज़दीकी 12.मक्कारी 13.अपने स्वभाव पर बना रहने वाला 14.ग़ज़ल की चौखट तक पहुँचने का 15.बिना हानि का 16.रचनात्मक 17.आकर्षित 18.अलग 19.बिना किसी स्वार्थ के 20.प्यार से देखना 21.साफ सुथरापन 22.एक स्तर पर लाना।
‘ख़याल’ की शख़्सियत दर्दमन्द और तहदार2 है। यही उनका सरमाया2 भी है और यही उनका अलमिया3 भी। सरमाया इस तरह कि हिफ़ाजत करते हुए तरहदारी के साथ वह इस बेतरह4 ज़माने में जीते हैं, अलमिया इस तरह कि उनके एहसास के रूबरू आज की बेज़मीरी5 के बेशुमार सवालनामे सर उठाये खड़े हैं और उनके पास में जवाब में धूप तितली फूल के सिवा कुछ भी नहीं।
वे अर्से से नज़्में लिखते रहे हैं। उनकी कुछ नज़्में इस मजमूए6 में शामिल भी हैं। ‘निजी-समय’, याददाश्त’ दावते-फि़क्र देती है। मगर ग़ज़ल से उनका तअल्लुक़ वालिहाना7-सा लगता है। भले ही ‘ख़याल’ ने हिन्दी संस्कारों की बिना पर जुबान, बयाँ या उरूज़8 के मामले में ग़ज़ल की सख़्त गीरी9 से इत्तफा़क़ न किया हो, मगर उनका ख़लूसे-शेरी10 क़ाबिले-क़द्र है। ‘रात-गये’ के बाद में उनका ये शेरी मजमूआ ‘धूप-तितली-फूल’ उनके रूमानी तसव्वुरात की शकिस्त-खुर्दगी11, हसीन ख़्वाबों की टूट-फूट और जमालियाती12 उमंगों की पसपाइयत13 से इबरात है। उनके ये शेर मेरे इस जुमले की ज़रूर ताईद कर सकेंगे-
रब्त की राह में था आग का दरिया यारब
रास्ते तर्के-तअल्लुक़14 के तो आसाँ होते
जो शै मिली ही नहीं गुम वह मुझसे क्या होगी
ये तय समझ कि तुझे अब मैं खो नहीं सकता
लहजे में तल्ख़ियों का सबब आप ढूंढ़िये
इस तरह सख़्त बोलना मेरी तो ख़ू नहीं
ठीक है छोड़ दिया है मुझे तुमने लेकिन
खु़द से अपने को भी कुछ दूर किया है तुमने
रास्ते तर्के-तअल्लुक़14 के तो आसाँ होते
जो शै मिली ही नहीं गुम वह मुझसे क्या होगी
ये तय समझ कि तुझे अब मैं खो नहीं सकता
लहजे में तल्ख़ियों का सबब आप ढूंढ़िये
इस तरह सख़्त बोलना मेरी तो ख़ू नहीं
ठीक है छोड़ दिया है मुझे तुमने लेकिन
खु़द से अपने को भी कुछ दूर किया है तुमने
‘ख़याल’ की शेरी
काविशों15 का जायज़ा इस वसी
पसमंजर16 में ज़रूर लिया जाना चहिये कि जिस ज़हर-आलूद17 माहौल में जुबानों
की दिल-नवाज़ियों18 को मुनाफ़िकाना19 कड़वाहटों ने अपनी गिरफूत में ले रखा
हो वहाँ
1.कई परतों वाला 2.पूँजी 3.त्रासदी 4.बेपहचान 5.बिना अन्तःकरण का 6.संकलन 7.बहुत अन्तरंगता वाला 8. कविता का व्याकरण 9.सख़्त जकड़न 10.कविता में निष्ठा 11.हार 12.ख़ूबसूरती 13.हार, समर्पण 14.सम्बन्ध-विच्छेद 15.प्रयासों 16.विस्तृत पृष्ठभूमि 17.जहर से भरा हुआ 18.मन को भाने वाले गुण 19.बोलना कुछ करना कुछ ।
सूदो-ज़ियाँ1 से बेनियाज़ हो कर उनका प्यार की आफ़ाक़ियत2 से रिश्ता जोड़ना और ग़ज़ल की इन्सान-दोस्त गुदाख़्तगी3 में अपने खोयेपन की ज़ुस्तजू करना क़ाबिले-कद्र कारनामा4 है। आला तालीम के साथ उनकी बेदारिये-हिस5 उनके मुशाहिदों6 को वाक़याती7 बनाती है। उनकी शायरी में मीठे-मीठे दर्द की वह आहट सुनाई देती है जो कभी माज़ी के निहाख़ानों8 से आँच माँगती है, तो कभी हाल9 के वीरानों से ज़ादे-सफ़र10 तलब करती है। वह ख़्वाबों के सताये हुए, हक़ीक़तों के रूलाये हुए हैं इसीलिये उनकी शायरी में रूह की वह प्यास महसूस की जा सकती है जो हमेशा से तख़्लीक़ी11 तेवरों के नोक-पलक संवारती आयी है।
1.कई परतों वाला 2.पूँजी 3.त्रासदी 4.बेपहचान 5.बिना अन्तःकरण का 6.संकलन 7.बहुत अन्तरंगता वाला 8. कविता का व्याकरण 9.सख़्त जकड़न 10.कविता में निष्ठा 11.हार 12.ख़ूबसूरती 13.हार, समर्पण 14.सम्बन्ध-विच्छेद 15.प्रयासों 16.विस्तृत पृष्ठभूमि 17.जहर से भरा हुआ 18.मन को भाने वाले गुण 19.बोलना कुछ करना कुछ ।
सूदो-ज़ियाँ1 से बेनियाज़ हो कर उनका प्यार की आफ़ाक़ियत2 से रिश्ता जोड़ना और ग़ज़ल की इन्सान-दोस्त गुदाख़्तगी3 में अपने खोयेपन की ज़ुस्तजू करना क़ाबिले-कद्र कारनामा4 है। आला तालीम के साथ उनकी बेदारिये-हिस5 उनके मुशाहिदों6 को वाक़याती7 बनाती है। उनकी शायरी में मीठे-मीठे दर्द की वह आहट सुनाई देती है जो कभी माज़ी के निहाख़ानों8 से आँच माँगती है, तो कभी हाल9 के वीरानों से ज़ादे-सफ़र10 तलब करती है। वह ख़्वाबों के सताये हुए, हक़ीक़तों के रूलाये हुए हैं इसीलिये उनकी शायरी में रूह की वह प्यास महसूस की जा सकती है जो हमेशा से तख़्लीक़ी11 तेवरों के नोक-पलक संवारती आयी है।
वसीम बरेलवी
1.लाभ-हानि 2.ब्रह्माण्डिक फैलाव 3.पूरे मानव
समाज को अपना
समझने का दर्द 4.आदर योग्य उपलब्धि 5.जगा हुआ अन्तःकरण 6.अवलोकन से
प्राप्त अनुभव 7.तथ्यात्मक 8.अतीत के बन्द कमरों 9.वर्तमान 10.सफ़र का
सामान 11.रचनात्मक
ये बचे पेड़
किसी सरसब्ज़ ज़माने की यादगार यहाँ
कुछ ही बाक़ी हैं दरख्त और ये छतनार यहाँ,
काट लो तुम ये बचे पेड़ भी, लेकिन देखो,
साँस लेना तुम्हें हो जायेगा दुश्वार यहाँ !
नज़्में
शक़
जो सही जाना
वह करने-कहने पर भी
यह एहसासे-जुर्म1
सक़ील,2 सरकश3 और सनकी
-एक ख़ौफ़नाक हालत मन की,
तुम्हें यह यक़ीन है
कि मौक़ा मिलते ही
मैं तुम्हें ज़हर दे कर
तड़पता हुआ छोड़
ख़ुशी-ख़ुशी
चला जाऊंगा
और मुझे यह
कि रात के पिछले पहर के
ख़्वाब में भी अगर
ज़हर दे दिया तुम्हें,
तो अलस्सुबह यक़ीनन
ख़ुद को
मरा हुआ पाऊंगा !
1.अपराध-बोध 2.दुरूह 3.दुर्दम
इसके बावजूद
ख़याल के खंडरात पर
शक़ का यह पीपल
रात और दिन, पल-पल
मुझे तोड़ता हुआ
और अकेला छोड़ता हुआ:
हाय ! तुम्हें मार रहा हूँ मैं
धीरे...धीरे...
थोड़ा-थोड़ा हर दिन, हर शब.
कुछ ही बाक़ी हैं दरख्त और ये छतनार यहाँ,
काट लो तुम ये बचे पेड़ भी, लेकिन देखो,
साँस लेना तुम्हें हो जायेगा दुश्वार यहाँ !
नज़्में
शक़
जो सही जाना
वह करने-कहने पर भी
यह एहसासे-जुर्म1
सक़ील,2 सरकश3 और सनकी
-एक ख़ौफ़नाक हालत मन की,
तुम्हें यह यक़ीन है
कि मौक़ा मिलते ही
मैं तुम्हें ज़हर दे कर
तड़पता हुआ छोड़
ख़ुशी-ख़ुशी
चला जाऊंगा
और मुझे यह
कि रात के पिछले पहर के
ख़्वाब में भी अगर
ज़हर दे दिया तुम्हें,
तो अलस्सुबह यक़ीनन
ख़ुद को
मरा हुआ पाऊंगा !
1.अपराध-बोध 2.दुरूह 3.दुर्दम
इसके बावजूद
ख़याल के खंडरात पर
शक़ का यह पीपल
रात और दिन, पल-पल
मुझे तोड़ता हुआ
और अकेला छोड़ता हुआ:
हाय ! तुम्हें मार रहा हूँ मैं
धीरे...धीरे...
थोड़ा-थोड़ा हर दिन, हर शब.
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