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कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 12361
आईएसबीएन :9788183619189

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''द सेम अनसोफिस्टिकेट गल ऑफ खजुराहो,' वह मन-ही-मन ऐसे बुदबुदाने लगीं जैसे वहाँ और कोई भी न हो, ''ठीक जैसे उन मन्दिरों की नग्न मूर्तियाँ अंग के एक-एक मोड़-मरोड़ के साथ अपने सौन्दर्य का प्रदर्शन अनजान बनी करती दर्शकों को मोह लेती हैं, कभी हाथ में दर्पण लेकर, कभी गेंद से खेलकर, कभी भव्य ग्रीवा के मरोड़ से-शी डिस्तेज़ हर न्रडिटी फ्रॉम ऑल साइड्स ऑफ दी बॉडी।''
''क्या बक रही हो आण्टी? अब उठ भी कली, एकदम हरद्वार की जोगन लग रही है।'' विवियन उकताकर उठ गयी।
हाथ में दर्पण लिये अपने चेहरे की बदलती रंगत देखकर कली खिल-खिलाकर हँस ही रही थी कि किसी ने पीछे से आकर उसकी पीठ पर ठण्डी हथेली धर दी।
''हाय मैं मर गयी, जरा देखो तो इसे बीबीजी, एकदम तुम्हारा ही-सा त्रिपुण्ड लगवाकर कैसी बनी है? आज ही तुझे याद कर रही थी और तू मिल गयी।''
कली हड़बड़ाकर उठी और उसके हाथ से पण्डजिा की दों-तीन रंगरोली-भरी कटोरियाँ टन-टन करती लुढ़क गयीं।
''नारायण, नारायण सवा रुपये का चन्दन गिरा दिया, बेटी।'' वह बड़बड़ाने लगा। त्रिपुण्ड रचित चेहरा लिये कली अम्मा से लिपट गयी। वह अब भी उसकी बदली सूरत देखकर हँसे जा रहे थीं।
''हाय अम्मा, आप यहाँ कैसे आ गयीं?''
''जैसे तू आ गयी,'' अम्मा ने हाथ की गीली धोती तख्त पर रख दी।
''हमसे तो तू कहके आयी थी कि लखनऊ जा रही हूँ और यहाँ बैरागन बनी हमसे भी पहले गंगा नहा ली,'' अम्मा ने हँसकर चुटकी ली और कनखियों से कली के साथियों की विचित्र भीड़ को देखा। हतप्रभ-सी आण्टी सकपकाकर एक ओर खड़ी हो गयी थीं, उस तेजस्वी नवागन्तुका के सिन्ध ललाट पर चमकती रोली के सामने उन्हें अपने ललाट पर बना त्रिपुण्ड एकदम नक़ली बनकर चुभने लगा।
''बीबीजी बहुत दिनों से आग्रह कर रही थीं कि इलाहाबाद आकर गंगा नहा लूँ पर गृहस्थी में ऐसी फँसी कि चौदह साल से बीबीजी यहाँ हैं और आज आ पायी हूँ। लल्ला छुट्टी पर आया था, उसे ही जिद कर खींच लायी। पर मरी, तू कैसे आ गयी यहाँ?''
''यह मेरी सहेली है अम्मा, विवियन, और ये इसकी आण्टी हैं, यह भाई-इसी ने बड़ी ज़बरदस्ती यहाँ रोक लिया।''
हठात् सहेली के किरण्टी नामोच्चार और आण्टी की लाल पैण्ट देखकर अम्मा की विधवा बीबीजी भैंस-सी बिदक उठीं, ''चलो भी बोज्यू, नहा-धोकर अभी तिल-पात्र किया है, कहीं फिर न नहाना पड़े।'' एक क्षण में ही उस फ्रस्ट्रेटेड बाल विधवा का कर्कश स्वभाव पानी में तेल-सा तैरने लगा। वह बड़बड़ाती आगे बढ़ गयी,'' इन मरे मुस्टण्ड पण्डों की भी मति मारी गयी है, धेले-पैसे के लिए धर्म भरस्ट हरामी ईसाइयों
के कपाल रँग रहे हैं।'' आण्टी ने सुनी-अनसुनी कर बड़ी नम्रता से दोनों हाथ जोड़कर अम्मा का अभिवादन किया, पर विवियन का चेहरा अपमान से तमतमा उठा।
''इनके कहे का बुरा मत मानना बेटी,'' अम्मा ने खिसियाकर कली के कन्धे पर हाथ धर दिया, ''पता नहीं क्या देखकर तुझे ईसाई समझ बैठीं। मैं कार से ही आयी हूँ! परसों चली जाऊँगी। तू साथ चलना चाहे तो चलना!''
''पर अम्मा, हमें दो-तीन दिन नवीन चाचा के यहाँ लखनऊ भी तो रुकना है,'' अचानक कली की दोनों आँखें, अम्मा के पीछे आकर खड़े हो गये लम्बें साँवले युवक की ओर उठ गयीं।
अच्छा तो यही था अम्मा का लल्ला! अब तक कहीं छुपा था यह? क्या पेड़ की डाल से अचानक कूदकर खड़ा हो गया?
''कैसा हिण्ट दे रहा था ससुरा, इतना भी न समझे ऐसी थिक स्किंण्ड गैंडे की खाल नहीं है कली की।''
स्पष्ट था कि लखनऊ के दो दिन के सम्भावित पड़ाव के उल्लेख से वह कली को सहमाना चाह रहा था।
एक बार कली के जी में आया वह हँसकर कह दे, 'तो क्या हो गया अम्मा, मैं भी दो-तीन दिन नवीन चाचा के यहाँ रुक जाऊँगी!' पर आँखें चार होते ही उसका चेहरा विवर्ण हो गया।
केवल धोती के परिधान के ऊपर पॉलिश की गयी टीक लकड़ी-सी चमकती नग्न चौड़ी छाती, किसी अरण्य जनशून्य वन में धूप सेंकते नरव्याघ्र की-सी किसी को कुछ न समझने वाली तेजस्वी आँखें, और पतले क्रूर अधरों का व्यंग्यात्मक बंकिम स्मित।
पहले कुछ क्षणों तक जैसे वह रोली, त्रिपुण्ड और खुले गीले बालों के बनावटी जाल में उलझकर रह गया, पर फिर वही व्यंग्यात्मक बंकिम स्मित, तीखी पतली छुरी की भाँति कली के धड़कते कलेजे में मूठ तक धँस गयी।
''हैवण्ट वी मेट बिफ़ोर?'' उसने हँसकर पूछा। चौड़ी सिल-सी छाती पर पड़ी यज्ञोपवीत की पीली डोरी कली के गले में फ़ाँसी का अदृश्य फन्दा बनकर लटक गयी।
''नहीं तो,'' कली न दूसरे ही क्षण अपने को सँभाल लिया। एक बार वह फिर वही दूधिया भोले चेहरे की कली बन गयी जो आबकारी के वरिष्ठ अधिकारियों को अपनी नन्ही तर्जनी पर बड़ी सुगमता से नचा लेती थी।
''कुछ चेहरे ऐसे ही होते ढंक सनी,'' आण्टी हँसकर कहने लगीं, ''जिन्हें देखकर हमेशा यही लगता है कि उन्हें कहीं देखा है, शायद हमारी कली का चेहरा भी ऐसा ही है। मैंने भी जब इसे पहली बार देखा तो दिन भर याद करती रही-या मेरे मसीह, कहीं देखा होगा मैंने इसे!''
''चलो अम्मा, बड़ी बुआ बहुत आगे निकल गयी हैं।'' बिना कुछ कहे ही वह दम्भी युवक माँ की गीली धोती उठा, एक बार भी बिना विदा की कर्टिसी किये चलने
 लगा।
"चलूँ बेटी, अब कलकत्ता में ही फुरसत से बातें करूँगी।'' बहुत आगे निकल गये पुत्र के साथ चलने को अम्मा लम्बी-लम्बी डगें भरती निकल गयीं तो विवियन बोली, ''ब्लास्ट हिम, क्या इन्हीं के साथ तू रहती है कली? बाप रे बाप, इससे तो कलकत्ता के चिड़ियाघर के शेर पिंजरे में रहने क्यों नहीं चली जाती? क्या करते हैं ये हज़रत? समझते तो अपने को बहुत कुछ हैं।''

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