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कविता संग्रह >> कुछ न कुछ टकराएगा जरूर

कुछ न कुछ टकराएगा जरूर

इन्दु जैन

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :127
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1253
आईएसबीएन :81-263-0993-8

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प्रस्तुत है कविता संग्रह....

Kuch na Kuch Takarayega Zaroor

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ये कविताएँ अपने चारों ओर स्पन्दित प्रकृति व मानव के राग-विराग को कवि के निजी भाव-पात्र में खौलाकर जिस रसायन में परिवर्तित कर प्रस्तुत होती हैं उससे स्वंय की पहचान का एक दर्पण बनता है और स्वयं को देख पाना ही सही दिशा में उठा एक जरूरी कदम है।

अँधेरा-उजाला

रात के दो बजे हैं
अभी मैंने बत्ती बन्द की है
अफ़ग़ानिस्तान की औरतों के
अँधेरे
और एक युवा कवि की कविता के
उजाले में।

औरतों के अँधेरे
और कविता के उजाले का
इतना भर सम्बन्ध है
जितना डूबते मन
और ढहती देह का।

दो घण्टे बाद
बहुत से लोग जाग जाएँगे
नित्यकर्म,स्नान-ध्यान
व्यायाम के बाद
सूरज को जगाएँगे।

सूरज बच्चे-सा उठेगा
मुलायम और गुलाबी
फिर बहुत जल्दी नज़रों से
ओझल हो
उसका अणु किसी चौराहे पर
बम-सा फटेगा...

‘बिग बैंग’ कहते कुछ बच्चे
ताली बजाएँगे
लिट्ल बॉयूज़ मिसाइल कारखानों
के फाटक खुलवाएँगे
हँसते-हँसते अर्घित सूरज
उनमें शामिल हो जाएगा
कविता की रोशनी पर
अँधेरा उतर आएगा।

रोशन घरों में जब
रेडियो, टी.वी की इबारत चुकेगी
आँसुओं में
स्याह शब्दों की
लहक उठेगी
बेचैन धड़कती देह के भीतर
जो फड़फड़ाएगा
क्या कवि उम्मीद रखे कि
वही कभी-न-कभी
फुलझड़ियाँ बुझा
कोई-न-कोई दीया जलाएगा ?

आधा सच

चलती सड़क पर
दो साल की बच्ची
सीढ़ियों के कोने में बैठी है
विशाल पत्थर के खम्भे से टिकी
आते जाते लोग
सामने सिक्के डाल जाते हैं

जो नहीं डालते
उन्हें बच्ची उठा उठा कर
वही सिक्के बाँट रही है

एक पतली नहर, जैसे
पत्थर-जड़ी सड़क पर
बह रही है

इन्विजिलेशन

कुहनियों ने बना दिये निशान गोल दो
मेज़ की धूल में
कमीज़ ने, पैण्ट ने, साड़ी ने सोख लिया
कुर्सी का मटमैला पाउडर

बीड़ी पी रहा सफ़ाई कर्मचारी
स्टाफ़-रूम में पंखा चला कर
टाइपिस्ट निरीक्षण-कार्य कर रहा
प्राध्यापक बरामदे में ऊँची आवाज़
राजनीति में बझा

विद्यार्थियों की कॉपियाँ छप गयीं डेस्कों पर
हिलती टूटी कुर्सियाँ बदलते
उत्तर ही उत्तर उँडेल रहे
कब उठेंगे मन में प्रश्न
कब आएगा तूफ़ान
यह जवान ख़ून कब बौखलाएगा ?

या इसी धूल से पैदा होगा दीमक
लगेगा इनके दफ्तरों की फ़ाइलों में कल ?
क्या कल जिस संघ ने
दिलाया था वाजिब अधिकार
उसी के डण्डे से डर
चुप रहेगा अफ़सर, मातहत-
हर संघहीन ?

डूबे ही डूबेगी क्या नाव
रेत के समुद्र में
कोई नहीं होगा खड़ा कहने-
पा लिया
अब देना शुरू करें
अपच हो रहा है तनख्वाह की रोटी से ?
यह धूल फेफड़ों में जम रही
मेरी सन्तान खाँस रही
उसी कुर्सी का टूटा पाया
गिरा रहा बेटे को
जिसमें मैंने कील नहीं ठोकी थी
मेरी बेटी की उजली चुन्नी
मैली हो रही
झाड़न नहीं उठाया था मैंने
सवाल नहीं किया था बेटी बेटे ने
उत्तर नहीं दिया था मैंने खुद को !

पहली मई का जश्न-भर
चलता रहेगा क्या हमेशा ?

निगलने उगलने निगलने में
घण्टियाँ बजती रही थीं
विद्यालय विश्वविद्यालय में
गले में स्वर नहीं था
भरे गला गाया न था
किसी जवाबदेही का कोई बाजा बजाया न था।

अब मैं किससे सवाल करूँ
किस पिता को चौराहे नंगा खड़ा करूँ
फ़र्श पर बर्फ की सिल्ली घसीट
पानी ठण्डा कर पिलाती
किस माँ की सेहत की
सुख की
दवा करूँ ?

उत्कण्ठा

वह कहानी सुनी है न
जिसमें एक दानव था
और राजकुमारी उसके महल में कैद थी
धीरे-धीरे राजकुमारी दानव से
प्रेम करने लगी।

फिर दानव बीमार पड़ गया
उसे तड़पता देख
रो दी वह
राजकुमारी के आँसुओं को छू
दानव फिर राजकुमार बन गया।

क्या सद्दाम की ज़ंग-खायी ज़िद और मीडिया
का शाप
हमारे ख़ून और आँसुओं से धुलेगा ?
और बुश पर राजकुमारी के आँसू कब गिरेंगे ?

उदास लड़की

वह एक उदास लड़की
हँसती है उदासी छलकाती हुई
पनपे बीज को
पानी के लिए तरसाती हुई
औरों पर मुनस्सर
हवा से बचती
बचाती हुई
वह एक उदास लड़की है
बहुत-सी उदास लड़कियों की कतार में

ऊब की गन्ध पीती हुई
सब कुछ करती
अकर्मण्य
सपाट दीवार पर
दूसरे की बनायी तस्वीर सजाती
हर आहट पर चौंकती
बहरी बनी लड़की
सुनती नहीं अन्दर बजता ढोल

बुरा लगता है शोर
कोई आता है तो
इस प्रतीक्षा में बातें करती है
कि कब जाए
और फिर अपनी उदासी में लौट आए
वह उदास लड़की
अख़बार उठा सके
एक पर्दे की तरह
अपने और अपने बीच में

जब तक वह उदास रहती है
मशीन सुचारु चलती है
पानी का घूँट भरते ही
लड़खड़ाने लगते हैं पैर
बहक को रोक
ख़ुश्क कर लेती है जड़ें
लौट पड़ती है
एकरस घटाटोप में
सुरक्षित सँभली समझदार लड़की

उमस

पत्ते भूल गये अपनी आदिम आदत
सन्नाये अँधेरे को पहन लिया
टोपे की तरह
बच्चों ने खेल-खेल में
ओढ़ लिया था सिर पर सेलोफ़ेन
खुले होठों से चिपक गया है
साँस के लिए छटपटा रहे हैं पत्ते।

बिजली ऐसे कौंधी
जैसे स्याह सलेट पर चॉक से
खींच कर लकीर
पलट दी सलेट
थोड़ी देर में गड़गड़ाये बादल
आवाज़ पीछा करती उतर आयी रोशनी का

घास से भाप उठी गर्म गर्म
चिपके सेलोफ़न में उँगलियाँ घुसाती हुई
साँस लौटाती हुई
पत्ते मृत्यु खटखटाते लौट आये

बच्चों की किलकारी बन
बूँदें गिरीं
छोटे-छोटे पटाखे छोड़ती हुई

एक अकेला सोच

जो नहीं अकेला
वही है अधूरा
उसे ही नहीं सेक पाती
पहाड़ की छाँह में खिली धूप

उसे ही नहीं रोक पाता
आकाश
घुलने मिलने को

जो अकेला नहीं
वही है मीत छूटे संग का
वही हवा की सवारी है
वही चौंकता है
दूर बजते झुनझुने से

अटकलें लगाता
शब्दों में ढालता है ध्वनियाँ
अर्थ की छाया के पीछे
भागता चला जाता है
जो नहीं है अकेला

एक और गर्भ

उसने अपने बाल भूसे की तरह
और छलनी-छलनी पैर रेशम की तरह धोये
और रेत पर लेट
घुटनों तक पैर पानी में डाल दिये
जब समुद्र साड़ी खींचने लगा
तब उसने मुख से जाला हटा कर
पानी में बहाने की कोशिश की
लेकिन वह आजानुबाहु नहीं थी
औरतपन उसकी उँगलियों से लिपटा रहा

आँखें बन्द कर उसने
अपना दिमाग पानी की धार में रख दिया
नल के नीचे प्लेट साफ़ हो उजलने लगी
किनारे की फूल-पत्तियाँ गायब हुईं
फिर किनारे
फिर पूरी की पूरी प्लेट
नल की धार भी
अब रोशनी ही रोशनी थी

हरहराती नदी के बीच
सिर्फ़ अँधेरा था
अन्तरिक्ष का रंगहीन अँधेरा

लेकिन उसकी उँगलियों में जाला
अभी लिपटा था
कपड़ों या देह पर नहीं पोंछना चाहती थी उसे
रेत में उँगलियाँ डालने को
गर्दन घुमायी
और दूर देखा किसी और को
अपनी तरह लेटे

‘‘कोई और भी धो रही है अपने को-
बढ़ा रही है आकृति हाथ
रेत की तरफ़
क्या यह मेरा ही अक्स है ?’’
समुद्र थपेड़ा खाकर सिर से ऊपर निकल गया

उस अन्तरिक्ष में एक और यान था
छायायान है
पहचान लिया उसने
लेकिन अब वह राडार से निकल चुकी थी
फेंक चुकी थी अपने सारे चालक यन्त्र
और पता था उसे
कि वह बढ़ रही है तेज़ी से
ब्लैक होल की तरफ़
जहाँ बढ़ रहा है दूसरा यान भी

एक और गर्भ
एक और गर्भ
जो सदा गर्भित ही रखेगा
लेकिन टकराने न देगा

बस यही सोचती
छूटती चली गयी दूसरे यान के साथ-साथ
कि भरोसे पर अस्तित्व क़ायम है

और फिर.....

पिता से मेहँदी रचे पैर पुजवा कर
माँ की हलद थाली से द्वार थाप
चली थी आँसुओं से डबडब
कच्चे काँच सपनों को
छोर की गाँठ में बाँध कर

जब आ खड़ी हुई हिचकिचाती
उसी पुकारते द्वार पर
फीकी पड़ चुकी थी छाप
हरी लतरों ने ढाँप लिये थे
उँगलियों के निशान

पिता ने बन्द मुट्ठियाँ खोल
काँच की एक-एक किरच निकाली
माँ ने आँचल से पोंछ दिये
धूल-भरे पाँव
कि
फिर उभरें शिनाख्त के निशान
चक्र और भँवर गहराएँ
उँगलियों की पोर पर।
ज़मीन तैयार कर रोपना होगा खुद को
सीधे तने उगना फैलना छतनारना होगा
बढ़ाने होंगे दिशाओं में खुले हाथ
बीते बरसों की खाद आँसुओं से गलानी होगी कि
आँखें रोशनी भर झलझला आएँ
अनमनी कोंपलें इण्डियाँ बन फरफराएँ
पेड़ अपनी ज़मीन न छोड़ता
कहीं का कहीं निकल जाए

कभी हम

कभी
एक बुलबुले में रहते थे हम
चमकते हुए
सूरज की कनी की तरह
हवा की कोख में निर्वस्त्र
ओस से तरबतर
दो मोती
रंगों की उँगलियों से
अलटते-पलटते एक-दूसरे को।

अब हम कभी नहीं मिलते
सोच की दूरियों में
तैरते रहते हैं
अपनी-अपनी आकाशगंगा पर

आते-जाते तारे टकरा कर कहते हैं
‘फूट गया बुलबुला’

लेकिन हमें मालूम है
उड़ रहा है वह समयाकाश में
मोह के उलझे धागे
साथ-साथ सुलझा लिये
बुन गया है उन्हीं से एक जाला उसके ऊपर
अपनी सीप में मोती लिये हुए
इस कवच में
वह आज़ाद घूम रहा है
अकेला, निर्द्वन्द्व और अमर

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