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काशी के नाम

नामवर सिंह

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :276
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 12505
आईएसबीएन :8126712414

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हिन्दी की कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास और आलोचनाएँ - यहाँ तक कि साहित्यिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक बहसें भी पिछले पचास वर्षों से अपने को टटोलने और जाँचने-परखने के लिए जिस अकेले एक समीक्षक से वाद-विवाद-संवाद करके सन्तोष का अनुभव करती रही हैं, निर्विवाद रूप से उसका नाम नामवर सिंह है। ‘काशी के नाम’ उन्हीं की चिट्ठियों का संकलन है जो उन्होंने काशीनाथ को लिखी थीं।

साठ वर्षों से साहित्य में सक्रिय नामवर हिन्दी के किंवदन्ती पुरुष हैं। अस्सी वर्ष की उम्र में भी उतने ही तरो-ताज़ा और ऊर्जावान हैं जितना पहले थे। आज भी न थके हैं, न झुके हैं। हर समय अपनी कहने को तैयार, दूसरे की सहने को तैयार। असहमति और विरोध तो जैसे उनके जुड़वाँ हों। हर आने वाली पीढ़ी उन्हें देखना चाहती है, सुनना चाहती है लेकिन जानना भी चाहती है - उनकी शख़्सियत के बारे में, उनके घर-परिवार के बारे में, नामवर के ‘नामवर’ होने के बारे में ! क्योंकि वे जितने अधिक ‘दृश्य’ हैं, उससे अधिक अदृश्य हैं। इसी अदृश्य नामवर को प्रत्यक्ष करता है ‘काशी के नाम’।

ऐसे तो, साहित्य के अनेक प्रसंगों से भरी पड़ी हैं चिट्ठियाँ लेकिन सबसे दिलचस्प वे टिप्पणियाँ हैं जो भाई काशी की कहानियों पर की गई हैं। कोई मुरव्वत नहीं, कोई रियायत नहीं, बेहद सख़्त और तीखी। ऐसी कि दिल टूट जाय। लेकिन अगर काशी का कुछ लिखा पसंद आ गया तो नामवर का आलोचक सहसा भाई हो जाता है - भाव-विह्नल और आत्मविभोर।

‘काशी के नाम’ चिट्ठियों में जीवन और साहित्य साथ-साथ हैं - एक-दूसरे में परस्पर गुँथे हुए। घुले-मिले! कोई ऐसी चिट्ठी नहीं, जिसमें सिर्फ जीवन हो, साहित्य नहीं, या साहित्य हो जीवन नहीं। यदि एक तरफ नामवर का संघर्ष है, माँ-पिता हैं, भाई हैं, बेटा-बेटी हैं, भतीजे-भतीजियाँ हैं, उनकी चिन्ताएँ और परेशानियाँ हैं, तो उसी में कहीं न कहीं या तो साहित्यिक हलचलों या गतिविधियों पर टिप्पणियाँ हैं या ‘जनयुग’ और ‘आलोचना’ की जरूरतें हैं, या किन्हीं लेखों या कहानियों के जिक्र हैं या कथाकार को हिदायतें हैं। यानी परिवार हो या साहित्य-संसार या ये दोनों - इनके झमेलों के बीच नामवर के ‘मनुष्य’ को देखना हो तो किसी पाठक के लिए इन चिट्ठियों के सिवा कोई विकल्प नहीं।

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