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कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 12361
आईएसबीएन :9788183619189

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कली ने कुछ उत्तर नहीं दिया और उदासीन ग्रीवा खिड़की से ऐसे बाहर निकालकर देखने लगी जैसे उसका प्रश्न सुना ही नहीं हो। रात के धुंधलके में जो व्यक्ति सुदर्शन संन्यासी लगा था, वह दिन के उजाले में श्मशान घाट का अवधूत लग रहा था।

"सीलोन जा रही हैं, वहीं नौकरी करती हैं," वाणी ने ही कली से किये गये प्रश्न का उत्तर दिया।

"हूँ, नौकरी !" स्वामीजी और ऊँचे स्वर में कहने लगे, “नौकरी, वह भी इतनी दूर ! क्यों नहीं रघुनन्दन आनन्दकन्द की चाकरी करती, पुत्री ! चल हमारे साथ, तीरथ में पग-पग पर रणछोड़ की राजसी नौकरी दिला देंगे इसे। ठाकुर की चरणसेवा—'चाकर रहतूं, बाग लगा , नित उठ दर्शन पार्चे, बिन्द्राबन की कुंज गलिन में, तेरी लीला गावँ—म्हाने चाकर राखो जी'_'" स्वामीजी काल्पनिक करताल बजाते, मीठे स्वर में गाते हँसने लगे।

"क्यों गोविन्ददासी, समझाती क्यों नहीं इस पुत्री को ? यह हमारे साथ ही क्यों नहीं चलती ?"
पर गोविन्ददासी ने उसउदार प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया।
स्वामीजी वही गाना गुनगुनाते, हाथ में रेशमी जोगिया थैला लटकाये गुसलखाने की ओर चले गये तो वाणी बड़े अधैर्य से कली की ओर खिसक आयी जैसे स्वामीजी की अनुपस्थिति में ही उससे चटपट सब कह लेना चाह रही थी।
“परिस्थितियों से ऐसी विवश हूँ कि तुझे साथ चलने को कह भी नहीं सकती। 'आप डुबन्ते बाभना, ले डूबे जजमान' वाली बात है। दिल्ली में हमारा ब्यूटी क्लिनिक था। सब-कुछ ठीक चल रहा था। स्वामीजी वहीं योग के 'लैसन्स' भी देते थे। पता नहीं कहाँ एक विधवा जवान पहाड़ी छोकरी को देखकर स्वामीजी पिघले और साथ ले आये। उसी ने हमारा पटरा बिठा दिया। अब तुझसे क्या छिपाऊँ ! हमारा एक साइड बिजनेस भी था।"
तानी मौसी फिर कहीं खो गयी थीं। "यह तो गोविन्ददासी की कपटी आँखों की नयी ही चमक थी, स्वामीजी की अण्डरग्राउण्ड बिजनेस गुफाओं में चलती थी, वहीं
उस नमकहराम छोकरी को किसी मठाधीश ने फुसलाकर अपने दल में मिला लिया। वैसे स्वामीजी के भक्तों में कुछ प्रसिद्ध उद्योगपति भी थे। उन्हीं की कृपा से हम इस यात्रा पर निकल पड़े। पुलिस हमारा एक बाल भी बाँका नहीं कर पायी—अब तू ही..."

अधूरे वाक्य के बीच ही में गुसलखाने के द्वार पर नहा-धोकर स्वच्छ निखरे स्वामीजी मुसकराते खड़े हो गये। उनकी दाढ़ी-मूंछे क्या स्नान के जल के साथ ही बह गयी थीं ? क्लीन शेव्ड चेहरे की पारदर्शी त्वचा किसी किशोरी की नवनीत चुपड़ी त्वचा-सी ही चमक रही थी।

"गोविन्ददासी, अब निकालो हमारा पीला थैला।” उनके कहते ही वाणी सेन पीला थैला निकाल लायी। स्वामीजी बर्थ पर जम गये और थैले से विभिन्न आकार की डिबियाएँ निकाल-निकालकर किसी चलचित्र के चतुर मेकअप मैन का-सा चमत्कार दिखाने लगे। पहले उन्होंने मुट्ठी-भर राख निकालकर दोनों पुष्ट बाहुओं, चिकने चेहरे और गौर वक्षस्थल पर ऐसे पोत ली, जैसे मैक्स फैक्टर का सुगन्धित पाउडर हो। फिर उन्होने गोरोचन का तिलक सँवारा और भीगे जटाजाल को चौड़े कन्धों पर फैला लिया। केश छिटकाते ही रेल का परा डिब्बा दामी यडीकौलीन की सगन्ध से मह-मह महक उठा। लगता था एक-एक केश, रोम-कप में विलासी स्वामीजी गुसलखाने में ही उस सुगन्ध की स्प्रे कर आये थे। किसी दीनहीन परिचारिका-सी वाणी सेन उनकी प्रसाधनक्रिया में निरन्तर योगदान दे रही थीं। कभी एक डिबिया बढ़ातीं, कभी दूसरी।
"गोविन्ददासी, अब तुम चाहो तो नहा-धोकर तैयार हो सकती हो।' स्वामीजी ने ऐसे स्वर में आदेश दिया जैसे बिना उनसे पछे गोविन्ददासी को गसलखाने जाने की भी स्वतन्त्रता नहीं थी। फिर उन्होंने कनखियों से कली को देखा जैसे कह रहे हों—देखा हमारा रौब ?
वाणी गुसलखाने गयी ही थी कि ट्रेन किसी छोटे-से स्टेशन पर आकर रुक गयी। कली को निर्णय लेने में कभी देर नहीं लगती थी। उसने बिस्तरा लपेटा, एक हाथ में सूटकेस लटकाया और ऐसे इत्मीनान से नीचे उतर गयी जैसे उसे उसी स्टेशन पर उतरना था, जिसका वह नाम भी नहीं जानती थी।

"क्यों—क्यों ? क्या यहीं उतर जाओगी ?'' एक नासिका रन्ध्र मूंदे, प्राणायाम साधे पाखण्डी स्वामीजी अपना बकोध्यान भूलकर उठ बैठे।

कली ने कछ उत्तर नहीं दिया। गाडी स्टेशन छोड़ रही थी। उसने देखा खिडकी पर खड़ी तानी मौसी उसे आश्चर्य से देख रही हैं। क्रमशः दूर होती जा रही, बड़ी-बड़ी आँखों में आश्चर्य, वेदना और निराशा का सन्देश कली ने पढ़ लिया। पहले वह मूढ़-सी देखती रही, फिर दुबली कलाई ऊपर उठ गयी। हाथ हिला-हिलाकर अनजाने
प्लेटफॉर्म पर खड़ी कली ने स्वेच्छा से ही एक स्नेहग्रन्थि और काटकर हवा में उड़ा दी।

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