आलोचना >> हिन्दी कहानी की इक्कीसवीं सदी हिन्दी कहानी की इक्कीसवीं सदीसंजीव कुमार
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जब आप एक कहानीकार पर या किसी कथा-आन्दोलन पर समग्र रूप में टिप्पणी कर रहे होते हैं, तब ‘ज़ूम-आउट मोड’ में होने के कारण रचना विशेष में इस्तेमाल की गई हिकमतों, आख्यान-तकनीकों, रचना के प्रभावशाली होने के अन्यान्य रहस्यों और इन सबके साथ जिनका परिपाक हुआ है, उन समय-समाज-सम्बन्धी सरोकारों के बारे में उस तरह से चर्चा नहीं हो पाती। कहीं समग्रता के आग्रह से विशिष्ट की विशिष्टता का उल्लेख टल जाता है तो कहीं साहित्यालोचन को प्रवृत्ति-निरूपक साहित्येतिहास का अनुषंगी बनना पड़ता है। इसलिए इस संकलन की ऐसी कोई प्रच्छन्न दावेदारी न मानी जाए कि यहाँ जिन कहानियों पर बात हुई है, वे ही इस सदी के गुज़रे 18 सालों की सबसे उम्दा कहानियाँ हैं। वैसे भी उम्दा ही चुनना होता तो उदय प्रकाश और शिवमूर्ति की उन कहानियों को क्यों चुनता जिनका मैं (किसी हद तक) कटु आलोचक हूँ। तो कह सकते हैं कि ये लेख समकालीन कहानी की महत् सूची प्रस्तावित करने के बजाय इस बात की प्रस्तावना हैं कि कहानी कैसे पढ़ी जाए। मुझे कविता पढ़ना नहीं आता। यह बात मैं कई बार दुहरा चुका हूँ। ये लेख गोया यह साबित करने की कोशिश हैं कि मुझे कहानी पढ़ना आता है।
— भूमिका से
— भूमिका से
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