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मानव-देह और हमारी देह-भाषायें

रमेश कुंतल मेघ

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :767
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13209
आईएसबीएन :9788180319662

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यह ग्रन्थ भारत एवं विश्व की सांस्कृतिक-ऐतिहासिक हंसझील-नीड के मुझ जैसे सादे बन्दे का हंसगान भी है

यह एक विलक्षण संहिता है जो मानवदेह तथा अनेकानेक देहभाषाओं के विश्वकोश जैसी है। इसे अध्ययन-कक्ष, श्रृंगार-मेज, ज्ञान-परिसंवाद तथा रात्रि-शय्या में बेधड़क पास एवं साथ में रखना वांछनीय होगा। यह अद्यतन ‘देह धुरीण विश्वकोश’ अर्थात अकुंठ ‘बॉडी इनसाइक्लोपीडिया’ है। पंद्रह वर्षों की इतस्ततः अन्वीक्षा-अन्वेषण-अनुप्रयोग से यह रचनी गई है। इसके लिए ही कृती-आलोचिन्तक को निजी तौर पर अमेरिका में मिशिगन (डेट्राइट) में अपनी बेटी मधुछंदा के यहाँ प्रवास करना पड़ा था। इसका प्रत्येक पन्ना, रेखाचित्र, चित्र चार्ट सबूत हैं कि “मानवदेह और हमारी देह्भाषाएं” अंतर-ज्ञानानुशासनात्मक उपागम द्वारा समाजविज्ञानों, कला, साहित्य, समाजेतिहास आदि से संयुक्त ‘सांस्कृतिक-पैटर्न’ का भी एक प्रदर्श है। तथापि इसके निर्णायक तो आप ही हैं। यह ‘ग्रन्थ’ क्षयिष्णु कुंठाओं, रूढ़ वर्जनाओं-अधोगामी पूर्वाग्रहों के विरुद्ध, अतः उनसे विमुक्त होकर, शालीनता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ततः आम आदमी की बेहतर भोतिक जिंदगानी की समझदारी से प्रतिबद्ध है। इसमें भारत, रूस, अमेरिका, रोम, मेक्सिको, इजिप्त के कला-अलबमों तथा ग्राथाकारों और मयूज़ियमो का भी नया इस्तेमाल हुआ है। यह दस से भी जयादा वर्षो की तैयारी द्वारा अमेरिका-प्रवास में संपन्न हुआ है। लक्ष्य है : असंख्य-बहुविध प्रासंगिक सूचनाएँ देना, ज्ञान के बहुआयामी-अल्पज्ञात क्षितिजों को खोजना, तथा मानवदेह और उसकी विविध देह्भाषाओं का वर्गीकरण, शिक्षण-प्रशिक्षण, तथा उदारीकरण करते चलना। अथच। सर्वात में अपने ही देश में उपेक्षित जनवादी राजभाषा हिंदी को 21वी शताब्दी की कलहंसनी बनाकर स्वदेश में देशकाल के पंखों द्वारा कालोत्तीर्ण उड़ानें देना। सो, यह ग्रन्थ भारत एवं विश्व की सांस्कृतिक-ऐतिहासिक हंसझील-नीड के मुझ जैसे सादे बन्दे का हंसगान भी है। अगर आपको पसंद आए तो इसे एक ‘आधुनिक देह्भागवत’ भी कह लें। तो आपकी राय का दिन-प्रतिदिन इंतजार रहेगा-ऐसे विमर्श में। हीरामन और नील्तारा के संकल्प से।

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