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चक्रव्यूह
चक्रव्यूह
प्रकाशक :
राधाकृष्ण प्रकाशन |
प्रकाशित वर्ष : 2011 |
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 12464
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आईएसबीएन :9788171191925 |
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समकालीन हिंदी कविता में जब भी नई कविता दौर की चर्चा होती है, कुँवर नारायण कुछ-कुछ अलग खंड नज़र आते हैं। इसका कारण है उनकी काव्य-संवेदना का निर्बंध होना। अपने दौर के कविता-आग्रहों को अपनी कविता में उन्होंने अपनी ही तरह स्वीकार किया; अपने कवि-स्वभाव और भारतीय काव्य-परम्परा को अस्वीकार कर कविता करना उन्होंने कभी नहीं ‘सीखा’।
‘चक्रव्यूह’ की कविताएँ इस नाते आज दस्तावेज़ी महत्त्व रखती हैं। उनमें एकअलग ही तरह का ‘कवि समय’ मौजूद है। कुँवर नारायण के इस संग्रह का पहला संस्करण 1956 में प्रकाशित हुआ था। आकस्मिक नहीं कि ये कविताएँ आज भी हमारे संवेदन को गहरे तक छूती हैं। संगृहीत कविताओं में जो एक व्यवस्था है, चार खंडों में उन्हें जिन उपशीर्षकों (‘लिपटी परछाइयाँ’, ‘चिटके स्वप्न’, ‘शीशे का कवच’ और ‘चक्रव्यूह’) के अंतर्गत रखा गया है; उसका वैयक्तिक नहीं, वैश्विक संदर्भ है लेकिन जिसे समझने के लिए स्वाधीनोत्तर भारतीय मन को ही नहीं, भारतीय राज्य-व्यवस्था के चरित्र को भी ध्यान में रखना होगा। कुँवर यदि यह जानते हैं कि कल का (या आज का) अभिमन्यु ‘जिन्दगी के नाम पर/हारा हुआ तर्क’ है तो यह कहने का साहस भी रखते हैं कि ‘छल के लिए उद्यत/व्यूह-रक्षक वीर कायर हैं’।
अनुष्टान पूर्वक, पूजकर मारे जाने वाले जीव की पीड़ा कवि-संवेदना से एकमेक होकर समष्टि की पीड़ा बन जाती है; और ऐसे में ईश्वर उसका अन्तिम भय। संक्षेप में कहा जाए तो कुँवर नारायण की समग्र काव्य-चेतना और उसकी विकास-यात्रा में उनके इस कविता-संग्रह का मूल्य-महत्त्व बार-बार उल्लेखनीय है।
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