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काव्य भाषा : अलंकार रचना तथा अन्य समस्याएँ

योगेन्द्र प्रताप सिंह

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13172
आईएसबीएन :0

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बीसवीं शती में पश्चिमी साहित्य चिन्तन के प्रकाश में कविता की नई समीक्षा के आलोचनात्मक मानकों में काव्यभाषा पर आज अधिक बल दिया जा रहा है

बीसवीं शती में पश्चिमी साहित्य चिन्तन के प्रकाश में कविता की नई समीक्षा के आलोचनात्मक मानकों में काव्यभाषा पर आज अधिक बल दिया जा रहा है। उनके अनुसार, कविता का स्थापत्य भाषा से ही निर्मित है। कविता का सम्पूर्ण भौतिक शरीर ही नहीं, उससे सम्बद्ध अनुभूति व्यापार, भाषिक अभिव्यक्ति से सवर्था संपृक्त है। पश्चिमी मानकों के समानान्तर जब हम भारतीय संदर्भ में काव्यभाषा चिन्तन का अवलोकन करते हैं तो लगता है, हमारे पूर्वजों ने परम्परा में इस विषय पर पर्याप्त गम्भीर विवेचन कर रखा है। अश्वघोष एवं कालिदास जैसे कवियों एवं भरत जैसे आचार्यों ने प्रथम शती के प्रारम्भ काल में ही काव्यभाषा के सम्बन्ध में जो कुछ भी कहा है, उसे आज छोड़ा नहीं जा सकता। भाषा विषयक व्याकरण, मीमांसा, न्यायदर्शन, सांख्य एवं बौद्ध मतों के गम्भीर चिन्तन तो आज विश्व के लिए मानक हैं ही, काव्यभाषा के क्षेत्र में आचार्य भामह, दण्डिन, उद्‌भट, वामन, आनन्दवर्धन, कुन्तक आदि की मान्यताएँ- निश्चित ही, मार्गदर्शन का कार्य करती हैं।
यह आलोचनात्मक कृति भारतीय चिन्तकों की काव्यभाषा विषयक मान्यताओं के अलंकार पक्ष से ही सम्बद्ध है। भारतीय काव्यभाषा के अपने पक्ष को आगे बढ़ाने का कार्य अपेक्षित है- किन्तु मेरा विश्वास है कि भारतीय काव्यशास्त्र के अलंकार पक्ष से सम्बद्ध काव्यभाषा का यही अध्ययन यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि हम भारतीयों ने इस व्यवस्था पर नितान्त गम्भीरतापूर्वक चिन्तन किया है।

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