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घर का भेदी
घर का भेदी
प्रकाशक :
ठाकुर प्रसाद एण्ड सन्स |
प्रकाशित वर्ष : 2010 |
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ :
पेपर बैक
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पुस्तक क्रमांक : 12544
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आईएसबीएन :1234567890123 |
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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?
“हूं। बहरहाल मुझे इसी बात की खुशी है कि कभी तो तुम्हारे दिल में मेरे लिये
जगह थी।"
"वो तो आज भी है।"
सुनील का मन वितृष्णा से भर उठा। चन्द घन्टे पहले विधवा हुई औरत अपने
भूतपूर्व प्रेमी के मन में अपनी जगह तलाश रही थी।
"ऐसा है तो कभी मिले होते। जैसे आज...."
“आज भी मैं मिलने नहीं आया"
इन्स्पेक्टर का स्वर शुष्क हो उठा-"एक कत्ल के केस की तफ्तीश करने आया हूं और
ऐसी तफ्तीश जाती ताल्लुकात को ताक पर रख कर ही हो सकती है।
“ओह! यानी कि तुम मेरा बयान लेने आये हो?"
"सच पूछो तो हां।"
“पूछो, क्या पूछना चाहते हो?"
"किसने उसका कत्ल किया हो सकता है?"
"मैं नहीं जानती।"
"अपना कोई अन्दाजा ही बताओ। कोई राय ही जाहिर करो।"
"इस बाबत मेरी कोई राय नहीं।"
“कभी तुम्हें ऐसा अन्देशा हुआ था कि उसका कत्ल हो सकता था?"
"नहीं।"
"कभी उसने अपना ऐसा कोई अन्देशा जाहिर किया हो?"
"नहीं किया था। आजकल मेरी उससे ऐसी कोई कम्यूनिकेशन स्थापित नहीं थी।"
"वजह?"
“वजह क्या बताऊं? आखिर सभी शादियां तो कामयाब नहीं होती न!"
"तुम्हारी शादी ठीक नहीं चल रही थी?"
"शुरू से ही न चली। टेक ऑफ ही न कर पायी।"
"वजह?"
"वो पति का दर्जा हासिल करने के काबिल मर्द न निकला। किसी एक औरत में उसकी
दिलचस्पी बनी रहना मुमकिन ही नहीं था। जल्दी ही मुझे पता चल गया था
कि...कि..."
"क्या ?"
"...इन हिज लाइफ आई वाज नाट वन आफ दि काइन्ड, आई वाज ओनली वन आफ दि हर्ड।"
"ओह!"
"उसकी निगाह में घर की मेड में और मेरे में कोई फर्क नहीं था। इतने से ही समझ
जाओ कि वो कैसा आदमी निकला था कि नीना मैनुअल नाम की मेड भी उसकी उसी तवज्जो
की हकदार होती थी जिसकी कि मैं।"
"ये...ये तो जुल्म है।"
"शक्र है कि किसी ने तो ऐसा माना।"
"तो फिर कैसे कटती थी?"
"बुरी ही कटती थी। अब तो ये नौबत तक आ चुकी थी कि हम दोनों का बेडरूम भी एक
नहीं था।"
"कमाल है!"
वो एक क्षण ठिठका और फिर बोला "लेकिन तुम तो बड़ी दबंग औरत हुआ करती थीं।
तुमने जैसे को तैसा वाला तरीका न अपनाया?" . .
"ये सवाल खुद अपने आप से क्यों नहीं करते हो? अपनाया होता तो क्या ये मुमकिन
होता कि मैंने दो साल से तुम्हारी सूरत न देखी होती?"
"जवाब ड्रामेटिक है लेकिन मुनासिब नहीं।"
"क्या मतलब?"
“तुम मेरा कारोबार भूल रही हो। तुम ये भूल रही हो कि मैं तुम से पुराना, बहुत
पुराना वाकिफ हूं और मैं बतरा को भी तुम्हारी शादी से बहुत पहले से जानता
था।"
“मैं कुछ समझी नहीं।" .
“तुमने वो फैंसी जवाब ये सोच के दिया मालूम होता है कि मुझे संजीव सूरी की
कोई खबर नहीं।"
वो एकाएक यूं खामोश हुई जैसे सांप सूंघ गया हो।
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