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बिहारी रत्नाकर

जगन्नाथ दास रत्नाकर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :360
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13079
आईएसबीएन :9788180319365

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इस टीका में अधिकांश दोहों के अर्थ अन्यान्य टीकाओं से भिन्न है। उनके यथार्थ होने की विवेचना पाठकों की समझ, रुचि तथा न्याय पर निर्भर है

प्रस्तुत पुस्तक बिहारी-रत्नाकर में विशेषत: इस बात का ध्यान रखा गया है कि पाठकों की समझ में शब्दार्थ तथा भावार्थ भली-भांति आ जायें। दोहे के शब्दों के पारस्परिक व्याकरणिक संबंध तथा कारक इत्यादि को स्पष्ट रूप से प्रकट करने का भी यथासंभव प्रयत्न किया गया है। प्रत्येक दोहे के पश्चात् उसके कठिन शब्दों के अर्थ हैं और फिर उस दोहे के कहे जाने का अवसर, वक्ता, बोधव्य इत्यादि, 'अवतरण' शीर्षक के अन्तर्गत बतलाये गये हैं। उसके पश्चात् ' अर्थ' शीर्षक के अंतर्गत दोहे का अर्थ लिखा गया है। अर्थ लिखने में जो कोई शब्द अथवा वाक्यांश कठिन ज्ञात हुआ, उसका अर्थ, उसके पश्चात् गोल कोष्ठक में दे दिया गया है और जिस किसी शब्द अथवा वाक्यखंड का अध्याहार करना उचित समझा गया, वह चौखूँटे कोष्ठक में रख दिया गया है। जहाँ कहीं कोई विशेष बात कहने की आवश्यकता प्रतीत हुई, वहाँ टिप्पणी-रूप से एक भिन्न वाक्य-विच्छेद (पैराग्राफ) में लिखी गई है।
इस टीका में अधिकांश दोहों के अर्थ अन्यान्य टीकाओं से भिन्न है। उनके यथार्थ होने की विवेचना पाठकों की समझ, रुचि तथा न्याय पर निर्भर है।

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