पौराणिक >> पदातिक पदातिकप्रणव कुमार वन्द्योपाध्याय
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रामायण के अयोध्या काण्ड को आधार बनाकर लिखी गयी यह औपन्यासिक रचना।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
रामायण के अयोध्या काण्ड को आधार बनाकर
लिखी गयी यह
औपन्यासिक रचना पदातिक एक अत्यन्त लोकप्रिय आख्यान की समकालीन प्रस्तुति
है। दरअसल यह कथा-रचना का केन्द्र राम आज के परिप्रेक्ष्य में भी उतना ही
वास्तविक चरित्र है जितना पाठक के भीतर बैठा उसका सहस्रों वर्षों का
आत्मिक सत्य।
भूमिकावत्
पौराणिक राम को आज के सन्दर्भ में रखकर
‘पदातिक’ लिखते हुए मेरे-जैसा कोई अपने समय की
अस्मिता ही
ढूँढ़ सकता है-उस समय की अस्मिता, जिसकी दार्शनिकता विचारकों को आरम्भ से
ही प्रश्नों की एक-न-एक श्रृंखला देती रही।
कहना असंगत न होगा कि ‘पदातिक’ का राम ‘रामकथा’ के ‘अयोध्याकाण्ड’ के भीतर तो है ही, उसके बाहर भी है। पारम्परिक परिधि के बाहर का राम कई बार भीतर के राम से भिन्न भी प्रतीत होता है। किन्तु यह मुझे अस्वाभाविक इस कारण नहीं लगता कि अन्ततः भीतर के व्यक्ति और बाहर के व्यक्ति के मध्य एक विशेष प्रकार की आन्तरिक समरूपता है और वे एक-दूसरे के पूरक हैं।
‘पदातिक’ यात्रा है, राम यात्रिक। यात्रा और यात्रिक के मध्य इस कथा-रचना का लेखक कहाँ है, मैं अभी तक जान नहीं सका। यह प्रश्न पाठक को, सम्भव है, किसी सीमा तक अवान्तर भी लगे किन्तु लेखक के सम्मुख यही प्रश्न कई प्रकार के अनिर्णय एवं अनिश्चय के मध्य सम्भावना का एक द्वार तो खोलता ही है। ‘पदातिक’ के रचनाकार के रूप में यही मेरी प्राप्ति है।
दशरथ अपने मन्त्रियों के साथ अयोध्या के कल्याण पर विचार-विमर्श कर ही रहे थे कि अकस्मात् प्रहरी ने आकर कुलगुरु वसिष्ठ के आगमन की सूचना दी। राजचक्रवर्ती प्रसन्न हुए। प्रसन्न इस कारण हुए कि राज्य के भविष्य के सम्बन्ध में ब्रह्मर्षि वसिष्ठ उचित अवसर पर पधारने के उपरान्त कोई उत्तम परामर्श देंगे। दशरथ सिंहासन त्याग कर उठे एवं महामन्त्री सुमन्त्र को लेकर द्वार की दिशा में बढ़े। ब्रह्मर्षि को देखते ही उनके नेत्र आनन्द से तरंगित होने लगे। राजचक्रवर्ती ने कुलगुरु के चरणों पर मस्तक रखा एवं उत्तरीय से ब्रह्मर्षि के पाददेश में लगी धूल पोंछ दी। बोले, ‘‘दीर्घ यात्रा के कारण आप श्रान्त होंगे। अभी तो आप विश्राम-कक्ष में चलें। वहाँ आपकी पथश्रान्ति के निवारण हेतु उचित व्यवस्था की आज्ञा मैं सेवक को दे देता हूँ।’’
‘‘नहीं, राजन् !’’ वसिष्ठ बोले, ‘‘इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। यात्रा तो मेरे स्वभाव में ही है। यात्रा सदैव ही मुझे नूतनतर अनुभव देती रही है, श्रान्ति नहीं। अपनी असंख्य यात्राओं के कारण ही मुझे अनुभव के ऐसे अमृत प्राप्त होते रहे हैं, जो असम्भव तो नहीं किन्तु दुर्लभ अवश्य हैं।’’
‘‘आपके शब्द ही अमृत हैं, महात्मन्। मैं निश्चित ही अत्यन्त भाग्यवान हूँ कि आज अनायास ही आपके पुनः दर्शन हो रहे हैं।’’ दशरथ बोले।
वसिष्ठ मुस्कुराये, ‘‘मैं यात्रा पर निकला हूँ। चातुर्मास से पूर्व गंगासागर पहुँचने की इच्छा है। पावस में मैं वहाँ यज्ञानुष्ठान करूँगा।’’
‘‘यह तो उत्तम प्रस्ताव है, महात्मन्। इस सन्दर्भ में मेरे निमित्त कोई आज्ञा हो तो सुनाकर उपकृत करें।’’ दशरथ ने निवेदन किया।
‘‘यात्रा पर पुनः निकलने से पूर्व एक यज्ञ मैं अयोध्या में करूँगा। सरयू के उत्तर तट पर कर्माशा ग्राम में उसी स्थल पर जहाँ आपने पुत्रेष्टि अश्वमेघ यज्ञ किया था। अनुष्ठान का आयोजन आप शीघ्रातिशीघ्र कर लें तो उत्तम रहेगा, राजन्।’’ वसिष्ठ बोले।
‘‘ऐसा ही होगा, महात्मन्।’’ दशरथ ने निवेदन किया, ‘‘अभी यदि आप विश्राम-कक्ष में नहीं पधार रहे हैं, क्यों न राजसभा में चलकर मुझे गौरव प्रदान करें। वहाँ मैं अपने मन्त्रियों के साथ राज्य के कल्याण के सम्बन्ध में विचार कर रहा था।’’
ब्रह्मर्षि ने स्वीकृति दे दी।
सभागृह में समस्त मन्त्रणादाता अयोध्या-निवासियों के कल्याण में निमित्त विचारार्थ उत्सुक बैठे थे। वसिष्ठ के पदार्पण होते ही सब करबद्ध उठ खड़े हुए।
वसिष्ठ ने शुभाशंसा व्यक्त की, ‘‘आप सबके विचार आयोध्या की प्रजा को सुख, शान्ति एवं वैभव प्रदान करें।’’
‘‘समस्त शुभ विचारों के स्त्रोत तो स्वयं आप ही हैं, महात्मन्।’’ सुमन्त्र बोला, ‘‘आप ही से प्राप्त शिक्षा से प्रेरित होकर राज्य के नागरिकों के कल्याण की योजनाओं को हम वास्तविकता में रूपान्तरित कर पा रहे हैं।’’
वसिष्ठ मुस्कुराये। महामन्त्री सुमन्त्र को सदैव ही उन्होंने एक अत्यन्त कुशल प्रशासक माना है। ब्रह्मर्षि भलीभाँति जानते हैं, सुमन्त्र के रहते, दशरथ को अयोध्या के सम्बन्ध में चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है।
वसिष्ठ अपने निर्धारित आसन पर बैठ गये तो दशरथ ने राज्य के कल्याण हेतु उनके परामर्श की याचना की, ‘‘अयोध्या के नागरिकों को मात्र वैभव ही नहीं, एक उच्चतर जीवनमूल्य प्राप्त हो, इसके निमित्त आप अपना परामर्श प्रदान करें, महात्मन्।’’
ब्रह्मर्षि के अधरों पर मुस्कान छा गयी, ‘‘प्रजा सदैव ही उच्चतर जीवनमूल्य अपने नृपति के विचार और आचरण से ग्रहण करती है। यह तो आप को ज्ञात ही है, कोई भी जीवनमूल्य शून्य से जन्म नहीं लेता। आप मुझसे सम्भवतः असहमत नहीं होगें कि इस सम्बन्ध में राजा का उत्तरदायित्व अत्यन्त गम्भीर माना जाना चाहिए।’’
दशरथ को कोई उत्तर नहीं सूझा।
ब्रह्मर्षि के कथन का अभिप्राय जान कर समस्त मन्त्री कुछ चिन्तित-से दिखने लगे।
दशरथ ने अब मौन भंग किया,‘‘यदि मैं प्रजा के हित में कभी कर्तव्यच्युत हुआ हूँ, मुझे दण्डित करने का अधिकार आपको है, महात्मन्।’’
‘‘नहीं राजन्, विषय किसी को दण्डित या पुरस्कृत करने का नहीं है। विषय है, सत्यान्वेषण का। नृपति यदि स्वयं सत्यान्वेषी हुआ, चिन्तन-मनन एवं कर्म के समस्त प्रतिमान ही परिवर्तित हो जाते हैं। मात्र ऐसा कोई व्यक्ति ही प्रजा का एक श्रेष्ठतर जीवन जीने के निमित्त प्रेरित कर सकता है।’’ वसिष्ठ बोले।
‘‘आपका कथन सत्य है, ब्रह्मर्षि।’’ दशरथ बोले, ‘‘किन्तु यह किस प्रकार प्रमाणित होगा कि राजा वास्तव में सत्यान्वेषी है ?’’
वसिष्ठ ने प्रश्न के उत्तर में प्रतिप्रश्न किया, ‘‘क्या आपका अभिप्राय मायामृग के कारण मार्गच्युत होने की आशंका से है ?’’
‘‘आपने मेरे चित्त की शंका जान ली है। अब मैं आश्वस्त हूँ कि मुझे उत्तर भी प्राप्त हो जाएगा।’’ दशरथ के स्वर में अब पूर्ववत् शंका परिलक्षित नहीं हुई।
ब्रह्मर्षि कुछ पलों के निमित्त मौन हो गये।
महामन्त्री सुमन्त्र कभी दशरथ का एवं कभी इक्ष्वाकुवंश के कुलगुरु वसिष्ठ का मुखमण्डल निहारने लगा। समस्त मन्त्रणादाता एक गहरे प्रश्न का उत्तर सुनने के आग्रह से भीतर ही भीतर अस्थिर हो रहे थे।
सभागृह में गहरा मौन व्याप्त हो गया था।
वसिष्ठ ने अब मौन भंग किया, ‘‘आप सब अत्यन्त अशान्त प्रतीत हो रहे हैं। यह इस कारण नहीं हुआ कि आपको एक गम्भीर प्रश्न का उत्तर पाने की अदम्य जिज्ञासा है। इस अस्थिरता का वास्तविक कारण तो यह है। कि अपने विचार एवं कर्म के सम्बन्ध में आपके चित्त में शंकाएँ हैं। ये शंकाएँ अब तक सुप्त थीं। इस कारण आपके भीतर स्थिरता का भ्रम चलता रहा।’’
इस गहरी टिप्पणी का उत्तर कौन देता ? दशरथ एवं सुमन्त्र सहित सभी जान गये, बसिष्ठ का यह मन्तव्य एक विस्मृत यथार्थ के प्रति संकेत है।
दशरथ चिन्तित दिखे। मस्तक पर स्वेद-बिन्दु दृष्टिगोचर हो रहे थे।
वसिष्ठ ने अयोध्या-नरेश को सम्बोधित किया, ‘‘आप रणांगण में तो नहीं खड़े हैं, राजन् ! फिर इतने चिन्तित क्यों हैं ? यदि मेरा अनुमान मिथ्या नहीं है, आपकी यह चिन्ता प्रजा के कल्याण के निमित्त नहीं, मात्र अपने से सम्बन्धित है।’’
दशरथ लज्जित हुए, ‘‘मैं स्वयं को अशक्त अनुभव कर रहा हूँ, ब्रह्मन्। चित्त में शंका उत्पन्य हुई है कि सम्भव है जिस मार्ग को सत्य मानकर अब तक चलता रहा हूँ, वह मेरा प्रमाद था। यदि ऐसा ही है, मैं फिर अयोध्या कि प्रजा के साथ न्याय तो नहीं कर सका !’’
‘‘आपका मूल प्रश्न यह था कि नृपति के सत्यान्वेषी होने का प्रमाण क्या हो ?’’ वसिष्ठ बोले।
दशरथ ने स्वीकृति में मस्तक झुकाया, ‘‘यह सत्य है, ब्रह्मन्।’’
‘‘आपके मूल प्रश्न में ही समस्त शंकाओं के उत्तर निहित हैं, राजन्।’’ वसिष्ठ ने कहा, ‘‘यह प्रश्न आपके अन्तर्द्वन्द्वों से निःसृत हुआ है। इस कारण इसका उत्तर बाहरी तत्त्वों से सम्भवतः प्राप्त नहीं हो सकता।’’
दशरथ हतप्रभ रह गये।
सुमन्त्र भी पूर्णतः स्तब्ध हो गया था।
‘‘शंकाएँ मन को अस्थिर ही करती हैं। प्रत्येक मनुष्य के समक्ष ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं किन्तु ज्ञानी पुरूष इन्हीं में से सत्य का आलोक प्राप्त कर अपने कर्तव्य का निर्धारण करता है।’’ वसिष्ठ बोले।
‘‘किन्तु व्यक्ति यदि अज्ञानी हुआ तो ?’’ सुमन्त्र ने प्रश्न किया।
‘‘अज्ञानी द्वन्द्वों से शिक्षा नहीं लेता, उससे पलायन करता है। इस पलायन के कारण ही वह अधिकाधिक भ्रमजाल में फँसता जाता है।’’वसिष्ठ बोले।
दशरथ को तनिक किरण तो दृष्टिगोचर हुई किन्तु चित्त की अस्थिरता सम्भवतः समाप्त नहीं हो पायी थी।
‘‘आप अयोध्या-नरेश को चित्त के इस सन्धि-काल में उचित परामर्श देकर कृतार्थ करें, महात्मन्।’’ दशरथ की कातर-स्थिति देखकर सुमन्त्र को वसिष्ठ के सम्मुख यही निवेदन करना उचित प्रतीत हुआ।
‘‘आप चिन्तित न हों, महामन्त्री।’’ वसिष्ठ बोले, ‘‘अयोध्या के नृपति के चित्त का यह संशय अस्वाभाविक नहीं है। किन्तु सत्यान्वेषी पुरुष स्वयं ही प्रतिकूल सम्भावनाओं से जूझकर एक दिन संशयमुक्त हो जाता है। संशयमुक्त होना सत्यान्वेषी के समक्ष एक अनिवार्य स्थिति है। इस सन्दर्भ में मैं यह अवश्य व्यक्त करना चाहूँगा कि व्यक्ति की संशयमुक्ति जितनी दृढ़ होगी, उसका सत्यान्वेषण उतना ही अर्थपूर्ण होगा। यह स्थिति अलभ्य तो नहीं है किन्तु कठिन अवश्य है।’’
दशरथ ने वसिष्ठ के चरणों पर अपना मस्तक रख दिया, ‘‘इक्ष्वाकुवंश का अहोभाग्य कि आपसे हमें निरन्तर ज्ञानलोक प्राप्त होता रहा है । आपने मेरे पुत्रों को इस रूप में दीक्षित किया है कि मुझे अब अयोध्या कि प्रजा के कल्याण के निमित्त सम्भवतः चिन्ता नहीं करनी चाहिए।’’
‘‘आपके चारों पुत्र अपनी मेधा एवं शक्ति से मात्र अयोध्या का ही नहीं, अन्य राज्यों की भी प्रजा का कल्याण करेंगे। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र जब यज्ञरक्षा हेतु आपसे राम को माँगने आये थे, आपके चित्त में शंका का अस्थिर सिन्धु था। आप जान नहीं पाये कि विश्वामित्र का शस्त्रज्ञान कितना गहरा एवं विशाल है। इस शंका के कारण यदि आप राम को ब्रह्मर्षि की सेवा के निमित्त न भेजते, आपका पुत्र महान् समरविद्या के ज्ञान से वंचित रह जाता। तनिक सोचिए तो राजन्, फिर कौन करता सम्पूर्ण भूमण्डल पर धर्म की रक्षा ?’’ वसिष्ठ ने विस्मृत अध्याय को पुनः जागृत कर दिया।
‘‘उस समय आपही के परामर्श के कारण मैं राम को ब्रह्मर्षि के साथ वनप्रदेश भेज सका था। आप यदि तब अयोध्या में उपस्थित न होते, मैं सम्भवतः यह निर्णय नहीं ले पाता। मैं अत्यन्त कृतज्ञ हूँ कि आपके परामर्श के कारण ही मेरा बालक आज शौर्य-वीर्य से इतना गरिमामय हो सका है।’’ दशरथ के कण्ठस्वर से विनय फूटा।
‘‘अपने पुत्र की शक्ति ज्ञात होने के उपरान्त भी आपने शंकित होना नहीं त्यागा, राजन् !’’ वसिष्ठ बोले।
दशरथ को आश्चर्य हुआ, ‘‘क्या आपका अभिप्राय राम की शक्ति के सम्बन्ध में शंकाग्रस्त होना है ?’’
‘‘आप मेरा संकेत समझ गये हैं।’’ वसिष्ठ ने कहा।
दशरथ अपने आप में कुछ खोजने लगे। स्मरण नहीं आया कि ऐसा प्रमाद वह कब कर बैठे हैं !
महामन्त्री सुमन्त्र वसिष्ठ का संकेत समझ गया था। उसने पूछ लिया, ‘‘आप महाबली परशुराम के सम्बन्ध में तो कुछ व्यक्त नहीं कर रहे थे, महात्मन्।’’
वसिष्ठ मुस्कुराये, ‘‘अयोध्या का महामन्त्री निश्चित ही अत्यन्त मेधासम्पन्न है।’’
इसे मैं आप ही की कृपा मानता हूँ, ब्रह्मन्।’’ सुमन्त्र बोला, ‘‘आपके श्रीचरणों पर बैठ विधिवत् शिक्षा पाने का सौभाग्य तो मुझे कदापि नहीं प्राप्त हुआ किन्तु जब-जब आपके दर्शन होते रहे, आपने इक्ष्वाकुवंश के सदस्यों के साथ मुझे भी अपने ज्ञानामृत से वंचित नहीं रखा। इसी कारण अयोध्या-नरेश की सेवा का दायित्व अपने स्कन्धों पर लेकर गुरुदायित्व के पालन में मैंने स्वयं को अशक्त नहीं अनुभव किया।’’
‘‘महामन्त्री आपकी कुशलता से मैं अत्यन्त प्रभावित हूँ। महाराज दशरथ एवं अयोध्या राज्य की आपने जो सेवा की है, वह उपमायोग्य है। मेरा आशीर्वाद सदैव आपके साथ है।’’ वसिष्ठ ने अनवत करबद्ध खड़े सुमन्त्र का मस्तक स्पर्श किया।
दशरथ ने वसिष्ठ को सम्बोधित किया, मैं संशय के कारण कुछ विस्मृत हो गया था, महात्मन् ! परशुराम के सम्मुख आते ही मैं भय के कारण अत्यन्त अशक्त होकर अपने पुत्र की शक्ति एवं योग्यता पर शंकित हो गया था। किन्तु मैं कुछ और करता भी क्या ! महायोद्धा क्षत्रिय नृपतियों को परशुराम बारम्बार नष्ट करते रहे हैं, यदि यह मुझे ज्ञात न भी होता, जमदग्नि के पुत्र को रौद्र रूप देखने के उपरान्त अपने बालक के प्रति ममता के कारण मैं शंकित हुए बिना नहीं रह पाता।’’
‘‘राम के प्रति वह आपकी ममता नहीं थी, राजन् ।’’ वसिष्ठ बोले, ‘‘वह एक आत्मविनाशी मोह था। सत्य तो यह है कि इस मोह का माध्यम तो राम था किन्तु वास्तविक कारण आपका स्वार्थ ही रहा है।’’
दशरथ के मुखमण्डल पर श्याम वर्ण छा गया था।
अब वसिष्ठ सस्वर हँस पड़े, ‘‘हमारी समस्त शंकाएँ मात्र सवयं के लिए होती हैं, राजन्। स्वयं के प्रति अनाश्वस्ति से शंकाएँ जन्म लेती हैं एवं चित्त भयग्रस्त होता है। बर्षों से तपस्यारत योगी एवं साधक भी कई बार दिग्भ्रमित हो, शंकित हो जाते हैं। प्रकृति ने जो माया रची है, ब्रह्माण्ड में उसकी भी तो कोई भूमिका है ! माया से मुक्ति का प्रयास ही साधना है।’’
दशरथ गम्भीरता से वसिष्ठ के शब्द श्रवण कर रहे थे। अब बोले, ‘‘जाने क्यों आज अनुभव हो रहा है, इक्ष्वाकुवंश के इस सिंहासन पर आसीन होने का अधिकारी मैं नहीं हूँ।’’
‘‘क्या यह किसी वैराग्य के कारण है, राजन् ?’’वसिष्ठ ने प्रश्न किया।
‘‘नहीं महात्मन्, मेरे चित्त में अभी कोई वैराग्य नहीं है।’’ दशरथ बोले, ‘‘वैराग्य की स्थिति तो व्यक्ति को मुक्त करती है। व्यक्ति को फिर एक सघन आन्नद की अवस्था मिल जाती है।’’
‘‘तो फिर आपके चित्त के कष्ट का कारण ?’’ वसिष्ठ का प्रश्न था।
‘‘आपके शब्दों से आज मैं जान गया, इक्ष्वाकुवंश में अब मुझसे भी अधिक योग्य कोई है, जिसे यह सिंहासन अवश्य ही दिया जाना चाहिए।’’
सभागृह में उपस्थित समस्त लोग अयोध्या-नरेश के शब्द सुनकर अवाक् रह गये थे। सब के हृदय की गति में वृद्धि हो गयी थी। दशरथ के शब्दों से सब शिलावत् रह गये थे।
वसिष्ठ पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। ब्रह्मर्षि ने सुमन्त्र से प्रश्न किया, ‘‘राजचक्रवर्ती का अभिप्राय समझ रहे हैं, महामन्त्री ? आप समझ ही गये होंगे। अन्यथा इतने विचलित नहीं दिखते ।’’
सुमन्त्र का कण्ठ कम्पित था। महामन्त्री ने ब्रह्मर्षि के प्रश्न के उत्तर के प्रयास में अपने भीतर शक्ति एकत्रित करने की चेष्टा की। किन्तु निवेदन करने योग्य कोई उत्तर नहीं सूझा।
वसिष्ठ मुस्कुराये, ‘‘आप अपनी कुशलता के कारण अत्यन्त विख्यात हैं। इस समय आपका इस प्रकार अस्थिर होना मुझे अवसरोपयोगी नहीं प्रतीत होता, महामन्त्री।’’
‘‘क्षमा करें, ब्रह्मन् ।’’ सुमन्त्र बोला, ‘‘नृपति के शब्दों ने मुझे अकस्मात् विचलित कर दिया है। अभी आपके पदार्पण के कुछ ही क्षण पूर्व महाराज अयोध्या की प्रजा के कल्याण के सम्बन्ध में हम सब से वार्तालाभ कर रहे थे। मैंने तभी अपनी मुखाकृति में असीम उत्साह देखा था। लग रहा था, अयोध्या-नरेश मात्र अस्थि-चर्म से निर्मित एक साधारण पुरूष नहीं, कर्म का ज्वालामुखी हैं।’’
‘‘यह स्वाभाविक ही था, महामन्त्री। राजा के भीतर उत्साह का अभाव राज्य के निमित्त मंगलकारी नहीं होता ।’’ वसिष्ठ बोले।
‘‘किन्तु अकस्मात् सिंहासन त्यागने का विचार फिर क्यों आया, ब्रह्मर्षि ? कुछ ही पलों के व्यवधान में अयोध्या-नरेश में इतना गम्भीर परिवर्तन क्यों आ गया? मेरे जीवन का एक वृहद् अंश अयोध्या के राजसिंहासन एवं प्रजा की ही सेवा में व्यतीत हुआ है। स्वप्न में भी इस राज्य के कल्याण के अतिरिक्त कुछ और सोचने का अवसर मुझे नहीं मिला। इस कारण अपने स्वामी के इन शब्दों से वज्रपात का-सा अनुभव हो रहा है।’’ सुमन्त्र का स्वर इतना कम्पित था कि वह इससे अधिक कुछ और व्यक्त करने में असमर्थ था।
तत्त्वज्ञानी वसिष्ठ अविचल थे। उन्होंने दशरथ को सम्बोधित किया, ‘‘आपने अपने सुयोग्य महामन्त्री को कभी इतना विचलित इससे पूर्व नहीं देखा होगा, राजन् !’’
दशरथ मौन थे।
सभागृह में उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति जैसे विद्युत् के स्पर्श से आक्रान्त हो गया था।
वसिष्ठ हौले से हँसे, ‘‘आप सब अपने आपसे इतने भयभीत क्यों हो रहे हैं ? मुझे लग रहा है, राजचक्रवर्ती के इस आकस्मिक निर्णय से आप उतने विचलित नहीं हैं, जितने कि स्वयं के अस्तित्व के प्रति भयभीत !’’
सुमन्त्र अथक प्रयास के उपरान्त उत्तर दे पाया, ‘‘अन्य व्यक्तियों की स्थिति पर मैं कुछ बोलने का अधिकारी नहीं हूँ। किन्तु अभी आपके कथन पर गम्भीरता से विचार करने की शक्ति मेरे भीतर से लुप्त हो चुकी है।’’
‘‘यह चिह्न प्रजा या राजसिंहासन या स्वयं आप ही के निमित्त मंगलकारी नहीं है, भद्र !’’ वसिष्ठ बोले, ‘‘महामन्त्री का इस प्रकार आवेग में बहना शोभा नहीं देता।’’
सुमन्त्र ने अब बोलने का प्रयास नहीं किया। भलीभाँति समझ गया था, ब्रह्मर्षि के सम्मुख अब उसका कोई भी शब्द अर्थपूर्ण नहीं प्रमाणित होगा।
दशरथ अब कुछ सन्तुलित-से लगे। कुछ पल तो वह सभागृह के बहुमूल्य उपकरणों को गहराई से निहारते रहे, फिर वसिष्ठ का कान्तिमान मुखमण्डल।
कुछ पलों के निमित्त फिर मौन व्याप्त हो गया था।
सर्वाधिक विचलित था सुमन्त्र।
अब वसिष्ठ को संवाद-सूत्र आगे बढ़ाना आवश्यक लगा। बोले ‘‘यह कोई विषादयोग तो नहीं है, भद्रगण।’’
दशरथ ने उत्तर दिया, ‘‘स्वयं से मोह के कारण विषाद उतर आया था। किन्तु मैं इस विषादानुभव के प्रति कृतज्ञ हूँ कि इसी के कारण आपके शब्दों में निहित आलोक मुझे दिखाई पड़ा है।’’
‘‘यह आलोक तो आप ही के भीतर कभी जन्मा होगा, राजन्।’’ बसिष्ठ बोले, ‘‘हाँ, यह आपको दिखाई सम्भवतः आज ही पड़ा।’’
‘‘मेरे मन में अब भी संशय नहीं है, ऐसा कुछ मैं नहीं कहूँगा।’’ दशरथ बोले ‘‘किन्तु इतना कहने का साहस अवश्य करूँगा कि अब मेरे चित्त में मोह की प्रगाढ़ता नहीं है।’’
‘‘फिर पूर्ण रूप में मोहमुक्ति से पूर्व ही आपने सिंहासन त्यागने का विचार क्यों कर लिया, राजन् ?’’ वसिष्ठ ने प्रश्न किया।
‘‘मुझे कोई और विकल्प नहीं सूझा, महात्मन् ।’’दशरथ बोले।
‘‘किन्तु भविष्य में इससे आपको कहीं पश्चात्ताप तो नहीं करना पड़ेगा ?’’
वसिष्ठ के स्वर में सन्देह था।
‘‘यह मैं कैसे कहूँ, ब्रह्मर्षि ?’’ दशरथ निरुपाय-से प्रतीत हो रहे थे।
‘‘ऐसी कोई स्थिति आपके एवं आपकी महिषियों के निमित्त अत्यन्त क्लेश-दायक भी तो हो सकती है।’’ वसिष्ठ ने सतर्क किया।
‘‘अभी तो तर्क यही कहता है कि योग्यतर व्यक्ति ही मात्र शासन का अधिकारी है।’’ दशरथ बोले।
यह अत्यन्त स्थूल तर्क हुआ, राजन्। एक वक्ता इस तर्क के विरोध में भी प्रभावी ढंग से अपना बक्तव्य रख सकता है।’’ वसिष्ठ ने सावधान किया।
‘‘मेरे समक्ष अब तर्क नहीं, एक गहन भाव है, महात्मन् ।’’ दशरथ बोले, ‘‘उस भाव के सम्बन्ध में यही कह सकता हूँ कि इस राजसिंहासन से उतरकर वानप्रस्थ जाने का समय अब मेरे समक्ष आ गया।
सब में काष्ठ-मौन व्याप्त हो गया।
कुछ पलों के उपरान्त वसिष्ठ ने अयोध्या-नरेश से प्रश्न किया, ‘‘सम्भव है, यही भाव आपको सत्य का परम अनुभव दे जाए राजन्।’’
दशरथ ने मस्तक नवाया, ‘‘मुझे यही आशीर्वाद दें, ब्रह्मन्।’’
‘‘किन्तु राजसिंहासन का क्या होगा ?’’ दशरथ का वाक्य समाप्त होते ही अधीर सुमन्त्र बोल पड़ा। अनिश्चिय के कारण महामन्त्री का स्वर तरंगित-सा हो रहा था।
दशरथ को महामन्त्री की यह व्याकुलता प्रीतिकर तो नहीं लगी किन्तु कुलगुरु की उपस्थित के कारण उन्होंने अपनी अप्रसन्नता व्यक्त नहीं की ।
वसिष्ठ हँसे, ‘‘महामन्त्री, इतनी लम्बी कालावधि से राजचक्रवर्ती दशरथ की सेवा में आप हैं किन्तु अपने स्वामी का संकेत नहीं समझ सके ?’’
सुमन्त्र को यह सब रहस्य-सा लगा। वह बारी-बारी से दशरथ एवं मन्त्रियों की ओर देखने लगा। चिन्ता के कारण उसके माथे पर स्वेद-कण उभर आये थे।
वसिष्ठ ने अब दशरथ को सम्बोधित किया, ‘‘आपके महामन्त्री अत्यन्त विचलित हैं, राजन्। क्यों न आप शीघ्रातिशीघ्र राज्य के समस्त सभासदों को आमन्त्रित कर अपने निर्णय की घोषणा कर दें !’’
‘‘ऐसा ही किया जाएगा, ब्रह्मन् !’’ दशरथ ने निवेदन किया, ‘‘मेरी इच्छा है कि सरयू के पावन तट पर आप के यज्ञ की पूर्णाहुति के उपरान्त समस्त अयोध्यावासियों के समक्ष मैं अपने निर्णय की घोषणा करूँ।’’
‘‘प्रस्ताव अति उत्तम है, राजन्। मुझे विश्वास है, अपना निर्णय घोषित करने से पूर्व आप निश्चित ही प्रजा की इच्छा एवं आकांक्षाओं का भी ध्यान रखेंगे ।’’ वसिष्ठ सम्भवतः अयोध्या-नरेश को सतर्क कर रहे थे।
‘‘यह निर्णय मैं आप से परामर्श किये बिना लेने का अधिकारी नहीं हूँ, महात्मन्।’’ दशरथ बोले, ‘‘आपके सद्परामर्शों के कारण यह राज्य अनेक बार कई गम्भीर संकटों से बच निकला है। हम सब आपके ऋणी हैं ।’’
वसिष्ठ ने दशरथ को रोक दिया, ‘‘सिंहासन के उत्तराधिकारी के चयन का प्रश्न राज्य का कोई संकट नहीं है, राजन् । यह एक महान् अवसर है, जब एक राजा प्रजा के प्रति अपनी निष्ठा एवं स्वयं विवेकवान् होना प्रमाणित कर यशस्वी हो सकता है।’’
‘‘मुझे तो यशस्वी होने की तनिक भी आकांक्षा नहीं है, ब्रह्मन ।’’ दशरथ बोले, ‘‘इक्ष्वाकुवंश को उच्चतम गरिमा से विभूषित करनेवाला व्यक्ति पुत्र के रूप में मुझे एवं मेरी महिषियों को धन्य कर रहा है। अभी तो वह मात्र कुमारावस्था में ही है। किन्तु अपने प्रताप एवं ज्ञान से उसने अल्पकाल में ही इतना यश प्राप्त कर लिया है कि उसके सम्मुख झुकने में भी अपना गौरव है ।’’
सुमन्त्र के वक्षस्थल से एक भारी शिला मानो लम्बी कालावधि के उपरान्त निकल गयी। उसका विचलित मुख अब अपने स्वामी के इस संकेत से आश्वस्त था।
सन्ध्या उतर आयी थी।
बाहर पक्षियों के कलरव एवं गोधूलि लग्न के मध्य ब्रह्मर्षि वसिष्ठ कुछ खोज-से रहे थे। दशरथ को भलीभाँति ज्ञात है, उनके कुलगुरु सदैव ही समय के अन्वेषी रहे हैं। समय के इस अन्वेषण में वसिष्ठ ने सृष्टि को वह ज्ञान सूत्र प्रदान किया है जिसका कोई मूल्य नहीं हो सकता। दशरथ अपने कुलगुरु के प्रति कृतज्ञता से इतने विभोर थे कि राजचक्रवर्ती को काल का ध्यान ही नहीं रह गया था।
वसिष्ठ ने अब सभागृह में उपस्थित सबको सम्बोधित किया, ‘‘यह सन्धिक्षण है, भद्रगण। राजचक्रवर्ती दशरथ एवं उनके उत्तराधिकारी के मध्य यह सन्धिकाल एक गहरी आस्था का प्रतीक है। स्वयं के अवरोहण एवं उत्तराधिकारी के अवरोहण के सम्बन्ध में जो घोषणा अयोध्या-नरेश करने जा रहे हैं। उसका महत्त्व आज कोई समझे न समझे, भविष्य अवश्य समझेगा। आप सब राजचक्रवर्ती के निमित्त प्रार्थना करें कि वे विचार-श्रृंखला से दृढ़ बने रहें ताकि एक सुयोग्य उत्तराधिकारी अयोध्या के राजसिंहासन पर आसीन होकर प्रजा का कल्याण कर सके।’’ वसिष्ठ फिर सभागृह से बाहर निकल गये। उनके पीछे दशरथ थे। वृक्ष एवं लतागुल्मों के मध्य से वे उद्यान की दिशा में बढ़ रहे थे। उतरता हुआ अँधेरा अब घनीभूत होने लगा था।
यज्ञ सप्ताह-भर चलता रहा। यज्ञ का सहयोगी अनुष्ठान था ज्ञानसत्र। इस कार्यक्रम में भाग लेने के निमित्त देश-विदेश के अनेक ज्ञानी एवं तत्त्वज्ञ-पुरूष तो उपस्थित थे ही, ऐसे अगणित सामान्य जन भी कार्यक्रम का वर्णन सुनकर चले आये थे जो मनीषियों के मुखारबिन्दु से निःसृत शब्द सुनकर कुछ प्राप्त करने की आकांक्षा रखते थे।
वसिष्ठ द्वारा आयोजित यह कल्याण यज्ञ मानो मात्र सरयू के तट पर ही नहीं, समग्र राज्य में व्याप्त हो गया था। ब्रह्मर्षि का तप सर्वविदित रहा है। दूर-दूरान्तर से लोग यज्ञ देखने की इच्छा से इस कारण चले आये कि इसकी संकल्पना तपोनिष्ठ वसिष्ठ ने की थी।
ज्ञानसत्र से सत्य की प्रतीति एवं आस्था के सम्बन्ध में गुणीजन विचार-विमर्श कर रहे थे। उनके सम्मुख मंच के नीचे बैठे थे देश-विदेश से आये असंख्य जिज्ञासु।
वसिष्ठ यज्ञमण्डप के सम्मुख निर्धारित आसन पर बैठे, कुण्ड से निकलती अग्नि में जाने क्या अन्वेषण कर रहे थे, सम्भवतः काल का, जो सब कुछ लील जाता है- धधकती अग्नि को भी।
अग्निहोत्री सूर्यप्रसन्न से पूर्णाहुति के लग्न की घोषणा तो वसिष्ठ मानों भूतल पर उतरे। उन्होंने समीप बैठे दशरथ एवं उनकी महिषियों से आग्रह किया कि वे चारों दिशाओं में खड़े होकर मन्त्रोच्चारण के मध्य एक साथ यज्ञ में पूर्णाहुति प्रदान करें।
सुमन्त्र ने पूर्व ही रजतपात्र में घी, दुग्ध, मधु, चन्दन, पुष्प, स्वर्ण एवं चावल आदि यज्ञाहुति के समस्त उपकरण प्रस्तुत कर रखे थे। सूर्यप्रसन्न याज्ञिक ब्राह्मणों के साथ मन्त्रोच्चारण के मध्य दशरथ अपनी महिषियों समेत यज्ञ में आहुति प्रदान करते रहे।
यज्ञमण्डप के चतुर्दिक् दर्शकों का अपार समुदाय खड़ा था ।
यज्ञ की पूर्णाहुति समाप्त हुई तो उपस्थित समस्त नर-नारी उच्छ्वास में ब्रह्मर्षि वसिष्ठ एवं राजचक्रवर्ती दशरथ की जयकार से सम्पूर्ण आकाश को मन्द्रित करने लगे।
आहुति के उपरान्त दशरथ ने अपनी महिषियों के साथ सर्वप्रथम कुलगुरु वसिष्ठ को दण्डवत् प्रणाम किया। तदुपरान्त चरण स्पर्श किये, अग्निहोत्री सूर्यप्रसन्न के।
वेदगान से सम्पूर्ण यज्ञस्थल मुखरित हो रहा था।
अब वसिष्ठ उठ खड़े हुए।
महामन्त्री सुमन्त्र ने उपस्थित जनसमुदाय को सम्बोधित किया, ‘‘इस कल्याण यज्ञ की पूर्णाहुति के उपरान्त इक्ष्वाकुवंश के कुलगुरु ब्रह्मर्षि वसिष्ठ की उपस्थिति में राजचक्रवर्ती दशरथ एक महत्त्वपूर्ण घोषणा करेंगे।’’
कुछ लोग तो महामन्त्री की घोषणा से मौन हो गये किन्तु कोई-कोई फुसफुसा रहा था।
ज्ञानसत्र समाप्त हो गया था।
दशरथ वसिष्ठ के साथ विशेष रूप में निर्मित मंच पर जा आसीन हुए। पुष्प एवं लताओं से मंच को विशेष रूप से सज्जित किया गया था।
सुमन्त्र की घोषणा होते ही वेदगान एवं वाद्यसंगीत रुक गये।
दशरथ ने उपस्थित जन समुदाय का कल्याण यज्ञ में उपस्थित होने से निमित्त धन्यवाद किया तो लोग करतल ध्वनि से राजचक्रवर्ती का अभिवादन करने लगे। वह ध्वनि संगीत के ताल-सी प्रतीत हो रही थी। कुछ समय उपरान्त ध्वनि शान्त हुई तो दशरथ ने समस्त जन को सम्बोधित किया, ‘‘तत्त्वज्ञानी ब्रह्मर्षि वसिष्ठ की कृपा से महायज्ञ सम्पन्न होने के उपरान्त मैं आज स्वयं को अत्यन्त मुक्त अनुभव कर रहा हूँ।’’
तनिक विराम देकर दशरथ मौन हुए तो जनता में फुसफुसाहट पुनः विस्तार पाने लगी।
दशरथ वने फिर से बोलना आरम्भ किया, ‘‘प्रत्येक व्यक्ति के सम्मुख काल एवं कर्तव्य निर्धारित है। उनके समाप्त होते ही उसकी भूमिका का भी अन्त हो जाता है। प्रत्येक नश्वर प्राणी के साथ सदा ही यह होता आया है। समय-चक्र का यही नियम है।’’
जनसमुदाय उत्सुकता से मौन खड़ा था। दशरथ के शब्दों से कुछ लोग भयाक्रान्त से दीख रहे थे।
‘‘आप सब से मुझे जो स्नेह मिला, वह मेरे समक्ष एक अमूल्य निधि है।’’ दशरथ बोले, ‘‘इस निधि को अपनी भावनाओं की मंजूषा में बन्द कर अब मैंने वानप्रस्थ आश्रम जाने का निर्णय ले लिया है।’’ कुछ पलों के निमित्त दशरथ मौन हो गये।
इस घोषणा के उपरान्त सामान्य रूप से कुछ खलबली मचनी चाहिए थी। किन्तु वैसा कुछ भी नहीं हुआ। लोग मानों हिमखण्डों के मध्य धँसते जा रहे थे। सभी को ज्ञात हुआ है, राजा दशरथ की आयु अल्प नहीं है किन्तु जाने क्यों प्रजा यह सोचना नहीं चाह रही थी कि कारण चाहे कुछ भी हो, एक दिन तो राजचक्रवर्ती को सिंहासन त्यागना ही है।
‘‘आप सब विचलित से दीख रहे हैं।’’ दशरथ म्लान हँसे, ‘‘किन्तु मुझे ज्ञात है, आपकी दुश्चिन्ता निराधार है। अयोध्यानिवासियों का परम सौभाग्य है कि जिस व्यक्ति के हाथों आपको मैं सौंपने जा रहा हूँ, वह सर्वगुण-सम्पन्न है। ऐसे अतुलनीय व्यक्ति को राजसिंहासन पर आसीन देख आप अपने भाग्य को सराहे बिना नहीं मानेंगे।’’
कोई कुछ समझ नहीं पा रहा था। लगा, राजचक्रवर्ती आज प्रजा के सम्मुख पहेलियाँ बुझा रहे हैं।
आज कल्याणयज्ञ के साथ इसी स्थल पर जो ज्ञानसत्र सम्पन्न हुआ, उसकी परिकल्पना अप्रतिम तत्त्ववेत्ता ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ने की थी।’’ दशरथ ने उपस्थित समुदाय को पुनः सम्बोधित किया, ‘‘यह आयोजन मनुष्य के भीतर विवेक जागृत करने को निमित्त किया गया था। हमारे कुलगुरु की इच्छा यही थी कि इस अनुष्ठान का लाभ अयोध्या राज्य की सीमाओं के बाहर बस रहे व्यक्ति भी उठाएँ। मैं यह देखकर अत्यन्त प्रसन्न हूँ कि वानप्रस्थ के निमित्त निकलने से पूर्व मेरे राज्य में एक ऐसा अनुष्ठान सम्पन्न हुआ जो मनुष्य मात्र के निमित्त हितकारी है।’’
लोग उत्तराधिकारी के सम्बन्ध में दशरथ के निर्णय सुनने के निमित्त अस्थिर हो रहे थे।
ब्रह्मर्षि वसिष्ठ का मुखमण्डल शान्त एवं गम्भीर था।
दशरथ के अधरों पर मृदु हास्य तैरा, ‘‘आप सब अनाश्वस्त किस कारण हो रहे हैं ? निश्चिन्त रहें, गुरु वसिष्ठ की कृपा से अयोध्या के राजसिंहासन पर जो आसीन होने जा रहा है, धरणी में वह अतुलनीय है।’’
लोगों के चित्त में अब सन्देह के वलय उमड़ रहे थे। वे इतने विशाल आश्वासन के उपरान्त स्थिर नहीं हो पा रहे थे।
दशरथ को अपने निर्णय की घोषणा में और अधिक विलम्ब करना उचित प्रतीत नहीं हुआ।
सुमन्त्र ने अग्रह किया कि सब मौन हो जाएँ एवं राजचक्रवर्ती का विचार मनोयोग से श्रवण करें।
दशरथ अब मंच के अग्रदेश में खड़े हुए एवं प्रतीक्षागत जनसमुदाय से निवेदन किया, ‘‘अयोध्या के नृपति के रूप में यह आप सब से मेरा एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण साक्षात्कार है। अपने उत्तराधिकारी के रूप में मैंने जिसका चुनाव किया है, वह है मेरा जेष्ठपुत्र कुमार रामचन्द्र । मात्र जेष्ठपुत्र होने के कारण ही राम स
कहना असंगत न होगा कि ‘पदातिक’ का राम ‘रामकथा’ के ‘अयोध्याकाण्ड’ के भीतर तो है ही, उसके बाहर भी है। पारम्परिक परिधि के बाहर का राम कई बार भीतर के राम से भिन्न भी प्रतीत होता है। किन्तु यह मुझे अस्वाभाविक इस कारण नहीं लगता कि अन्ततः भीतर के व्यक्ति और बाहर के व्यक्ति के मध्य एक विशेष प्रकार की आन्तरिक समरूपता है और वे एक-दूसरे के पूरक हैं।
‘पदातिक’ यात्रा है, राम यात्रिक। यात्रा और यात्रिक के मध्य इस कथा-रचना का लेखक कहाँ है, मैं अभी तक जान नहीं सका। यह प्रश्न पाठक को, सम्भव है, किसी सीमा तक अवान्तर भी लगे किन्तु लेखक के सम्मुख यही प्रश्न कई प्रकार के अनिर्णय एवं अनिश्चय के मध्य सम्भावना का एक द्वार तो खोलता ही है। ‘पदातिक’ के रचनाकार के रूप में यही मेरी प्राप्ति है।
दशरथ अपने मन्त्रियों के साथ अयोध्या के कल्याण पर विचार-विमर्श कर ही रहे थे कि अकस्मात् प्रहरी ने आकर कुलगुरु वसिष्ठ के आगमन की सूचना दी। राजचक्रवर्ती प्रसन्न हुए। प्रसन्न इस कारण हुए कि राज्य के भविष्य के सम्बन्ध में ब्रह्मर्षि वसिष्ठ उचित अवसर पर पधारने के उपरान्त कोई उत्तम परामर्श देंगे। दशरथ सिंहासन त्याग कर उठे एवं महामन्त्री सुमन्त्र को लेकर द्वार की दिशा में बढ़े। ब्रह्मर्षि को देखते ही उनके नेत्र आनन्द से तरंगित होने लगे। राजचक्रवर्ती ने कुलगुरु के चरणों पर मस्तक रखा एवं उत्तरीय से ब्रह्मर्षि के पाददेश में लगी धूल पोंछ दी। बोले, ‘‘दीर्घ यात्रा के कारण आप श्रान्त होंगे। अभी तो आप विश्राम-कक्ष में चलें। वहाँ आपकी पथश्रान्ति के निवारण हेतु उचित व्यवस्था की आज्ञा मैं सेवक को दे देता हूँ।’’
‘‘नहीं, राजन् !’’ वसिष्ठ बोले, ‘‘इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। यात्रा तो मेरे स्वभाव में ही है। यात्रा सदैव ही मुझे नूतनतर अनुभव देती रही है, श्रान्ति नहीं। अपनी असंख्य यात्राओं के कारण ही मुझे अनुभव के ऐसे अमृत प्राप्त होते रहे हैं, जो असम्भव तो नहीं किन्तु दुर्लभ अवश्य हैं।’’
‘‘आपके शब्द ही अमृत हैं, महात्मन्। मैं निश्चित ही अत्यन्त भाग्यवान हूँ कि आज अनायास ही आपके पुनः दर्शन हो रहे हैं।’’ दशरथ बोले।
वसिष्ठ मुस्कुराये, ‘‘मैं यात्रा पर निकला हूँ। चातुर्मास से पूर्व गंगासागर पहुँचने की इच्छा है। पावस में मैं वहाँ यज्ञानुष्ठान करूँगा।’’
‘‘यह तो उत्तम प्रस्ताव है, महात्मन्। इस सन्दर्भ में मेरे निमित्त कोई आज्ञा हो तो सुनाकर उपकृत करें।’’ दशरथ ने निवेदन किया।
‘‘यात्रा पर पुनः निकलने से पूर्व एक यज्ञ मैं अयोध्या में करूँगा। सरयू के उत्तर तट पर कर्माशा ग्राम में उसी स्थल पर जहाँ आपने पुत्रेष्टि अश्वमेघ यज्ञ किया था। अनुष्ठान का आयोजन आप शीघ्रातिशीघ्र कर लें तो उत्तम रहेगा, राजन्।’’ वसिष्ठ बोले।
‘‘ऐसा ही होगा, महात्मन्।’’ दशरथ ने निवेदन किया, ‘‘अभी यदि आप विश्राम-कक्ष में नहीं पधार रहे हैं, क्यों न राजसभा में चलकर मुझे गौरव प्रदान करें। वहाँ मैं अपने मन्त्रियों के साथ राज्य के कल्याण के सम्बन्ध में विचार कर रहा था।’’
ब्रह्मर्षि ने स्वीकृति दे दी।
सभागृह में समस्त मन्त्रणादाता अयोध्या-निवासियों के कल्याण में निमित्त विचारार्थ उत्सुक बैठे थे। वसिष्ठ के पदार्पण होते ही सब करबद्ध उठ खड़े हुए।
वसिष्ठ ने शुभाशंसा व्यक्त की, ‘‘आप सबके विचार आयोध्या की प्रजा को सुख, शान्ति एवं वैभव प्रदान करें।’’
‘‘समस्त शुभ विचारों के स्त्रोत तो स्वयं आप ही हैं, महात्मन्।’’ सुमन्त्र बोला, ‘‘आप ही से प्राप्त शिक्षा से प्रेरित होकर राज्य के नागरिकों के कल्याण की योजनाओं को हम वास्तविकता में रूपान्तरित कर पा रहे हैं।’’
वसिष्ठ मुस्कुराये। महामन्त्री सुमन्त्र को सदैव ही उन्होंने एक अत्यन्त कुशल प्रशासक माना है। ब्रह्मर्षि भलीभाँति जानते हैं, सुमन्त्र के रहते, दशरथ को अयोध्या के सम्बन्ध में चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है।
वसिष्ठ अपने निर्धारित आसन पर बैठ गये तो दशरथ ने राज्य के कल्याण हेतु उनके परामर्श की याचना की, ‘‘अयोध्या के नागरिकों को मात्र वैभव ही नहीं, एक उच्चतर जीवनमूल्य प्राप्त हो, इसके निमित्त आप अपना परामर्श प्रदान करें, महात्मन्।’’
ब्रह्मर्षि के अधरों पर मुस्कान छा गयी, ‘‘प्रजा सदैव ही उच्चतर जीवनमूल्य अपने नृपति के विचार और आचरण से ग्रहण करती है। यह तो आप को ज्ञात ही है, कोई भी जीवनमूल्य शून्य से जन्म नहीं लेता। आप मुझसे सम्भवतः असहमत नहीं होगें कि इस सम्बन्ध में राजा का उत्तरदायित्व अत्यन्त गम्भीर माना जाना चाहिए।’’
दशरथ को कोई उत्तर नहीं सूझा।
ब्रह्मर्षि के कथन का अभिप्राय जान कर समस्त मन्त्री कुछ चिन्तित-से दिखने लगे।
दशरथ ने अब मौन भंग किया,‘‘यदि मैं प्रजा के हित में कभी कर्तव्यच्युत हुआ हूँ, मुझे दण्डित करने का अधिकार आपको है, महात्मन्।’’
‘‘नहीं राजन्, विषय किसी को दण्डित या पुरस्कृत करने का नहीं है। विषय है, सत्यान्वेषण का। नृपति यदि स्वयं सत्यान्वेषी हुआ, चिन्तन-मनन एवं कर्म के समस्त प्रतिमान ही परिवर्तित हो जाते हैं। मात्र ऐसा कोई व्यक्ति ही प्रजा का एक श्रेष्ठतर जीवन जीने के निमित्त प्रेरित कर सकता है।’’ वसिष्ठ बोले।
‘‘आपका कथन सत्य है, ब्रह्मर्षि।’’ दशरथ बोले, ‘‘किन्तु यह किस प्रकार प्रमाणित होगा कि राजा वास्तव में सत्यान्वेषी है ?’’
वसिष्ठ ने प्रश्न के उत्तर में प्रतिप्रश्न किया, ‘‘क्या आपका अभिप्राय मायामृग के कारण मार्गच्युत होने की आशंका से है ?’’
‘‘आपने मेरे चित्त की शंका जान ली है। अब मैं आश्वस्त हूँ कि मुझे उत्तर भी प्राप्त हो जाएगा।’’ दशरथ के स्वर में अब पूर्ववत् शंका परिलक्षित नहीं हुई।
ब्रह्मर्षि कुछ पलों के निमित्त मौन हो गये।
महामन्त्री सुमन्त्र कभी दशरथ का एवं कभी इक्ष्वाकुवंश के कुलगुरु वसिष्ठ का मुखमण्डल निहारने लगा। समस्त मन्त्रणादाता एक गहरे प्रश्न का उत्तर सुनने के आग्रह से भीतर ही भीतर अस्थिर हो रहे थे।
सभागृह में गहरा मौन व्याप्त हो गया था।
वसिष्ठ ने अब मौन भंग किया, ‘‘आप सब अत्यन्त अशान्त प्रतीत हो रहे हैं। यह इस कारण नहीं हुआ कि आपको एक गम्भीर प्रश्न का उत्तर पाने की अदम्य जिज्ञासा है। इस अस्थिरता का वास्तविक कारण तो यह है। कि अपने विचार एवं कर्म के सम्बन्ध में आपके चित्त में शंकाएँ हैं। ये शंकाएँ अब तक सुप्त थीं। इस कारण आपके भीतर स्थिरता का भ्रम चलता रहा।’’
इस गहरी टिप्पणी का उत्तर कौन देता ? दशरथ एवं सुमन्त्र सहित सभी जान गये, बसिष्ठ का यह मन्तव्य एक विस्मृत यथार्थ के प्रति संकेत है।
दशरथ चिन्तित दिखे। मस्तक पर स्वेद-बिन्दु दृष्टिगोचर हो रहे थे।
वसिष्ठ ने अयोध्या-नरेश को सम्बोधित किया, ‘‘आप रणांगण में तो नहीं खड़े हैं, राजन् ! फिर इतने चिन्तित क्यों हैं ? यदि मेरा अनुमान मिथ्या नहीं है, आपकी यह चिन्ता प्रजा के कल्याण के निमित्त नहीं, मात्र अपने से सम्बन्धित है।’’
दशरथ लज्जित हुए, ‘‘मैं स्वयं को अशक्त अनुभव कर रहा हूँ, ब्रह्मन्। चित्त में शंका उत्पन्य हुई है कि सम्भव है जिस मार्ग को सत्य मानकर अब तक चलता रहा हूँ, वह मेरा प्रमाद था। यदि ऐसा ही है, मैं फिर अयोध्या कि प्रजा के साथ न्याय तो नहीं कर सका !’’
‘‘आपका मूल प्रश्न यह था कि नृपति के सत्यान्वेषी होने का प्रमाण क्या हो ?’’ वसिष्ठ बोले।
दशरथ ने स्वीकृति में मस्तक झुकाया, ‘‘यह सत्य है, ब्रह्मन्।’’
‘‘आपके मूल प्रश्न में ही समस्त शंकाओं के उत्तर निहित हैं, राजन्।’’ वसिष्ठ ने कहा, ‘‘यह प्रश्न आपके अन्तर्द्वन्द्वों से निःसृत हुआ है। इस कारण इसका उत्तर बाहरी तत्त्वों से सम्भवतः प्राप्त नहीं हो सकता।’’
दशरथ हतप्रभ रह गये।
सुमन्त्र भी पूर्णतः स्तब्ध हो गया था।
‘‘शंकाएँ मन को अस्थिर ही करती हैं। प्रत्येक मनुष्य के समक्ष ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं किन्तु ज्ञानी पुरूष इन्हीं में से सत्य का आलोक प्राप्त कर अपने कर्तव्य का निर्धारण करता है।’’ वसिष्ठ बोले।
‘‘किन्तु व्यक्ति यदि अज्ञानी हुआ तो ?’’ सुमन्त्र ने प्रश्न किया।
‘‘अज्ञानी द्वन्द्वों से शिक्षा नहीं लेता, उससे पलायन करता है। इस पलायन के कारण ही वह अधिकाधिक भ्रमजाल में फँसता जाता है।’’वसिष्ठ बोले।
दशरथ को तनिक किरण तो दृष्टिगोचर हुई किन्तु चित्त की अस्थिरता सम्भवतः समाप्त नहीं हो पायी थी।
‘‘आप अयोध्या-नरेश को चित्त के इस सन्धि-काल में उचित परामर्श देकर कृतार्थ करें, महात्मन्।’’ दशरथ की कातर-स्थिति देखकर सुमन्त्र को वसिष्ठ के सम्मुख यही निवेदन करना उचित प्रतीत हुआ।
‘‘आप चिन्तित न हों, महामन्त्री।’’ वसिष्ठ बोले, ‘‘अयोध्या के नृपति के चित्त का यह संशय अस्वाभाविक नहीं है। किन्तु सत्यान्वेषी पुरुष स्वयं ही प्रतिकूल सम्भावनाओं से जूझकर एक दिन संशयमुक्त हो जाता है। संशयमुक्त होना सत्यान्वेषी के समक्ष एक अनिवार्य स्थिति है। इस सन्दर्भ में मैं यह अवश्य व्यक्त करना चाहूँगा कि व्यक्ति की संशयमुक्ति जितनी दृढ़ होगी, उसका सत्यान्वेषण उतना ही अर्थपूर्ण होगा। यह स्थिति अलभ्य तो नहीं है किन्तु कठिन अवश्य है।’’
दशरथ ने वसिष्ठ के चरणों पर अपना मस्तक रख दिया, ‘‘इक्ष्वाकुवंश का अहोभाग्य कि आपसे हमें निरन्तर ज्ञानलोक प्राप्त होता रहा है । आपने मेरे पुत्रों को इस रूप में दीक्षित किया है कि मुझे अब अयोध्या कि प्रजा के कल्याण के निमित्त सम्भवतः चिन्ता नहीं करनी चाहिए।’’
‘‘आपके चारों पुत्र अपनी मेधा एवं शक्ति से मात्र अयोध्या का ही नहीं, अन्य राज्यों की भी प्रजा का कल्याण करेंगे। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र जब यज्ञरक्षा हेतु आपसे राम को माँगने आये थे, आपके चित्त में शंका का अस्थिर सिन्धु था। आप जान नहीं पाये कि विश्वामित्र का शस्त्रज्ञान कितना गहरा एवं विशाल है। इस शंका के कारण यदि आप राम को ब्रह्मर्षि की सेवा के निमित्त न भेजते, आपका पुत्र महान् समरविद्या के ज्ञान से वंचित रह जाता। तनिक सोचिए तो राजन्, फिर कौन करता सम्पूर्ण भूमण्डल पर धर्म की रक्षा ?’’ वसिष्ठ ने विस्मृत अध्याय को पुनः जागृत कर दिया।
‘‘उस समय आपही के परामर्श के कारण मैं राम को ब्रह्मर्षि के साथ वनप्रदेश भेज सका था। आप यदि तब अयोध्या में उपस्थित न होते, मैं सम्भवतः यह निर्णय नहीं ले पाता। मैं अत्यन्त कृतज्ञ हूँ कि आपके परामर्श के कारण ही मेरा बालक आज शौर्य-वीर्य से इतना गरिमामय हो सका है।’’ दशरथ के कण्ठस्वर से विनय फूटा।
‘‘अपने पुत्र की शक्ति ज्ञात होने के उपरान्त भी आपने शंकित होना नहीं त्यागा, राजन् !’’ वसिष्ठ बोले।
दशरथ को आश्चर्य हुआ, ‘‘क्या आपका अभिप्राय राम की शक्ति के सम्बन्ध में शंकाग्रस्त होना है ?’’
‘‘आप मेरा संकेत समझ गये हैं।’’ वसिष्ठ ने कहा।
दशरथ अपने आप में कुछ खोजने लगे। स्मरण नहीं आया कि ऐसा प्रमाद वह कब कर बैठे हैं !
महामन्त्री सुमन्त्र वसिष्ठ का संकेत समझ गया था। उसने पूछ लिया, ‘‘आप महाबली परशुराम के सम्बन्ध में तो कुछ व्यक्त नहीं कर रहे थे, महात्मन्।’’
वसिष्ठ मुस्कुराये, ‘‘अयोध्या का महामन्त्री निश्चित ही अत्यन्त मेधासम्पन्न है।’’
इसे मैं आप ही की कृपा मानता हूँ, ब्रह्मन्।’’ सुमन्त्र बोला, ‘‘आपके श्रीचरणों पर बैठ विधिवत् शिक्षा पाने का सौभाग्य तो मुझे कदापि नहीं प्राप्त हुआ किन्तु जब-जब आपके दर्शन होते रहे, आपने इक्ष्वाकुवंश के सदस्यों के साथ मुझे भी अपने ज्ञानामृत से वंचित नहीं रखा। इसी कारण अयोध्या-नरेश की सेवा का दायित्व अपने स्कन्धों पर लेकर गुरुदायित्व के पालन में मैंने स्वयं को अशक्त नहीं अनुभव किया।’’
‘‘महामन्त्री आपकी कुशलता से मैं अत्यन्त प्रभावित हूँ। महाराज दशरथ एवं अयोध्या राज्य की आपने जो सेवा की है, वह उपमायोग्य है। मेरा आशीर्वाद सदैव आपके साथ है।’’ वसिष्ठ ने अनवत करबद्ध खड़े सुमन्त्र का मस्तक स्पर्श किया।
दशरथ ने वसिष्ठ को सम्बोधित किया, मैं संशय के कारण कुछ विस्मृत हो गया था, महात्मन् ! परशुराम के सम्मुख आते ही मैं भय के कारण अत्यन्त अशक्त होकर अपने पुत्र की शक्ति एवं योग्यता पर शंकित हो गया था। किन्तु मैं कुछ और करता भी क्या ! महायोद्धा क्षत्रिय नृपतियों को परशुराम बारम्बार नष्ट करते रहे हैं, यदि यह मुझे ज्ञात न भी होता, जमदग्नि के पुत्र को रौद्र रूप देखने के उपरान्त अपने बालक के प्रति ममता के कारण मैं शंकित हुए बिना नहीं रह पाता।’’
‘‘राम के प्रति वह आपकी ममता नहीं थी, राजन् ।’’ वसिष्ठ बोले, ‘‘वह एक आत्मविनाशी मोह था। सत्य तो यह है कि इस मोह का माध्यम तो राम था किन्तु वास्तविक कारण आपका स्वार्थ ही रहा है।’’
दशरथ के मुखमण्डल पर श्याम वर्ण छा गया था।
अब वसिष्ठ सस्वर हँस पड़े, ‘‘हमारी समस्त शंकाएँ मात्र सवयं के लिए होती हैं, राजन्। स्वयं के प्रति अनाश्वस्ति से शंकाएँ जन्म लेती हैं एवं चित्त भयग्रस्त होता है। बर्षों से तपस्यारत योगी एवं साधक भी कई बार दिग्भ्रमित हो, शंकित हो जाते हैं। प्रकृति ने जो माया रची है, ब्रह्माण्ड में उसकी भी तो कोई भूमिका है ! माया से मुक्ति का प्रयास ही साधना है।’’
दशरथ गम्भीरता से वसिष्ठ के शब्द श्रवण कर रहे थे। अब बोले, ‘‘जाने क्यों आज अनुभव हो रहा है, इक्ष्वाकुवंश के इस सिंहासन पर आसीन होने का अधिकारी मैं नहीं हूँ।’’
‘‘क्या यह किसी वैराग्य के कारण है, राजन् ?’’वसिष्ठ ने प्रश्न किया।
‘‘नहीं महात्मन्, मेरे चित्त में अभी कोई वैराग्य नहीं है।’’ दशरथ बोले, ‘‘वैराग्य की स्थिति तो व्यक्ति को मुक्त करती है। व्यक्ति को फिर एक सघन आन्नद की अवस्था मिल जाती है।’’
‘‘तो फिर आपके चित्त के कष्ट का कारण ?’’ वसिष्ठ का प्रश्न था।
‘‘आपके शब्दों से आज मैं जान गया, इक्ष्वाकुवंश में अब मुझसे भी अधिक योग्य कोई है, जिसे यह सिंहासन अवश्य ही दिया जाना चाहिए।’’
सभागृह में उपस्थित समस्त लोग अयोध्या-नरेश के शब्द सुनकर अवाक् रह गये थे। सब के हृदय की गति में वृद्धि हो गयी थी। दशरथ के शब्दों से सब शिलावत् रह गये थे।
वसिष्ठ पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। ब्रह्मर्षि ने सुमन्त्र से प्रश्न किया, ‘‘राजचक्रवर्ती का अभिप्राय समझ रहे हैं, महामन्त्री ? आप समझ ही गये होंगे। अन्यथा इतने विचलित नहीं दिखते ।’’
सुमन्त्र का कण्ठ कम्पित था। महामन्त्री ने ब्रह्मर्षि के प्रश्न के उत्तर के प्रयास में अपने भीतर शक्ति एकत्रित करने की चेष्टा की। किन्तु निवेदन करने योग्य कोई उत्तर नहीं सूझा।
वसिष्ठ मुस्कुराये, ‘‘आप अपनी कुशलता के कारण अत्यन्त विख्यात हैं। इस समय आपका इस प्रकार अस्थिर होना मुझे अवसरोपयोगी नहीं प्रतीत होता, महामन्त्री।’’
‘‘क्षमा करें, ब्रह्मन् ।’’ सुमन्त्र बोला, ‘‘नृपति के शब्दों ने मुझे अकस्मात् विचलित कर दिया है। अभी आपके पदार्पण के कुछ ही क्षण पूर्व महाराज अयोध्या की प्रजा के कल्याण के सम्बन्ध में हम सब से वार्तालाभ कर रहे थे। मैंने तभी अपनी मुखाकृति में असीम उत्साह देखा था। लग रहा था, अयोध्या-नरेश मात्र अस्थि-चर्म से निर्मित एक साधारण पुरूष नहीं, कर्म का ज्वालामुखी हैं।’’
‘‘यह स्वाभाविक ही था, महामन्त्री। राजा के भीतर उत्साह का अभाव राज्य के निमित्त मंगलकारी नहीं होता ।’’ वसिष्ठ बोले।
‘‘किन्तु अकस्मात् सिंहासन त्यागने का विचार फिर क्यों आया, ब्रह्मर्षि ? कुछ ही पलों के व्यवधान में अयोध्या-नरेश में इतना गम्भीर परिवर्तन क्यों आ गया? मेरे जीवन का एक वृहद् अंश अयोध्या के राजसिंहासन एवं प्रजा की ही सेवा में व्यतीत हुआ है। स्वप्न में भी इस राज्य के कल्याण के अतिरिक्त कुछ और सोचने का अवसर मुझे नहीं मिला। इस कारण अपने स्वामी के इन शब्दों से वज्रपात का-सा अनुभव हो रहा है।’’ सुमन्त्र का स्वर इतना कम्पित था कि वह इससे अधिक कुछ और व्यक्त करने में असमर्थ था।
तत्त्वज्ञानी वसिष्ठ अविचल थे। उन्होंने दशरथ को सम्बोधित किया, ‘‘आपने अपने सुयोग्य महामन्त्री को कभी इतना विचलित इससे पूर्व नहीं देखा होगा, राजन् !’’
दशरथ मौन थे।
सभागृह में उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति जैसे विद्युत् के स्पर्श से आक्रान्त हो गया था।
वसिष्ठ हौले से हँसे, ‘‘आप सब अपने आपसे इतने भयभीत क्यों हो रहे हैं ? मुझे लग रहा है, राजचक्रवर्ती के इस आकस्मिक निर्णय से आप उतने विचलित नहीं हैं, जितने कि स्वयं के अस्तित्व के प्रति भयभीत !’’
सुमन्त्र अथक प्रयास के उपरान्त उत्तर दे पाया, ‘‘अन्य व्यक्तियों की स्थिति पर मैं कुछ बोलने का अधिकारी नहीं हूँ। किन्तु अभी आपके कथन पर गम्भीरता से विचार करने की शक्ति मेरे भीतर से लुप्त हो चुकी है।’’
‘‘यह चिह्न प्रजा या राजसिंहासन या स्वयं आप ही के निमित्त मंगलकारी नहीं है, भद्र !’’ वसिष्ठ बोले, ‘‘महामन्त्री का इस प्रकार आवेग में बहना शोभा नहीं देता।’’
सुमन्त्र ने अब बोलने का प्रयास नहीं किया। भलीभाँति समझ गया था, ब्रह्मर्षि के सम्मुख अब उसका कोई भी शब्द अर्थपूर्ण नहीं प्रमाणित होगा।
दशरथ अब कुछ सन्तुलित-से लगे। कुछ पल तो वह सभागृह के बहुमूल्य उपकरणों को गहराई से निहारते रहे, फिर वसिष्ठ का कान्तिमान मुखमण्डल।
कुछ पलों के निमित्त फिर मौन व्याप्त हो गया था।
सर्वाधिक विचलित था सुमन्त्र।
अब वसिष्ठ को संवाद-सूत्र आगे बढ़ाना आवश्यक लगा। बोले ‘‘यह कोई विषादयोग तो नहीं है, भद्रगण।’’
दशरथ ने उत्तर दिया, ‘‘स्वयं से मोह के कारण विषाद उतर आया था। किन्तु मैं इस विषादानुभव के प्रति कृतज्ञ हूँ कि इसी के कारण आपके शब्दों में निहित आलोक मुझे दिखाई पड़ा है।’’
‘‘यह आलोक तो आप ही के भीतर कभी जन्मा होगा, राजन्।’’ बसिष्ठ बोले, ‘‘हाँ, यह आपको दिखाई सम्भवतः आज ही पड़ा।’’
‘‘मेरे मन में अब भी संशय नहीं है, ऐसा कुछ मैं नहीं कहूँगा।’’ दशरथ बोले ‘‘किन्तु इतना कहने का साहस अवश्य करूँगा कि अब मेरे चित्त में मोह की प्रगाढ़ता नहीं है।’’
‘‘फिर पूर्ण रूप में मोहमुक्ति से पूर्व ही आपने सिंहासन त्यागने का विचार क्यों कर लिया, राजन् ?’’ वसिष्ठ ने प्रश्न किया।
‘‘मुझे कोई और विकल्प नहीं सूझा, महात्मन् ।’’दशरथ बोले।
‘‘किन्तु भविष्य में इससे आपको कहीं पश्चात्ताप तो नहीं करना पड़ेगा ?’’
वसिष्ठ के स्वर में सन्देह था।
‘‘यह मैं कैसे कहूँ, ब्रह्मर्षि ?’’ दशरथ निरुपाय-से प्रतीत हो रहे थे।
‘‘ऐसी कोई स्थिति आपके एवं आपकी महिषियों के निमित्त अत्यन्त क्लेश-दायक भी तो हो सकती है।’’ वसिष्ठ ने सतर्क किया।
‘‘अभी तो तर्क यही कहता है कि योग्यतर व्यक्ति ही मात्र शासन का अधिकारी है।’’ दशरथ बोले।
यह अत्यन्त स्थूल तर्क हुआ, राजन्। एक वक्ता इस तर्क के विरोध में भी प्रभावी ढंग से अपना बक्तव्य रख सकता है।’’ वसिष्ठ ने सावधान किया।
‘‘मेरे समक्ष अब तर्क नहीं, एक गहन भाव है, महात्मन् ।’’ दशरथ बोले, ‘‘उस भाव के सम्बन्ध में यही कह सकता हूँ कि इस राजसिंहासन से उतरकर वानप्रस्थ जाने का समय अब मेरे समक्ष आ गया।
सब में काष्ठ-मौन व्याप्त हो गया।
कुछ पलों के उपरान्त वसिष्ठ ने अयोध्या-नरेश से प्रश्न किया, ‘‘सम्भव है, यही भाव आपको सत्य का परम अनुभव दे जाए राजन्।’’
दशरथ ने मस्तक नवाया, ‘‘मुझे यही आशीर्वाद दें, ब्रह्मन्।’’
‘‘किन्तु राजसिंहासन का क्या होगा ?’’ दशरथ का वाक्य समाप्त होते ही अधीर सुमन्त्र बोल पड़ा। अनिश्चिय के कारण महामन्त्री का स्वर तरंगित-सा हो रहा था।
दशरथ को महामन्त्री की यह व्याकुलता प्रीतिकर तो नहीं लगी किन्तु कुलगुरु की उपस्थित के कारण उन्होंने अपनी अप्रसन्नता व्यक्त नहीं की ।
वसिष्ठ हँसे, ‘‘महामन्त्री, इतनी लम्बी कालावधि से राजचक्रवर्ती दशरथ की सेवा में आप हैं किन्तु अपने स्वामी का संकेत नहीं समझ सके ?’’
सुमन्त्र को यह सब रहस्य-सा लगा। वह बारी-बारी से दशरथ एवं मन्त्रियों की ओर देखने लगा। चिन्ता के कारण उसके माथे पर स्वेद-कण उभर आये थे।
वसिष्ठ ने अब दशरथ को सम्बोधित किया, ‘‘आपके महामन्त्री अत्यन्त विचलित हैं, राजन्। क्यों न आप शीघ्रातिशीघ्र राज्य के समस्त सभासदों को आमन्त्रित कर अपने निर्णय की घोषणा कर दें !’’
‘‘ऐसा ही किया जाएगा, ब्रह्मन् !’’ दशरथ ने निवेदन किया, ‘‘मेरी इच्छा है कि सरयू के पावन तट पर आप के यज्ञ की पूर्णाहुति के उपरान्त समस्त अयोध्यावासियों के समक्ष मैं अपने निर्णय की घोषणा करूँ।’’
‘‘प्रस्ताव अति उत्तम है, राजन्। मुझे विश्वास है, अपना निर्णय घोषित करने से पूर्व आप निश्चित ही प्रजा की इच्छा एवं आकांक्षाओं का भी ध्यान रखेंगे ।’’ वसिष्ठ सम्भवतः अयोध्या-नरेश को सतर्क कर रहे थे।
‘‘यह निर्णय मैं आप से परामर्श किये बिना लेने का अधिकारी नहीं हूँ, महात्मन्।’’ दशरथ बोले, ‘‘आपके सद्परामर्शों के कारण यह राज्य अनेक बार कई गम्भीर संकटों से बच निकला है। हम सब आपके ऋणी हैं ।’’
वसिष्ठ ने दशरथ को रोक दिया, ‘‘सिंहासन के उत्तराधिकारी के चयन का प्रश्न राज्य का कोई संकट नहीं है, राजन् । यह एक महान् अवसर है, जब एक राजा प्रजा के प्रति अपनी निष्ठा एवं स्वयं विवेकवान् होना प्रमाणित कर यशस्वी हो सकता है।’’
‘‘मुझे तो यशस्वी होने की तनिक भी आकांक्षा नहीं है, ब्रह्मन ।’’ दशरथ बोले, ‘‘इक्ष्वाकुवंश को उच्चतम गरिमा से विभूषित करनेवाला व्यक्ति पुत्र के रूप में मुझे एवं मेरी महिषियों को धन्य कर रहा है। अभी तो वह मात्र कुमारावस्था में ही है। किन्तु अपने प्रताप एवं ज्ञान से उसने अल्पकाल में ही इतना यश प्राप्त कर लिया है कि उसके सम्मुख झुकने में भी अपना गौरव है ।’’
सुमन्त्र के वक्षस्थल से एक भारी शिला मानो लम्बी कालावधि के उपरान्त निकल गयी। उसका विचलित मुख अब अपने स्वामी के इस संकेत से आश्वस्त था।
सन्ध्या उतर आयी थी।
बाहर पक्षियों के कलरव एवं गोधूलि लग्न के मध्य ब्रह्मर्षि वसिष्ठ कुछ खोज-से रहे थे। दशरथ को भलीभाँति ज्ञात है, उनके कुलगुरु सदैव ही समय के अन्वेषी रहे हैं। समय के इस अन्वेषण में वसिष्ठ ने सृष्टि को वह ज्ञान सूत्र प्रदान किया है जिसका कोई मूल्य नहीं हो सकता। दशरथ अपने कुलगुरु के प्रति कृतज्ञता से इतने विभोर थे कि राजचक्रवर्ती को काल का ध्यान ही नहीं रह गया था।
वसिष्ठ ने अब सभागृह में उपस्थित सबको सम्बोधित किया, ‘‘यह सन्धिक्षण है, भद्रगण। राजचक्रवर्ती दशरथ एवं उनके उत्तराधिकारी के मध्य यह सन्धिकाल एक गहरी आस्था का प्रतीक है। स्वयं के अवरोहण एवं उत्तराधिकारी के अवरोहण के सम्बन्ध में जो घोषणा अयोध्या-नरेश करने जा रहे हैं। उसका महत्त्व आज कोई समझे न समझे, भविष्य अवश्य समझेगा। आप सब राजचक्रवर्ती के निमित्त प्रार्थना करें कि वे विचार-श्रृंखला से दृढ़ बने रहें ताकि एक सुयोग्य उत्तराधिकारी अयोध्या के राजसिंहासन पर आसीन होकर प्रजा का कल्याण कर सके।’’ वसिष्ठ फिर सभागृह से बाहर निकल गये। उनके पीछे दशरथ थे। वृक्ष एवं लतागुल्मों के मध्य से वे उद्यान की दिशा में बढ़ रहे थे। उतरता हुआ अँधेरा अब घनीभूत होने लगा था।
यज्ञ सप्ताह-भर चलता रहा। यज्ञ का सहयोगी अनुष्ठान था ज्ञानसत्र। इस कार्यक्रम में भाग लेने के निमित्त देश-विदेश के अनेक ज्ञानी एवं तत्त्वज्ञ-पुरूष तो उपस्थित थे ही, ऐसे अगणित सामान्य जन भी कार्यक्रम का वर्णन सुनकर चले आये थे जो मनीषियों के मुखारबिन्दु से निःसृत शब्द सुनकर कुछ प्राप्त करने की आकांक्षा रखते थे।
वसिष्ठ द्वारा आयोजित यह कल्याण यज्ञ मानो मात्र सरयू के तट पर ही नहीं, समग्र राज्य में व्याप्त हो गया था। ब्रह्मर्षि का तप सर्वविदित रहा है। दूर-दूरान्तर से लोग यज्ञ देखने की इच्छा से इस कारण चले आये कि इसकी संकल्पना तपोनिष्ठ वसिष्ठ ने की थी।
ज्ञानसत्र से सत्य की प्रतीति एवं आस्था के सम्बन्ध में गुणीजन विचार-विमर्श कर रहे थे। उनके सम्मुख मंच के नीचे बैठे थे देश-विदेश से आये असंख्य जिज्ञासु।
वसिष्ठ यज्ञमण्डप के सम्मुख निर्धारित आसन पर बैठे, कुण्ड से निकलती अग्नि में जाने क्या अन्वेषण कर रहे थे, सम्भवतः काल का, जो सब कुछ लील जाता है- धधकती अग्नि को भी।
अग्निहोत्री सूर्यप्रसन्न से पूर्णाहुति के लग्न की घोषणा तो वसिष्ठ मानों भूतल पर उतरे। उन्होंने समीप बैठे दशरथ एवं उनकी महिषियों से आग्रह किया कि वे चारों दिशाओं में खड़े होकर मन्त्रोच्चारण के मध्य एक साथ यज्ञ में पूर्णाहुति प्रदान करें।
सुमन्त्र ने पूर्व ही रजतपात्र में घी, दुग्ध, मधु, चन्दन, पुष्प, स्वर्ण एवं चावल आदि यज्ञाहुति के समस्त उपकरण प्रस्तुत कर रखे थे। सूर्यप्रसन्न याज्ञिक ब्राह्मणों के साथ मन्त्रोच्चारण के मध्य दशरथ अपनी महिषियों समेत यज्ञ में आहुति प्रदान करते रहे।
यज्ञमण्डप के चतुर्दिक् दर्शकों का अपार समुदाय खड़ा था ।
यज्ञ की पूर्णाहुति समाप्त हुई तो उपस्थित समस्त नर-नारी उच्छ्वास में ब्रह्मर्षि वसिष्ठ एवं राजचक्रवर्ती दशरथ की जयकार से सम्पूर्ण आकाश को मन्द्रित करने लगे।
आहुति के उपरान्त दशरथ ने अपनी महिषियों के साथ सर्वप्रथम कुलगुरु वसिष्ठ को दण्डवत् प्रणाम किया। तदुपरान्त चरण स्पर्श किये, अग्निहोत्री सूर्यप्रसन्न के।
वेदगान से सम्पूर्ण यज्ञस्थल मुखरित हो रहा था।
अब वसिष्ठ उठ खड़े हुए।
महामन्त्री सुमन्त्र ने उपस्थित जनसमुदाय को सम्बोधित किया, ‘‘इस कल्याण यज्ञ की पूर्णाहुति के उपरान्त इक्ष्वाकुवंश के कुलगुरु ब्रह्मर्षि वसिष्ठ की उपस्थिति में राजचक्रवर्ती दशरथ एक महत्त्वपूर्ण घोषणा करेंगे।’’
कुछ लोग तो महामन्त्री की घोषणा से मौन हो गये किन्तु कोई-कोई फुसफुसा रहा था।
ज्ञानसत्र समाप्त हो गया था।
दशरथ वसिष्ठ के साथ विशेष रूप में निर्मित मंच पर जा आसीन हुए। पुष्प एवं लताओं से मंच को विशेष रूप से सज्जित किया गया था।
सुमन्त्र की घोषणा होते ही वेदगान एवं वाद्यसंगीत रुक गये।
दशरथ ने उपस्थित जन समुदाय का कल्याण यज्ञ में उपस्थित होने से निमित्त धन्यवाद किया तो लोग करतल ध्वनि से राजचक्रवर्ती का अभिवादन करने लगे। वह ध्वनि संगीत के ताल-सी प्रतीत हो रही थी। कुछ समय उपरान्त ध्वनि शान्त हुई तो दशरथ ने समस्त जन को सम्बोधित किया, ‘‘तत्त्वज्ञानी ब्रह्मर्षि वसिष्ठ की कृपा से महायज्ञ सम्पन्न होने के उपरान्त मैं आज स्वयं को अत्यन्त मुक्त अनुभव कर रहा हूँ।’’
तनिक विराम देकर दशरथ मौन हुए तो जनता में फुसफुसाहट पुनः विस्तार पाने लगी।
दशरथ वने फिर से बोलना आरम्भ किया, ‘‘प्रत्येक व्यक्ति के सम्मुख काल एवं कर्तव्य निर्धारित है। उनके समाप्त होते ही उसकी भूमिका का भी अन्त हो जाता है। प्रत्येक नश्वर प्राणी के साथ सदा ही यह होता आया है। समय-चक्र का यही नियम है।’’
जनसमुदाय उत्सुकता से मौन खड़ा था। दशरथ के शब्दों से कुछ लोग भयाक्रान्त से दीख रहे थे।
‘‘आप सब से मुझे जो स्नेह मिला, वह मेरे समक्ष एक अमूल्य निधि है।’’ दशरथ बोले, ‘‘इस निधि को अपनी भावनाओं की मंजूषा में बन्द कर अब मैंने वानप्रस्थ आश्रम जाने का निर्णय ले लिया है।’’ कुछ पलों के निमित्त दशरथ मौन हो गये।
इस घोषणा के उपरान्त सामान्य रूप से कुछ खलबली मचनी चाहिए थी। किन्तु वैसा कुछ भी नहीं हुआ। लोग मानों हिमखण्डों के मध्य धँसते जा रहे थे। सभी को ज्ञात हुआ है, राजा दशरथ की आयु अल्प नहीं है किन्तु जाने क्यों प्रजा यह सोचना नहीं चाह रही थी कि कारण चाहे कुछ भी हो, एक दिन तो राजचक्रवर्ती को सिंहासन त्यागना ही है।
‘‘आप सब विचलित से दीख रहे हैं।’’ दशरथ म्लान हँसे, ‘‘किन्तु मुझे ज्ञात है, आपकी दुश्चिन्ता निराधार है। अयोध्यानिवासियों का परम सौभाग्य है कि जिस व्यक्ति के हाथों आपको मैं सौंपने जा रहा हूँ, वह सर्वगुण-सम्पन्न है। ऐसे अतुलनीय व्यक्ति को राजसिंहासन पर आसीन देख आप अपने भाग्य को सराहे बिना नहीं मानेंगे।’’
कोई कुछ समझ नहीं पा रहा था। लगा, राजचक्रवर्ती आज प्रजा के सम्मुख पहेलियाँ बुझा रहे हैं।
आज कल्याणयज्ञ के साथ इसी स्थल पर जो ज्ञानसत्र सम्पन्न हुआ, उसकी परिकल्पना अप्रतिम तत्त्ववेत्ता ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ने की थी।’’ दशरथ ने उपस्थित समुदाय को पुनः सम्बोधित किया, ‘‘यह आयोजन मनुष्य के भीतर विवेक जागृत करने को निमित्त किया गया था। हमारे कुलगुरु की इच्छा यही थी कि इस अनुष्ठान का लाभ अयोध्या राज्य की सीमाओं के बाहर बस रहे व्यक्ति भी उठाएँ। मैं यह देखकर अत्यन्त प्रसन्न हूँ कि वानप्रस्थ के निमित्त निकलने से पूर्व मेरे राज्य में एक ऐसा अनुष्ठान सम्पन्न हुआ जो मनुष्य मात्र के निमित्त हितकारी है।’’
लोग उत्तराधिकारी के सम्बन्ध में दशरथ के निर्णय सुनने के निमित्त अस्थिर हो रहे थे।
ब्रह्मर्षि वसिष्ठ का मुखमण्डल शान्त एवं गम्भीर था।
दशरथ के अधरों पर मृदु हास्य तैरा, ‘‘आप सब अनाश्वस्त किस कारण हो रहे हैं ? निश्चिन्त रहें, गुरु वसिष्ठ की कृपा से अयोध्या के राजसिंहासन पर जो आसीन होने जा रहा है, धरणी में वह अतुलनीय है।’’
लोगों के चित्त में अब सन्देह के वलय उमड़ रहे थे। वे इतने विशाल आश्वासन के उपरान्त स्थिर नहीं हो पा रहे थे।
दशरथ को अपने निर्णय की घोषणा में और अधिक विलम्ब करना उचित प्रतीत नहीं हुआ।
सुमन्त्र ने अग्रह किया कि सब मौन हो जाएँ एवं राजचक्रवर्ती का विचार मनोयोग से श्रवण करें।
दशरथ अब मंच के अग्रदेश में खड़े हुए एवं प्रतीक्षागत जनसमुदाय से निवेदन किया, ‘‘अयोध्या के नृपति के रूप में यह आप सब से मेरा एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण साक्षात्कार है। अपने उत्तराधिकारी के रूप में मैंने जिसका चुनाव किया है, वह है मेरा जेष्ठपुत्र कुमार रामचन्द्र । मात्र जेष्ठपुत्र होने के कारण ही राम स
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