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एक आदमी की मौत

चन्द्रमौलि

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1994
पृष्ठ :125
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1244
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है 23 तेलुगु कहानियों का हिन्दी रूपान्तर....

Ek Aadmi Ki Maut

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अपनी बात

‘अपनी बात’ शीर्षक के अन्तर्गत इन कहानियों को लेकर मैं अपनी ओर से कुछ नहीं कहना चाहूँगा, ऐसा करना ठीक भी नहीं है। यह तो सहृदय पाठक और प्रबुद्ध समीक्षक को देखना है कि मेरी ये कहानियाँ उन्हें कैसी लगीं और साहित्यिक कसौटी पर कहाँ तक खरी उतरती हैं। मैं तो इन कहानियों की विषय-वस्तु को लेकर संक्षिप्त में कुछ कहना ही अपना कर्तव्य समझ रहा हूँ।
इस संग्रह में 23 कहानियाँ हैं। विषय-वस्तु की दृष्टि से आप चाहें तो इन्हें तीन वर्गों में विभाजित कर सकते हैं। पहले वर्ग में उन कहानियों को लिया जा सकता है जिनमें व्यक्ति मात्र व्यक्ति होता है यह समाज है जो अपने स्वार्थों के वशीभूत हो उसे किसी धर्म या जाति में बाँटता चला आया है। ‘एक आदमी की मौत’ और ‘तीन चेहरे दो हाथ’ जैसी कहानियाँ इसी वर्ग में आती है।

‘एक आदमी की मौत’ में एक ऐसे मज़दूर का चित्रण है जो किसी निर्माणाधीन इमारत में काम करते-करते ऊपरी मंजिल से नीचे गिरकर मर जाता है। उसे तब कोई नहीं पहचानता लेकिन अन्त्येष्टि के समय यह प्रश्न उठता है कि उसे जलाया जाये या दफनाया जाये। अन्त में छोटा मिस्त्री यह कहकर समाधान करता है कि जब तक जीवन है तभी तक वर्ग-भेद है। मरने के बाद, क्या फर्क पड़ता है उसे दफ़नाये या जलाये जाने में।
‘तीन चेहरे दो हाथ’ एक ऐसी भिखारिन की कहानी है जो भीख माँगने के लिए कभी हिन्दू के वेश में मन्दिर के द्वार पर जाकर खड़ी हो जाती है, तो कभी मुसलमान बनकर मस्जिद के आगे, और कभी ईसाई बनकर गिरिजाघर के सामने। भूख की शान्ति ही उसका सबसे बड़ा धर्म है।
दूसरे वर्ग की कहानियों में नारी की मनोव्यथा का या उसके बदलते हुए सामाजिक सरोकारों का चित्रण है। संग्रह की अधिकांश कहानियाँ इसी वर्ग की है। ‘और नदी बह गयी’ में एक ऐसी वेश्या की मनःस्थिति का चित्रण है जो शिव की आराधिका बन जाती है। अपनी कमाई से या फिर किसी ग्राहक को पटाकर उससे वह प्राचीन शिवालय का जीर्णोद्वार करवाती है।
‘गहरे पानी’ में एक ऐसी युवती का चित्रांकन है जो एक प्रसिद्ध रचनाकार की प्रशंसक बन उससे निकटता स्थापित कर लेती है। लेकिन गहरे तक डूबने से पहले ही उसे सारी सच्चाई का पता चल जाता है। ‘अपनी राह’ की नायिका भी एक युवती है। उच्च शिक्षा पाने और नौकरी की जब चाह थी तब तो उसे मना कर दिया गया और ब्याह दिया, लेकिन विधवा हो जाने पर उसे जब नौकरी करने के लिए बाध्य किया जाता है तो वह उसका प्रतिवाद करती है और अन्त में अपनी राह स्वयं ढूँढ़ लेती है।
‘सत्ता’ एक वृद्ध महिला की आजीविका की स्थिति को लेकर लिखी गयी है। स्वर्गस्थ पति की पेंशन प्राप्त करने के लिए दफ्तर के चक्कर लगाते-लगाते वह थक चुकी है। अन्त में एक महिला-अधिकारी ही उसकी पीड़ा को समझ सकी।
‘मुखौटे के पीछे’ कार्यालय में काम कर रही एक ऐसी युवती की कहानी है जिसे कार्यालय में देर हो जाने पर घर वापिस आते समय गली के बदमाश गुण्डों से भय है, पर जिसे गुण्डे ही बचाते हैं..एकान्त का फ़ायदा उठाकर उसे उसके तथा-कथित ‘अंकल’ के हाथों से। ‘रिश्ता’ अवकाश प्राप्त एक निःसंतान महिला की कहानी है। वह अपने रिश्तेदारों से अलग एक अनाथ लड़की को नौकरी के लिए सहायता देकर उससे अपने बेटे जैसा रिश्ता बाँध लेती है। ‘फिर वही कल’ में एक ऐसी नायिका की परिस्थिति का चित्रण है, जिसका पति हर समय तनाव-ग्रस्त रहता है। सहज होता भी तो क्षण-भर के लिए। और ‘वह घर’ एक ऐसी बदनसीब औरत को लेकर लिखी गयी है जिसकी परिस्थितियाँ उसे वेश्या बनने के लिए मजबूर कर देती हैं। काश, समय पर उसे कोई सहारा देने वाला मिल गया होता तो आज उसे यह नरक की यातना न भोगनी पड़ती।
‘माधवी’ में एक खूबसूरत लड़की की घटना है। अपने कुल के बाहर किसी युवा से उसने प्रेम-विवाह कर लिया है। उसके पिता इस बात से क्रुद्ध हैं और उससे सारे सम्बन्ध तोड़ लेते हैं, लेकिन उनका पड़ोसी माधवी को पिता का प्यार और ममत्व देकर उसके इस अभाव को पूरा करता है।
‘सोमा’ कहानी एक अर्थ में इन सबसे निराली है। स्वीडिश युवती सोमा अपने भारत-प्रवास में यहाँ की गरीबी देखकर लोगों का जीवन-स्तर सुधारने के लिए कलकत्ता में आकर मदर टेरेसा के ‘होम’ में सेवा-कार्य करने के लिए दृढ़ संकल्प है। उसके स्वीडिश माँ-बाप इससे दुःखी हैं। लेकिन वह अपना निश्चय नहीं बदलती। भारत लौटने पर उसे पता लगता है कि उसके जन्मजात संस्कार ही भारत के हैं भारत में जन्मी एक गरीब की सन्तान है वह, जिसे स्वीडिश दम्पती बचपन में ही अपनी बेटी की तरह पाल-पोसने के लिए अपने देश ले गये थे।
और भी अनेक ऐसी कहानियाँ हैं इस संग्रह में, जो नारी या पुरुष की या फिर दाम्पत्य की मनःस्थितियों को दर्शाती हैं। ऐसी कहानियों में प्रमुख हैं-‘नीले रंग की साड़ी’ ‘समानान्तर रेखा,’ ‘बिखरते साये’ और ‘नागफनी’।
प्रस्तुत कहानी-संग्रह में कुछ-एक ऐसी कहानियाँ भी सम्मिलित की हैं जो इस दोनों वर्गों से भिन्न कही जा सकती हैं। ऐसी कहानियों में घटना में अचानक बदलाव आने की स्थिति के कारण व्यक्ति के जीवन में आने वाले किसी नये मोड़ का चित्रण है। ‘स्पर्धा’ ‘स्वामी जी’ ‘सिफारिश’ ‘मैं फिर आऊँगा’ आदि कहानियाँ इसी वर्ग में आती हैं।
‘विकेट गिरा’ इन सबसे भिन्न एक हास्य कहानी है। क्रिकेट खेल की शब्दावली का ज्ञान न रखने वाले गाँव के एक प्रौढ़ सज्जन क्रिकेट कमेंट्री सुनकर उसका जो आशय लगाते हैं, वह सब हास्य का कारण बन जाता है।
संग्रह की ये सभी कहानियाँ तेलुगु मूल में प्रकाशित हो चुकी है। हिन्दी में यह मेरा दूसरा कहानी-संग्रह होगा।
तेलगू भाषा के समीक्षकों ने उन्हें खूब सराहा है, यह सोचकर मैंने उन्हें हिन्दी में रूपान्तरित कर हिन्दी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रायास किया है। तेलगू भाषा-भाषी होने के कारण निश्चित ही इसके हिन्दी कथ्य में उतना सौन्दर्य नहीं आ सका होगा। इसके लिए हिन्दी पाठक को कहानी की अन्तरात्मा परखने में कुछ कठिनाई हो सकती है, यह मैं भली-भाँति समझता हूँ। लेकिन राष्ट्रभाषा हिन्दी में लेखन का मेरा प्रयास व्यर्थ नहीं जायेगा, यह भी मुझे अहसास है।
अन्त में भारत की ख्याति-प्राप्त संस्था भारतीय ज्ञानपीठ का आभारी हूँ कि उसने हमारे इस संग्रह को प्रकाशित करना स्वीकार किया।

चन्द्रमौलि

एक आदमी की मौत


‘अय्यइयो ! अम्मा ! ’
    -क्या आसमान की दुनिया पर तह जम गयी है या जमीन पैरों के नीचे से खिसक गयी है ? औरतों और आदमियों की भयावह आवाजों ने हवा को कँपा दिया था इससे पहले कि वे एक उल्का की तरह आसमान की ऊँचाइयों को छुएँ या ज़मीन की गहराई नापें, वह कंक्रीट से भरी लोहे की बाल्टी लिये हुए ज़मीन पर गिर पड़ा। आवाज़ें अब भी हवा में तैर रही थीं।
सारा निर्माण रुक गया। कंक्रीट मिलाने वाली मशीन रुक गयी। कंक्रीट से भरी लोहे की बाल्टियाँ जहाँ की तहाँ ठहर गयीं। काम करते हुए आदमियों के हाथों की गति रुक गयी। इस नये निर्माण में जितनी शक्ति खर्च हुई थी, वह नष्ट हो गयी। सैकेण्ड से भी कम समय में लोहे की एक बाल्टी नीचे गिरी। वह अधबनी तिमंजिला इमारत काँप उठी थी। सबके- देखते-देखते यह हो गया। एक गलती ने सब कुछ नष्ट कर दया। हजारों जोड़ी आँखें उस गिरती हुई चीज को देख रही थी। लेकिन सूर्पनखा की तरह, जिसे अपने नाक-कान खोने पड़े थे या विश्वामित्र की सृष्टि की तरह हर चीज चकराकर रह गयी थी। आखिर ग़लती किसकी थी ? कैसे हुआ यह ? वह ज़मीन पर बिखर गया ! एक सितारा टूटकर गहराई में समा गया ! भयानक तूफान ने समुद्र को मथ डाला !
कंक्रीट को पीसने वाला पहिया रुक गया, कंक्रीट जस्ते पर फैल गया। फैले हुए कंक्रीट को समेटने वाला फावड़ा रुक गया, जैसे कोई कंजूस जमीन पर बिखरे हुए सिक्कों को समेटते-समेटते रुक गया हो। लोहे की बाल्टी का मुँह भयानक ढंग से खुल गया था। उसे थामने वाले हाथ निर्जीव हो गये थे। कंक्रीट और ईंटे ढोने वाले मज़दूर स्तब्ध रह गये थे, उनकी नसों का खून जम गया था।
वे भवन-निर्माण के लिए बनाये गये बाँसों के प्लेटफार्म पर ख़ामोश हाथ और दिमाग़ लिए भौचक्के खड़े थे। मिस्त्री, जो तीसरी मंज़िल की स्लैब की देखभाल कर रहा था, आश्चर्यचकित था। वह कारण नहीं समझ सका था। ज्योंही उसने नीचे देखा...
अँधेरी रात की तरह घने भय से सबको जकड़ लिया था। जीवन का स्वर यकायक कहीं विलीन हो गया था।
इस बीच ‘‘अय्यइयो ! अम्मो !’’ की चीख के सिवाय सब जगह क़ब्रिस्तान जैसी ख़ामोशी थी। लेकिन अनेक दिलों में लगता था, जैसे सैकड़ों हाँर्सपाँवर की मोटर निरन्तर चल रही हो।
ऊपर से मिस्त्री चिल्लाया। जैसे किसी निशानेबाज़ की गोली से पक्षी गिर रहे हों, मज़दूर एक-एक कर नीचे उतरने लगे। उस समय वे अपनी ज़िन्दगी के प्रति प्यार, अपने अस्तित्व, भय और मस्तिष्क की सुन्नता को भूल गये थे। वह तीन मंजिली इमारत जो अभी तक गूंज और चमक रही थी, अब अपना सारा सौन्दर्य खो चुकी थी।
अब उसके चारों ओर भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। लोगों के ह्रदय, अपने स्वभाव के प्रतिकूल सहानुभूति से भर गये थे।
फटी हुई बनियान उसके शरीर को ढके थी। धोती घुटनों पर खिसकी हुई थी। सिर के घावों में खून बह रहा था। एक आदमी उसे पोंछ रहा था। पुलिस आ गयी थी। वह लाश की अपेक्षा लोगों पर अधिक ध्यान दे रही थी।
वहाँ इकट्ठा हुए लोग मिस्त्री से प्रश्न करने लगे। मिस्त्री की देह भर वहाँ थी, दिमाग तो कहीं और था। किसी ने कहा, ‘इमारत को एक बलि चाहिए थी’ धीरे-धीरे सारे मज़दूर वहाँ आ गये। दिन ढलने को था। इमारत के बगल में खड़े पेड़ पर पक्षी लौटने लगे थे।
चूना पीसने की चक्की बन्द थी। उसे खींचने वाला भैसा वहीं खड़ा था। भैंसा हाँकने वाला आदमी भी काम रोककर यह तमाशा देखने चला आया था। सीमेण्ट की गन्ध पूरे क्षेत्र में फैली हुई थी। साथ ही पुलिस को इसमें भ्रष्टाचार की गन्ध महसूस हो रही थी।
‘ऐ मिस्त्री, यहाँ आओ,’ पुलिस का एक सिपाही दहाड़ा। दूर से धूल उड़ाती हुई एक कार आ रही थी। कार वाला लगातार हार्न बजा रहा था।
पुलिस ने मिस्त्री को एक ओर हटा दिया।
‘यह कौन है ?’’ एक सज्जन पूछ रहे थे।
‘‘मज़दूर !’’ किसी ने जवाब दिया।
‘‘कैसा हुआ यह ?’’ भीड़ से अजनबी आवाज़ उभरी।
‘‘वह ऊपर से गिर गया।’’
‘‘ओह बड़े दुःख की बात है। अब देर क्यों की जा रही है ? उसे अस्पताल ले जाइये।’’ एक युवक ने कहा।
‘‘अस्पताल, अस्पताल...’’ सभी की जुबान पर यही शब्द थे। एक आदमी टैक्सी लेने दौड़ गया। दूसरे ने रिक्शा के लिए आवाज़ लगायी। एक कार वहाँ पहले से ही रुकी थी। टैक्सी भी आ गयी। रिक्शा भी था।
‘‘इसे टैक्सी में रखो,’’ टैक्सी लाने वाला व्यक्ति बोला।
रिक्शा लाने वाले ने कहा, इसे रिक्शे में चढ़ाइए।
कार वाला भी उतर आया था। बोला, ‘‘चलो, इसे पीछे की सीट पर लिटा दो।’’
चार मजदूरों ने अपने साथी को उठाया। उसके शरीर से बहने वाले खून ने धरती रँग दी थी। उसके काले बाल लाल हो गये थे। दाँत टूट गये थे और मुँह से भी खून निकल रहा था। उसका चेहरा बुरी तरह सूजा हुआ था वह पूरी तरह बेहोश था। उसे पता नहीं था कि इतने लोग क्यों उसे सहानुभूति दिखा रहे हैं। लोगों ने पैसे बचाने के लिए उसे कार में रख दिया।
पुलिस अपने काम में लग गयी। उन्होंने सब जगह की नाप ली और रिपोर्ट तैयार कर ली। दो पुलिस वाले कार में बैठ गये, दो मज़दूर भी उनके साथ थे। मिस्त्री को रोक लिया गया। एक सब-इंस्पेक्टर, जो बाद में आया था, मिस्त्री को डराने-धमकाने लगा, क्योंकि वह उसका शिकार था।
‘‘तुम्हारा गाँव कौन-सा है ? नाम क्या है तुम्हारा ?’’ फिर सब इंस्पेक्टर असली मुद्दे पर आया। मिस्त्री को अस्पताल जाने की जल्दी थी।
‘‘बात घुमा-फिराकर क्यों कर रहे हैं, सीधे से कहिए, आप क्या चाहते हैं ?’’ मिस्त्री बोला। उसे पैसे कमाने का अनुभव था और उस आदमी को बनाये रखने के लिए यह खर्च करना भी जानता था। सब-इंस्पेक्टर मुस्कराया। पास में खड़े सिपाही ने उसकी मुस्कान की व्याख्या दी-इसकी कीमत पच्चीस है। मिस्त्री ने सब-इंस्पेक्टर से पिण्ड छुड़ाया और अस्पताल के लिए चल दिया।
दुर्घटना उसके दिमाग़ में उभरने लगी। यह पहला मौका था, जब वह ऐसी परिस्थितियों में फँसा था। अतीत में उसने बहुतों को ज़िन्दगी और ज़िन्दगी के साधन ही दिये थे। एक बार एक आदमी उसके कारण परेशानियों में फँस गया था...उसे उस मज़दूर पर दया आ गयी थी।
अभी ऑटो रिक्शा कुछ ही गज़ चला था कि मोटर-साइकिल पर सब-इंस्पेक्टर आया और बोला, ‘‘उसका नाम क्या है ?’’
‘‘किसका ?’’ मिस्त्री ने भौंहे सिकोड़कर पूछा।
‘‘उसी गधे का, जो गिर गया है।’’
‘‘मैं पता लगाऊँगा और आपको बता दूँगा, मिस्त्री ने कहा।’’
अस्पताल पहुँचकर जैसे ही मिस्त्री रिक्शे से उतरा, छोटा मिस्त्री दौड़ा-दौड़ा उसके पास आया और बोला, ‘‘नाम क्या है उसका ?’’
मिस्त्री ने झुँझलाकर कहा, ‘‘किसका ?’’
‘‘उसका.... वह जो मर गया है।’’
‘‘ओह ! वह मज़दूर मर गया ?’’ मिस्त्री के शब्दों में घबराहट भर गयी थी।
‘‘जी, कोई उसका नाम नहीं जानता। मैंने सोचा, कम-से-कम आप तो जानते ही होंगे। डॉक्टर पूछ रहा था..क्या वाकई आप नहीं जानते ?’’
‘‘तुमने उसे आज काम दिया था, तुम्हें ही मालूम होना चाहिए।’’
छोटा मिस्त्री लौट गया। उसने सभी मज़दूरों से पूछा, लेकिन कोई भी उसका नाम न बता सका।
‘‘डाँक्टर आपको बुला रहे हैं,’’ एक मज़दूर ने मिस्त्री से कहा।
मिस्त्री अन्दर चला गया।
‘‘वे लाश सुबह देंगे।’’ रामा रेड्डी नाम का एक राजगीर बोला, अगर कोई नहीं आया तो वहीं उसका संस्कार कर देंगे।
‘‘क्या वह हिन्दू था ?’’ पीर साहब बोले।
‘‘हाँ, वह हिन्दू था, क्या तुम उसे पहचान नहीं सकते ?’’ रामा रेड्डी ने कहा।
‘‘इस बात का कोई सबूत...‍’’ जोसफ बीच में बोल पड़ा।
कोई उसे हिन्दू बता रहा था, कोई मुसलमान लेकिन जोसफ तटस्थ था हालाँकि उसकी मुस्कान से लगता था कि वह सन्तुष्ट नहीं है। अलग होने से पहले सब के सब अस्पताल में गये। चारपाई पर उस आदमी की लाश पड़ी थी, जिसका कोई नाम नहीं था और न कोई रिश्तेदार।
अब सुबह हो गयी थी। वह तिमंजिला इमारत, जो शाम को अपनी रौनक खो चुकी थी, इस सुबह फिर से ताजा थी। मानव-निर्माण ईश्वरीय निर्माण से ऊँचा उठ रहा था, लेकिन मज़दूरों के दिमाग़ में पिछली शाम की घटना भरी हुई थी। सूरज ऊँचा उठ गया था। छोटा मिस्त्री आ चुका था।
लंच हो गया। मज़दूर सोच रहे थे कि उसका संस्कार कैसे हुआ होगा, छोटा मिस्त्री काम की प्रगति के बारे में बहुत से सवाल पूछ रहा था। राजगीर रामा रेड्डी से रहा नहीं गया, उसने पूछ लिया, छोटे मिस्त्री ! उसे दफनाया या जलाया गया।
छोटा मिस्त्री झुँझला उठा, ‘‘आखिर वह मर गया। अब उसे दफनाया जाय या जलाया जाय, इससे क्या फ़र्क पड़ता है..?’’

स्पर्धा

‘‘आओ ! अँगूठा लगाओ !’’ चश्मा नाक के ऊपर सरकाता हुआ, तिजोरी से पैसे निकालता हुआ चक्रवर्ती बोला। आगमय्या ने अपनी आदत से अँगूठा बढ़ाकर ‘स्टैम्प पैड’ पर दस्तख़त नहीं किये, बल्कि अपनी जेब से एक रूपये का सस्ता पेन निकाल कर बीस पैसे के रसीदी टिकट पर उसे काटते हुए दस्तख़त किये।
चक्रवर्ती की भौहें अचरज से ऊपर चढ़ गयीं।
‘‘ये कब से ?’’ आँखें फाड़कर आगमय्या की ओर देखते हुए चक्रवर्ती ने पूछा। आगमय्या कुछ बुदबुदाया। ‘‘लो’’ उसकी ओर ध्यान नहीं देते हुए पैसे गिनकर आगमय्या की ओर बढ़ाते हुए चक्रवर्ती बोला।
पैसे लेकर, ब्यौरा पूछे बिना ही आगमय्या आगे जाने लगा। कई सालों से चक्रवर्ती आगम्यया को तनखाह देता गया है लेकिन आज ही ऐसा अवसर था जब अगमय्या, जो, अनपढ़ था, कुछ पूछताछ के बिना चला गया। चक्रवर्ती को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था।
पाँच साल पहले जब यह कारख़ाना खुला था, पोचय्या पहला कुली था। अधेड़ होकर भी अपने जाति-धर्म को छोड़कर इस नौकरी में लग गया था। उसकी उम्मीद थी कि यहाँ उसका भविष्य सँभल जाएगा।
उन दिनों चक्रवर्ती ने भी ज्वाइन नहीं किया था। मालिक ही सब काम-काज देखता था।
पोचय्या का बेटा आगमय्या बेकार था। पोचय्या ने मालिक के पाँव छूकर आगमय्या की नौकरी लगवाई थी।
कारख़ाना दिन-ब-दिन बढ़ता गया। मालिक चक्रवर्ती को ले आया था। अब रोज़मर्रा का काम चक्रवर्ती ही देखने लगा था। कुलियों की संख्या भी बढ़ गयी थी। पोचय्या से लेकर आगमय्या तक किसी को कोई बाधा हो, कुछ समस्या हो, चक्रवर्ती ही निबटाता था।

पोचय्या जाति से चमार था। जूते सीकर जिंदगी जी रहा था। गाँव में उसकी कोई इज़्ज़त नहीं थी। फिर भी वह ख़ुश था कि आगमय्या के पल्ले वह काम नहीं पड़ा। अब दोनों कारख़ाने के कुली हैं।
जहां एक समय जंगल था, वहाँ अब कारख़ाना लग जाने से बड़ी तरक़्की हो गयी। कारख़ाना भी दिन-ब-दिन बढ़ने लगा। एक दिन ट्रकों में बड़ी-बड़ी मशीनें आ पहुँचीं। सब कुली मशीनों को कौतुक से देखने लगे। सिर्फ़ यह मालूम हुआ कि उन्हें विलायत से मँगवाया गया है। लाखों रुपये की लागत लगी है। दिनभर आगमय्या का मन अपने काम पर नहीं लगा। वह उन्हीं मशीना के पास खड़ा हो मशीनें देखता रहा।
कुछ दिनों बाद कई कुली भर्ती हो गये। नयी-नयी मशीनें बिठाने लगे।
पुराने कुली नयी-नयी मशीनों के पास आ-आकर उन्हें कौतुक से देखने लगे। नये कुली इन लोगों को देखकर मज़ाक उड़ाने लगे। लेकिन आगमय्या का मन न माना। वह दूर खड़ा देखता रहा। अचानक उसके मन में कुछ झुंझलाहट सी उभर आयी, तो उसने कुछ सवाल पूछे।
नये कुली अनसुना करके अपना काम करते रहे। आगमय्या ने फिर उन लोगों से बात करने की कोशिश की। लेकिन नये कुली ने उसे धकेलकर भगा दिया।
आगमय्या का मन आग बबूला हो गया। उस अपमान  को वह सहन नहीं कर पा रहा था। मन-ही-मन वह जलने लगा। उसके मन में स्पर्धा जग आयी। उससे रहा नहीं गया। पुराने कुली चाहते थे कि उन्हें भी नयी मशीनों पर काम करने दिया जाये। आपस में सलाह मशविरा करके उन सबों ने मालिक से मिलने का निर्णय किया। लेकिन मालिक से मिलना, बात करना आसान काम नहीं था। पोचय्या, जो उम्र में सबसे बड़ा था, उससे उन्होंने आग्रह किया। दो दिन सोच-विचार के बाद मालिक से मिलने पोचय्या नें इंकार कर दिया।
‘‘मालिक की मेहरबानी से ही हमें रोटी, कपड़ा मिल रहा है। उनसे टकराना मुझे पसन्द नहीं।’’ पोचय्या  सबसे साफ़-साफ़ कह दिया।
पुराने कुलियों के नशीब में यही लिखा था कि वे नये कुलियों को माल पहुँचाएँ। उन्हें यह अपना अपमान लग रहा था। पोचय्या के कहने के बाद भी आग सुलगना बन्द नहीं हुआ। पुराने मज़दूरों को नये  लोगों से यह अपमान सहा नहीं गया। अब आगमय्या उन लोगों के आगे था।
‘‘मालिक के पास जाने के लिए मैं तैयार हूँ। जो लोग आना चाहते हैं वे आ सकते हैं।’’
आगमय्या बड़े साहब के कमरे के पास आया, उसके पीछे कई लोग आये थे।
‘‘हम उनका नमक खा रहे हैं। उनकी औलाद के समान हैं। अपने सुख-दुःख उन्हीं को कह सकते हैं। इसमें ग़लती क्या है ?’’ आगमय्या भड़क उठा। बड़े साहब के कमरे में बिजली चमक रही थी। बाहर ऑफ़िस-बॉय बैठा था।
उसने आगमय्या को अन्दर जाने से मना कर दिया।
‘‘साहब से पूछ लो,’’ आगमय्या ज़ोर से बोला।
बॉय कमरे के अन्दर जाकर आया। धीरे से दरवाज़ा खोला।
‘‘क्या, आगमय्या ! बात क्या है ?’’
ऊपर पंखा ज़ोर से चल रहा था, फिर भी आगमय्या का बदन पसीना-पसीना हो गया। लेकिन मन सुलग रहा, अन्दर से खीज उबल रही थी। उद्वेग उसे आगे ढकेल रहा था, लेकिन कहीं अंदर भय उमड़ रहा था। बड़े साहब के सामने वह खड़ा नहीं हुआ था। सामने ही वे बैठे थे।
आगमय्या ने धीरे से अपने को सँभाल लिया, फिर भी बातें उसके होंठों से रिसक पड़ीं :
‘‘साहब हम आपके ग़ुलाम हैं। यह सब न्याय नहीं है। इतने दिनों से हम आपके चरणों में जी रहे हैं।’’
आगमय्या को जो कुछ कहना था वह उगल दिया। वह हाँफने लगा
बड़े साहब उसकी ओर अचरज से देखने लगे, उन्होंने पूछा, ‘‘तुम क्या कहना चाहते हो ?’’
‘‘वही...वही...ये नये कुली...’’ उद्वेग से वह साफ़ शब्दों में कह नहीं पा रहा था। डर से उसकी साँसें स्तब्ध हो गयीं। वह पीछे मुड़कर आने वाला ही था, कि कमरे के बाहर उसके साथियों के दस-दस पांव, दस-दस आँखें उसे सचेत करते दीखे। वह अपना हौंसला जमाते हुए उसने फिर मालिक की ओर देखा।

‘‘हमसे वे लोग कैसे बड़े हैं, हम पहले से ही यहाँ हैं, हमें ठुकरायें नहीं साहब।’’
एक पल के लिए आगमय्या रुक-सा गया। वह चाहता था कि बड़े साहब कुछ कहें। लेकिन बड़े साहब ख़ुद सोच रहे थे कि आगमय्या कुछ कहेगा। आगमय्या डर के लपेट में फिर आ गया, लेकिन बिना प्रयत्न ही वह कह गया-‘‘उन लोगों को इतनी-इतनी तनख्वाह ? क्या हमसे वे लोग बेहतर हैं ?’’
बड़े साहब ने सिगरेट का आख़िरी कश लेकर उसे ही ऐशट्रे में डाल दिया।
‘‘किसकी चाल है—या तुम्हारी ही है...? वे लोग जो काम जानते हैं—उसका दसवाँ भाग भी तुम जानते हो ? वे मशीन चलाते हैं, रिपेयर कर सकते हैं। तुम ...’’ ? बड़े साहब खीज कर बोल रहे थे।
‘‘वे लोग ही क्यों ? हम भी कर सकते हैं। हमें काम तो दीजिए, हम भी काम करके दिखाते हैं—हम लोग आपके पैर छूते हैं। कारख़ाने की तरक़्क़ी के साथ हमारी तरक़्क़ी भी होनी चाहिए।’’ आगमय्या बीच में ही बोल पड़ा। इस तरह आगमय्या का उनको अनसुना करना, बड़े साहब को अच्छा नहीं लगा, नाराज़ हो गये वह।

 

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