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घर का भेदी
घर का भेदी
प्रकाशक :
ठाकुर प्रसाद एण्ड सन्स |
प्रकाशित वर्ष : 2010 |
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ :
पेपर बैक
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पुस्तक क्रमांक : 12544
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आईएसबीएन :1234567890123 |
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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?
उसके निगाह से आझल होते ही भावना झपट कर टेलीफोन के करीब पहुंची। उसने जल्दी
से एक नम्बर डायल किया, कछ क्षण दूसरी तरफ से जवाब मिलने की प्रतीक्षा की और
फिर बोली- "हल्लो: संजीव!....सो रहे थे?.....जाग जाओ और गौर से मेरी बात
सुनो....तफ्तीश के लिये आये पुलिस इन्स्पेक्टर ने अभी मेरा बयान लिया है।
संजीव, खास वात ये है कि वो तुम्हारी बाबत जानता है, वो हम दोनों की बावत
जानता है, लेकिन चाहे तबाही आ जाये तुमने ये ही कहना है कि आज शाम तुमने यहां
कदम नहीं रखा था। समझ गये?....गुड । बाकी बातें फिर कभी।"
उसने फोन वापिस क्रेडल पर रख दिया और चैन की लम्बी सांस ली। वो कुछ क्षण
यथास्थान ठिठकी खड़ी रही और फिर कमरे के दरवाजे की ओर बढ़ी जिसे कि
इन्स्पेक्टर जाती बार खुला छोड़ गया था। दरवाजे के पास वो ठिठकी, एक क्षण
हिचकिचाई और फिर बाहर निकल गयी।
सुनील अलमारी की ओट में से निकला और दवे पांव दरवाजे के करीब पहुंचा। उसने
सावधानी से बाहर झांका तो भावना को सीढ़ी की दिशा में बढ़ते पाया। फिर वो
सीढ़ियों के दहाने पर जाकर ठिठक गयी।
सनील ने हवा के झोंके की तरह गलियारा पार किया और सामने दरवाजे के करीब
पहुंचा। उसने दरवाजे को धक्का दिया तो पाया कि वो खुला था। वो चुपचाप दरवाजे
के पीछे सरक गया।
भावना सीढ़ियों के दहाने पर यूं ठिठकी खड़ी रही जैसे फैसला न कर पा रही हो कि
वो नीचे जाये न जाये।
सुनील ने एक क्षण को गलियारे से निगाह हटा कर उसे भीतर दौड़ाया तो पाया कि वो
एक हाल कमरा था जिसके मध्य में एक दूसरे से जड़ी डायनिंग टेबल जैसी दो विशाल
मेजें पडी थीं जिनके इर्द-गिर्द पूरे दायरे में एक दूसरे से सटी कुर्सियां
पड़ी थीं। उस कमरे में एक काबिलेगौर बात यह भी थी कि उसका फर्श लकड़ी की
आधुनिकतम टाइलों का बना हुआ था और फर्नीचर से ज्यादा चमक रहा था।
उसने फिर बाहर गलियारे में झांका तो भावना को वापिस लौटते पाया।
उसने निशब्द यूं दरवाजा भिड़काया कि उसमें और चौखट में एक झिरी बनी रह गयी।
झिरी में आंख लगाये वो बाहर झांकने लगा।
भावना लौटी और वापिस अपने कमरे में दाखिल हो गयी। अपने पीछे उसने दरवाजा बन्द
किया लेकिन सुनील को चिटकनी लगाने जाने की आवाज न आयी।
सुनील ने गलियारे में कदम रखा और फिर चुपचाप सीढ़ियों की तरफ बढ़ा। तभी एकाएक
हिरणी की तरह कुलांचे भरती एक नौजवान लडकी सीढ़ियां तय करके ऊपर आ खडी हई।
सुनील ने देखा कि वो एक बड़े भड़कीले रंग की घघरी-सी पहने थी जो कि लम्बी
स्कर्ट लगती थी। उसके साथ वो शीशों से जड़ी एक चोली पहने थी जिसके गिरहबान
में से उसका उन्नत वक्ष बड़े आकर्षक अंदाज से झलक रहा था। वो सिर पर ओढ़नी
ओढ़े थी जो कि घारी चोली जैसे ही भड़कीले रंगों की थी।
उसने सुनील की तरफ देखा और मुस्कराई। सुनील भी जवरन मुस्कराया और
बोला-हल्लो।"
"हम इमरती हैं।" -वो बोली-
"बड़ी मेम साहब बुलाये रहिन।" .
“कैसे बुलाये रहिन?"-सुनील मुस्कराता हुआ बोला "आवाज तो आयी नहीं थी बुलाने
की।"
"इसारा किये रहिन।" -
"ओह! इशारे से बुलाया?"
"हो।"
“हमेशा ऐसी फैंसी ड्रेस में ही रहती हो?"
"की बोला?"
“हमेशा ये ही पोशाक पहनती हो? घाघरा, चोली, ओढ़नी?".
"हौ।"
“कहां की हो?"
"बक्सर की।"
“जो कि बिहार में है?"
"हौ।"
“हां को हौ तो हैदराबादी कहते हैं।"
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