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शायरी के नये दौर - भाग 5

अयोध्याप्रसाद गोयलीय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :194
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1291
आईएसबीएन :81-263-0019-1

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प्रस्तुत है शायरी के नये दौर भाग-5....

Shairi ke naye daur (5)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

समर्पण

लगा रहा हूँ मज़ामीने-नौके फिर अम्बार
ख़बर करो मेरे ख़िरमन के ख़ोशाचीनों को

मीर अनीस

मैं अपने इस ग्रन्थरूपी खलिहान को, ऐसे शोषक वर्गीय नक़चली लेखकों को विवश होकर समर्पित कर रहा हूँ, जो कि नि:संकोच माले-मुफ़्त समझकर पूर्व प्रकाशित भागों के समान इस भाग से भी शेर चुनकर अपनी कृतियों की संख्या बढ़ायेंगे। पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखकर उर्दू-फ़ारसी बग़ैर पढ़े भी आलिम फ़ाज़िल कहलाएँगे और कवर का डिजाइन उडा़कर अपनी सुकृति की ज़ीनत बढ़ायेंगे। बीक़ौल ‘सफ़ी’ लखनवी-

ज़ोर ही क्या था जफ़ाए-बाग़वाँ देखा किये
आशियाँ उजड़ा किया, हन नातवाँ देखा किये

गोयलीय

यह सीरीज़


प्रस्तुत पाँचवें दौरपर ‘शाइरी के नये दौर’ सीरीज़ समाप्त की जा रही है। अब केवल ‘शाइरी के नये मोड़’ सीरिज़ के तीसरे, चौथे और पाँचवें मोड़ शेष हैं। संभवत: वे भी इस वर्ष में मुद्रित हो जायेंगे।
यद्यपि कुछ ऐसे शाइर, सीरिज़ में उल्लिखित होने से रह जायेंगे, जिनका कि परिचय एवं कलाम-‘शेर-ओ-सुख़न’, ‘शाइरी के नये दौर’ और ‘शाइरी के नये मोड़’ में जाना आवश्यक था, किन्तु यह क्रम तो कभी समाप्त होनेवाला नहीं। समुद्र में मोतियों और आँखों में आँसुओं की कमी नहीं, निकालनेवाला ही लाचार हो जाता है।


उम्र थोड़ी है और स्वांग बहुत


उर्दू-ग्रन्थ-माला प्रारम्भ करते समय यह ध्यान भी न था कि बीस वर्ष के रात-दिन इसमें घुल जायेंगे और फिर भी पोत-पूरा न पड़ेगा-

‘मुसहफ़ी’ ! हम तो समझे थे कि होगा कोई ज़ख़्म
तेरे दिल में तो बहुत काम रफ़ू का निकला।

पाठकों ने जिस चाव और स्नेह से ग्रन्थ-माला को अपनाया है और ममता भरे उत्सागवर्द्धक पत्रों-द्वारा लिखते रहने के लिए प्रेरणाएँ देते रहे हैं, उसको देखते हुए ‘साक़िब’ लखनवी का यह शेर मेरे हाल पर कितना मौज़ूँ चस्पाँ होता है ?


ज़माना बड़े शौक़ से सुन रहा था
हमीं सो गये दास्ताँ कहते कहते-कहते।


न मैं थककर सो रहा हूँ और न क़लम रख रहा हूँ और मेरा जोशेजुनूँ कम हुआ है। केवल इस सीरिज़ को समाप्त कर रहा हूँ। अब जो बहुत से अधूरे कार्य्य पड़े हुए हैं, उन्हें पूर्ण करूँगा और कुछ नवीन लिखूँगा।

इल्तफ़ाते-जोशे-वहशत फिर कहाँ
हो सके जब तक बयाबाँ देख लें

अ.प्र. गोयलीय

जमील मज़हरी


परिचय


सैयद काज़िमअली ‘जमील’ मज़हरीका जन्म बिहार प्रान्तीय ‘सारन’ ज़िलेके हसनपुरमें सितम्बर 1905 ई. में हुआ था। आपके दादा मौलाना मज़हर हुसैन उत्तरप्रदेशीय ग़ाज़ीपुर-निवासी थे। उनका विवाह हसनपुरमें हुआ था और वे वहीं बस गये थे। उन्हीं दादाकी स्मृति-स्वरूप ‘जमील’ अपने नाम के साथ ‘मज़हरी’ (मज़हर वंशीय) लिखते हैं। जमीलकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। 1915 ई. में मोतिहारी ज़िला-स्कूलमें प्रविष्ट हुए। 1920 ई. में कलकत्ते चले गये। वहींसे मैट्रिक पास किया। कलकत्ते से ही 1928 में बी.ए. और फ़ारसी एवं मुस्लिम इतिहासमें 1931 में एम.ए. किया।

शिक्षा सम्पन्न होने पर आपने पत्रकारिताको अपनाया। प्रारम्भ में ‘अलहिन्द’ का सम्पादन-भार सँभाला। उग्र-राष्ट्रीय विचार, जवानीका आलम, हृदय में कुछ कर दिखाने के वल्वले, मस्तिष्क लेखन-कलामें दक्ष, लेखनीमें प्रवाह, स्फूर्तिदायक, प्रेरणाप्रद और देश-भक्तिसे ओत-प्रोत मर्मस्पर्शी सम्पादकीय लेख, गोरी सरकारके साम्राज्यी दुर्गपर गोलेके समान बरसने लगे। एक मासमें ही वह घबरा उठी। परिणाम-स्वरूप आपको वहाँसे संबंध-विच्छेद करना पड़ा। समूचे परिवारके भरण-पोषणका भार आपपर था। आजीविकोपार्जनके लिए कोई-न-कोई कार्य करना आवश्यक था और लेखन-व्यवसायके अतिरिक्त और किसी तरफ़ रुचि न थी। अत: कलकत्तेमें ही रहकर 1937 ई. तक पत्र-पत्रिकाओंमें काम किया। उन दिनोंके कलकत्तेके उर्दू-पत्र कोई मुस्लिमलीगी, कोई मौलवी टाइप, कोई मज़हबी और कोई पोंगापंथी विचारधाराके थे। जमील उनमें अपने राष्ट्रीय विचार और हृदयोद्गार प्रकट नहीं कर सकते थे। अत: उसमें आप साहित्यिक, सामाजिक आदि ऐसे लेख देते रहे, जिससे विभिन्न विचार-धाराओंके पत्र-स्वामियोंसे व्यर्थका टकराव न हो।

1935 ई. में खिलाफ़त कमेटी वालोंने  मुस्लिम-कान्फ्रेंसके साथ एक उर्दू-लिटरेरी कान्फ्रेंसकी भी स्थापना की। राजनैतिक विचार-धाराओंमें पृथ्वी-आकाशका अन्तर होते हुए भी शहीद सुहरावर्दी1, मुल्लाजान मुहम्मद वग़ैरहने उर्दू-कान्फ्रेंसकी स्वागतकारिणीका अध्यक्ष जमीलको बनाया। इस कान्फ्रेंसमें आपने जो स्वागत-भाषण पढ़ा, वह बहुत क्रान्तिकारी साबित हुआ। उस भाषणमें अपने स्पष्ट शब्दोंमें ‘साहित्य केवल साहित्यके लिए’ पुरातन दृष्टिकोणका विरोध करते हुए फ़र्माया कि-‘‘उर्दू-अदबकीं तरक़्क़ी अगर हिन्दुस्तानका तहरीके-आज़ादीके काम नहीं आ सकती तो यह अपना फ़र्ज़ पूरा नहीं करती। इससे तहरीके-आज़ादीको आगे बढ़ाने का मुक़द्दस तारीखी फ़र्ज़ (पवित्र ऐतिहासिक कर्त्तव्य) अंजाम देना है।’’
मौलाना ‘हसर2त’ मोहानीने अपने व्याख्यानमें आपके  भाषणकी कटु आलोचना की, किन्तु ख्वाजा हसन निज़ामीने3 उस आलोचनाका दन्दान शिकन जवाब देते हुए भाषाणकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और जब आप मंचसे उतरे तो मौलाना शौकतअलीने4 आपको बाहुओंमें भरकर उठा लिया। इसी कान्फ्रेंसके संबंध में मौलाना अबुलकलाम साहब ‘आज़ाद’ की सेवामें दो-चार बार जाने-आनेसे उनसे संबंध बढ़ते गये। यहाँ तक कि
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1.    भारत-विभाजनके दिनोंमें बंगालके मुख्य मंत्री, बंगाल रक्त-पातके प्रसिद्ध नेता और फिर कुछ अर्से तक पाकिस्तानके प्रधान मंत्री।
2.    1924 ई. तक काँग्रेसके बड़े सरगर्म नेता, फिर जीवन पर्यन्त सम्प्रदायी, उर्दूके बहुत बड़े ग़ज़ल-गो शाइर। आपका परिचय एवं कलाम शेरो-सुखनके तीसरे भागमें दिया जा चुका है।
3.    कट्टर साम्प्रदायिक नेता, उर्दू-गद्य के ख्याति –प्राप्त लेखक।
4.    ख़िलाफ़त-आन्दोलनके प्रमुख।

हर शनिवारको तीन वर्ष तक उनकी सेवामें उपस्थित होते रहने और उनके अपार ज्ञान-भण्डारसे लाभ उठानेका सौभाग्य मिलता रहा।
बिहारमें काँग्रेस-मंत्रिमण्डल बन जानेके बाद 2 दिसम्बर 1937 ई. से आप वहां के पब्लिसिटी ऑफ़ीसर पदपर नियुक्त किये गये। 1939 ई. में काँग्रेसने मंत्रिमण्डलसे त्याग-पत्र दिया तो आप भी त्यागपत्र देने को प्रस्तुत हो गये, किन्तु देशरत्न राजेन्द्रबाबू (वर्तमान राष्ट्रपति) ने आपको त्याग-पत्र नहीं देने दिया। 12 अगस्त 1942 ई. में राष्ट्रपिता महात्मा गान्धी बन्दी बनाये गये तो आपने त्याग-पत्र देते हुए लिखा-
‘‘शहीदोंके खूनकी रौशनाईमें अपना क़लम डुबोकर मैं हुकूमते-बरता-नियाकी पब्लिसिटी नहीं करना चाहता।’’
     

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