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कथा जगत की बागी मुस्लिम औरतें

राजेन्द्र यादव

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :315
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 12442
आईएसबीएन :9788126711659

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‘मुसलमान औरत’ नाम आते ही घर की चारदीवारी में बंद या कैद, पर्दे में रहनेवाली एक ‘ख़ातून’ का चेहरा उभरता है। अब से कुछ साल पहले तक मुसलमान औरतों का मिला-जुला यही चेहरा जे़हन में महफ़ूज़ था। घर में मोटे-मोटे पर्दों के पीछे जीवन काट देने वाली या घर से बाहर ख़तरनाक ‘बुर्कों’ में उपर से लेकर नीचे तक खुद को छुपाए हुए। समय के साथ काले-काले बुर्कों के रंग भी बदल गए, लेकिन कितनी बदली मुस्लिम औरत या बिल्कुल ही नहीं बदलीं। क़ायदे से देखें, तो अब भी छोटे-छोटे शहरों की औरतें बुर्का-संस्कृति में एक न ख़त्म होने वाली घुटन का शिकार हैं, लेकिन घुटन से बग़ावत भी जन्म लेती है और मुसलमान औरतों के बग़ावत की लम्बी दास्तान रही है।

ऐसा भी देखा गया है कि ‘मज़हबी फ़रीज़ों’ से जकड़ी, सौमो-सलात की पाबंद औरत ने यकबारगी ही बग़ावत या जेहाद के बाजू फैलाए और खुली आज़ाद फ़िजा में समुद्री पक्षी की तरह उड़ती चली गई। लेखन के शुरुआती सफ़र में ही इन मुस्लिम महिलाओं ने जैसे मर्दों की वर्षों पुरानी हुक्मरानी के तौक़ को अपने गले से उतार फेंका था। ये महज़ इत्तेफ़ाक़ नहीं है कि मुस्लिम महिलाओं ने जब क़लम संभाली तो अपनी क़लम से तलवार का काम लिया। इस तलवार की ज़द पर पुरुषों का, अब तक का समाज था। वर्षों की गुलामी थी। भेदभाव और कुंठा से जन्मा, भयानक पीड़ा देने वाला एहसास था। संग्रह में शामिल कहानियों में इस बात का ख़ास ख़्याल रखा गया है कि कहानी में नर्म, गर्म बग़ावत के संकेत ज़यर मिलते हों। संग्रह की की कुछ कहानियाँ तो पूरी-पूरी बगषवत का ‘अलम’ (झंडा) लिए चलती नज़र आती हैं, लेकिन कुछ कहानियाँ ऐसी भी हैं, जहाँ बस दूर से इस एहसास को छुआ भर गया है।

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