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रहस्य-रोमांच >> घर का भेदी

घर का भेदी

सुरेन्द्र मोहन पाठक

प्रकाशक : ठाकुर प्रसाद एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : पेपर बैक
पुस्तक क्रमांक : 12544
आईएसबीएन :1234567890123

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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?


"टाइपराइटर सागर साहब के पास भी है।"
“आप वहां मेरे साथ चल सकती हैं?"
"क्यों?"
"मैं कुछ टाइप करना चाहता हूं।" "क्या?"
"मेरे पास एक इबारत की फोटोकापी है जो कि साफ पढ़ी नहीं जा रही। मुझे वो टाइपशुदा चाहिये।"
“सागर साहब के बंगले पर चले जाओ। पिछवाड़े से जाओगे तो दो मिनट में ही पहुंच जाओगे:"
... "दो मिनट आप ही साथ चलने की जहमत गवारा कीजिये न! पता नहीं, वो मुझे घर में घुसने भी देंगे या नहीं!"
"मेरे साथ होते भी न घुसने दिया तो?"
"ऐसे खुन्दकी लगते तो नहीं थे सागर साहब।" ...
"हैं भी नहीं लेकिन तुमने तो उन्हें मर्डर सस्पैक्ट्स की कतार में खड़ा कर दिया था।"
"उन्होंने मेरी किसी बात को सीरियसली कहां लिया था?"
“सीरियसली लिया भी होगा, तो भी कोई प्राब्लम नहीं। तो तुम बाहर ठहरना, मैं तुम्हारी इबारत टाइप कर लाऊंगी।"
“आप को टाइपिंग आती है?"
"हां। इबारत तो दिखाओ।"
सुनील ने अर्जुन की करवाई फोटोकापियों में से एक उसको । सौंपी।
उसने एक सरसरी निगाह उस पर डाली और फिर बोली "ये तो निरंजन चोपड़ा के भूतपूर्व पार्टनर विक्रम कनौजिया की ही बाबत है। तुम्हें कहां से मिली?"
"किसी ने हमारे अखबार के आफिस में डाक से भेजी।"
"ये तो साफ पढ़ी जा रही है।"
"उतनी साफ नहीं पढ़ी जा रही जितनी कि टाइपशुदा तहरीर पढ़ी जायेगी।"
"उसका क्या करोगे?"
"चोर बहकाऊंगा।"
“यानी कि ये भी कातिल की तलाश में ही एक कदम है?"
"कितनी समझदार हैं आप!"
"ठीक है। चलो।"
"टाइप के लिये कागज यहीं से ले लीजिये।"
"वो किसलिये?" .
“क्या हर्ज है? अगर टाइप के कागज भी स्टडी में ही बन्द नहीं हैं तो....."
“बन्द तो हैं लेकिन वैसे.कागज ऊपर उनके बेडरूम में भी हैं। मैं लेके आती हूं।"
"हां। प्लीज। मैं आपको नीचे मिलता हूं।"
"ठीक है।"
सुनील नीचे पहुंचा। उसने नीना को तलाश किया तो वो उसे किचन में सब्जी काटती मिली।
“जरा इधर आओ।" -सुनील अधिकारपूर्ण स्वर में बोला "तुमसे बात करनी है।"
नीना ने मिसरानी की तरफ देखा, मिसरानी ने सहमति में सिर हिलाया तो वो उठकर सुनील के पास पहुंची। सुनील उसे ड्राईंगरूम में ले आया।
"सुना है"-वो बोला-“लाश पर सबसे पहले तुम्हारी निगाह पड़ी थी।"
"हां" -वो सावधान स्वर में बोली। “और तुम चीखती चिल्लाती ऊपर भागी थीं?"
"हां?"
"पहले ये तसदीक न की कि तुम्हारा एम्पलायर सच में मरा पड़ा था?"
"कैसे करती?"
"नब्ज टटोली होती। दिल की धड़कन देखी होती। आवाज देकर बुलाया होता। बदन झिंझोड़ा होता।"
"क्या जरूरत थी?"-वो तिक्त भाव से बोली-“कनपटी में साफ तो गोली से बना सुराख दिखाई दे रहा था। आंखें पथराई हुई थीं। साफ तो दिख रहा था कि वो मरे पड़े थे।"
"जिन्दगी में पहले कभी ऐसी लाश देखी जो कि कत्ल की वजह से, शूट किये जाने की वजह से, लाश बनी हो?"
"नहीं।"
"फिर भी एक निगाह में पहचान लिया कि साहब मरे पड़े थे?"
"हां। एक निगाह में पहचान लिया।" “और तुम चीखती चिल्लाती वहां से दौड़ पड़ीं?" "हां । बोला तो।
"तब तुम्हें जज्बात ने न झिंझोड़ा? तुम्हारा एक बार भी जी न चाहा कि तुम वहां कुछ क्षण और रुकतीं और उस शख्स की मौत का गम महसूस करतीं जिससे कि तुम्हारा अफेयर था।"
"क्या!"-वो तमक कर बोली-“क्या बोला?"
"झूठ बोलना बेवकूफी होगी, नीना मैनुअल । तुम्हारी यहां मकतूल के हाउसहोल्ड में नौकरी की बुनियाद जगविदित है।"
तत्काल उसका जोश ठंडा पड़ा।

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