धर्म एवं दर्शन >> लीला और भक्ति रस लीला और भक्ति रसयोगेन्द्र प्रताप सिंह
|
0 |
प्रस्तुत कृति का मूल मंतव्य लीला तथा भक्तिरस के इसी सारवान तत्व की सैद्धांतिकता की स्थापना करना है
लीला के विवेचन के बिना हिंदी भक्ति कविता की समीक्षा संभव नहीं है। लीला भक्तिरस का प्राण है। हिंदी के आलोचकों में लगभग आठ दशकों से हिंदी वैष्णव भक्तिकाव्य की समीक्षा शुरू की है, किन्तु उनका ध्यान इस प्राणवान तत्व की ओर नहीं जा सका है। प्रायः अंग्रेजी साहित्य से सम्बन्ध सिद्धांतों तथा प्रकृत लोक मान्यताओं के प्रकाश में भक्तिकविता की अबतक जो समीक्षाएँ हुई हैं, उनसे इस विशाल साहित्य की मूल प्रकृति स्पष्ट नहीं हो सही है। इसका मुख्य कारण यह है कि भक्तिकाव्य के अध्यात्म एवं लोक का द्वन्द केवल लीला एवं मात्र लीला के माध्यम से ही विवेचित होना संभव है। उसके मत्व्य, अर्थ-रचना एवं भाव्द्वंद को इस लीलाधार के अभाव में देखा जाना इस भारतीय कविता के साथ अन्याय है। भक्तिरस इसी लीलाध्र्मिता की निष्पति है।आचार्य पं. रामचंद्र शुक्ल जैसे भक्तिकविता के प्रख्यात समीक्षक भी भक्तिकाव्य की इस मूल अवधारणा से अपनी दृष्टि बचाकर दूसरी ओर जाते दिखाई पड़ते हैं। प्रस्तुत कृति का मूल मंतव्य लीला तथा भक्तिरस के इसी सारवान तत्व की सैद्धांतिकता की स्थापना करना है ताकि इसके प्रकाश में हिंदी भक्तिकाव्य की पुनर्व्याख्या करके उसके साहित्य की ही नहीं, भारतीय संस्कृति और अस्मिता के साथ न्याय किया जा सकता है।
|