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नया शिवाला

इकबाल अहमद

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1992
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13224
आईएसबीएन :0

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आज की परिस्थिति में, जबकि हमारे सिर पर सम्प्रदायवाद, जातिवाद, भाषावाद और प्रदेशवाद के भूत सवार हैं तो हमें इकबाल के संदेश को हृदयंगम करना चाहिए और यही हमारी सामाजिक संस्कृति को सुदृढ़ कर सकता है

भारत माता के सपूत इकबाल जो पश्चिम और पूर्वी सभ्यता व संस्कृति से परिचित थे तथा अंग्रेजों की कूटनीति में विष जो धुला हुआ था उसे भी जानते थे। वे भारत की परतंत्रता से दुखी थे तथा जननी जन्मभूमि को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराना चाहते थे। अत: उन्होंने अपने देशवासियों में अपनी प्राचीन गौरव गरिमा को जागृत करने का प्रयास किया और उन्हें अपने सम्मान आदर को स्मरण दिलाया तथा भारतवर्ष की अखण्डता व एकता को दृढ़ बनाने के लिए समस्त धर्मों की आधारभूत शिक्षाओं को समझने एवं उनका आदर-सम्मान करने पर विशेष बल दिया। यह खेद की बात है कि हमारे देश में इकबाल की देशभक्ति और राष्ट्रीयता के सिद्धान्त को गलत ढंग से केवल समझा ही नहीं गया बल्कि कुछ संकुचित मनोवृत्ति के लोगों ने उसका प्रचार भी किया। वास्तव में इकबाल के लोगों ने उसका प्रचार भी किया। वास्तव में इकबाल की कविता का मूल स्वर ही देशभक्ति और राष्ट्रीयता है। उन्होंने काव्य-रचना का श्रीगणेश ही 'हिमाला' (हिमालय) नामक कविता से किया, न कि किसी देवी-देवता से। वे मानवतावादी कवि और महान दार्शनिक थे। वे सच्चे मन से चाहते थे कि विभिन्न धर्मावलम्बियों, समुदायों, जातियों, वर्गों, भाषा-भाषियों में सामंजस्य, सद्भावना और सहयोग हो एवं जननी जन्मभूमि भारत की रंगबिरंगी संस्कृति जो अनेकता में एकता का सूत्र प्रदान करती है, फले-फूले। आज की परिस्थिति में, जबकि हमारे सिर पर सम्प्रदायवाद, जातिवाद, भाषावाद और प्रदेशवाद के भूत सवार हैं तो हमें इकबाल के संदेश को हृदयंगम करना चाहिए और यही हमारी सामाजिक संस्कृति को सुदृढ़ कर सकता है।

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