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आलोचना का सच

गणेश पाण्डेय

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13038
आईएसबीएन :9788180319891

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गणेश पाण्डेय की यह किताब पुस्तक समीक्षाओं का जखीरा नहीं है, बल्कि पुस्तक समीक्षाओं के आतंक और आलोचना के नाम पर ठस अपठनीय गद्य से पाटक को मुवत करने की एक दिलचस्प और यादगार कोशिश है

कवि-आलोचक गणेश पाण्डेय की आलोचना का रंग अलग है। एक खास तरह की निजता गणेश पाण्डेय की आलोचना की पहचान है। उनकी आलोचना नये प्रश्न उठाती है। उनकी आलोचना साहित्यिक मुक्ति की बात करती है। यह पहली बार है। ‘आलोचना का सच’ कविता की पहुँच की समस्या पर तो विचार करती ही है, कवि और आलोचक के ईमान और साहस को भी कविता और आलोचना की कसौटी परखती है। इनके लिए आलोचना का अर्थ उसके पाठक-केन्द्रित और रचना-केन्द्रित होने में निहित है। यह आलोचना समकालीन आलोचना से गम्भीर असहमति रखती है।
गणेश पाण्डेय की आलोचना एक अर्थ में समकालीन आलोचना का प्रतिपक्ष है। मुहावरे सिर्फ कविता में ही नहीं बनते हैं, एक ईमानदार आलोचक अपनी आलोचना का मुहावरा खुद गढ़ता है। गणेश पाण्डेय अपनी आलोचना का मुहावरा खुद बनाते हैं। आलोचना की सर्जनात्मक भाषा का जो प्रीतिकर वितान खड़ा करते हैं, बिलकुल नया है। और हमारे समय की निर्जीव आलोचना को नयी चाल में ढालने का काम करते हैं।
गणेश पाण्डेय की यह किताब पुस्तक समीक्षाओं का जखीरा नहीं है, बल्कि पुस्तक समीक्षाओं के आतंक और आलोचना के नाम पर ठस अपठनीय गद्य से पाठक को मुवत करने की एक दिलचस्प और यादगार कोशिश है।

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