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कहानी संग्रह >> मौलश्री

मौलश्री

शीला शर्मा

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1266
आईएसबीएन :81-263-1131-2

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानी-संग्रह...

Moulshri

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी की वरिष्ठ लेखिका शीला शर्मा की कहानियाँ अपने कलेवर में भले ही संक्षिप्त हैं, लेकिन अर्थ में उतनी ही गहरी हैं। बाहरी रूप में ये कहानियाँ जीवन की रोचक कथाए लगती हैं, परन्तु आन्तरिक रूप में ये अध्यात्म के तत्त्वों को अपने में सँजोए हुए हैं।

जिन कथा-घटकों के ताने-बाने से यह कहानियाँ बुनी गयी हैं वे लेखिका के सामाजिक सरोकार को प्रकट करते हैं। आकार में छोटी होने के बावजूद इन कहानियों में विचार और प्रेरणा के पर्याप्त तत्त्व विद्यमान हैं। इसलिए भले ही इन कहानियों के पाठ की ऊपरी परत पाठकों पर झट से कोई प्रभाव नहीं डालती हो, लेकिन धीरे-धीरे ये कहानियाँ पाठकों के भीतर खुलती हैं और आत्मीय अहसास के साथ मन और मस्तिष्क में घुल जाती हैं।

नन्हे श्वेत फूलोंवाला मौलश्री


बरसों बाद आया लौट कर विदेश से
मैंने पूछा, क्या यही है मेरा घर ? यह तो नहीं लगता !
हाँ, हाँ ! यही है तुम्हारा घर ! भूल गये हो तुम सब कुछ !
नहीं, नहीं ! याद है मुझको सब
मुझको नहीं लगता यह घर अपने घर-सा

कहाँ गया मेरा वह प्यारा वह मौलश्री
जिसे छोड़ गया था आँगन में तुम सबके साथ !
क्यों काट गिराया पितामह को मेरे ?
पत्रों में तो सबके जीने-मरने का हाल भेजा करते थे

फिर क्यों काट गिराया मेरे पितामह को
और बताया भी नहीं !
सूना हो गया मेरा घर जिसे देखने मैं आया था।
उसके नीचे से बटोरे थे
छोटे-छोटे चाँदी के-से फूल
बचपने में सच्ची चाँदी समझकर।
जब आयी सच्ची चाँदी हाथ में
तब याद आये वे फूल।
मैंने सोचा इस चाँदी को बहाकर
चाँदी के फूलों से मिलने जाऊँगा
कहूँगा, बहुत पायी चाँदी पर तुम-सी न पायी
जिसमें महक हो, सुगन्धि हो
काट गिराया पितामह को मेरे
पत्रों में लिखा करते थे यह जिया वह मरा
फिर मेरे पितामह का निधन मुझे बताया भी नहीं ?

कहाँ गया वह मेरा घर जिसे देखने मैं आया था
कहाँ गया वह मेरा निकट संबंधी जिससे मिलने मैं आया था !

कहते हो शादी थी ! तो क्या जलाना था अपने पितामह ही को
धन जुटाने में !
उसकी छाया में मण्डप सजाते, उससे फूलों-सा आशीर्वाद पाते
उसकी निःश्वासें ही थीं हमारी साँसें
प्राणधर वंश भर की थीं वे निःश्वासें
समय की चाल कुछ भी हो
पर यह बात तो न थी भूल जाने की—
क्या नियति यही है पितामहों की
सूने में अपने आप ढह जाने की।

शीला शर्मा

लक्ष्मण-रेखा


अपनी-अपनी खटिया पर पड़ी दोनों करवटें ले रही थीं। दोनों की आँखों की नींद गायब थी; एक थी रूपा और दूसरी थी उसकी दादीमाँ !
शीतल बयार थी ! चाँदनी छिटकी थी, आयु भोली थी, नन्हा स्नेह हृदय में उभरकर घर कर रहा था; उसका कोरा हृदय इस नये भाव को प्रेम समझने लगा था। रूपा की आँखों में सपने सँजोकर, उसको अभी तक जगा रखने का कारण वह चिन्ता थी जो प्रेम की डोर के साथ उभर आयी थी। अब उसका सहपाठी उस डोर को खींचने लगा था, उसी चाँदनी रात में मिलने आने का संकेत देकर। अब क्या करना, और क्या नहीं करना—इस दुविधा के द्वन्द्व ने रूपा की आँखों की नींद भगा दी थी। शरीर खटिया पर शांत पड़ा था, पर मन बुरी तरह हिलकोर रहा था; सिर दूधिया तकिये पर जितने सुख से रखा दिखता था, मस्तिष्क उतना ही उद्विग्न था। जाऊँ कैसे ? दादीमाँ अभी तक सोयी नहीं है। वह राह देखता होगा। एक ओर मन उसके बाहर जाने को उठते पैरों को संस्कार में बाँधकर रोक देता था; दूसरी ओर ऐसा कर देता था कि भागकर क्या, उड़कर चली जाए ! ऐसे में रूपा की आँखों में नींद कहाँ !

दूसरी ही खटिया पर पास ही पड़ी दादीमाँ अलग करवटें ले रही थी। वे जीवन के इन सब तथ्यों से परिचित थीं। इसलिए रूपा की उमर आते ही वे सचेत हो गयी। अपने धन से धरोहर सँभालना अधिक कठिन होता है। रूपा पोती है, बेटे की धरोहर है। उसको कैसे सँभालूँ, यह उलझन कुछ समय से मन की समस्या के रूप मे उभर रही थी। वे अपनी खटिया पर पड़ी थीं, पर प्रीति की डोर से रूपा बँधी थीं। रूपा के हृदय पर क्या बीत रही है, वह यह सब बिना बताये ही समझ रही थीं।
बात कहाँ तक पहुँच गयी है, यह रूपा की किताबों में से प्राप्त चिट्ठियों में से उन्हें ज्ञात हो गया था। पढ़ने के नाम पर, उसको केवल रामायण बाँचना ही आता था, परन्तु रूपा की पुस्तकों में कभी-कभी दिखा जानेवाली ये चिट्ठियाँ ‘प्रेम पातियाँ’ हैं, यह उनसे छिपा नहीं थी। सम्भवतः अनुभव ने उनको बता दिया था कि सभी प्रेमपातियों के अक्षर एक आकार के सुन्दर-सुन्दर हुआ करते हैं; सब में से भीनी-भीनी महक आया करती है फूलों से इत्रों जैसी; और ये ‘प्रेम पातिया’ एक उमर के बाद अपने आप ही लड़कियों की पढ़ने की पुस्तकों के बीच प्रकट होने लगती हैं। जिन दिनों यह पातियाँ प्रकट होने लगती हैं, उन दिनों लड़कियाँ कुछ खोयी-खोयी रहती हैं। पुस्तकों के साथ कुछ अधिक समय बिताने लगती हैं; कभी हँसती हैं तो कभी मुस्कुराती हैं, और कभी सोच में डूब जाती हैं।

दादीमाँ ने कभी ‘प्रेमपाती’ नहीं लिखी थी, परन्तु उसके अन्दर का सारा संगीत जैसे सुन लेती थीं। जब से रूपा के ये लक्षण प्रकट होने लगे थे, दादी माँ की चिन्ता बढ़ गयी थी। घर के मर्दों ने भास लिया तो हड्डी-पसली तोड़ देंगे। हड्डी-पसली तोड़ने से आदमी ढीठ ही बनता है। कान में लकड़ी की ठूँठ लगा देने से हवा में बहकर आता संगीत तो बन्द नहीं हो जाएगा।
‘‘रूपा !’’ दादीमाँ ने धीरे-से पुकारा, ‘‘जाग रही है ना ! यहाँ आ जा मेरी खटिया पर। एक कहानी सुनाऊँ !’’
रूपा ने करवट बदलकर दादीमाँ की ओर मुँह किया, ‘‘सब तो सुना चुकी हो रामायण-महाभारत की कहानियाँ। अभी कोई बाकी है क्या ! कब तक सुनती रहूँगी कहानियाँ !’’ धीरे-से रूपा ने दादी माँ से अलसाकर कहा।
‘‘अच्छा ! तो जरा परे खिसक, मैं ही आ जाऊँ तेरी खटिया पर। तुझे कुछ याद दिलाना है।’’ दादी माँ यह कहते-कहते रूपा की खटिया पर सरक गयीं और कहने लगीं, ‘‘रूपा ! तुझे वह रेखा याद है जो लक्ष्मण ने सीता के बचाव के लिए खींची थी, जिसे लाँघते ही सीता...’’

‘‘हाँ ! हाँ ! याद है।’’ खटिया पर दादी माँ के लिए स्थान बनाती हुई, रूपा धीरे से बोली।
उसके सिर पर हाथ फेरती हुई, दादी माँ कहने लगीं, ‘‘अब जो मैं कहूँ उसे ध्यान से सुन। बेटा। यह ‘लक्ष्मण रेखा’ केवल लक्ष्मण ने ही सीता के लिए नहीं खींची थी। यह रेखा तो हर कन्या के सुहृदयों ने उसकी मंगलकामना के लिए खींच रखी है। परन्तु यह अदृश्य है। किसी मदमाती कन्या को यह रेखा दिखती है और किसी को नहीं। जिस मदमाती को यह नहीं दीखती, या देखकर भी जो इसका सम्मान न कर उल्लंघन कर जाती है, उसे ही राक्षसमुखी दारुणता झेलनी पड़ती है। जो भी तुम्हारे साथी हो, उससे साहस से कहो, वह स्वयं ‘लक्ष्मण रेखा’ के अन्दर आए।

भला तुम्हें ‘लक्ष्मण-रेखा’ के बाहर कायरों के समान बहुरूपिया बनकर क्यों बुलाए। यही उसकी प्रेम परीक्षा है; यह ‘लक्ष्मण-रेखा’ उसकी प्रेम-कसौटी है। उसके प्रेम की परीक्षा तो करके देखो ! इस रेखा की धार पर उसके प्रेम का खारापन कसा जाएगा। जिसका प्रेम सच्चा है उसे यह रेखा उसकी धार तीखी नहीं दिखेगी। वह उसको पार करके अन्दर आ जाएगा। पर जिसका प्रेम अनधिकारी है, रावणी है, प्रपंची है, उसमें रेखा को पार करने का साहस नहीं। जो प्रेम का आह्वान करता है, उससे कहो, वह रेखा के अन्दर आए, और तुमको सम्मान के साथ ले जाए। वह ब्राह्मण वेषधारी रावण लुके-छिपे तुमसे ही रेखा को पार करने के लिए क्यों कहता है ! जानती हो, यह लक्ष्मण–रेखा क्या है ? तुम्हारे अपने घर की चौखट ही इस ‘लक्ष्मण-रेखा’ की तीखी धार है, जिसके अन्दर आने वाला प्रेमी खरा है, और इसके बाहर बुलाने वाला प्रेमी रावण जैसा।’’

रूपा ने दादीमाँ की छाती में सिर छिपा लिया। उनींदी होकर बोली, ‘‘दादीमाँ ! नींद आ रही है।’’
दादीमाँ ने संतोष की सांस ली। उसको ज्ञात हो गया, रूपा का मन शान्त हो गया है। उसे राह मिल गयी है।

 

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