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हिन्दी आलोचना की बीसवीं सदी

निर्मला जैन

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :108
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 12463
आईएसबीएन :8171190553

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हिन्दी आलोचना अपनी लम्बी ऐतिहासिक यात्रा में हर नए रचनात्मक प्रयास के प्रति निरंतर जागरूक रहकर अपने दायित्व का निर्वाह करती रही। इस प्रक्रिया में समसामयिकता का आग्रह अधिक प्रबल हो गया। आलोचना में परम्परा का बल हमेशा गरिमा और महत्त्व प्रदान करता है। आलोचना के इतिहास की सही समझ सिर्फ रचनात्मक साहित्य के सन्दर्भ में ही हो सकती है। आलोचना के इतिहास की बात करते हुए इस तथ्य को ध्यान में रखना बहुत जरूरी है कि आधुनिक युग के साहित्य में जो खास बात घटित हुई वह यह थी कि साहित्य व्यक्ति-सत्ता या वर्ग-सत्ता से हटकर समाज-सत्ता की वस्तु हो गया।

हिन्दी आलोचना ने इस समय जो दबाव महसूस किया, उसका सम्बन्ध अपने युग की बदली मनोरुचि से था। अतः बीसवीं सदी की आलोचना को सैद्धांतिक ग्रन्थ और निबन्ध, विद्वतापूर्ण शोध, साहित्येतिहास ग्रन्थ तथा पुस्तक समीक्षाएँ मिलीं। इसी परम्परा से हिन्दी आलोचना का क्रम आगे बढ़ता रहा।

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