नई पुस्तकें >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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चौबीस
बदली से घिरी म्लान सन्ध्या
बरामदे में उतरती धृष्टता से खुली
खिड़की से कूदकर कमरे में रेंगने
लगी थी। जाने कब तक दोनों भयावह
परिस्थिति से सहमे एक-दूसरे से
सटे चेतना ही खो बैठे। आण्टी ने
सहमकर खाँसा और कली ने बेड स्विच
दबा दिया। धुंधली रोशनी में वह
आँखें बन्द कर चुपचाप लेट गयी। हाथ में पूजा की छोटी टोकरी लटकाये आण्टी के साथ-साथ अम्मा कली के सिरहाने आकर खड़ी हो गयीं और प्रवीर कुरसी से उठ गया।
“कली के मित्र हैं," आण्टी उसका परिचय देने लगीं।
"इन्हीं के परिवार के साथ कली कलकत्ता में रहती थी। अभी-अभी शादी हुई है।" आण्टी ने सरल चातुर्य से उसके सद्यःविवाहित होने का प्रसंग भी जोड़ दिया, जिससे शक्की पन्ना और कुछ न समझ बैठे।
"उठ क्यों गये ? बैठिए ना।" पन्ना ने अपने उसी मीठे स्वर में कहा, जो भुलाये गये पेशे के भूल जाने पर भी कण्ठ में रिस गया था। उस कण्ठ की सधी मीठी 'बैठिए' सुनकर मजाल थी कि कोई न बैठे !
प्रवीर बैठ गया।
श्वेत चिकन की साड़ी, कुहनियों तक सुडौल बाहुओं में चुस्त कसा श्वेत ब्लाउज़, गले में तुलसी-कण्ठी और ललाट पर चन्दन की बिन्दी। “कब आये आप ?" पन्ना ने पूछा।
"अभी-अभी तो आये," आण्टी फिर चहकने लगीं।
उस संकोची गम्भीर युवक पर आण्टी को तरस आ रहा था। इसी से उससे पूछे गये हर प्रश्न के तलवार के वार को ढाल बनी स्वयं बढ़कर झेल रही थीं।
"पत्नी को क्यों नहीं ले आये ?" फिर वही मोहक मीठी हँसी।
"कली का भी जी बहला रहता," पन्ना ने बड़े प्यार से सोयी कली के माथे पर हाथ फेरकर कहा।
"लाएँगे-लाएँगे," आण्टी फिर उसी उत्साह से कहने लगीं, “लाएँगे क्यों नहीं—कली बेटी; तुम्हारी दूसरी कैप्सूल का टाइम हो गया, ले आऊँ ?' किसी चतुर फैन्सिंग के पैंतरेबाज की भाँति उन्होंने दवा का प्रसंग छेड़ पैंतरा बदल लिया।
"कैसा जी है बेटी ?" पन्ना कली की गोरी सुडौल मुँदी पलकों को फिर सहलाने लगी।
कली ने ऐसे चौंककर आँखें खोलीं, जैसे अब तक सचमुच ही उसे झपकी आ गयी थी। आण्टी ने घडी देखकर उसे कैप्सल खिलायी और करसी खींचकर बैठ गयीं।
"अम्मा," कली की डूबी आवाज़ किसी दूर की मस्जिद के गुम्बद में गूंज रही अजान-सी गूंज गयी।
''क्या है बेटी ?''
"अम्मा, मेरे ये मित्र गाने के बेहद शौकीन हैं।" प्रवीर ने सहमकर पलँग पर पड़ी परिहासप्रिया की ओर देखा, पता नहीं अब क्या कह बैठेगी ? बात-बात में हँसी थिरकनेवाले होंठों पर स्मित का इन्द्रधनु खेलने लगा था।
"खुद कहने में शरमा रहे हैं, पर तुम्हारा लांग प्लेयिंग रिकार्ड भी है इनके पास। इन्हें आज वही गाना सुना दो अम्मा !"
"कौन-सा री ?" प्रिय प्रसंग के उल्लेख से पन्ना अंब भी खिल उठती थी। संगीत-चर्चा ही तो उसकी एकमात्र दुर्बलता रह गयी थी।
पन्ना की गोल-गोल कलाई में अपनी दुर्बल कलाई का गजरा-सा लपेटती कली स्वयं गुनगुनाने लगी। प्रौढ़ा स्वरलय-नटिनी ने धीमी गुनगुनाहट को पहचाना और पल-भर को चेहरा फक पड़ गया।
"बेवकूफ कहीं की," दबे स्वर में वह बच्ची-सी मचल रही कली को फटकारने लगी, "वह क्या कोई गाना है !"
"वाह, आप क्या सोचती हैं कि ऐसी बीमारी का फाँसी-फन्दा गले में पड़ गया है, तो मैं जाने तक रामधुन छोड़ और कुछ सुन ही नहीं सकती ? मैं यही गाना सुनकर रहूँगी। आपने नहीं सुनाया तो न फिर तीसरी कैप्सूल खाऊँगी, न बिस्तर पर लेट्रॅगी, खुद ड्राइव कर पूरा इलाहाबाद घूम आऊँगी।"
यह कली की सबसे बड़ी धमकी थी। डॉक्टरों ने कहा था कि बाहर से भली-चंगी स्वस्थ दिखनेवाली उस लड़की की पीठ में कभी भी शरीर में घात लगाये बैठा छिपा रोग-शत्रु घातक छुरा भोंक सकता था। एक बार कहीं सामान्य चोट भी आ गयी तो अनवरत बहते रक्त-प्रवाह को स्वयं ब्रह्मा भी नहीं रोक पाएँगे। ज़िद्दी कली को असाध्य रोग की पीड़ा ने और भी ज़िद्दी बना दिया था। पन्ना सिर झुकाकर गाने लगी-
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