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रहस्य-रोमांच >>
घर का भेदी
घर का भेदी
प्रकाशक :
ठाकुर प्रसाद एण्ड सन्स |
प्रकाशित वर्ष : 2010 |
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ :
पेपर बैक
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पुस्तक क्रमांक : 12544
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आईएसबीएन :1234567890123 |
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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?
“इतनी रूखी तो बातें कर रहे थे आप।"-अर्जुन बोला।
"आपने उसे कोई सुनीलियन पुड़िया दी होती तो न जाती।"
“मौका ही कहां दिया उसने! और फिर ये माहौल है पुड़िया देने का?"
"ये तो ठीक कहा आपने। खैर, कोई बात नहीं, मैं उसे फिर घेर लाऊंगा।"
“घेर मत ला। खुद ही उसे टटोल।"
"मैं! उसे टटोलूं! वाह ! गुरुजी, इस डिपार्टमेंट में कुछ कर खपाऊं या न कर
पाऊं, बहरहाल खयाल ने तो खुश कर ही दिया। मैं अभी....."
"रमाकान्त बुला रहा है।"
अर्जुन ने देखा रमाकान्त पंकज सक्सेना के पास खड़ा जोर-जोर से उनकी तरफ हाथ
हिला रहा था।
“तू भीड़ में विचर”-सुनील बोला- और लोगों की बातें सुन । मैं रमाकान्त की सुन
के आता हूं।"
अर्जुन ने सहमति में सिर हिलाया। लम्बे डग भरता सुनील वाल केबिनेट के पास
पहुंचा।
उसके देखते देखते रमाकान्त ने अपने कोट की भीतरी जेब से अपनी विस्की की
फ्लास्क निकाली और उसे खोलकर उसका मुंह युवक के होंठों से लगाया। बिना एतराज
युवक ने फ्लास्क में से एक घूँट भरा।
रमाकान्त ने फ्लास्क वाला हाथ वापिस खींच लिया और फ्लास्क जेब में रख ली।
उसने युवक के गले में यूं अपनी एक बांह पिरो दी जैसे वो उसे बरसों से जानता
हो।
“पंकज"-फिर वो चहका-“मीट माई बैस्ट फ्रेंड सुनील। ही इज़ माई फ्रेंडलियेस्ट
फ्रेंड।" . _ "हल्लो!"-पंकज झूमता-सा बोला।
सुनील ने मुस्कराते हुए उसकी तरफ हाथ बढ़ाया तो पंकज ने उसे बड़ी गर्मजोशी से
थामा और हैंड पम्प की तरह तीन-चार बार ऊपर नीचे चलाया।
"हल्लो।"
वो फिर झूमता-सा बोला-"आई एम पंकज।"
"हल्लो, पंकज।”-सुनील ने अपना लक्की स्ट्राइक का पैकेट निकाल कर उसे अपने
विशिष्ट अंदाज से झटका तो एक सिगरेट आधा बाहर उछल आया, उसने पैकेट उसकी तरफ
बढ़ाया और बोला-"सिगरेट!"
"थेंक्यू।" एक सिगरेट सुनील ने भी लिया। .
रमाकान्त ने लाइटर निकालकर दोनों सिगरेट सुलगा दिये और फिर खुद भी अपने
पसन्दीदा ब्रांड चारमीनार का एक सिगरेट सुलगा लिया।
सुनील ने सिगरेट का एक गहरा कश खींचा और प्रश्नसूचक नेत्रों से रमाकान्त की
तरफ देखा । रमाकान्त ने आंखों आंखों में उसे आश्वासन दिया, चारमीनार का लम्बा
कश खींचा, ढेर सारा धुआं उगला और फिर सहज भाव से बोला- "दो दिन-वाद दशहरा
... "और रावण"--पंकज बोला-“आज ही मारा गया।"
"रावण!"-सुनील जानबूझ कर अनजान बनता हुआ बोला।
"वही साला जीकेबी, जो पता नहीं अपने आपको रोमियो समझता था या कैसानोवा। अब
रंगीले राजा का न रंग बाकी है न राज!" .
.. .. "जीकेबी कौन?"
“गोपाल कृष्ण बतरा और कौन! जो उधर मरा पड़ा है। जिसके पेट में कोई अमृत कुण्ड
भी नहीं जो उसमें दोबारा प्राण फूंक देगा।”
.... "लगता है बतरा साहब खास नापसन्द थे तुम्हें?"
"सच बताऊं।"......
"सच ही बताओ।" .. ..
“आपसदारी में सच ही बोलना चाहिये, वीर मेरे।"
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