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कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 12361
आईएसबीएन :9788183619189

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कन्धे तक झूल रहे किंचित् कुंचित केश, निर्दोष चावनी बाँध लेनेवाली बड़ी आँखें, यत्न से सँवारी गयी 8वें और मूर्ति में तराशी गयी-सी उन्नत नासिका। "किस मूर्ख ने कहा है" प्रवीर सोचने लगा, “फलेन परिचीयते वृक्षः (कौन कहता है कि वृक्ष की पहचान फल से होती है ?) क्या सड़े गले किसी वृक्ष पर ऐसा लुभावना फल सचमुच ही लगा होगा ?"

"मैं हमेशा सोचती थी," कली कहती जा रही थी, “कि मेरे डैडी भी विवियन के डैडी-से ही होंगे, ऊँचे, अगले हाथ में दबी होगी सिगार ! तब मैं क्या जानती थी कि मैं हाथ में सिगार थमा भी देती तब भी शायद मेरे डैडी अपनी अंगुलियों के ह्ठ में उसे पकड़ नहीं पाते। अम्माँ इन्हीं विद्युतरंजन मजूमदार से कह रही थीं और मैंने छिपकर सब सुन लिया। डैडी की जिस इमेज़ को बनाने में अठारह साल लगे थे, वह तीन मिनट में मिटकर रह गयी। 'अपने को हूर समझती है छोकरी,' अम्मा कह रही थीं—'क्या पता, कोढ़ियों की भीड़ में ही शायद तुझे तेरा कोढ़ी बाप मिल जाये या नैना देवी के बाहर बैठी कोढ़ियों की पंगत में तेरी माँ !"

"पहले मुझे लगा, मैं पागल हो जाऊँगी। ऐसा कभी नहीं हो सकता। जहाँ किसी कुष्ठ रोगी को देखती, मुझे लगता, यही मेरा पिता है। एक बार जगने पर रात-भर बैठी रहती। कभी देखती, मेरी दोनों पैरों की अँगुलियाँ झड़ गयी हैं और लँगड़ा-लँगड़ा भीख माँग रही हूँ, कभी देखती, मेरी यह नाक, जिसका मुझे इतना गुमान है, बीभत्स बनकर भीतर धंस गयी है। जहाँ लेप्रेजी का लिटरेटर मिलता, दीमक बनकर चाट जाती। आरम्भ में कैसे यह रोग छद्मवेशी शत्रु की भाँति आकर कन्धे पर हाथ रखता है, सब मैंने जान लिया। कभी एकान्त कमरे में मैं घण्टों अपनी त्वचा को टटोलती, क्या पता कहीं पैतृक रोग किसी कोने में कुटिल शत्रु-सा दुबककर बैठा हो।"

कली का हाथ प्रवीर के घुटनों से लगा बार-बार काँप रहा था। “देश-विदेश में जब-जब मेरे सौन्दर्य को पत्र-पुष्प समर्पित होते, नियति साथ चल रही किसी शुभेच्छु का शेप्रन की ही भाँति मुझे अन्तरात्मा के एकान्त कक्ष में खींचकर समझाने लगती, 'डोण्ट लेट इट गा टु योर हेड !' प्रशसा का मद शैम्पेन का-सा ही मद होता है, 'इट गोज़ टु योर हेड इन नो टाइम' और जहाँ एक बार उतरा, 'इट मेक्स यू फील मिजरेबल।' फिर भी मैं विश्व मेले के प्रांगण से उसी मद में झूमती अपने होटल के अकेले कमरे में लौटती, तो नशा उतर जाता। लगता, मेरे दीन-दरिद्र, पंगु माता-पिता मेरे सिरहाने खड़े होकर मुझे फटकारने लगे हैं—विलास, वैभव और ऐश्वर्य से अन्धी लड़की, तेरे माँ-बाप गली-गलियों में भीख माँग रहे हैं, उनके अमरीकी दूध के खाली डिब्बे के भिक्षापात्र में एक नया पैसा भी खनकता है, तो उनकी आँखें चमकने लगती हैं। और तुझ पर ऐसे विदेशी डॉलर बरस रहे हैं ! क्या तुझे शर्म नहीं आती ?"

कली ने यत्न से सिसकी दबाकर प्रवीर के घुटनों पर सिर रख दिया। फैले झबरे बालों पर स्वयं ही प्रवीर का हाथ चला गया। उसी स्पर्श से चौंककर कली ने सिर उठाया। अविश्वास से सिर सहलानेवाले को देखने की चेष्टा की, पर अन्धकार में केवल स्पर्श ही हाथ आया। उसी हाथ को कली ने कसकर पकड़ लिया। "चाहती तो मैं एक विदेशी लक्षाधिपति को छलकर उसकी अगाध सम्पत्ति हथिया सकती थी। बेचारा मेरे प्रेम में एकदम पागल हो गया था। उसने विवाह का प्रस्ताव रखा और मैंने अपने जन्म का टेप खोल दिया। फिर अभागे ने पलटकर नहीं देखा। कहीं तुमने ऐसा ही प्रस्ताव रखा होता, तो क्या मेरा टेप सुनकर भी मुझे ग्रहण कर पाते ?' वह हँसकर पूछती उसके शरीर से सट गयी—'शायद नहीं—इसी से तो मैं अपनी जीवन-दात्री को कभी क्षमा नहीं कर पाती। मुझे बचा तो लिया, पर फिर मेरे गले में पत्थर अटका, मर हाथ-पर बांध मुझे गहरी झील में तैरने के लिए छोड़ दिया।"

"कली," अपने मुँह से बड़ी स्वाभाविकता से फिसल गये उस दो अक्षरों के नाम की खनक से प्रवीर चौंका नहीं।
"बहुत रात हो गयी है, अब चलो।"
वह उठ गया पर कली घुटनों में सिर छिपाये वैसी ही बैठी रह गयी। यह तो विद्रोहिणी कली का नया ही रूप था। सदा से ही मॉडलिंग के विदेशी स्कूल में कन्धे सतर कर सिर उठाये चलने की शिक्षा पायी कली अचानक नतमुखी कैसे बन गयी।
"चलो, घर चलें।" प्रवीर ने बिना किसी झिझक के बड़े आदर से उसका हाथ पकड़ लिया।
“घर ? फिर कहो एक बार-चलो घर चलें।" वह उठनेवाली की हँसी थी या सिसकी ? खड़ी होकर कली प्रवीर की बाँह में लता-सी लिपट गयी।
"क्या अपनी अम्मा के सामने, अपनी कुन्नी के सामने मेरा हाथ पकड़कर ऐसे ही कह पाओगे, चलो घर चलें ?
''मेरे गलित वंश की महिमा क्या इतनी जल्दी भूल गये ? मैंने ऐसी वेश्या का स्तनपान किया है, जिसकी धमनियों में फिरंगी का रक्त बहता था। दोगली सन्तान को साथ लेकर फेरे फिरना वह भी अग्नि को साक्षी धरकर इतना सहज नहीं होता। फिर भी अनजान बनकर कहते हो, चलो घर चलें ! ख़बरदार, अब ऐसा मत कहना, क्या पता कहीं सचमुच ही बाँह पकड़कर साथ चल दूँ।" वह उसे छेड़ती, बाँह से झूलती चलने लगी।

प्रवीर ने बाँह छुड़ाने की चेटा नहीं की। कार के पास पहुँचकर उसने बड़ी
स्वाभाविक भद्रता से पिछला द्वार खोल दिया और ऐसे खड़ा हो गया जैसे स्वयं उस गर्वीली स्वामिनी का दीन-हीन चालक हो।

कली ने लपककर द्वार बन्द कर दिया और चालक की सीट के पार्श्व में बड़े अधिकार से तनकर बैठ गयी। प्रवीर बिना कुछ कहे दूसरा द्वार खोलकर व्हील साधने लगा।

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