लोगों की राय

संस्कृति >> रामायण का आचार-दर्शन

रामायण का आचार-दर्शन

अम्बा प्रसाद श्रीवास्तव

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :335
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1301
आईएसबीएन :81-263-0283-6

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

153 पाठक हैं

प्रस्तुत पुस्तक में रामायण के प्रमुख चरित्रों के आदर्शों का तटस्थ और विवेकी अध्ययन हैं। इसमें पात्रों के उन विचारों और कर्मों का निस्संकोच उल्लेख है जिनके कारण लेखक पर अनास्थावादी होने का आरोप भी लगाया जा सकता है।

Ramayan ka Aacharya dardhan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय संस्कृति में रामकथा के अध्ययन और विवेचन की एक सुदीर्घ परम्परा है। इस संश्लिष्ट परम्परा को समझने के लिए अलग-अलग दृष्टिकोण भी आवश्यक है जो इसको देखने और उसकी परस्पर विरोधी अभिव्यक्तियों को समझने में सहायक बन सके। इस दिशा में ‘रामायण’ के मनीषी अध्येता और विचारक अम्बा प्रसाद श्रीवास्तव की यह पुस्तक एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।

रामायण में राम, लक्ष्मण, हनुमान, वाली, रावण आदि प्रमुख पात्रों के साथ ही अन्य सैकड़ों पात्रों का उल्लेख हुआ है। वाल्मीकि ने अपने अद्भुत काव्य-कौशल से परस्पर विरोधी पात्रों को एक ही कथा सूत्र में इस तरह समाहित किया है कि आदर्शों और सिद्धान्तों के वैपरीत्य का पाठकों को आभास तक नहीं होता। लेकिन इस बिन्दु पर अध्येताओं का ध्यान प्रायः नहीं गया है कि रामकथा के सभी पात्रों के आदर्शों और चरित्रों में बड़ी भिन्नताएँ हैं।
प्रस्तुत पुस्तक में रामायण के प्रमुख चरित्रों के आदर्शों का तटस्थ और विवेकी अध्ययन है। इसमें पात्रों के उन विचारों और कर्मों का निस्संकोच उल्लेख है जिनके कारण लेखक पर अनास्थावादी होने का आरोप भी लगाया जा सकता है। लेकिन कहना न होगा कि सारे निष्कर्ष लेखकीय आग्रह का परिणाम नहीं, बल्कि महर्षि वाल्मीकि के ही निष्कर्ष हैं।
वाल्मीकि रामायण के आधार पर प्रमुख पात्रों के आचार-दर्शन के निष्पक्ष और अद्वितीय अध्ययन का यह प्रयास, आशा है, विद्वान् पाठकों को सन्तोष देगा।

आधारभूमि

वाल्मीकीय रामायण को अनेक बार पढ़ने के पश्चात् भी कुछ दिनों पूर्व प्रसंग-वशात् पुनः उसके पृष्ठ पलटने की आवश्यकता हुई। युद्ध काण्ड में रावण और विभीषण की चर्चा के प्रसंग में निम्नलिखित श्लोकों ने मन और मस्तिष्क को कुछ क्षणों के लिए अपने में बाँध लिया !

यथा पुष्करपत्रेषु पतितास्तोयबिन्दव:।
न श्लेषमभिगच्छन्ति तथा नार्येषु सौहृदम्ब।।
यथा शरदि मेघानां सिंचतामपि गर्जताम्।
न भवत्यम्बु-संक्लेदस्तथा नार्येषु सौहृदम्।।
यथा मधुकरस्तर्षाद् रसं विन्दन्न तिष्ठति।
तथा त्वमपि तत्रैव तथा नार्येषु सौहृदम्।।
यथा मधुकरस्तर्षाद् काशपुष्पं पिवन्नपि।।
रस-मात्र न विन्देत तथा नार्येषु सौहृदम्।।
यथा पूर्वं गज: स्नात्वागृह्य हस्तेन वै रज:।
दूषयत्यात्मनो देहं तथा नार्येषु सौहृदम्।।वा.रा.6.16.11-15

रावण को आनार्यों के हृदय में सहृदया के अभाव की बात इतनी अधिक खटकती थी कि वह अपने भाई को भी इस स्थिति में देखना सहन नहीं कर सका। अनार्यों की गुणहीनता का रावण ने कभी आदर नहीं किया। उसके पश्चात् युद्ध काण्ड में ही कतिपय अन्य प्रसंगों पर भी दृष्टि पड़ी। रावण- वध के अवसर पर राक्षस स्त्रियाँ ‘हा ! आर्यपुत्र’ कहकर विलखती रही थीं। तथा विभीषण ने कहा था।

गत : सेतु: सुनीतानां गतो धर्मस्य विग्रह :।
गत: सत्त्वस्य संक्षेप: सुहस्तानां गतिर्गता।।
आदित्य: पतितो भूमौ मग्नस्तमसि चन्द्रमा।
चित्रभानु : प्रशान्तार्चि र्व्यवसायो निरुद्यम:।।
अस्मिन् निपतिते नीरे भूमौ शस्त्रभृतां वरे।।- वा.रा.6.109.6-7


शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ रावण के धराशायी होने पर नीति पर चलने वालों की मर्यादा टूट गयी, धर्म का मूर्तिमान विग्रह चला गया, सत्त्व-संग्रह का स्थान नष्ट हो गया, शस्त्र संचालन में कुशल वीरों का सहारा चला गया, सूर्य पृथ्वी पर गिर पड़ा, चन्द्रमा अँधेरे में डूब गया, प्रज्वलित आग बुझ गयी और सारा उत्साह निरर्थक हो गया।

उपर्युक्त प्रसंग इस तथ्य के प्रति संकेत करने के लिए पर्याप्त थे कि रावण निश्चित रूप से आर्य-परम्परा का था और राम-रावण युद्ध के विषय में सामान्यतया जो विचार प्रकट किया जाता है कि वह देवताओं और राक्षसों के बीच का युद्ध था भ्रान्तिपूर्ण और निर्मूल है। रावण के पितामह पुलस्त्य को ब्रह्मा का पुत्र लिखा गया है और उसके पिता विश्रवा को सर्वत्र ही मुनि के रूप में ही स्वीकार किया गया है। इस प्रकार ब्रह्मा के वेश में उत्पन्न एक मुनि के पुत्र को राक्षस मानने का कोई औचित्य भी नहीं। इन्हीं विचारों के परिणामस्वरूप पूरी रामायण के समक्ष एक प्रश्नचिह्न लग गया।

इन समस्त प्रसंगों ने रामायण को पुनः पढ़ने के लिए प्रेरित किया। न तो मैंने वाल्मीकीय रामायण की ऐतिहासिकता अथवा काल्पनिकता में ही उलझना आवश्यक समझा और न उसके प्रक्षिप्त अंशों की छानबीन करने की ही आवश्यकता समझी। उसके काल्पनिक काव्य होने अथवा उसमें प्रक्षिप्त अंशों के जोड़े जाने पर भी यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि रचनाकार ने किसी विशिष्ट उद्देश्य से ही उसकी रचना की होगी तथा प्रक्षिप्त अंशों के रचयिताओं ने भी उन्हीं आस्थाओं को सुदृढ़ करने अथवा पूर्व प्रतिपत्तियों को और अधिक प्रेरणास्पद बनाने के उद्देश्य से ही अपने प्रयास किये होंगे।

वर्तमान में रामायण जिस रूप में उपल्बध है निस्सन्देह उसकी रचना राम के प्रति आस्था उत्पन्न करने एवं रावण तथा उसके सहयोगियों अनुयायियों, वंशधरों आदि के प्रति घृणा की भावना उत्पन्न करने के उद्देश्य से ही की गयी थी। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए चरित्र, आचरण एवं धर्म मर्यादाओं को ही आधार भूमि के रूप में ग्रहण किया गया है। यह तो निश्चित ही है कि किसी भी व्यक्ति को लगातार देवता अथवा राक्षस कहे जाने मात्र से उसकी उस रूप में मान्यता सम्भव नहीं होती। समाज की दृष्टि सदैव उसके आचरण एवं क्रिया व्यापारों पर क्रेन्द्रित रहती है। आचार्यों को निराकार निर्गुण ब्रह्म के भी गुणधर्मों का सम्यक् विवेचन करने के लिए विवश होना पड़ा है अन्यथा उसकी प्रतिष्ठापना भी सम्भव नहीं होती। इस दशा में स्वभावत: यह प्रश्न उपस्थिति होता है राम के रावण तथा रामायण के अन्य पात्रों के धर्म, आचरण और क्रिया व्यापार का स्वरूप क्या रहा था। रामायणकार ने अपने पात्रों में ऐसे कौन से गुणधर्मों का आरोप किया है जो एक के प्रति श्रद्धा और दूसरे के प्रति घृणा उत्पन्न करने में सहायक हुए हैं। यही विचार प्रस्तुत का आधार है।

मैंने स्वयं को रामायण पात्रों के आधार धर्म के अध्ययन तक ही सीमित रखा है। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि इस अध्ययन में मैंने वाल्मीकिय रामायण की ऐतिहासिकता अथवा प्रक्षिप्त अंशों के झमेले में न उलझकर उसे यथावत् प्रमाण के रूप में स्वीकार किया है। रामकथा पात्रों के चरित्रों एवं आचार का अध्ययन करते समय प्रायः रामचरितमानस योगवासिष्ठ, अध्यात्म रामायण तथा अन्य रामकाव्यों के सन्दर्भ भी प्रमाणरूप में प्रस्तुत किये जाते हैं किन्तु वाल्मीकि और तुलसीदास के विचारों, मान्यताओं और विश्वासों में इतना जबरदस्त अन्तर रहा है कि एक ही सन्दर्भ में दोनों को समान रूप से प्रमाण मानना संगत नहीं। वाल्मीकीय रामायण और रामचरितमानस के कथा प्रसंगों में भले ही थोड़ा अन्तर रहा हो किन्तु वाल्मीकि और तुसलीदास ने राम-कथा के पात्रों में अपनी आस्थाओं के अनुरूप जिस प्रकार आचार और गुणधर्मो का आरोप किया है इससे उन पात्रों के रूप पूर्णतया परिवर्तित और भिन्न हो गये हैं। स्मार्त धर्म, वर्णाश्रम धर्मव्यवस्था, ब्राह्मणों की वरिष्ठता तथा अवतारवाद में तुलसीदासजी की इतनी जबरदस्त आस्था थी कि उन्होंने रामचरितमानस के पात्रों को निःशेषतया अपने विश्वासों के अनुरूप नये साँचे में ढाल दिया। रामचरितमानस के पात्र वाल्मीकीय रामायण के पात्रों से आचार धर्म की दृष्टि से सर्वथा भिन्न हैं।

यह अन्तर केवल राम, लक्ष्मण और हनुमान जैसे पात्रों के चरित्रों में ही नहीं प्रयुक्त रावण आदि विपक्ष के पात्रों में भी उत्पन्न कर दिया गया है। इसी प्रकार यदि जैनाचार्य द्वारा लिखित ‘पउमचरित’ अथवा बौद्ध परम्परा के ‘दशरथ जातक’ को लिया जाय तो इन पात्रों के आचार-धर्म को अपनी आस्थाओं और विश्वासों के अनुरूप ही विचित्र किया है और इस प्रकार वास्तविक तथ्यों तक पहुँचना सरल नहीं। रामकथा की दृष्टि से वाल्मीकीय रामायण ही प्राचीनतम ग्रन्थ है। अतएव उसी को प्रमाण मानना अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है। इसी कारण (वाल्मीकीय) रामायण पात्रों का आधार धर्म ही अध्ययन की दृष्टि से युक्तिसंगत विषय प्रतीत हुआ। रामकथा विषयक अन्य ग्रन्थों को सन्दर्भ रूप में ग्रहण न करने से एक लाभ यह भी हुआ कि कम से कम रामायण पात्रों का आचार दर्शन स्पष्ट हो सका है।

यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मैं स्वयं राम के प्रति पूर्णरीत्या आस्थावान हूँ। यह आस्था रामचरितमानस के राम अथवा योगवासिष्ठ के राम के प्रति ही हो सकती हूँ। अन्य किसी राम काव्य के राम को ऐसा रूप प्राप्त ही नहीं हो सका जिसके प्रति लोगों के मन में श्रद्धा की भावना उत्पन्न हो सके। जन-मानस में राम तथा रामकथा के पात्रों के प्रति सामान्यतया जो धारणा विद्यमान है उसे किंचित् भी आघात पहुँचाना मेरे लिए अभीष्ट नहीं; तथापि मेरे अध्ययन से श्रद्धान्वित सहृय व्यक्तियों के हृदय को ठेस लग सकती है। उनसे मेरा विनम्र निवेदन है कि वह मेरी दृष्टि में कलुष की आशंका न करें। मेरे प्रयास केवल इस विषय के अध्ययन तक ही सीमित है कि रामायण के अनुसार ही वाल्मीकीय रामायण के पात्र किस प्रकार के आचार धर्म का अनुसरण करते रहे हैं और उनके आचार का स्वरूप क्या रहा है। प्रस्तुत अध्ययन में मैंने पात्रों को अपनी आस्था के अनुरूप चित्रित करने की लेशमात्र भी चेष्टा नहीं की और उनकी आचार मान्यताओं को ठीक उसी रूप में लिखा गया है जैसा रामायण में मिलता है। इस कारण यद्यपि उद्धरणों की संख्या अधिक हो गयी किन्तु प्रामाणिकता की दृष्टि से यह आवश्यक था।

अध्ययन के लिए गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित ‘श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण’ प्रथम भाग, द्वितीय संस्करण सं. 2024 और द्वितीय भाग, द्वितीय संस्करण, सं. 2025 को लिया गया है। अतएव सन्दर्भ के लिए पाठक कृपया इन्हीं संस्कणों को देखने का कष्ट करें।                  

-अम्बा प्रसाद श्रीवास्तव


भोपाल
वसन्त पंचमी
वि.सं. 2054


सुर, असुर, राक्षस, दैत्य, दानव, आदि जातियों का वास्तविक स्वरूप



रामायण-पात्रों के आचार धर्म सम्यक् अध्ययन करते समय सर्वप्रथम देवता, अवतार, राक्षस, दैत्य, वानर, ऋक्ष आदि शब्द मस्तिष्क में उभरकर ऊपर आ जाते हैं। राम को विष्णु का अवतार मान लिया गया है। इसी प्रकार लक्ष्मण को शेषावतार हनुमान को वायुपुत्र, सीता को अयोनिजा लक्ष्मीस्वरूपा मानकर इन सबको देवताओं की श्रेणी में सम्मिलित कर दिया गया है। राम के सहयोगी ऋक्षों और वानरों को यद्यपि देवत्य प्राप्त नहीं हो सका तथापि उनकी भी गणना श्रेष्ठ वर्गों में ही की जाती है। हनुमान को तो अब देवत्व भी प्राप्त हो चुका है और उनके मन्त्रों, स्तोत्रों की भी रचना की जा चुकी है। इसके विपरीत रावण कुम्भकर्ण, मेघनाद, ताटका, शूर्पणखा आदि को भयावह नरभक्षी राक्षसों की श्रेणी में डाल दिया गया है। इन स्थापनाओं का परिणाम यह हुआ कि राम रावण युद्ध को देवताओं और राक्षसों के बीच का युद्ध माना जाता है। आधुनिक विचारशील चिन्तकों की मान्यता में कुछ अन्तर उत्पन्न हुआ और उन्होंने उसे आर्यों और अनार्यों के बीच का युद्ध निरूपित किया। इस दृष्टि से सर्वप्रथम इस प्रश्न पर विचार करने की आवश्यकता है कि इन जातियों तथा पात्रों की वास्तविक स्थिति क्या रही है।


 

प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai