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शब्द समय और संस्कृति

सीताकान्त महापात्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2024
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 130
आईएसबीएन :9789357756983

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**डॉ. सीताकान्त महापात्र : परंपरा और आधुनिकता को सर्जनात्मक वैचारिकता से जोड़ते हुए**

किसी बड़े लेखक की शक्ति और सामर्थ्य उसकी इस क्षमता पर निर्भर होती है कि वह किसी पाठक के विश्वास को विचलित कर दे। कहा जा सकता है कि इस आधुनिक प्रतिमान के आधार पर, जहाँ सिद्धान्त और कला में एक अंतहीन संघर्ष चलता रहता है, डॉ. सीताकांत महापात्र भारत के समकालीन महान् लेखकों में से एक हैं।

इस संग्रह-‘शब्द, समय और संस्कृति’ के निबंध साक्षी हैं कि सीताकांत महापात्र के रचना-कर्म और चिंतन से भारतीय मिथकीय परंपरा तथा भक्ति-साहित्य, यूरोपीय आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकतावाद तथा अपने गृह-प्रदेश उड़ीसा के ग्रामांचल, लोक-जीवन एवं लोक-साहित्य का महासंगम है। अपनी सर्जनात्मक वैचारिकता के माध्यम से उन्होंने आधुनिक भारतीय साहित्य और चिंतन को एक नया लोकाचार और अर्थ दिया है, एक ऐसी सृजन-संस्कृति दी है जिसमें औदात्य और पार्थिवता समान रूप से विद्यमान है। यथार्थ के गझिन और गतिशील रूपों की अभिव्यक्ति के साथ ही इन निबंधों में सर्जनात्मक तनाव की दीर्घकालिकता, विविधता और निरंतरता भी सहज ही मौजूद है।

‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित डॉ. सीताकांत महापात्र के गंभीर चिंतनपरक वैचारिक निबंधों का यह संग्रह हिन्दी के पाठकों के लिए पहली बार प्रस्तुत है।

दो शब्द

 बहते समय के प्रवाह में कोई स्थिर बिन्दु नहीं होता। फिर भी, समाज और मनुष्य उस गतिशीलता में थोड़ी स्थिर भूमि, थोड़ा अधार ढूँढ़ ही लेता है। इस अन्वेषण का रूपायन की संस्कृति का एक अन्य नाम है। संस्कृति का स्वरूप कुछ हद तक शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। जो शब्दों से परे है मनुष्य उसे भी शब्द-सीमा में समेटने की चेष्टा करता है। इसलिए समय संस्कृति का जनक और स्रष्टा है। समय ही शब्द का जनक है, परंपरा का स्रष्टा है। इस पुस्तक में संकलित आठ निबंधों में शब्द, समय और संस्कृति के इसी अनिवार्य, अपेक्षित और अंतरंग संबंधों पर कुछ विचार किया गया है।


भारतीय परंपरा विश्व-सभ्यता के इतिहास में एक सुदीर्घ और जटिल परंपरा है। बल्कि यह परस्पर-संश्लिष्ट विविध पंरपराओं का एक घुलामिला रूप है। इस परंपरा को समझने के लिए भिन्न-भिन्न प्रासंगिक दृष्टिकोण आवश्यक है जो इन परंपराओं को समय की तेज़ गति के परिप्रेक्ष्य में देख सके और उसकी अनेक परस्पर विरोधी अभिव्यक्तियों को समझ सके। भारतीय परंपरा की पुनर्व्याख्या कदापि सहज नहीं। ऐसा करने के लिए जिस मानसिक तैयारी की ज़रूरत होती है उसके लिए बंधन और मुक्ति, सीमा और असीम के आपसी संबंधों को ध्यान में रखना होगा। जगन्नाथ संस्कृति इसी परंपरा की एक दृढ़ और वर्णाढ्य अंग है जिसमें धार्मिक चेतना, साहित्य और सामाजिकता एक साथ दिखाई देते हैं। संकलन के तीन निबंधों में परंपरा और संस्कृति को अलग-अलग दृष्टियों से समझने का एक प्रयास है।

हमारे समय को बहुत से लोगों ने उत्तर-आधुनिक समय कहा है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी आज के समय की दो शक्तिशाली आवश्यकताएँ हैं। विश्वास और तर्क, ज्ञान और आवेग की पारस्परिकता में हमें समय और सक्षण विज्ञान को समझना होगा। उस तरह के परिवेश को विध्वस्त करने वाली प्रौद्योगिकी को अति प्राचीन समय की प्रकृति-पूजा, आदिमाता धरती की पूजा के परिप्रेक्ष्य में देखना ज़रूरी हो गया है। नहीं तो मनुष्य और प्रकृति का लंबा ऐतिहासिक संबंध टूटने का भय हमें ग्रसने लगता है। दृश्य-काव्य अथवा कला एक बहुमूल्य अंग है संस्कृति का। उसके मूल्यांकन के लिए जिन सौंदर्य-तत्त्वों का प्रयोग हुआ है, लगता है उन तत्त्वों को नए सिरे मूल्यांकित करने का समय आ गया है।

अंत में, काव्य विश्व के वास्तविक मूल्यांकन के लिए प्रज्ञा और आवेग दोनों से परे एक नए गैर-ऐतिहासिक स्वर के अन्वेषण की आवश्यकता जान पड़ती है। संस्कृत-प्रेमियों को यह बात याद रखनी होगी कि एक शब्द गढ़ने के लिए मनुष्य के तमाम इतिहास और इतिहास के आनंद व यंत्रणा की एक साथ उपलब्धि अनिवार्य है। समय संस्कृति को एक रूप देता है। समय कला और कविता को भी रूप प्रदान करता है; उसका अंत:स्वर निर्धारित करता है। शब्दों के जरिए वह संस्कृति से स्वयं को जोड़ लेता है, दोनों को अर्थपूर्ण बनाता है।

आशा करता हूँ कि ये निबंध अपने पारस्परिक संबंधों के जरिए हमारे समय के जटिल अनुभवों के समझने में कुछ हद तक सहायक होंगे।

इन निबंधों के अनुवादक प्रो. श्यामदत्त पालीवाल और प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ के प्रति आभार प्रकट करता हूँ।
-सीताकांत महापात्र

एक शब्द गढ़ा जाएगा


वर्ष 1953 की बात है। मैं अपना गाँव, अपने माता-पिता, आत्मीय परिजन, मित्र, अपने गाँव की कल-कल निनाद करती चित्रोत्पला नदी और आक्षितिज फैले धान के अंतहीन खेत-सबको छोड़कर कटक में स्थित रावेनशॉ महाविद्यालय के छात्रावास में आ गया। मेरी पहली कविता उसी वर्ष लिखी गई, जिसने बाद में मेरे पहले काव्य-संग्रह में सर्वप्रथम कविता का भी स्थान प्राप्त किया।

कभी-कभी तो यह विचार आता है कि चालीस वर्ष की यह लंबी अवधि कैसे तो मानो पलक झपकते ही व्यतीत हो गई। पराजय, प्रीति, स्मृति, मैत्री और घनिष्ठता के चालीस वर्ष। व्यथा के कितने ही पल और आयु के सोपान पर चढ़ने की पीड़ा ! स्वयं अपने भीतर-बाहर और सर्वत्र घट रही घटनाओं के प्रति जिज्ञासा और अहसास के कितने ही प्रयत्न ! लेकिन सपने में सुन वाणी की तरह स्मृति की वाणी भी बहुधा बोलती है। और कथन में अपने समूचे अस्तित्व के साथ ये दोनों उपस्थित होते हैं और साथ ही होता है मेरा परिवर्तनशील आत्मभाव, मेरा निजी व्यक्ति। मुझे एक छोटे काष्ठ पर विराजमान अनेक देवताओं वाले घर के भीतरी कक्ष में उड़िया ‘भागवत’ का स्वयं उच्चार सुनाई दे रहा है। मुझे सुनाई दे रहा हैं गाँव के एक छोर पर स्थित छोटे-से मंदिर में अच्युत, यशोवंत तथा भीमभाई के भजन-स्वर। हैजे से ग्रस्त गाँव के गहन अंधकार में नीरवता की नितान्त भयानक आवाज तथा देवी मंगला का मनुहार करने वाला संकीर्तन। और तभी सुन रहा हूँ वर्षा, अगणित मृत्यु, स्मृतिजन्मय अनुराग और जन्म, रुग्णता तथा मृत्यु को चित्रित करते हुए गुजरते मौसम के स्वर। इस सबके साथ सही गंगाधर मेहर की ‘तपस्विनी’ तथा ‘दिनकृष्ण’, ‘कविसूर्य’ और उड़िया साहित्य के कई अन्य दिग्गजों के छंदों का पाठ करने मेरे पिताश्री (जिन्हें गुजरे हुए ग्यारह वर्ष बीत चुके हैं) का भी स्वर है।

मेरे लिए कविता इन चालीस वर्षों के अन्वेषण, अपर्याप्तता, अधूरेपन, कभी-कभी सर्वथा संतोषप्रद भी नहीं, और अनुभव के सतत उभरते नए आयामों तथा काव्य-रूप देने हेतु शब्दों की खोज की गाथा है। मैं सदा यह अनुभव करता रहा हूँ कि अपने चारों ओर घट रही घटनाओं, सर्व-अस्तित्व तथा उनकी भवितव्यता के साथ अनुन्मोचनीय रूप से जुड़ा हुआ हूँ। सभी घटनाएँ दो बार घटित होती हैं-प्रथमत: घटित होने के समय बाह्य रूप में, उसके बाद औचक रूप से, जिसकी आवृत्ति मेरे भीतर होती रहती है। सर्व-अस्तित्व-मनुष्य, नदियाँ, वृक्ष, पाषाण और हमारे सामूहिक अचिरता के सारे सूत्र परिहार्य रूप में मुझसे सहबद्ध हैं। साथ ही, मेरा अन्त:करण प्रत्येक को, प्रत्येक अस्तित्व को अंतरंगता प्रदान करता है और सबका सहभोक्ता भी होता है।

मेरी कविता में सभी दारुण विपत्तियों तथा उल्लासों, मुस्कानों और विषादों को झेलने के बाद जीवन के सांध्यकाल में मनुष्य द्वारा की जानेवाली वह कामना है कि यदि पुनर्जन्म सत्य है तो वह इस नियति में, मानव होने की नियति में, पुनर्जन्म ले।

कविता शब्दों की रचना है और शब्द सामाजिक स्मृति-चिह्न हैं। साथ ही वहाँ प्रयोक्ता के स्वयं अंत:करण की स्मृतियाँ और कल्पनाएँ भी हैं। यह विरासत चीत्कार तथा रिरियाने से लेकर प्रबल वाग्मिता तक, वेश्यालयों की सौदेबाजी से लेकर अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति तक व्याप्त समग्र मानव-इतिहास पर आच्छादित है। एक उत्तम कविता में प्रत्येक शब्द बोलता है। प्रत्येक शब्द अपरिहार्य होता है, अद्वितीय होता है। प्रत्येक शब्द संयोजनों के असंख्य अर्थभेद से अधिरोपित होता है। एक उत्तम कविता में शब्द मौन बोलते हैं, सरलता से मौन भंग की आशंका से लगभग भयभीत हो मुखरित होते हैं। वे अन्य से द्वंद्व के सोपान हो जाते हैं और ऐसे संयोग को प्राय: नकारते नहीं। वे उस ऊर्जा से अलंकृत होते हैं जिसे लोर्का ने द्वंद्व की संज्ञा दी है, वह प्रच्छन्न ऊर्जस्विता, जो उन्हें तत्पर करती है और हमें प्रेरित करती है, वह रहस्यात्मक गुणवत्ता, जिसका बोध केवल अंत:प्रज्ञा से ही होता है।

एक उत्तम कविता किसी उत्तम कलाकृति की तरह सत् की उपासना करती है, निर्देशन नहीं करती। यह हमारे यहाँ विचार-भंडार का परिवर्तन नहीं है। यह तो हमारे अनुभव के पुरोभाग का विस्तार है, हमारे अस्तित्व की विस्तृति, हमारे प्रारब्ध की जागरूकता। कविता का स्वरूप तो गत्यात्मक है जो अपने शब्द-विन्यास के माध्यमों से सभी अस्तित्ववान तथ्यों की कुछ रहस्यात्मक को संप्रेषित करती है। इसमें हमारी देह, हमारी आत्मा, हमारे स्वप्न, हमारी मृत्यु सभी समाहित हैं। यह उद्बोधनों से परिपूर्ण है, सुदूर नक्षत्रों के स्वप्नलोक से लेकर मुख में भोजन के कौर के आस्वाद तक। कविता किसी अविद्यान को जन्म देने का मातृ-आह्नाद है।

अनुभव की व्यग्रता का सिंहावलोकन कविता को जन्म देता है। कविता शब्दों के काँपते हाथों में अनुभव के इस आराधना के साथ धारण करने का आग्रह करती है कि प्रत्येक अनुभव स्व-आत्मोद्घाटन करे। वह उसके समक्ष एक पुरोहित की तरह नहीं, करबद्ध प्रार्थना में लीन एक बालक के समान अभिमुख होती है। क्योंकि उसकी उत्कंठा हमारे अस्तित्व की अशाश्वतता को अपने निष्ठुर अवसाद तथा परिहार्य इन्द्रजाल के साथ पूर्णरूपेण ग्रहण करना है। यह उस शाश्वत अर्द्ध-तिमिर में अन्वेषण है जो समाप्त होने का नाम तक नहीं लेता। उसका प्रमाद अर्द्ध-प्रांजल विस्मय-जैसा है।

मेरी धारणा है कि कविता अंतत: उत्साह, निर्भीकता का विषय है। शास्त्र-विद्या अथवा प्रज्ञा को उस वस्तु के रूप में परिभाषित करना है जो आपको विमुक्त करती है-सा विद्या या विमुक्तये। मेरे लिए कविता परा विद्या अर्थात् परम विद्या है। यह सभी तरह के भय- पशुओं, मानव, देवताओं, दानवों के भय, यहाँ तक कि स्वयं के, हमारे क्षुद्रतर, हीनतर स्व-भय से भी हमें मुक्ति प्रदान करती है। और हमारे समय को चित्रित करने वाले भय से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। भय से ग्रसित हो शब्द सघोष अथवा वाग्मितापूर्ण हो जाते हैं, छद्म आवरण से लिपटी हुई भय की अभिव्यक्ति वैसी ही है-जैसे कि एक अकेला व्यक्ति अँधेरे पथ पर अपने-आपको सांत्वना देने के लिए ऊँचे स्वरों में गाता है।

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