आँखों से बहती अविरल अश्रुधारा देखकर माँ को
छेड़-छेड़कर दिन-रात जलानेवाली अबाध्य कली भी सहमकर
रह गयी थी।
आज माँ का वही गाना वह स्वयं गुनगुनाने लगी। कितनी
सधी मीठी आवाज़ थी माँ की! 'तुझे अँगरेजी स्कूल में
न भेजा होता, तो आज तक तू भी टप्पा-ठुमरी गा सकती
थी-क्या बढ़िया आवाज़ है, पर अब क्या खाक सीखेगी!'
सचमुच ही अपनी मीठी आवाज़ की मोहक गूँज पर कली
स्वयं मुग्ध हो गयी।
उसी स्वर के साथ सहसा बड़ी-बड़ी आंखोंवाली मुसकराती
एक और प्रेतछाया उसके तप्त ललाट पर हाथ धर
देती-तानी मौसी-कितनी बार कली उस कुछ-कुछ पहचानी
स्नेही आकृति का पूरा चेहरा याद करने की कोशिश
करती, पर कभी, दो मुसकराती आँखें पल्ले पड़ती, कभी
छोटे-से रसीले, हँसी फड़कते अधर। बुरी तरह से उलझे
बचपन के तानों-बानों में उलझकर वह फिर सो जाती।
उस दिन भी यही हुआ। सुबह उठी तो दिन चढ़ आया था। एक
बार वेलहैम को लेने अस्पताल जाना होगा, फिर दफ्तर।
होटल जाने पर फिर अभागा पॉल नहीं आने देगा, इसी से
वेलहैम को टैक्सी में ही भेजकर वह दफ्तर से सीधी
घर चली आएगी। पहले दफ्तर जाना होता, तो अम्मा से
बिना कहे वह पाँव भी बाहर नहीं निकालती थी, पर अब
नित्य प्रहरी बने दानव-से दामोदर के भय से वह हर
परदा
उठाने से पहले ऐसे झिझक-सहमकर भीतर झाँकती थी,
जैसे कोई जहरीला बिच्छू परदे की परत में छिपा बैठा
हो!
कमरे में ताला मारकर वह दवे पैरों निकल गयी। वैसे
चाहने पर वह शनिवार को आधी छुट्टी घर ही पर मना
सकती थी, पर जान-बूझकर ही वह इधर-उधर डोलती रही।
जिस घर में अम्मा के पास पैर फैलाकर छुट्टी के दिन
गप्पें मारने में उसे महा-आनन्द आता था, वही घर अब
उसे काट खाने को दौड़ता। लगता, सब उसे सन्दिग्ध
दृष्टि से पूरे जा रहे हैं। कहीं सरला अम्मा को भी
तो. उनके बेटे ने नहीं भड़का दिया? मन की व्यर्थ
आशंका से त्रस्त कली दिन डूबे घर लौटी, तो द्वार
पर ही कई ठोंगों से लदी-फँदी माया मिल गयी।
''बाप रे बाप, क्या-क्या खरीददारी कर लायी हो?''
हँसकर कली ने पूछा।
''क्या नहीं लायी, यह पूछो। मेवा मिष्टान्न,
कॉसमेटिक्स, रूमाल और फल। हाथ टूटे जा रहे हैं। उस
पर भी नारियल लाना भूल ही गयी। कल बड़े दा का टीका
चढ़ रहा है ना, चल रही हो ना कली?''
कल का नाम सुनते ही कली का उत्फुल्ल चेहरा मुरझा
गया। ''नहीं माया, तुमसे कहा था ना, कल एक जरूरी
काम से दिन-भर बाहर रहना है और फिर बड़ा एम्बरैसिंग
लगता है माया! न वे मुझे जानते हैं, न मैं उन्हें।
बेकार में 'दाल-भात में मूसरचन्द' बनकर क्या
करूँगी? परसों लौटकर तुमसे सब सुनूंगी। कल सुबह
तड़के ही उठकर जाना है, इसी से अभी जाकर लम्बी तान
रही हूँ।''
वह हँसकर कमरे का ताला खोलकर भीतर चली गयी। वैसे
इतवार के दिन कली दस बजे तक सोती रहती थी। कभी-कभी
तो अम्मा ही आकर उसे उठा जातीं, पर उस दिन उसने
चार ही बजे का अलार्म लाग लिया था।
नहा-धोकर उसने उस दिन अपने प्रमाणपत्र का नित्य का
मुखौटा उतारकर दूर धर दिया। वही जुड़वाँ लाल साड़ी
पहनकर वह दर्पण के सम्मुख खड़ी हुई, तो आत्मप्रशंसा
की झलक बड़ी-बड़ी आखों में उभर आयी। वाह-वाह, यह
साड़ी देखने में जितनी सुन्दर लगी थी, पहनकर और भी
सुन्दर लग रही थी। उगते सूर्य की अरुण रश्मियों का
जाल स्वयं ही खिड़की की सलाखों से उतरकर उसके चौड़े
आँचल पर बिखर गया। वैसे वह न बनारसी साड़ी देख सकती
थी, न किसी बनारसी साड़ी पहनने वाली को। उसे ऐसी
चटकीली साड़ी देखकर सदा कैलेण्डर में बनी सस्ती
तसवीरों का ही स्मरण हो आता था, या फिर अपने
विचित्र दिवास्वप्न के धूमिल प्रेत दरबार का!
झाड़-फानूसों के नीचे जगमगाते कितने ही बनारसी आँचल
उसके स्मृति-खण्डहर में केतुध्वज-से फहराने लगते।
एक बार पन्ना बक्स के तले से नेप्थलीन सुवासित
कितनी ही रंगबिरंगी साड़ियाँ निकाल लायी
थी-एक-से-एक भारी बनारसी साड़ियाँ!
''अब तू पहनेगी इन्हें, अब यह सिल्क भला कहां
मिलेगा और फिर ऐसी जरी,''
उसने बड़े लाड़ से कहा था।
पर तब तक कली ने उन भड़कीली साड़ियों की सभ्यता का
इतिहास अपनी अद्भुत घ्राण शक्ति से बहुत कुछ सूँघ
लिया था। इन्हीं साड़ियों को पहन-पहनकर अम्माँ ने न
जाने कितने पुरुषों को रिझाया-तड़पाया होगा। मुफ्त
में मिल रहे उस दामी गट्ठर को कली ने घृणा से नाक
सिकोड़कर वापस माँ की गोदी में डाल दिया था,
''थैंक्स अम्मा, पर ये सड़ी बनारसी साड़ियाँ मैं कभी
नहीं पहनूँगी।''
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