धर्म एवं दर्शन >> रामायण महातीर्थम् रामायण महातीर्थम्कुबेरनाथ राय
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प्रस्तुत है रामगाथा....
Ramayan mahateertham
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रख्यात ललित निबन्धकार और मनीषी चिन्तक स्व. कुबेरनाथ राय की यह पुस्तक ‘रामायण महातीर्थम्’ स्वयं श्रीराम द्वारा संयोजित उनकी अन्तिम कृति है, अतः इसके प्रकाशन का एक ऐतिहासिक महत्त्व भी है। संयोगवश इस कृति का प्रकाशन ऐसे समय में हो रहा है जब राम विचार और विवाद दोनों के केन्द्र में हैं। इस दृष्टि से रामायण महातीर्थम् जैसे ग्रन्थ का महत्त्व और भी बढ़ जाता है।
राम का आनन्दमय चेतना स्वरूप कुबेरनाथ राय को सदैव सम्मोहित करता रहा है। अपने अन्तिम दिनों में वे रामकथा के भावात्मक और बौद्धिक सौन्दर्य के अध्ययन और उद्घाटन में एकाग्र थे। उसी का प्रतिफल है ‘रामायण महातीर्थम्’। कुबेरनाथ जी ने इसमें राम और रामकथा को नये बौद्धिक सम्मोहन से मण्डित किया है-एक नयी लालित्यपूर्ण भंगिमा के साथ। उनका मानना है कि अनहदनाद के साधना- शिखर पर स्थित राम को पहचानने का अर्थ ही भारतीयता के सारे स्तरों के आदर्श रूप को, भारत के सहज चिन्मय रूप को पहचानना है।
पुस्तक में रामकथा में निहित आर्ष भावना और विचारों का विस्तृत और गम्भीर विवेचन है। ज्ञानपीठ की एक विशेष प्रस्तुति।
राम का आनन्दमय चेतना स्वरूप कुबेरनाथ राय को सदैव सम्मोहित करता रहा है। अपने अन्तिम दिनों में वे रामकथा के भावात्मक और बौद्धिक सौन्दर्य के अध्ययन और उद्घाटन में एकाग्र थे। उसी का प्रतिफल है ‘रामायण महातीर्थम्’। कुबेरनाथ जी ने इसमें राम और रामकथा को नये बौद्धिक सम्मोहन से मण्डित किया है-एक नयी लालित्यपूर्ण भंगिमा के साथ। उनका मानना है कि अनहदनाद के साधना- शिखर पर स्थित राम को पहचानने का अर्थ ही भारतीयता के सारे स्तरों के आदर्श रूप को, भारत के सहज चिन्मय रूप को पहचानना है।
पुस्तक में रामकथा में निहित आर्ष भावना और विचारों का विस्तृत और गम्भीर विवेचन है। ज्ञानपीठ की एक विशेष प्रस्तुति।
विष्णु का वृहत्साम और अविश्गाथा
‘‘वृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्’’ गीता, 10/35। ‘‘हे पार्थ ! गायन करने योग्य ऋतियों में मैं वृहत्साम हूँ और छन्दों में गायत्री छन्द हूँ’’। वृहत्साम’ का क्या अर्थ है ? गीता में पुरानी वैदिक शब्दावली को अर्थ विस्तार दिया गया है। संहिताकाल और ब्राह्मण आरण्यक युग के प्रचलित शब्दों को उनके सीमित कर्मकाण्ड लग्न अर्थ को एक मुक्त और व्यापक तात्पर्य देने की प्रचेष्ठा ही गीता को एक सार्वभौम और सार्वकालिक महत्त्व प्रदान करती है। ‘यज्ञ’, ‘कर्म’, ‘सांख्य’, ‘योग’ आदि अनेक शब्दों की अवधारणाएं गीता में आकर अपने मूल रूप से जुड़ी रहकर भी वृहत्तर अर्थ ग्रहण कर लेती हैं।
वृहत्साम शब्द का अर्थ भी इसी प्रचेष्टा को दृष्टिगत रखते हुए ग्रहण करना समीचीन होगा। यों परम्परागत रूप से वृहत्साम संहिता के किसी विशेष भाग की संज्ञा न होकर सूर्य और विष्णु से जुड़े हुए मन्त्रों की एक गायन पद्धति का ही नाम है। सम्भवतः इसका प्रयोग यज्ञ के अनुष्ठान-कल्पों में और उनके बाहर भी प्रार्थना मूलक संगीत के रूप में होता था और आधुनिक कीर्तन-भजन आदि उसी प्रवृत्ति के विकसित रूप हैं। कुछ ऐसा भी लगता है कि आर्यों की मूल विचरण भूमि में जो सुमेरिया-बेबीलोन वंक्षु की घाटी से लेकर भारतीय सप्तसिन्धु तक विस्तृत थी, कोई सुपर्ण या तार्क्ष्य संज्ञावाली योद्धा और गोपालक जाति थी, जिसका इस गायन-पद्धति से विशेष सम्बन्ध था। इसीलिए कहा जाता है कि तार्क्ष्य या सुपर्ण विष्णु के साम का वाहन है। विष्णु जब तार्क्ष्य पर आसीन होकर चलते हैं तो हवा काटते हुए उसके दोनों पंखों की ध्वनि ‘रथन्तर’ और ‘वृहत्’ सामों की अनुगूँज रचती चलती है। ‘काव्य और संगीत ही विष्णु के वाहन हैं’ यह तथ्य ‘श्रीमदभागवत्’ तक आते-आते पूर्णतः प्रतिष्ठित हो गया, यह कहकर कि भगवान भक्त के हृदय में श्रवण-रन्ध्र से प्रवेश करते हैं। सूर, तुलसी, शंकरदेव और चेतन्य महाप्रभु ने तो इसी बात को चरम पुरुषार्थ रूप से स्थापित किया है। वल्लभ सम्प्रदाय में तो उपासना का माध्यम ही है अष्टयाम-संगीत। ये सारी बातें उसी प्रवृत्ति से विकसित हुई हैं।
‘वृहत्साम’ के गायन के मूल में थी और इसी गीत-संगीत का बल पाकर विष्णु सर्वोच्च देवता बन गये। अतः यह ‘वृहत्साम’ गायन-पद्धति निश्चय ही एक रीति-मुक्त और विधि निषेधों से अन्य सामो की तुलना में एक मुक्त और व्यापक पद्धति रही होगी, अन्यथा, उसकी यह सुदूरव्यापी भूमिका सम्भव नहीं हो पाती। यों वैदिक युग में यह पद्धति एक विशेष रीति या भंगिम पर आधारित थी। परन्तु गीता में इसका उल्लेख एक व्यापकतर संकेत देता है। यों संहिता में वृहद्साम के साथ रथन्तर, वामदेव्य, धर्म (यजुर) आदि संज्ञक सामों का भी उल्लेख है ऋग्वेद के 10 वें मण्डल के सूक्त 181 में ‘वृहत्साम’ का उल्लेख सामवेदीय मन्त्र- संहितां के अर्थ में ही हुआ है। ‘सामवेद’ में ‘ऋक्’ और ‘यजुर’ के ही योग्य मन्त्रों का संकलन है (कुछ नये मन्त्र भी हैं) और इसका ‘साम’ नाम पड़ने का कारण भी यही है। छान्दोग्य उपनिषद् से स्पष्ट है कि ‘साम’ का अर्थ ‘उद्गीथ’ होता है।
अर्थात् ‘गेयमन्त्र’। छान्दोग्यउपनिषद् (अध्याय 2/खण्ड 13) में अन्य कई सामों का उल्लेख है। यथा गायत्र, रथन्तर, वामदेव्य, वृहद्, वैरूप, वैराज, शक्वरी, रेवती। ये क्रमशः प्राण, अग्नि, रतिक्रिया, सूर्य, वर्षा, ऋतुचक्र, द्यावापृथ्वी और पशुजगत् की क्रियाओं में प्रतिष्टित हैं। यहाँ पर साम का अर्थ ‘सन्तुलित क्रिया ‘योग’ मात्र है। जैसे ‘वृहत्साम’ के बारे में कहा गया है, ‘‘उदित होता हुआ सूर्य हिंकार है, पूर्ण उदित सूर्य प्रस्ताव है, मध्याह कालीन सूर्य उद्गीथ है, अपराह्य सूर्य प्रतिहार है, अस्तमित सूर्य निधन है। यह वृहत्साम है जो सूर्य में स्थित है।’’ हिंकार प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार और निधन (उपसंहार) ये सामगायन के पाँच खण्ड हैं, जिनमें मूल या प्रधान खण्ड है उद्गीथ भाग। स्पष्ट है कि छान्दोग्य परम्परा (जो सामवेद से जुड़ी है), समस्त सृष्टि क्रिया के मध्य एक लयबद्धछन्द या संगीत का आविष्कार करती है, उस को रूपक की शैली में ‘साम’ करती है। दूसरी बात स्पष्ट होती है जैसे ‘रथन्तर’ का सम्बन्ध अग्नि से है, ‘वैराज’ का पर्जन्य (इन्द्र) से, वैसे ही ‘वृहत्साम’ का सम्बन्ध सूर्य से है।
महामहोपाध्याय पं. गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी ने अपने गीता व्याख्यान में कहा है कि वृहत्साम सूर्य का साम है और यह सबसे बड़ा साम है। सूर्य का मूल रूप है द्यु-मण्डल का ‘सविता’। यह सविता ही द्वितीय मण्डल अन्तरिक्ष में द्वादश आदित्य (गीता व्याख्यान माला : भाग 2; काशी हि.वि. से प्रकाशित) और सोम बनकर अवतीर्ण है तथा पार्थिव मण्डल में अग्नि बनकर। अतः सविता का क्रियात्मक ‘साम’ द्यु (स्वर) अन्तरिक्ष (भुवः) पृथ्वी (भू) तक व्याप्त है। इसी से इसके ‘साम’ को ‘वृहत्साम’ साम कहते हैं। सविता ही सगुण ब्रह्मा का प्रथम व्यक्त रूप है। उसी का एक विकास है ‘विष्णु’ संज्ञावाला आदित्य। बाद में विष्णु का रूप विकसित होते- होते इतना व्यापक हो गया कि सोम, अग्नि, शक्ति का प्रतिनिधि अदिदेवता बन गया। इस प्रकार सविता या आदित्य से जुड़ा ‘वृहत्साम’ विष्णु का भी ‘वृहत्साम’ बन गया। यह साम लयबद्ध तालबद्ध जीवन-क्रिया के भीतर दैनन्दिन व्यक्त हो रहा है। और इस प्रकार व्यापक अर्थ में यह एक क्रियात्मक संगीत है, मात्र ध्वनि-संगीत नहीं। यद्यपि अपने सीमित और मूल अर्थ में यह ध्वनि संगीत या गायन पद्धति ही है। परन्तु गीता में इसका प्रयोग मात्र कर्मकाण्डी अर्थ में न होकर इसी विस्तृत और व्यापक अर्थ में हुआ है। इसके कर्मकाण्डी अर्थ से हमें कुछ लेना-देना नहीं है। अतः हम इस पद के व्यापक संकेतों पर और उससे जुड़े सन्दर्भों पर स्वतन्त्र शैली में विचार करेंगे।
‘वृहत्साम’ पद में महत्त्वपूर्ण शब्द है ‘वृहत्’, जो इस ‘साम’ (संगीत) की विशिष्टता का बोध कराता है। ‘साम’ का अर्थ तो स्पष्ट ही है। साम अर्थात् (harmony)। स्वरों की संगति से अभिव्यक्ति ‘साम’ या ‘राग’ का रूप ले लेती है। अतः ‘साम’ का अर्थ हुआ रागयुक्त अभिव्यक्ति अर्थात् गीत और काव्य। विस्तृत रूप में ‘साम’ समस्त साहित्यरूपों में प्रतिष्ठित माना जा सकता है, क्योंकि साहित्य भी शिल्प की हरेक विधा के मूल में किसी-न-किसी ढंग का ‘छन्द’ या ‘संगति’ (harmony) विद्यमान है। वैदिक मन्त्रों से लेकर ललित निबन्ध तक सभी को साम-सम्पृक्त माना जा सकता है। सभी में कोई-न-कोई ‘साम’ प्रतिष्ठित है। परन्तु विशेषत ‘वृहत्’ विष्णु या सूर्य के साम को एक पृथक सत्ता देता है। यह विशेषण इस ‘साम’ को एक दिव्य परिवेश से जोड़ता है क्यों वृहत् यहाँ पर दिव्यता का वाचक है। ‘वृहत्’ का अर्थ परमात्मा और विश्वात्मा दोनों होता है। यह ‘विराट्’ का पर्यायवाची है। ‘सहस्रशीर्षा’ पुरुष, रूप, परमात्मा से प्रथम जन्म लेता है ‘विराड्’ और ‘विराड्’ से जन्मता है अधिपुरुष और ‘अधिपुरुष’ ही अपने को अष्टधा प्रकृति वाली सृष्टि के रूप में विभक्त कर देता है। आत्म-यज्ञ या आत्म-विवर्तन द्वारा। (‘पुरुषसूक्त’ में इसी थ्योरी का प्रतिपादन है और वैष्णवों ने पुरुषसूर्त को सर्वाधिक महत्त्व दिया है।) यह ‘विराड्’ ही ‘आयतन’ की दृष्टि से ‘विराट्’ है और ‘रूप’ की दृष्टि से ‘विराज’ है।
नासदीय सूक्त का ‘महाशार्बर’ संज्ञा वाला तमस-रूप ब्रह्म निर्गुण निराकार था। उससे सगुण परमात्मा ‘सहस्रशीर्षा’ रूप में उदित होता है। उसके तीन पग ‘विराड्’ रूप में ऊर्ध्व स्थित हैं, एक पग ‘अधिपुरुष’ रूप में सृष्टि का विस्तार अर्थात् विश्व बनकर स्थित है यह ‘विराड्’ और ‘अधिपुरुष’ दोनों ‘परमात्मा’ (Ttranscendental God) और ‘विश्वात्मा’ (Immanent God) कहे जाते हैं। इसकी प्रसविनी और कारिका शक्ति को सांख्य ‘परम प्रकृति’ और ‘प्रधान’ की संज्ञा देता है और शाक्तागम महामाधवी
1. ‘वृहत्साम’ एक प्रकार का मन्त्र गान है, जिसको विशेष ढंग से गाया जाता है। यह वैदिक साहित्य का कोई अंश नहीं परन्तु (वैदिक) गायन का ही प्रकार भेद। डॉ. मुकुन्दमाधव शर्मा, अध्यक्ष संस्कृत विभाग, गुवाहाटी विश्विद्यालय (एक व्यक्तिगत पत्र से।) या ‘श्री’ रूप में स्वीकृत करता है। इसकी ही विस्तार-शक्ति (विराट या ‘ही’) और रूप-शक्ति (विराज या ‘श्री’) छान्दोग्य में वर्णित सारे सामों का ‘मूल साम’ रचती है। अतः ‘बृहत्’ का साम वह साम है जो सारे सामों का ‘मूल साम’ है, जो प्रथम सगुण ब्रह्म सहस्रशीर्षा ‘पुरुष’ (जो बाद में अनन्तशाही नारायण के रूप में कल्पित किये गये) का ‘साम’ है और यही एक अन्य वैदिक परम्परा के अनुसार द्यु-मण्डल में उद्भूत प्रथम सगुण परमात्माविग्रह सविता का ‘साम’ है। यही अन्तरिक्ष और धरती में आदित्य, साम और अग्नि के रूप में विभाजित होकर क्रिया विस्तार कर रहा है। अर्थात् सृष्टि-प्रसव और सृष्टि-विकास में अभिव्यक्त होती हुई भगवद्विभूति और लीला का ‘साम’ ही ‘वृहत्साम’ है। भगवान की सारी अवतार कथाएँ एवं विभूतियोग को व्यक्त करनेवाला काव्य साहित्य और शिल्प उस ‘वृहत्साम’ की अभिव्यक्ति है। ‘वृहद्’ शब्द सारी सृष्टि लीला और अवतार लीला के मध्य स्थित दिव्य तत्त्व (divinity) का वाचक है। जिस प्रकार अन्तरिक्ष (भुव) और पृथ्वी (भू) के सारे देवमण्डल का मूल है ‘द्यु’ (स्वः) के सविता में, उसी तरह सारे देवताओं के सामों के मूल में है यह ‘सविता’ का या लोकप्रचलित शब्दावली में ‘सूर्य’ का वृगहत्साम।
इस ‘वृहत्साम’ पद पर एक अन्य दिशा से भी विचार किया जा सकता है। ‘वृहद्’ शब्द ‘समूह’ का भी वाचक है। बृहत्पति (बृहस्पति), प्रजापति; गणपति आदि परमात्मा वाचक शब्दों में वृहद्, प्रजा, गण आदि समानधर्मी शब्द हैं और इनका सरलार्थ ठहरता है जनसमूह या ‘लोक’। अतः ‘वृहत्साम’ का एक अर्थ ‘लोकसाम’ भी हुआ। वैसे भी ‘विश्व’ शब्द का अर्थ ‘विष्णु’ भी होता है। विष्णुसहस्रनाम का यह द्वितीय नाम (ॐ विश्व विष्णु:...’’) है। ‘ॐ’ प्रथम नाम है तो विश्व द्वितीय नाम। ‘विश्व’ अर्थात् ‘लोक’। अतः ‘वृहत्साम’ का अर्थ ‘लोकसाम’ सर्वथासमीचीन है। वैष्णव धर्म और वैष्णव संस्कृति की ऐतिहासिक यात्रा की दृष्टि से यह अर्थ भी बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। वृहस्ताम की परिधि में लोक (समूह गण प्रजा वृहद) में प्रचलित तथा लोक द्वारा अभिव्यक्त समस्त दिव्य गीत परम्पराएँ तथा दिव्यकथा परम्पराएँ आ जाती हैं। यों सारा आदिम काव्य और आदिम संगीत ही व्यक्तिकृत नहीं, समूहकृत अर्थात् ‘अपौरुषेय’ माना जाता है। परन्तु यह ‘दिव्य’ भी हो सकता है और ‘अदिव्य’ (सेक्यूलर) भी। ‘वृहत्साम’ में इसका अदिव्य भाग नहीं लिया जा सकता है। यहाँ पर एक तथ्य पर ध्यान बरबस चला जाता है, वह है ‘रथन्तर साम’ और ‘वृहत्साम’ का जोड़े के रूप में प्रायः उल्लिखित होना।
‘रथन्तर’ या ‘रथन्तरण’ राजमार्ग को पकड़ कर की गयी यात्रा का द्योतक है तो ‘वृहद्’ राजमार्ग से हटकर आरण्यक और ग्राम्य पगडण्डियों पर मुक्त पगविहार का। हमें लगता है कि भारतीय कला और संगीत में कालान्तर में जो दो भेद मार्गी और देशी किये गये उनके मूल में यही ‘रथन्तर’ और ‘वृहद’ का ही भेद है। ‘मार्ग’ का अर्थ होता है अभिजात, संस्कार-शिक्षित और क्लासिक पद्धति तथा ‘देश’ का अर्थ होता है लोकश्रयी मुक्त पद्धति ‘रथन्तरण’ शब्द ‘मार्ग’ का संकेत देता है और ‘वृहत्’ शब्द विस्तृत देश-भूमि का।
कहा जाता है कि विष्णु का वाहन सुपर्ण ‘साम’ का भी वाहन है और उसके दोनों पक्षों से क्रमशः ‘रथन्तर साम’ और ‘वृहत्साम’ की ध्वनि निकलती चलती है। ‘रथन्तर साम’ का सम्बन्ध कर्मकाण्डप्रधान संस्कृत-परम्परा से है तो वृहत्साम का लोक-संस्कृति में व्याप्त लोक परम्परा से। विष्णु का साम वैदिक राजमार्ग में प्रतिष्ठित है और साथ ही लोकाश्रयी कथा और गीत की वृहत् परम्परा में भी। साथ ही यह भी तथ्य है कि जैसे सारे मार्ग संगीत का मूल है देश संगीत में, जैसे सारी अभिजात संस्कृति का मूल स्थित है लोक संस्कृति में, वैसे ही सारी वैदिक राजमार्ग की साम परम्परा (रथन्तर) का मूल किसी-न-किसी रूप में मुक्त ‘वृहद’ परम्परा में निहित है। प्रथम चरण में यह वृहत्साम परम्परा आर्य लोक संस्कृति से जुड़ी रही होगी, बाद में पौराणिक युग तक आते-आते आर्य आर्येतर समस्त भारतीय लोक संस्कृति से जुड़ गयी। लोकाश्रयी संस्कृति का बल पाकर ही विष्णु का ‘साम’ (गीत और साहित्य) सबसे वृहद् और बलशाली हो गया। सारी अवतार कथाओं के मूल में लोकाश्रयी अनुश्रुतियाँ ही हैं। ये वैदिक मन्त्रों में भी संकेत रूप में व्यक्त हुई हैं। पुराणों में इनका संशोधित उपवृंहण वर्तमान है।
उदाहरण के लिए वैदिक अवतार त्रिविक्रम विष्णु जो ‘त्रिपादऊर्ध्व’ पुरुष है, वस्तुतः अपने पौराणिक रूप में (बलिबन्धन की कथा) आर्य -लोकानुश्रुति से आया है। उसके त्रिपादविक्रम का उल्लेख भी मन्त्रों में मिलता है। परन्तु वामन द्वारा बलिछलन की पूरी कथा आर्यों के लोक-साहित्य में वर्तमान थी। यह किसी ऐतिहासिक घटना की अनुस्मृति है। त्रिपादऊर्ध्व विष्णु के तीन पंगों की व्याख्या तरह-तरह से की जाती है और उनका सम्बन्ध सूर्य के दैनन्दिन साम (क्रिया वृत्त) से है। ऊर्णनाभ के अनुसार तीन पग हैं-उदयाचल, परम पद (मध्याह्य बिन्दु) और ‘गयशीर्ष’ (अस्ताचल)। एक अन्य व्याख्या के अनुसार वे उत्तरायण बिन्दु, विषुव बिन्दु और दक्षिणायन बिन्दु हैं। पर सायणाचार्य लोक प्रचलित बलिछलन की कथा से जोड़ते हैं और तीन पग हैं भू, भुवः और स्वः।
वृहत्साम शब्द का अर्थ भी इसी प्रचेष्टा को दृष्टिगत रखते हुए ग्रहण करना समीचीन होगा। यों परम्परागत रूप से वृहत्साम संहिता के किसी विशेष भाग की संज्ञा न होकर सूर्य और विष्णु से जुड़े हुए मन्त्रों की एक गायन पद्धति का ही नाम है। सम्भवतः इसका प्रयोग यज्ञ के अनुष्ठान-कल्पों में और उनके बाहर भी प्रार्थना मूलक संगीत के रूप में होता था और आधुनिक कीर्तन-भजन आदि उसी प्रवृत्ति के विकसित रूप हैं। कुछ ऐसा भी लगता है कि आर्यों की मूल विचरण भूमि में जो सुमेरिया-बेबीलोन वंक्षु की घाटी से लेकर भारतीय सप्तसिन्धु तक विस्तृत थी, कोई सुपर्ण या तार्क्ष्य संज्ञावाली योद्धा और गोपालक जाति थी, जिसका इस गायन-पद्धति से विशेष सम्बन्ध था। इसीलिए कहा जाता है कि तार्क्ष्य या सुपर्ण विष्णु के साम का वाहन है। विष्णु जब तार्क्ष्य पर आसीन होकर चलते हैं तो हवा काटते हुए उसके दोनों पंखों की ध्वनि ‘रथन्तर’ और ‘वृहत्’ सामों की अनुगूँज रचती चलती है। ‘काव्य और संगीत ही विष्णु के वाहन हैं’ यह तथ्य ‘श्रीमदभागवत्’ तक आते-आते पूर्णतः प्रतिष्ठित हो गया, यह कहकर कि भगवान भक्त के हृदय में श्रवण-रन्ध्र से प्रवेश करते हैं। सूर, तुलसी, शंकरदेव और चेतन्य महाप्रभु ने तो इसी बात को चरम पुरुषार्थ रूप से स्थापित किया है। वल्लभ सम्प्रदाय में तो उपासना का माध्यम ही है अष्टयाम-संगीत। ये सारी बातें उसी प्रवृत्ति से विकसित हुई हैं।
‘वृहत्साम’ के गायन के मूल में थी और इसी गीत-संगीत का बल पाकर विष्णु सर्वोच्च देवता बन गये। अतः यह ‘वृहत्साम’ गायन-पद्धति निश्चय ही एक रीति-मुक्त और विधि निषेधों से अन्य सामो की तुलना में एक मुक्त और व्यापक पद्धति रही होगी, अन्यथा, उसकी यह सुदूरव्यापी भूमिका सम्भव नहीं हो पाती। यों वैदिक युग में यह पद्धति एक विशेष रीति या भंगिम पर आधारित थी। परन्तु गीता में इसका उल्लेख एक व्यापकतर संकेत देता है। यों संहिता में वृहद्साम के साथ रथन्तर, वामदेव्य, धर्म (यजुर) आदि संज्ञक सामों का भी उल्लेख है ऋग्वेद के 10 वें मण्डल के सूक्त 181 में ‘वृहत्साम’ का उल्लेख सामवेदीय मन्त्र- संहितां के अर्थ में ही हुआ है। ‘सामवेद’ में ‘ऋक्’ और ‘यजुर’ के ही योग्य मन्त्रों का संकलन है (कुछ नये मन्त्र भी हैं) और इसका ‘साम’ नाम पड़ने का कारण भी यही है। छान्दोग्य उपनिषद् से स्पष्ट है कि ‘साम’ का अर्थ ‘उद्गीथ’ होता है।
अर्थात् ‘गेयमन्त्र’। छान्दोग्यउपनिषद् (अध्याय 2/खण्ड 13) में अन्य कई सामों का उल्लेख है। यथा गायत्र, रथन्तर, वामदेव्य, वृहद्, वैरूप, वैराज, शक्वरी, रेवती। ये क्रमशः प्राण, अग्नि, रतिक्रिया, सूर्य, वर्षा, ऋतुचक्र, द्यावापृथ्वी और पशुजगत् की क्रियाओं में प्रतिष्टित हैं। यहाँ पर साम का अर्थ ‘सन्तुलित क्रिया ‘योग’ मात्र है। जैसे ‘वृहत्साम’ के बारे में कहा गया है, ‘‘उदित होता हुआ सूर्य हिंकार है, पूर्ण उदित सूर्य प्रस्ताव है, मध्याह कालीन सूर्य उद्गीथ है, अपराह्य सूर्य प्रतिहार है, अस्तमित सूर्य निधन है। यह वृहत्साम है जो सूर्य में स्थित है।’’ हिंकार प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार और निधन (उपसंहार) ये सामगायन के पाँच खण्ड हैं, जिनमें मूल या प्रधान खण्ड है उद्गीथ भाग। स्पष्ट है कि छान्दोग्य परम्परा (जो सामवेद से जुड़ी है), समस्त सृष्टि क्रिया के मध्य एक लयबद्धछन्द या संगीत का आविष्कार करती है, उस को रूपक की शैली में ‘साम’ करती है। दूसरी बात स्पष्ट होती है जैसे ‘रथन्तर’ का सम्बन्ध अग्नि से है, ‘वैराज’ का पर्जन्य (इन्द्र) से, वैसे ही ‘वृहत्साम’ का सम्बन्ध सूर्य से है।
महामहोपाध्याय पं. गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी ने अपने गीता व्याख्यान में कहा है कि वृहत्साम सूर्य का साम है और यह सबसे बड़ा साम है। सूर्य का मूल रूप है द्यु-मण्डल का ‘सविता’। यह सविता ही द्वितीय मण्डल अन्तरिक्ष में द्वादश आदित्य (गीता व्याख्यान माला : भाग 2; काशी हि.वि. से प्रकाशित) और सोम बनकर अवतीर्ण है तथा पार्थिव मण्डल में अग्नि बनकर। अतः सविता का क्रियात्मक ‘साम’ द्यु (स्वर) अन्तरिक्ष (भुवः) पृथ्वी (भू) तक व्याप्त है। इसी से इसके ‘साम’ को ‘वृहत्साम’ साम कहते हैं। सविता ही सगुण ब्रह्मा का प्रथम व्यक्त रूप है। उसी का एक विकास है ‘विष्णु’ संज्ञावाला आदित्य। बाद में विष्णु का रूप विकसित होते- होते इतना व्यापक हो गया कि सोम, अग्नि, शक्ति का प्रतिनिधि अदिदेवता बन गया। इस प्रकार सविता या आदित्य से जुड़ा ‘वृहत्साम’ विष्णु का भी ‘वृहत्साम’ बन गया। यह साम लयबद्ध तालबद्ध जीवन-क्रिया के भीतर दैनन्दिन व्यक्त हो रहा है। और इस प्रकार व्यापक अर्थ में यह एक क्रियात्मक संगीत है, मात्र ध्वनि-संगीत नहीं। यद्यपि अपने सीमित और मूल अर्थ में यह ध्वनि संगीत या गायन पद्धति ही है। परन्तु गीता में इसका प्रयोग मात्र कर्मकाण्डी अर्थ में न होकर इसी विस्तृत और व्यापक अर्थ में हुआ है। इसके कर्मकाण्डी अर्थ से हमें कुछ लेना-देना नहीं है। अतः हम इस पद के व्यापक संकेतों पर और उससे जुड़े सन्दर्भों पर स्वतन्त्र शैली में विचार करेंगे।
‘वृहत्साम’ पद में महत्त्वपूर्ण शब्द है ‘वृहत्’, जो इस ‘साम’ (संगीत) की विशिष्टता का बोध कराता है। ‘साम’ का अर्थ तो स्पष्ट ही है। साम अर्थात् (harmony)। स्वरों की संगति से अभिव्यक्ति ‘साम’ या ‘राग’ का रूप ले लेती है। अतः ‘साम’ का अर्थ हुआ रागयुक्त अभिव्यक्ति अर्थात् गीत और काव्य। विस्तृत रूप में ‘साम’ समस्त साहित्यरूपों में प्रतिष्ठित माना जा सकता है, क्योंकि साहित्य भी शिल्प की हरेक विधा के मूल में किसी-न-किसी ढंग का ‘छन्द’ या ‘संगति’ (harmony) विद्यमान है। वैदिक मन्त्रों से लेकर ललित निबन्ध तक सभी को साम-सम्पृक्त माना जा सकता है। सभी में कोई-न-कोई ‘साम’ प्रतिष्ठित है। परन्तु विशेषत ‘वृहत्’ विष्णु या सूर्य के साम को एक पृथक सत्ता देता है। यह विशेषण इस ‘साम’ को एक दिव्य परिवेश से जोड़ता है क्यों वृहत् यहाँ पर दिव्यता का वाचक है। ‘वृहत्’ का अर्थ परमात्मा और विश्वात्मा दोनों होता है। यह ‘विराट्’ का पर्यायवाची है। ‘सहस्रशीर्षा’ पुरुष, रूप, परमात्मा से प्रथम जन्म लेता है ‘विराड्’ और ‘विराड्’ से जन्मता है अधिपुरुष और ‘अधिपुरुष’ ही अपने को अष्टधा प्रकृति वाली सृष्टि के रूप में विभक्त कर देता है। आत्म-यज्ञ या आत्म-विवर्तन द्वारा। (‘पुरुषसूक्त’ में इसी थ्योरी का प्रतिपादन है और वैष्णवों ने पुरुषसूर्त को सर्वाधिक महत्त्व दिया है।) यह ‘विराड्’ ही ‘आयतन’ की दृष्टि से ‘विराट्’ है और ‘रूप’ की दृष्टि से ‘विराज’ है।
नासदीय सूक्त का ‘महाशार्बर’ संज्ञा वाला तमस-रूप ब्रह्म निर्गुण निराकार था। उससे सगुण परमात्मा ‘सहस्रशीर्षा’ रूप में उदित होता है। उसके तीन पग ‘विराड्’ रूप में ऊर्ध्व स्थित हैं, एक पग ‘अधिपुरुष’ रूप में सृष्टि का विस्तार अर्थात् विश्व बनकर स्थित है यह ‘विराड्’ और ‘अधिपुरुष’ दोनों ‘परमात्मा’ (Ttranscendental God) और ‘विश्वात्मा’ (Immanent God) कहे जाते हैं। इसकी प्रसविनी और कारिका शक्ति को सांख्य ‘परम प्रकृति’ और ‘प्रधान’ की संज्ञा देता है और शाक्तागम महामाधवी
1. ‘वृहत्साम’ एक प्रकार का मन्त्र गान है, जिसको विशेष ढंग से गाया जाता है। यह वैदिक साहित्य का कोई अंश नहीं परन्तु (वैदिक) गायन का ही प्रकार भेद। डॉ. मुकुन्दमाधव शर्मा, अध्यक्ष संस्कृत विभाग, गुवाहाटी विश्विद्यालय (एक व्यक्तिगत पत्र से।) या ‘श्री’ रूप में स्वीकृत करता है। इसकी ही विस्तार-शक्ति (विराट या ‘ही’) और रूप-शक्ति (विराज या ‘श्री’) छान्दोग्य में वर्णित सारे सामों का ‘मूल साम’ रचती है। अतः ‘बृहत्’ का साम वह साम है जो सारे सामों का ‘मूल साम’ है, जो प्रथम सगुण ब्रह्म सहस्रशीर्षा ‘पुरुष’ (जो बाद में अनन्तशाही नारायण के रूप में कल्पित किये गये) का ‘साम’ है और यही एक अन्य वैदिक परम्परा के अनुसार द्यु-मण्डल में उद्भूत प्रथम सगुण परमात्माविग्रह सविता का ‘साम’ है। यही अन्तरिक्ष और धरती में आदित्य, साम और अग्नि के रूप में विभाजित होकर क्रिया विस्तार कर रहा है। अर्थात् सृष्टि-प्रसव और सृष्टि-विकास में अभिव्यक्त होती हुई भगवद्विभूति और लीला का ‘साम’ ही ‘वृहत्साम’ है। भगवान की सारी अवतार कथाएँ एवं विभूतियोग को व्यक्त करनेवाला काव्य साहित्य और शिल्प उस ‘वृहत्साम’ की अभिव्यक्ति है। ‘वृहद्’ शब्द सारी सृष्टि लीला और अवतार लीला के मध्य स्थित दिव्य तत्त्व (divinity) का वाचक है। जिस प्रकार अन्तरिक्ष (भुव) और पृथ्वी (भू) के सारे देवमण्डल का मूल है ‘द्यु’ (स्वः) के सविता में, उसी तरह सारे देवताओं के सामों के मूल में है यह ‘सविता’ का या लोकप्रचलित शब्दावली में ‘सूर्य’ का वृगहत्साम।
इस ‘वृहत्साम’ पद पर एक अन्य दिशा से भी विचार किया जा सकता है। ‘वृहद्’ शब्द ‘समूह’ का भी वाचक है। बृहत्पति (बृहस्पति), प्रजापति; गणपति आदि परमात्मा वाचक शब्दों में वृहद्, प्रजा, गण आदि समानधर्मी शब्द हैं और इनका सरलार्थ ठहरता है जनसमूह या ‘लोक’। अतः ‘वृहत्साम’ का एक अर्थ ‘लोकसाम’ भी हुआ। वैसे भी ‘विश्व’ शब्द का अर्थ ‘विष्णु’ भी होता है। विष्णुसहस्रनाम का यह द्वितीय नाम (ॐ विश्व विष्णु:...’’) है। ‘ॐ’ प्रथम नाम है तो विश्व द्वितीय नाम। ‘विश्व’ अर्थात् ‘लोक’। अतः ‘वृहत्साम’ का अर्थ ‘लोकसाम’ सर्वथासमीचीन है। वैष्णव धर्म और वैष्णव संस्कृति की ऐतिहासिक यात्रा की दृष्टि से यह अर्थ भी बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। वृहस्ताम की परिधि में लोक (समूह गण प्रजा वृहद) में प्रचलित तथा लोक द्वारा अभिव्यक्त समस्त दिव्य गीत परम्पराएँ तथा दिव्यकथा परम्पराएँ आ जाती हैं। यों सारा आदिम काव्य और आदिम संगीत ही व्यक्तिकृत नहीं, समूहकृत अर्थात् ‘अपौरुषेय’ माना जाता है। परन्तु यह ‘दिव्य’ भी हो सकता है और ‘अदिव्य’ (सेक्यूलर) भी। ‘वृहत्साम’ में इसका अदिव्य भाग नहीं लिया जा सकता है। यहाँ पर एक तथ्य पर ध्यान बरबस चला जाता है, वह है ‘रथन्तर साम’ और ‘वृहत्साम’ का जोड़े के रूप में प्रायः उल्लिखित होना।
‘रथन्तर’ या ‘रथन्तरण’ राजमार्ग को पकड़ कर की गयी यात्रा का द्योतक है तो ‘वृहद्’ राजमार्ग से हटकर आरण्यक और ग्राम्य पगडण्डियों पर मुक्त पगविहार का। हमें लगता है कि भारतीय कला और संगीत में कालान्तर में जो दो भेद मार्गी और देशी किये गये उनके मूल में यही ‘रथन्तर’ और ‘वृहद’ का ही भेद है। ‘मार्ग’ का अर्थ होता है अभिजात, संस्कार-शिक्षित और क्लासिक पद्धति तथा ‘देश’ का अर्थ होता है लोकश्रयी मुक्त पद्धति ‘रथन्तरण’ शब्द ‘मार्ग’ का संकेत देता है और ‘वृहत्’ शब्द विस्तृत देश-भूमि का।
कहा जाता है कि विष्णु का वाहन सुपर्ण ‘साम’ का भी वाहन है और उसके दोनों पक्षों से क्रमशः ‘रथन्तर साम’ और ‘वृहत्साम’ की ध्वनि निकलती चलती है। ‘रथन्तर साम’ का सम्बन्ध कर्मकाण्डप्रधान संस्कृत-परम्परा से है तो वृहत्साम का लोक-संस्कृति में व्याप्त लोक परम्परा से। विष्णु का साम वैदिक राजमार्ग में प्रतिष्ठित है और साथ ही लोकाश्रयी कथा और गीत की वृहत् परम्परा में भी। साथ ही यह भी तथ्य है कि जैसे सारे मार्ग संगीत का मूल है देश संगीत में, जैसे सारी अभिजात संस्कृति का मूल स्थित है लोक संस्कृति में, वैसे ही सारी वैदिक राजमार्ग की साम परम्परा (रथन्तर) का मूल किसी-न-किसी रूप में मुक्त ‘वृहद’ परम्परा में निहित है। प्रथम चरण में यह वृहत्साम परम्परा आर्य लोक संस्कृति से जुड़ी रही होगी, बाद में पौराणिक युग तक आते-आते आर्य आर्येतर समस्त भारतीय लोक संस्कृति से जुड़ गयी। लोकाश्रयी संस्कृति का बल पाकर ही विष्णु का ‘साम’ (गीत और साहित्य) सबसे वृहद् और बलशाली हो गया। सारी अवतार कथाओं के मूल में लोकाश्रयी अनुश्रुतियाँ ही हैं। ये वैदिक मन्त्रों में भी संकेत रूप में व्यक्त हुई हैं। पुराणों में इनका संशोधित उपवृंहण वर्तमान है।
उदाहरण के लिए वैदिक अवतार त्रिविक्रम विष्णु जो ‘त्रिपादऊर्ध्व’ पुरुष है, वस्तुतः अपने पौराणिक रूप में (बलिबन्धन की कथा) आर्य -लोकानुश्रुति से आया है। उसके त्रिपादविक्रम का उल्लेख भी मन्त्रों में मिलता है। परन्तु वामन द्वारा बलिछलन की पूरी कथा आर्यों के लोक-साहित्य में वर्तमान थी। यह किसी ऐतिहासिक घटना की अनुस्मृति है। त्रिपादऊर्ध्व विष्णु के तीन पंगों की व्याख्या तरह-तरह से की जाती है और उनका सम्बन्ध सूर्य के दैनन्दिन साम (क्रिया वृत्त) से है। ऊर्णनाभ के अनुसार तीन पग हैं-उदयाचल, परम पद (मध्याह्य बिन्दु) और ‘गयशीर्ष’ (अस्ताचल)। एक अन्य व्याख्या के अनुसार वे उत्तरायण बिन्दु, विषुव बिन्दु और दक्षिणायन बिन्दु हैं। पर सायणाचार्य लोक प्रचलित बलिछलन की कथा से जोड़ते हैं और तीन पग हैं भू, भुवः और स्वः।
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