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			 आलोचना >> निराला साहित्य में प्रतिरोध के स्वर निराला साहित्य में प्रतिरोध के स्वरविवेक निराला
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यह पुस्तक भारतीय आधुनिक साहित्य की शोषणविरोधी परंपरा को बढ़ाने में निराला के योग को बेहतरीन ढंग से रेखांकित करती है
प्रस्तुत पुस्तक प्रतिरोध की संस्कृति के ऐतिहासिक विकासक्रम में निराला की प्रतिरोधी चेतना को उनके समग्र रचनात्मक जगत में चिन्हित करती है। कहना न होगा कि निराला के साहित्य की गहरी समझ और साफ-सुथरी वैचारिकी के नाते अनायास ही यह किताब रामविलास जी का स्मरण कराती है। रामविलास जी के प्रभाव के बतौर हम देखते हैं कि यह किताब, जीवन-संघर्ष और रचना दोनों के जटिल अंतर्द्वद्वों रिश्तों को समझते हुए आगे बढ़ती है। निराला की कविताओं पर काफी काम हुए हैं पर विवेक यहां निराला के कविता-संसार में अन्य पहलुओं के साथ ही दलित और स्त्री अस्मिताओं की महत्वपूर्ण शिनाख्त भी करते हैं। कथा-साहित्य में निराला के उपन्यासों उघैर कहानियों में यथार्थवाद की गहरी समझ को चिन्हित करते हुए विवेक, निराला के गहन समयबोध को निराला के ही शब्दों में रेखांकित करते हैं- ''...यह लड़ाई जनता की लड़ाई है और फासिज्म के खिलाफ विजय पाना हमारे और विश्व के कल्याण के लिए जरूरी है। '' निराला की यह चिन्ता आज हमारे लिए और अधिक प्रासंगिक हो जाती है जब विकास और धर्मान्धता साथ-साथ फल-फूल रहे हैं और फासीवादी खतरा एकदम आसन्न है। निराला के शोषण-विरोधी चिंतन पर लिखा गया अंश किताब का बेहतरीन हिस्सा है। विवेक इस हिस्से में निराला के कम चर्चित पर बेहद महत्वपूर्ण लेखों के सहारे उनकी निःशंक साम्राज्यवाद-विरोधी, सामंतवाद-विरोधी दृष्टि पर प्रकाश डालते हैं। अपने समकाल की राजनैतिक हलचलों, वैश्विक स्थितियों और उपनिवेशवादी शासन की गहरी समझ निराला के चिंतनपरक लेखों में मौजूद है। विवेक ने इस पुस्तक में निराला की रचनाओं के नये अस्मिता केंद्रित पाठ पर सवालिया निशान लगाते हुए निराला को उद्धृत किया है- ' 'तोड़कर फेंक दीजिए जनेउ जिसकी आज कोई उपयोगिता नहीं। जो बड़प्पन का भ्रम पैदा करता है और सम स्वर से कहिए कि आप उतनी ही मर्यादा रखते हैं जितना आपका नीच से नीच पड़ोसी चमार या भंगी रखता है।''
यह पुस्तक भारतीय आधुनिक साहित्य की शोषणविरोधी परंपरा को बढ़ाने में निराला के योग को बेहतरीन ढंग से रेखांकित करती है। इसे पढ़ना एक विचारोत्तेजक अनुभव से गुजरना है।
			
						
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