सामाजिक >> नटरंग नटरंगआनन्द यादव
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जाति-व्यवस्था के निचले छोर पर जी रहे ग्रामीण युवक की त्रासदी
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इसमें एक ऐसे ग्रामीण युवक की त्रासदी है जो जाति-व्यवस्था के निचले छोर
पर भयावह दरिद्रता का जीवन जी रहा है,आपेक्ष और आन्तरिक पीड़ा को सहने की
सामर्थ्य को छोड़कर जिसके पास अपना कहने को कुछ भी नहीं है,फिर भी
संस्कारागत ऊर्जा के कारण उसके भीतर अपनी कलात्मक सर्जना के लिए जिद्दोजहद
है।
नटरंगः कलाकार का संघर्ष
डॉ.आनन्द यादव मराठी के प्रख्यात कथाकार हैं।
उनके उपन्यास
‘गोतावळा’ ने आंचलिक साहित्य में एक मानक स्थापित
किया है।
बाद में ‘नटरंग’ उपन्यास भी काफी चर्चित रहा। बिल्ली
को एक
आदिम नारी-शक्ति का प्रतीक बनाकर लिखा हुआ ‘माऊली’
लघु
उपन्यास भी डॉ.आनन्द यादव की जबर्दस्त निरीक्षण-शक्ति, जीवन को समग्रता
में देखने की जीवन-दृष्टि एवं मानवेतर प्राणियों के प्रति उनकी संलग्नता
का परिचायक है। उसके बाद डॉ.आनन्द यादव ने आत्मकथात्मक उपन्यास की विधा को
गहरे आयाम देते हुए कलात्मकता के शीर्ष बिन्दु तक पहुँचाया
‘झोंबी’ में। इस पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार
भी मिला।
वैसे आनन्द यादव की प्रायः हर पुस्तक पर राज्य शासन या अन्य संस्थाओं
द्वारा पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। ‘झोंबी’ को
साहित्यकारों, समीक्षकों एवं सुधी पाठकों की अभूतपूर्व सराहना मिली।
सामान्य पाठकों ने अक्षरशः सैकड़ों पत्र भेजकर आनन्द यादव के उपन्यास के प्रति अपनी आशंसात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की। उसके बाद ‘नांगरणी’ और ‘घरभिंती’ नामक दो भाग प्रकाशित हुए और चौथा भाग अभी प्रकाशित होने को है। समीक्षकों और सामान्य पाठकों का इस प्रकार का स्वागत बहुत कम कलाकृतियों के हिस्से में आता है। डॉ.आनन्द यादव ने कहानियाँ भी लिखी हैं, ललित निबन्ध भी लिखे हैं और कविताएँ भी। उनकी विशेषता यह है कि अपनी सृजन-प्रक्रिया और कुल साहित्य की सृजन-प्रक्रिया के बारे में वे आरम्भ से सजग रहे हैं और इस विषय पर उनकी एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक भी प्रकाशित हुई है। उनमें प्रतिभा और सजग परिश्रम या व्युत्पन्नता का मणिकांचन योग है। उनका महत्त्वपूर्ण वैशिष्ट्य यह भी है कि उन्होंने मराठी के ग्रामीण साहित्य का विविध दृष्टियों से न केवल गहरा चिन्तन किया है, अपितु ग्रामीण साहित्य के आन्दोलन का नेतृत्व भी किया है। उनके व्यक्तित्व में ग्राम्य जीवन में सहजता से प्राप्त समन्वय का तत्त्व प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। जीवन का खुरदरा यथार्थ उनकी रचनाओं में समाविष्ट होता है लेकिन कलात्मक मूल्यों की अवमानना न करते हुए। उनमें गरीबी के प्रति घृणा अवश्य है परन्तु ईर्ष्या और द्वेष पर उसका महल खड़ा नहीं है। शोषकों की अनेक स्तरीय अमानवीयता की पहचान करुणा के प्रभाव में अमानवीय नहीं होती। जीवन के घोर संघर्ष ने उन्हें जीवन से न निर्वासित किया है न भोग की अतिरेकी लालसा ने उन्हें आत्मकेन्द्रित बनाया है। उनकी समाज—विशेषतः शोषित समाज के प्रति प्रतिबद्धता किसी विशिष्ट दर्शन या जीवन-दृष्टि से परिसीमित नहीं है, न वह दिखावटी नकली और निरे शब्द की अग्नि में पलनेवाली एकांगी है। कहीं जीवन में गहरी आस्था ने उन्हें शोषण, गरीबी, फटेहाली को ऊर्ध्वगामी जीवन की प्रक्रिया में आवश्यक सीढ़ी के रूप में स्वीकार किया है। इससे वे कहीं समझौतापरस्त नहीं हुए हैं, न चरम निराशा से हतोत्साह। अतिवर्षा और अवर्षण से उत्पन्न अकालों का सामना करने वाले किसान की जिजीविषा उनमें विद्यमान है जो पस्तहिम्मती में भी अनाज बोकर नये निर्माण में, सृजन-प्रक्रिया में संलग्न होता है।
नटरंग में आनन्द यादव के लेखकीय व्यक्तित्व के प्रायः सारे उपर्युल्लिखित वैशिष्ट्य शक्तिशाली ढंग से व्यक्त हुए हैं।
‘नटरंग’ एक कलाकार की त्रासदी है परन्तु इस त्रासदी में भी वह भारतीय संस्कारों के अनुसार अपनी कलात्मक सर्जना की जद्दोजहद नहीं छोड़ता। इस जद्दोजहद का स्रोत भारतीय मिथकीय/दार्शनिक संस्कार में निहित है जिसकी चर्चा बाद में करेंगे।
‘नटरंग’ के कलाकार का संघर्ष अनेक स्तरीय है और उसके अनगिनत तनावों का रूप भी व्यामिश्र है।
संघर्ष का एक रूप जीवन की भयावह दरिद्रता और कलात्मक ऊर्जा के बीच के तनावपूर्ण सम्बन्ध में परिलक्षित होता है। दूसरा रूप कलाकार का परिवार और कलाकार के व्यक्तित्व के बीच के संघर्ष में व्यक्त होता है। तीसरा रूप मातंग समाज की जीवन विषयक रूढ़िग्रस्त मान्यताओं और कलाकार की आत्मचेता आकांक्षाओं के बीच प्रकट होता है। चौथे स्तर पर यह संघर्ष कला का उपयोग पेट के लिए करने वाले सहयोगियों और कला के विशुद्ध और निरूद्देश्य रूप के प्रति समर्पित कलाकार के बीच के सम्बन्धों में उजागर होता है। संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण कलात्मक आयाम कलाकार के गहरे मानसिक अन्तर्द्वन्द्व को लेकर भी प्रकट होता है। अपनी खोखली प्रतिष्ठा और मान-अपमान की दो ही धारणाओं के बल पर रोब गाँठने वाले राजनीतिक क्षेत्र में धन के बल पर उभरने वाले संस्कृतिहीन क्रूरधर्मा नवधनाढ्यों के साथ चल रहे संघर्ष ने भी औपन्यासिक अनुभव को एक सामाजिक/राजनीतिक/आर्थिक स्तर दिया है। इन सारे केन्द्रों को समाविष्ट कर एक उच्चतर भूमिका पर ले चलने वाली भारतीय जीवन-दृष्टि ने समस्त अनुभव को एक गरिमा दी है।
वैसे संघर्ष, तनाव, द्वन्द्व के और भी अनेक रूप झिलमिलाते हैं। लेखक का महत्त्वपूर्ण वैशिष्ट्य यह है कि ये सारे तनाव गणितीय पद्धति से या तर्क और बौद्धिकता के आधार पर व्यक्त नहीं होते बल्कि कलात्मक शर्तों का सहज पालन करते हुए महत्त्वपूर्ण जीवनानुभव के अंगों-उपांगों के रूप में प्रकट होते हैं।
आनन्द यादव ने कलाकार के रूप में समाज के सबसे निचले स्तर के मातंग समाज के अत्यधिक दरिद्र युवक को चुना है और स्वाभाविकतः उन्हें उसकी कला के रूप में उनके लिए उपलब्ध ‘तमाशा’ को चुनना पड़ा। ये दोनों चुनाव एक तरह से चुनौतियाँ हैं। कलाकार का व्यक्तित्त्व समाज द्वारा आंशिक रूप में निर्मित हो सकता है परन्तु उसका रूप पैदाइशी ही होता है। जिस समाज में गुना (गुनवन्त) जन्मा है उसमें कलाकार को विकसित करने वाली स्थितियों का प्रायः अभाव है। फिर भी हमारी लोक-कलाएँ न केवल पैदा हुई हैं, टिकी हैं बल्कि विकसित भी हुई हैं। कैसा है यह समाज ? जाति-व्यवस्था के सबसे निचले छोर पर यह आर्थिक अभावों में जैसे-तैसे जी रहा है। शरीर की शक्ति और कष्ट सहने की क्षमता को छोड़ इनके पास कुछ भी नहीं है। इनका परम्परागत पेशा रस्सियाँ बुनना, छींके बनाना इत्यादि अब नये औद्योगीकरण के आक्रमण से बुरी तरह से प्रभावित हुआ है और अपनी अस्मिता और जातिगत प्रतिष्ठा को बनाये रखकर जीना—केवल पेट की आग बुझाते हुए जीना—मुश्किल होता जा रहा है। ‘नटरंग’ के नायक गुनवन्त का पिता इस पतझड़ की अवस्था को प्रतीकित करते हुए दुःख की जुगाली करता हुआ नीम के तले बैठा रहता है। उसकी पत्नी बुढ़ापे में मोतियाबिन्द से अन्धी होकर झोंपड़ी के कोने में बैठकर समय काट रही है और उसकी आँख की रोशनी के लिए दो-ढाई सौ रुपये का इन्तजाम करने में बालू मातंग असमर्थ है। गुनवन्त अकेले खेत पर मजूरी करता है और उसकी आय में किसी प्रकार पांच-छह मुँह कभी-कभार खा सकते हैं। गुनवन्त की पत्नी दारकी फटे वस्त्र पहनकर दिन ढकेल रही है और बच्चे भूख के मारे सूखते जा रहे हैं। दारकी हो या बालू, जीवित रहने की आपाधापी में अपने भावात्मक सम्बन्धों को सँजोने की स्थिति में नहीं है। विलक्षण विवशता में जीने वाले ये लोग कभी हफ्ते में एकाध बार नहाते हैं। सफाई उनके लिए ऐयाशी है। मातंग समाज के दारिद्र्य का चित्र आनन्द यादव ने कुछ ठोस रेखाओं के द्वारा परन्तु प्रभावपूर्ण ढंग से व्यक्त किया है। सुविधा यही है कि लगभग बस्ती के सभी घरों की यह अवस्था है। युवक बेकार हैं कभी चोरी भी करते हैं दारू बेचते हैं पुलिस की मार खाते हैं। उनके लिए दो बार रूखी रोटी मिल जाय तो लगातार कोड़े खाने को भी तैयार हैं।
इस यथार्थ के भयावह रूप में गुनवन्त के जेहन में कला का बीज पड़ा हुआ है जो ऊपर उठने के लिए मिट्टी को पत्थर को फोड़ने वाले अंकुर की तरह उदग्र है। परिवेशगत वास्तविकता और कला-बीज के बीच का तनाव आनन्द यादव ने बड़ी बारीकी से चित्रित किया है। अनेक स्तरों पर गुनवन्त के कलाकार के पृथगात्म व्यक्तित्व को आनन्द यादव ने दर्शाया है। कलाकार अपनी कला के प्रति कुछ ऐसा प्रतिबद्ध होता है कि उसका कला-प्रेम जब कभी अमानुषिक आत्मकेन्द्रितता को छू जाता है। मेले में शामिल होने के लिए गुनवन्त जमीन मालिक के पास पूरे हफ्ते की मजूरी एकमुश्त चाहता है। उसे इस बात की फिक्र नहीं है कि उसका परिवार क्या खाएगा, बाल-बच्चे क्या खाएँगे। वह यहाँ तक कहता है कि बाल-बच्चों के लिए मेला देखने को काफी समय है। वह मेला देखने की आतुर खुमारी में एक तरह के नशे में है। कलाकार कला के आस्वादन के क्षणों में एक तीव्र स्वप्नमयी भूमि में विचरता है। लेखक ने थोड़े से वाक्यों में इसका सशक्त संकेत किया है। ‘‘मन एक जगमगाती दुनिया में जा बसा। वह अपनी सुध भूल गया।...ऐसा लग रहा था जैसे अप्सराएँ धरती पर उतर आयी हों।’’ तमाशा समाप्त होने के बाद जब राजा, रानी, राजकुमारी की दीनता और विवशता प्रकट हुई तो उसका जी भर आया। राजाओं और प्रजाओं जैसे बने मनुष्यों का फिर मनुष्य होना उससे देखा नहीं जा रहा था। एक अजीब धुन्ध में वह अपने गाँव वापस लौटता है।
वह कला की जिस दुनिया में विचरता है उससे उसे नीचे खींचने वाले अनेक प्रसंग है। लौटते समय चाय पिलाने वाला गरीब बच्चा भी तमाशा को लेकर उसे फटकारता है। खास कर नचनियाँ को लेकर। ‘‘नचनियाँ तो कोई नामर्द ही बने।’’ लेकिन गुनवन्त कुछ थोडे से समय के लिए ही क्यों न हो अपनी खुमारी, अपनी कला की मदहोशी से बाहर नहीं आना चाहता। एक दिवा-स्वप्न की अवस्था में वह अपने गाँव लौटता है जहाँ उसे गोबर पाथना है, गन्दगी उठानी है, मोट हाँकनी हैं, शारीरिक काम करने हैं—दो जून रोटी के लिए तमाशा की तन्द्रा में घर लौटकर वह सुसताता है काम पर नहीं जाना चाहता, अकेले बापू के कमरे में घुसकर सो जाता है, नाचने वाली औरतों के साथ अपनी कल्पना में चाय पीता है। कभी बाहर की गन्दगी, पिता के ताने, दारकी की झुँझलाहट, बापू और उसका भैंसा उसे यथार्थ की भूमि पर लाना चाहते हैं, परन्तु वह अपनी अलमस्त दुनिया को छोड़ना नहीं चाहता। इस दुनिया और अपनी दुनिया में अन्तर है। ‘‘इसकी दुनिया न्यारी है, तमाशे की दुनिया भी न्यारी है। बापू की समझ में यह सब क्या आएगा।...सरला श्यामा नाचने लगती है तब वे सरला श्यामा नहीं होतीं, यह उनकी समझ में क्या आएगा ?’’ कला के सिद्धान्तों को जानने की बुद्धि उसके पास नहीं है परन्तु कला-संसार की अलौकिकता का अनुभव उसकी जन्मजात कलात्मक समझ ने उसे दिया है। आनन्द यादव आरम्भ से गुनवन्त के कलाकार की दुनिया की अलौकिकता का भान जागृत रखते हैं।—यह दुनिया अलौकिक भी है और लोक-जीवन से जुड़ी हुई भी। लोक से जुड़ी कला और कला का अन्तिम अलौकिक संसार, इसके बीच के तनावपूर्ण सम्बन्ध को लेखक ने आद्योपान्त ध्यान में रखा है और यथासम्भव उसके संकेत किये हैं।
अपने अन्दर के कला-जीवन को सुरक्षित रखने और उसका विकास करने के प्रयत्न में गुनवन्त अपनी समूची शक्ति लगाता है।
परिवार उसके कलाकार को पनपने नहीं देना चाहता। सामान्य स्त्री की तरह बच्चों को जन्म देकर यथाशक्ति उनका पालन करनेवाली दारकी उसे हर प्रकार से लौकिक जीवन की ओर खींचती हैं। अपने कुल की इज्जत बचाकर रखनेवाला उसका बाप तमाशा में गुनवन्त के जाने का विरोध ही नहीं करता, अन्त में फाँसी लगाकर आत्महत्या भी कर लेता है। बच्चों की अभावग्रस्त जिन्दगी उसे बीच-बीच में पीड़ा भी देती है लेकिन उसका कलाकार का व्यक्तित्व उसके विवेक पर भी इतना हावी हो जाता है कि वह पिता को जान से मार डालने पर आमादा होता है, पत्नी को घर से बाहर निकालने के लिए तैयार है, उसकी गर्भवती अवस्था की मृत्यु-समीपता भी उसे विशेष विचलित नहीं करती, अपने ससुर की धमकियों की वह परवाह नहीं करता। यहाँ तक कि मालिक के प्रस्ताव को वह ठुकरा देता है कि रात को वह उसके लड़के के साथ खेत पर पहरा दे। उसका अहंकार से सम्पृक्त कलाकार कहता है, ‘‘रात-दिन किसी की गुलामी हमें नहीं चाहिए।’’
शून्य से वह तमाशा को साकार करता है। लेखक ने उसके कलाकार के चित्र में अधिक गहराई भरने के लिए उसकी वग बनाने, कथा का विकास करने, लावणी लिखने की प्रक्रिया को बड़ी बारीकी और कौशल से व्यक्त किया है। रचना की प्रक्रिया में आने वाले उत्साह और ऊर्जा के क्षण, पस्तहिम्मती के क्षण, सृजन के विस्फोट के पहले की बेचैनी, सृजन के दौरान अलौकिक सुख और सृजनोत्तर मानसिकता की उत्फुल्लता का बड़ा प्रतीतिपूर्ण रेखांकन किया गया है। अपने रचने के क्षणों को अबाधित रखने की गुनवन्त की कोशिश बड़ी शक्ति के साथ व्यक्त हुई है। कलाकार अपने चरित्रों की मानसिकता को कैसे जीता है, विविध चरित्रों के मन में कैसे पैठता है, अपने अन्दर से ही विभिन्न स्वभाव की मूर्तियों को कैसे बाहर निकालता है, इसका बड़ा प्रभावपूर्ण चित्रण लेखक ने किया है। यह स्वयं लेखक की आन्तरिक सृजन-यात्रा की अन्तर्मुखी दौड़ है। खेतों में, मोट पर बैठते समय, बैलों को हाँकते समय सभी मनःस्थितियाँ कैसे वह स्वयं जी रहा है, इसका कलात्मक दर्शन कराया गया है।
गुनवन्त के सामने केवल एक कलाकार की समस्याएँ नहीं थीं। उसे एक सामूहिक कला का निर्माण करना था और उसके पास घोर दारिद्र्य के सिवा कुछ नहीं था। पैसे इकट्ठे करने से लेकर भूखे पेट पस्तहिम्मत होने वाले सहयोगियों में उत्साह भरने तक सारा काम गुनवन्त को करना पड़ता है। तमाशा के लिए लकड़ियाँ ढूँढ़ने में आये अनुभव भी एक ओर हास्य उत्पन्न करते हैं तो दूसरी ओर उसमें छिपी यथार्थ की कृष्ण छायाएँ मन को झकझोरती हैं। खासकर वर्षा की मार, खेतों में काम और अन्न का अभाव-इन सबके बीच उत्पन्न आशा-निराशा का धूपछाँही खेल बड़ी कुशलता से चित्रित किया गया है। एक ओर कला की सम्मोहक उमंगे और दूसरी ओर अपने और परिवार के लिए शारीरिक परिश्रम करने की मजबूरी के बीच हिल्लोलित तड़फड़ाहट का बहुत प्रभावी चित्रण लेखक ने किया है।
तमाशा के लिए लड़कियाँ ढूँढ़ते समय समूचे मातंगवाड़ी में तमाशा के प्रति जो व्यर्थ की नफरत है उसकी पृष्ठभूमि पर गुनवन्त के प्रयास की अकटोविकटता प्रकट होती है। गुनवन्त अपनी जाति के बद्धमूल संस्कारों से टक्कर ले रहा था और प्रायः जाति इस प्रकार के प्रयास को क्षमा नहीं करती। तमाशा में चार पैसे मिलने पर हुई कुछ समृद्धि से जाति के लोगों में ईर्ष्या और गुस्से का जो भाव पैदा होता है, उसने गुनवन्त के परिवार को लगभग तहस-नहस कर डाला। आनन्द यादव ने गुनवन्त के परिवार का और मातंगवाड़ी के युवाओं एवं दारकी से जलने वाली औरतों का जो हिंसक संघर्ष धीरे-धीरे प्रस्तुत किया है, वह लेखक की मनोवैज्ञानिक पैठ का एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है।
गुनवन्त के सामने एक वैयक्तिक मनोवैज्ञानिक समस्या जो पैदा हुई, वह नचनियों का प्रबन्ध करते समय। सामाजिक रूढ़िग्रस्त मान्यता के परिणामस्वरूप अन्त में गुनवन्त को ही राजा के स्थान पर नचनियाँ होना पड़ता है। नचनियाँ की तजबीज में न केवल सामूहिक मानस की अमानवीयता उभरती है और जो आगे भयावह रूप ग्रहण करती है बल्कि उसमें से कुछ डार्क-ह्यूमर भी पैदा होता है। कला के प्रति समर्पित गुनवन्त भी नचनियाँ बनने के प्रस्ताव से अपनी विशुद्ध कलात्मक भूमिका से नीचे आ जाता है। आनन्द यादव ने इस मातंग के निमित्त गुनवन्त के मानस को बडी सूक्ष्मता से बिलोया है। एक ओर तमाशा, जो उसके जीवन की चरम सार्थकता है, उसको तोड़ने की बात आयी और दूसरी ओर पुरुष में से स्त्री को निकालने की कलात्मक चुनौती भी आयी। (नचनियाँ का काम भी कोई मामूली नहीं है—राजा ही होगा। (अध्याय चौदह) गुनवन्त की नचनियाँ बनने की स्वीकृति उसके अन्दर के असली कलाकार की पूर्ण अभिव्यक्ति थी। इस नशे में वह न दारकी की परवाह करता है न ससुर की धमकियों की। उसे बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है—उसका बाप आत्महत्या करता है। परन्तु यह आगे होने वाली लौकिक दुर्दशा का प्रारम्भ था।
उधर तमाशा साकार होता है, पैसे मिलने लगते हैं, प्रतिष्ठा भी मिलती है। गुनवन्त को परिषद् में नटराज की मूर्ति देकर सम्मानित भी किया जाता है। परन्तु गुनवन्त की असली व्यथा उभरी थी तमाशा के कलाकारों की, सरकार के सामने आत्मसम्मान खोकर भीख माँगने की बढ़ती प्रवृत्ति को देखकर। उसका कलाकार व्यथित होता है, अपमानित अनुभव करता है।
यह कलाकार अपने सहयोगियों से खफा है क्योंकि वे पैसे की सुविधाओं की फिक्र में हैं, कला की अपेक्षा अन्य प्रतिष्ठा की बातों को अधिक महत्त्व देते हैं। गुनवन्त नयना से जुड़ना चाहता है—एक कलाकार के रूप में। लेकिन वहाँ भी उसे घोर निराशा ही मिलती है। वह भी आर्थिक समझौते को महत्त्व देती है, बुढ़ापे का ख्याल करती है। अन्त में वह कहता भी है—‘‘देव किन्नरों की यह कला किसी की समझ में नहीं आयी। मेरी....गंगू मेरे रक्त-मांस में एकरूप होकर रही। मेरी आदिमाया। जग की आदि माता। स्त्रियों की मूल स्त्री मुझमें साकार हुई। स्त्री होकर भी न दारकी समझ सकी, न नयना ही समझ पायी। दारकी को सिर्फ दुनियादारी समझ में आयी। नयना को इतने सालों में नाच भी समझ में नहीं आया। सिर्फ ताल और ठेका नाचती रही। रक्त में पैर ले जाकर उसने नहीं डुबोये। सूखे ही रहे। उसके पैर बिना तन्मयता के ही नाचे। कैसे दिल लगेगा फिर उन पर ?’’ (अध्याय चौदह)। कलाकार जिस रक्त से कला रचता है जिस तन्मयता में डूबता-तिरता है वह है कला की चरम सार्थकता का क्षण। कलाकार गुनवन्त उस स्तर तक पहुँचता है और अपने अन्दर से कला के क्षण की सार्थकता को पहचानता है। नयना केवल कारीगरी की सीमा में रही।
लेकिन इस कलाकार की त्रासदी का क्षण भी यही था। क्योंकि जिनके बीच वह सृजन कर रहा था उनमें कला की न समझ थी, न कद्र।
अन्त में राजनीतिक कार्यकर्ता माने का गुण्डों के द्वारा तमाशा को नष्ट करवाना एक प्रकार से कला विषयक समाज की मूढ़ता का ही परिणाम था। माने की गुण्डागिरी एक तरह से कला के प्रति बधिर समाज का प्रतीकात्मक रूपायन है—केवल वैयक्तिक मान-सम्मान की बात नहीं है।
गुनवन्त के कलाकार पर कला संवेदना से शून्य समाज की छिछली और अश्लील प्रतिक्रिया है। गुनवन्त शारीरिक दृष्टि से ही नहीं टूटता, कलाकार की दृष्टि से भी टूटने के बिन्दु तक आता है। इस टूटन का एक रूप गुनवन्त का पागलपन था। क्या वह पागल हो गया था ? या उसके अन्दर का कलाकार अपनी जिजीविषा का परिचय दे रहा था ? असल में वह जहाँ था, वहाँ समाज की दृष्टि से पागल था लेकिन उसके अन्दर के कलाकार की वह चुनौती थी, कृष्ण त्रासदी की स्वर्ण-रेखा। वह घर से बच्चों और पत्नी द्वारा परित्यक्त है, समाज द्वारा लांछित है, सहयोगियों द्वारा दूर पड़ा है—एक विलक्षण अकेलापन। इस अकेलेपन की दरार में उसके कलाकार का कोई साथी नहीं होता। उसे अपनी समस्याओं से अकेले ही लड़ना पडता है। हार और जीत का कोई महत्त्व नहीं है।
आनन्द यादव ने मातंगवाड़ी की हालत को देखा भी है और शायद किसी न किसी रूप में भोगा भी है। इसी कारण सारे हालात विश्वसनीयता का परिणाम लेकर व्यक्त हुए हैं। प्रसंगों को चित्रवत् आकार देने की और उन्हें सरस बनाने की लेखक की क्षमता विलक्षण है। करुण प्रसंगों के साथ विनोदपूर्ण, हास्यपरक प्रसंगों की निर्मिति की क्षमता उनके पास है। हास्य में अश्लील संकेत हैं जो तमाशाई जीवन का अविभाज्य भाग है। हास्य में निष्कलुषता है और कृष्ण रंग का विनोद भी। अभावों की जिन्दगी में हँसने की कला मातंगवाड़ी के युवक जानते हैं। तमाशा के रूप पर लेखक की पकड़ अच्छी है जिसके कारण पूरा औपन्यासिक माहौल जीवन्त हो उठा है। मनोवैज्ञानिक स्पर्श की क्षमता भी है। गँवई गाँव की भाषा की स्वाभाविक चित्रमयता, नाद-सौन्दर्य, प्रभविष्णुता के कारण पूरा परिवेश जीवन्त हो उठता है। पार्वती परमेश्वर के आदिम अद्वैत सम्बन्धों को आन्तरिक प्रतीति से जानने की ताकत भी उसमें है। इसीलिए यह रचना केवल तमाशाई जीवन तक या कलाकार की त्रासदी तक सीमित नहीं रहती, कही अधिक गहरे स्पर्श करती है। यह स्पर्श मिथकीय सामर्थ्य का है। एक मूल्यवान और समृद्ध जीवनानुभव पाठक के आँचल में सहजता से आ जाता है।
सामान्य पाठकों ने अक्षरशः सैकड़ों पत्र भेजकर आनन्द यादव के उपन्यास के प्रति अपनी आशंसात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की। उसके बाद ‘नांगरणी’ और ‘घरभिंती’ नामक दो भाग प्रकाशित हुए और चौथा भाग अभी प्रकाशित होने को है। समीक्षकों और सामान्य पाठकों का इस प्रकार का स्वागत बहुत कम कलाकृतियों के हिस्से में आता है। डॉ.आनन्द यादव ने कहानियाँ भी लिखी हैं, ललित निबन्ध भी लिखे हैं और कविताएँ भी। उनकी विशेषता यह है कि अपनी सृजन-प्रक्रिया और कुल साहित्य की सृजन-प्रक्रिया के बारे में वे आरम्भ से सजग रहे हैं और इस विषय पर उनकी एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक भी प्रकाशित हुई है। उनमें प्रतिभा और सजग परिश्रम या व्युत्पन्नता का मणिकांचन योग है। उनका महत्त्वपूर्ण वैशिष्ट्य यह भी है कि उन्होंने मराठी के ग्रामीण साहित्य का विविध दृष्टियों से न केवल गहरा चिन्तन किया है, अपितु ग्रामीण साहित्य के आन्दोलन का नेतृत्व भी किया है। उनके व्यक्तित्व में ग्राम्य जीवन में सहजता से प्राप्त समन्वय का तत्त्व प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। जीवन का खुरदरा यथार्थ उनकी रचनाओं में समाविष्ट होता है लेकिन कलात्मक मूल्यों की अवमानना न करते हुए। उनमें गरीबी के प्रति घृणा अवश्य है परन्तु ईर्ष्या और द्वेष पर उसका महल खड़ा नहीं है। शोषकों की अनेक स्तरीय अमानवीयता की पहचान करुणा के प्रभाव में अमानवीय नहीं होती। जीवन के घोर संघर्ष ने उन्हें जीवन से न निर्वासित किया है न भोग की अतिरेकी लालसा ने उन्हें आत्मकेन्द्रित बनाया है। उनकी समाज—विशेषतः शोषित समाज के प्रति प्रतिबद्धता किसी विशिष्ट दर्शन या जीवन-दृष्टि से परिसीमित नहीं है, न वह दिखावटी नकली और निरे शब्द की अग्नि में पलनेवाली एकांगी है। कहीं जीवन में गहरी आस्था ने उन्हें शोषण, गरीबी, फटेहाली को ऊर्ध्वगामी जीवन की प्रक्रिया में आवश्यक सीढ़ी के रूप में स्वीकार किया है। इससे वे कहीं समझौतापरस्त नहीं हुए हैं, न चरम निराशा से हतोत्साह। अतिवर्षा और अवर्षण से उत्पन्न अकालों का सामना करने वाले किसान की जिजीविषा उनमें विद्यमान है जो पस्तहिम्मती में भी अनाज बोकर नये निर्माण में, सृजन-प्रक्रिया में संलग्न होता है।
नटरंग में आनन्द यादव के लेखकीय व्यक्तित्व के प्रायः सारे उपर्युल्लिखित वैशिष्ट्य शक्तिशाली ढंग से व्यक्त हुए हैं।
‘नटरंग’ एक कलाकार की त्रासदी है परन्तु इस त्रासदी में भी वह भारतीय संस्कारों के अनुसार अपनी कलात्मक सर्जना की जद्दोजहद नहीं छोड़ता। इस जद्दोजहद का स्रोत भारतीय मिथकीय/दार्शनिक संस्कार में निहित है जिसकी चर्चा बाद में करेंगे।
‘नटरंग’ के कलाकार का संघर्ष अनेक स्तरीय है और उसके अनगिनत तनावों का रूप भी व्यामिश्र है।
संघर्ष का एक रूप जीवन की भयावह दरिद्रता और कलात्मक ऊर्जा के बीच के तनावपूर्ण सम्बन्ध में परिलक्षित होता है। दूसरा रूप कलाकार का परिवार और कलाकार के व्यक्तित्व के बीच के संघर्ष में व्यक्त होता है। तीसरा रूप मातंग समाज की जीवन विषयक रूढ़िग्रस्त मान्यताओं और कलाकार की आत्मचेता आकांक्षाओं के बीच प्रकट होता है। चौथे स्तर पर यह संघर्ष कला का उपयोग पेट के लिए करने वाले सहयोगियों और कला के विशुद्ध और निरूद्देश्य रूप के प्रति समर्पित कलाकार के बीच के सम्बन्धों में उजागर होता है। संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण कलात्मक आयाम कलाकार के गहरे मानसिक अन्तर्द्वन्द्व को लेकर भी प्रकट होता है। अपनी खोखली प्रतिष्ठा और मान-अपमान की दो ही धारणाओं के बल पर रोब गाँठने वाले राजनीतिक क्षेत्र में धन के बल पर उभरने वाले संस्कृतिहीन क्रूरधर्मा नवधनाढ्यों के साथ चल रहे संघर्ष ने भी औपन्यासिक अनुभव को एक सामाजिक/राजनीतिक/आर्थिक स्तर दिया है। इन सारे केन्द्रों को समाविष्ट कर एक उच्चतर भूमिका पर ले चलने वाली भारतीय जीवन-दृष्टि ने समस्त अनुभव को एक गरिमा दी है।
वैसे संघर्ष, तनाव, द्वन्द्व के और भी अनेक रूप झिलमिलाते हैं। लेखक का महत्त्वपूर्ण वैशिष्ट्य यह है कि ये सारे तनाव गणितीय पद्धति से या तर्क और बौद्धिकता के आधार पर व्यक्त नहीं होते बल्कि कलात्मक शर्तों का सहज पालन करते हुए महत्त्वपूर्ण जीवनानुभव के अंगों-उपांगों के रूप में प्रकट होते हैं।
आनन्द यादव ने कलाकार के रूप में समाज के सबसे निचले स्तर के मातंग समाज के अत्यधिक दरिद्र युवक को चुना है और स्वाभाविकतः उन्हें उसकी कला के रूप में उनके लिए उपलब्ध ‘तमाशा’ को चुनना पड़ा। ये दोनों चुनाव एक तरह से चुनौतियाँ हैं। कलाकार का व्यक्तित्त्व समाज द्वारा आंशिक रूप में निर्मित हो सकता है परन्तु उसका रूप पैदाइशी ही होता है। जिस समाज में गुना (गुनवन्त) जन्मा है उसमें कलाकार को विकसित करने वाली स्थितियों का प्रायः अभाव है। फिर भी हमारी लोक-कलाएँ न केवल पैदा हुई हैं, टिकी हैं बल्कि विकसित भी हुई हैं। कैसा है यह समाज ? जाति-व्यवस्था के सबसे निचले छोर पर यह आर्थिक अभावों में जैसे-तैसे जी रहा है। शरीर की शक्ति और कष्ट सहने की क्षमता को छोड़ इनके पास कुछ भी नहीं है। इनका परम्परागत पेशा रस्सियाँ बुनना, छींके बनाना इत्यादि अब नये औद्योगीकरण के आक्रमण से बुरी तरह से प्रभावित हुआ है और अपनी अस्मिता और जातिगत प्रतिष्ठा को बनाये रखकर जीना—केवल पेट की आग बुझाते हुए जीना—मुश्किल होता जा रहा है। ‘नटरंग’ के नायक गुनवन्त का पिता इस पतझड़ की अवस्था को प्रतीकित करते हुए दुःख की जुगाली करता हुआ नीम के तले बैठा रहता है। उसकी पत्नी बुढ़ापे में मोतियाबिन्द से अन्धी होकर झोंपड़ी के कोने में बैठकर समय काट रही है और उसकी आँख की रोशनी के लिए दो-ढाई सौ रुपये का इन्तजाम करने में बालू मातंग असमर्थ है। गुनवन्त अकेले खेत पर मजूरी करता है और उसकी आय में किसी प्रकार पांच-छह मुँह कभी-कभार खा सकते हैं। गुनवन्त की पत्नी दारकी फटे वस्त्र पहनकर दिन ढकेल रही है और बच्चे भूख के मारे सूखते जा रहे हैं। दारकी हो या बालू, जीवित रहने की आपाधापी में अपने भावात्मक सम्बन्धों को सँजोने की स्थिति में नहीं है। विलक्षण विवशता में जीने वाले ये लोग कभी हफ्ते में एकाध बार नहाते हैं। सफाई उनके लिए ऐयाशी है। मातंग समाज के दारिद्र्य का चित्र आनन्द यादव ने कुछ ठोस रेखाओं के द्वारा परन्तु प्रभावपूर्ण ढंग से व्यक्त किया है। सुविधा यही है कि लगभग बस्ती के सभी घरों की यह अवस्था है। युवक बेकार हैं कभी चोरी भी करते हैं दारू बेचते हैं पुलिस की मार खाते हैं। उनके लिए दो बार रूखी रोटी मिल जाय तो लगातार कोड़े खाने को भी तैयार हैं।
इस यथार्थ के भयावह रूप में गुनवन्त के जेहन में कला का बीज पड़ा हुआ है जो ऊपर उठने के लिए मिट्टी को पत्थर को फोड़ने वाले अंकुर की तरह उदग्र है। परिवेशगत वास्तविकता और कला-बीज के बीच का तनाव आनन्द यादव ने बड़ी बारीकी से चित्रित किया है। अनेक स्तरों पर गुनवन्त के कलाकार के पृथगात्म व्यक्तित्व को आनन्द यादव ने दर्शाया है। कलाकार अपनी कला के प्रति कुछ ऐसा प्रतिबद्ध होता है कि उसका कला-प्रेम जब कभी अमानुषिक आत्मकेन्द्रितता को छू जाता है। मेले में शामिल होने के लिए गुनवन्त जमीन मालिक के पास पूरे हफ्ते की मजूरी एकमुश्त चाहता है। उसे इस बात की फिक्र नहीं है कि उसका परिवार क्या खाएगा, बाल-बच्चे क्या खाएँगे। वह यहाँ तक कहता है कि बाल-बच्चों के लिए मेला देखने को काफी समय है। वह मेला देखने की आतुर खुमारी में एक तरह के नशे में है। कलाकार कला के आस्वादन के क्षणों में एक तीव्र स्वप्नमयी भूमि में विचरता है। लेखक ने थोड़े से वाक्यों में इसका सशक्त संकेत किया है। ‘‘मन एक जगमगाती दुनिया में जा बसा। वह अपनी सुध भूल गया।...ऐसा लग रहा था जैसे अप्सराएँ धरती पर उतर आयी हों।’’ तमाशा समाप्त होने के बाद जब राजा, रानी, राजकुमारी की दीनता और विवशता प्रकट हुई तो उसका जी भर आया। राजाओं और प्रजाओं जैसे बने मनुष्यों का फिर मनुष्य होना उससे देखा नहीं जा रहा था। एक अजीब धुन्ध में वह अपने गाँव वापस लौटता है।
वह कला की जिस दुनिया में विचरता है उससे उसे नीचे खींचने वाले अनेक प्रसंग है। लौटते समय चाय पिलाने वाला गरीब बच्चा भी तमाशा को लेकर उसे फटकारता है। खास कर नचनियाँ को लेकर। ‘‘नचनियाँ तो कोई नामर्द ही बने।’’ लेकिन गुनवन्त कुछ थोडे से समय के लिए ही क्यों न हो अपनी खुमारी, अपनी कला की मदहोशी से बाहर नहीं आना चाहता। एक दिवा-स्वप्न की अवस्था में वह अपने गाँव लौटता है जहाँ उसे गोबर पाथना है, गन्दगी उठानी है, मोट हाँकनी हैं, शारीरिक काम करने हैं—दो जून रोटी के लिए तमाशा की तन्द्रा में घर लौटकर वह सुसताता है काम पर नहीं जाना चाहता, अकेले बापू के कमरे में घुसकर सो जाता है, नाचने वाली औरतों के साथ अपनी कल्पना में चाय पीता है। कभी बाहर की गन्दगी, पिता के ताने, दारकी की झुँझलाहट, बापू और उसका भैंसा उसे यथार्थ की भूमि पर लाना चाहते हैं, परन्तु वह अपनी अलमस्त दुनिया को छोड़ना नहीं चाहता। इस दुनिया और अपनी दुनिया में अन्तर है। ‘‘इसकी दुनिया न्यारी है, तमाशे की दुनिया भी न्यारी है। बापू की समझ में यह सब क्या आएगा।...सरला श्यामा नाचने लगती है तब वे सरला श्यामा नहीं होतीं, यह उनकी समझ में क्या आएगा ?’’ कला के सिद्धान्तों को जानने की बुद्धि उसके पास नहीं है परन्तु कला-संसार की अलौकिकता का अनुभव उसकी जन्मजात कलात्मक समझ ने उसे दिया है। आनन्द यादव आरम्भ से गुनवन्त के कलाकार की दुनिया की अलौकिकता का भान जागृत रखते हैं।—यह दुनिया अलौकिक भी है और लोक-जीवन से जुड़ी हुई भी। लोक से जुड़ी कला और कला का अन्तिम अलौकिक संसार, इसके बीच के तनावपूर्ण सम्बन्ध को लेखक ने आद्योपान्त ध्यान में रखा है और यथासम्भव उसके संकेत किये हैं।
अपने अन्दर के कला-जीवन को सुरक्षित रखने और उसका विकास करने के प्रयत्न में गुनवन्त अपनी समूची शक्ति लगाता है।
परिवार उसके कलाकार को पनपने नहीं देना चाहता। सामान्य स्त्री की तरह बच्चों को जन्म देकर यथाशक्ति उनका पालन करनेवाली दारकी उसे हर प्रकार से लौकिक जीवन की ओर खींचती हैं। अपने कुल की इज्जत बचाकर रखनेवाला उसका बाप तमाशा में गुनवन्त के जाने का विरोध ही नहीं करता, अन्त में फाँसी लगाकर आत्महत्या भी कर लेता है। बच्चों की अभावग्रस्त जिन्दगी उसे बीच-बीच में पीड़ा भी देती है लेकिन उसका कलाकार का व्यक्तित्व उसके विवेक पर भी इतना हावी हो जाता है कि वह पिता को जान से मार डालने पर आमादा होता है, पत्नी को घर से बाहर निकालने के लिए तैयार है, उसकी गर्भवती अवस्था की मृत्यु-समीपता भी उसे विशेष विचलित नहीं करती, अपने ससुर की धमकियों की वह परवाह नहीं करता। यहाँ तक कि मालिक के प्रस्ताव को वह ठुकरा देता है कि रात को वह उसके लड़के के साथ खेत पर पहरा दे। उसका अहंकार से सम्पृक्त कलाकार कहता है, ‘‘रात-दिन किसी की गुलामी हमें नहीं चाहिए।’’
शून्य से वह तमाशा को साकार करता है। लेखक ने उसके कलाकार के चित्र में अधिक गहराई भरने के लिए उसकी वग बनाने, कथा का विकास करने, लावणी लिखने की प्रक्रिया को बड़ी बारीकी और कौशल से व्यक्त किया है। रचना की प्रक्रिया में आने वाले उत्साह और ऊर्जा के क्षण, पस्तहिम्मती के क्षण, सृजन के विस्फोट के पहले की बेचैनी, सृजन के दौरान अलौकिक सुख और सृजनोत्तर मानसिकता की उत्फुल्लता का बड़ा प्रतीतिपूर्ण रेखांकन किया गया है। अपने रचने के क्षणों को अबाधित रखने की गुनवन्त की कोशिश बड़ी शक्ति के साथ व्यक्त हुई है। कलाकार अपने चरित्रों की मानसिकता को कैसे जीता है, विविध चरित्रों के मन में कैसे पैठता है, अपने अन्दर से ही विभिन्न स्वभाव की मूर्तियों को कैसे बाहर निकालता है, इसका बड़ा प्रभावपूर्ण चित्रण लेखक ने किया है। यह स्वयं लेखक की आन्तरिक सृजन-यात्रा की अन्तर्मुखी दौड़ है। खेतों में, मोट पर बैठते समय, बैलों को हाँकते समय सभी मनःस्थितियाँ कैसे वह स्वयं जी रहा है, इसका कलात्मक दर्शन कराया गया है।
गुनवन्त के सामने केवल एक कलाकार की समस्याएँ नहीं थीं। उसे एक सामूहिक कला का निर्माण करना था और उसके पास घोर दारिद्र्य के सिवा कुछ नहीं था। पैसे इकट्ठे करने से लेकर भूखे पेट पस्तहिम्मत होने वाले सहयोगियों में उत्साह भरने तक सारा काम गुनवन्त को करना पड़ता है। तमाशा के लिए लकड़ियाँ ढूँढ़ने में आये अनुभव भी एक ओर हास्य उत्पन्न करते हैं तो दूसरी ओर उसमें छिपी यथार्थ की कृष्ण छायाएँ मन को झकझोरती हैं। खासकर वर्षा की मार, खेतों में काम और अन्न का अभाव-इन सबके बीच उत्पन्न आशा-निराशा का धूपछाँही खेल बड़ी कुशलता से चित्रित किया गया है। एक ओर कला की सम्मोहक उमंगे और दूसरी ओर अपने और परिवार के लिए शारीरिक परिश्रम करने की मजबूरी के बीच हिल्लोलित तड़फड़ाहट का बहुत प्रभावी चित्रण लेखक ने किया है।
तमाशा के लिए लड़कियाँ ढूँढ़ते समय समूचे मातंगवाड़ी में तमाशा के प्रति जो व्यर्थ की नफरत है उसकी पृष्ठभूमि पर गुनवन्त के प्रयास की अकटोविकटता प्रकट होती है। गुनवन्त अपनी जाति के बद्धमूल संस्कारों से टक्कर ले रहा था और प्रायः जाति इस प्रकार के प्रयास को क्षमा नहीं करती। तमाशा में चार पैसे मिलने पर हुई कुछ समृद्धि से जाति के लोगों में ईर्ष्या और गुस्से का जो भाव पैदा होता है, उसने गुनवन्त के परिवार को लगभग तहस-नहस कर डाला। आनन्द यादव ने गुनवन्त के परिवार का और मातंगवाड़ी के युवाओं एवं दारकी से जलने वाली औरतों का जो हिंसक संघर्ष धीरे-धीरे प्रस्तुत किया है, वह लेखक की मनोवैज्ञानिक पैठ का एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है।
गुनवन्त के सामने एक वैयक्तिक मनोवैज्ञानिक समस्या जो पैदा हुई, वह नचनियों का प्रबन्ध करते समय। सामाजिक रूढ़िग्रस्त मान्यता के परिणामस्वरूप अन्त में गुनवन्त को ही राजा के स्थान पर नचनियाँ होना पड़ता है। नचनियाँ की तजबीज में न केवल सामूहिक मानस की अमानवीयता उभरती है और जो आगे भयावह रूप ग्रहण करती है बल्कि उसमें से कुछ डार्क-ह्यूमर भी पैदा होता है। कला के प्रति समर्पित गुनवन्त भी नचनियाँ बनने के प्रस्ताव से अपनी विशुद्ध कलात्मक भूमिका से नीचे आ जाता है। आनन्द यादव ने इस मातंग के निमित्त गुनवन्त के मानस को बडी सूक्ष्मता से बिलोया है। एक ओर तमाशा, जो उसके जीवन की चरम सार्थकता है, उसको तोड़ने की बात आयी और दूसरी ओर पुरुष में से स्त्री को निकालने की कलात्मक चुनौती भी आयी। (नचनियाँ का काम भी कोई मामूली नहीं है—राजा ही होगा। (अध्याय चौदह) गुनवन्त की नचनियाँ बनने की स्वीकृति उसके अन्दर के असली कलाकार की पूर्ण अभिव्यक्ति थी। इस नशे में वह न दारकी की परवाह करता है न ससुर की धमकियों की। उसे बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है—उसका बाप आत्महत्या करता है। परन्तु यह आगे होने वाली लौकिक दुर्दशा का प्रारम्भ था।
उधर तमाशा साकार होता है, पैसे मिलने लगते हैं, प्रतिष्ठा भी मिलती है। गुनवन्त को परिषद् में नटराज की मूर्ति देकर सम्मानित भी किया जाता है। परन्तु गुनवन्त की असली व्यथा उभरी थी तमाशा के कलाकारों की, सरकार के सामने आत्मसम्मान खोकर भीख माँगने की बढ़ती प्रवृत्ति को देखकर। उसका कलाकार व्यथित होता है, अपमानित अनुभव करता है।
यह कलाकार अपने सहयोगियों से खफा है क्योंकि वे पैसे की सुविधाओं की फिक्र में हैं, कला की अपेक्षा अन्य प्रतिष्ठा की बातों को अधिक महत्त्व देते हैं। गुनवन्त नयना से जुड़ना चाहता है—एक कलाकार के रूप में। लेकिन वहाँ भी उसे घोर निराशा ही मिलती है। वह भी आर्थिक समझौते को महत्त्व देती है, बुढ़ापे का ख्याल करती है। अन्त में वह कहता भी है—‘‘देव किन्नरों की यह कला किसी की समझ में नहीं आयी। मेरी....गंगू मेरे रक्त-मांस में एकरूप होकर रही। मेरी आदिमाया। जग की आदि माता। स्त्रियों की मूल स्त्री मुझमें साकार हुई। स्त्री होकर भी न दारकी समझ सकी, न नयना ही समझ पायी। दारकी को सिर्फ दुनियादारी समझ में आयी। नयना को इतने सालों में नाच भी समझ में नहीं आया। सिर्फ ताल और ठेका नाचती रही। रक्त में पैर ले जाकर उसने नहीं डुबोये। सूखे ही रहे। उसके पैर बिना तन्मयता के ही नाचे। कैसे दिल लगेगा फिर उन पर ?’’ (अध्याय चौदह)। कलाकार जिस रक्त से कला रचता है जिस तन्मयता में डूबता-तिरता है वह है कला की चरम सार्थकता का क्षण। कलाकार गुनवन्त उस स्तर तक पहुँचता है और अपने अन्दर से कला के क्षण की सार्थकता को पहचानता है। नयना केवल कारीगरी की सीमा में रही।
लेकिन इस कलाकार की त्रासदी का क्षण भी यही था। क्योंकि जिनके बीच वह सृजन कर रहा था उनमें कला की न समझ थी, न कद्र।
अन्त में राजनीतिक कार्यकर्ता माने का गुण्डों के द्वारा तमाशा को नष्ट करवाना एक प्रकार से कला विषयक समाज की मूढ़ता का ही परिणाम था। माने की गुण्डागिरी एक तरह से कला के प्रति बधिर समाज का प्रतीकात्मक रूपायन है—केवल वैयक्तिक मान-सम्मान की बात नहीं है।
गुनवन्त के कलाकार पर कला संवेदना से शून्य समाज की छिछली और अश्लील प्रतिक्रिया है। गुनवन्त शारीरिक दृष्टि से ही नहीं टूटता, कलाकार की दृष्टि से भी टूटने के बिन्दु तक आता है। इस टूटन का एक रूप गुनवन्त का पागलपन था। क्या वह पागल हो गया था ? या उसके अन्दर का कलाकार अपनी जिजीविषा का परिचय दे रहा था ? असल में वह जहाँ था, वहाँ समाज की दृष्टि से पागल था लेकिन उसके अन्दर के कलाकार की वह चुनौती थी, कृष्ण त्रासदी की स्वर्ण-रेखा। वह घर से बच्चों और पत्नी द्वारा परित्यक्त है, समाज द्वारा लांछित है, सहयोगियों द्वारा दूर पड़ा है—एक विलक्षण अकेलापन। इस अकेलेपन की दरार में उसके कलाकार का कोई साथी नहीं होता। उसे अपनी समस्याओं से अकेले ही लड़ना पडता है। हार और जीत का कोई महत्त्व नहीं है।
आनन्द यादव ने मातंगवाड़ी की हालत को देखा भी है और शायद किसी न किसी रूप में भोगा भी है। इसी कारण सारे हालात विश्वसनीयता का परिणाम लेकर व्यक्त हुए हैं। प्रसंगों को चित्रवत् आकार देने की और उन्हें सरस बनाने की लेखक की क्षमता विलक्षण है। करुण प्रसंगों के साथ विनोदपूर्ण, हास्यपरक प्रसंगों की निर्मिति की क्षमता उनके पास है। हास्य में अश्लील संकेत हैं जो तमाशाई जीवन का अविभाज्य भाग है। हास्य में निष्कलुषता है और कृष्ण रंग का विनोद भी। अभावों की जिन्दगी में हँसने की कला मातंगवाड़ी के युवक जानते हैं। तमाशा के रूप पर लेखक की पकड़ अच्छी है जिसके कारण पूरा औपन्यासिक माहौल जीवन्त हो उठा है। मनोवैज्ञानिक स्पर्श की क्षमता भी है। गँवई गाँव की भाषा की स्वाभाविक चित्रमयता, नाद-सौन्दर्य, प्रभविष्णुता के कारण पूरा परिवेश जीवन्त हो उठता है। पार्वती परमेश्वर के आदिम अद्वैत सम्बन्धों को आन्तरिक प्रतीति से जानने की ताकत भी उसमें है। इसीलिए यह रचना केवल तमाशाई जीवन तक या कलाकार की त्रासदी तक सीमित नहीं रहती, कही अधिक गहरे स्पर्श करती है। यह स्पर्श मिथकीय सामर्थ्य का है। एक मूल्यवान और समृद्ध जीवनानुभव पाठक के आँचल में सहजता से आ जाता है।
भाग-एक
मोट खुलने पर वह सरसराते गन्ने के खेत की ओर
देखते हुए
रोटी खाने लगा। फिर अकेले ही गन्ने के खेत में गुनगुनाते हुए एक पाँती से
गन्ने के पत्ते निकाले, उसके गट्ठे खोलकर बैलों के आगे डाल दिये। उसी हाथ
से अरगनी पर लटक रहे कपड़ों को नीचे खींचा और बाल्टी लेकर कुएँ पर चला
गया। धूप जोरों पर थी। गरमी के मारे जी ऊब रहा था। गन्ने के खेत में से
पत्ते काटने और निरन्तर बहते पसीने के कारण शरीर जल रहा था। जख्मों में
नमक उतर आया था। फिर भी वह कपड़े धोने बैठ गया। कपड़ों से झाग निकल रहा था
और उसी क्रम से उसकी आँखें तेज होने लगीं। मेले के झूलें, दुकानें,
रंग-बिरंगी भीड़ सभी आँखों में घूमने लगे। कहीं से एक झुला आकर उसे भी
घुमाने लगा। ऊपर नीचे ले जाने लगा। उसी ऊँचाई से दस का बड़ा नोट और दो का
छोटा नोट गाँव की ओर से आता हुआ दिखाई दिया। माँ-बेटी उससे मिलने के लिए
आएँगी। दोनों के पैर बाहर निकल आये हैं...
वह जोर-जोर से कुरता धोने लगा। सफेद झाग उड़कर खुले शरीर पर चवन्नियों-अठन्नियों सा चिपक गया...‘मेरे देश में कुछ कमी नहीं, पेड़-पौधों पर लगते हैं नोट। मेरे मुल्क में आ, चल नारी। तुझे सोने से सजाऊँगा पूरी...।’ वह जोर से गुनगुनाने लगा। कपड़े धोना खत्म हुआ नहीं था कि उसी वक्त बड़े मालिक आ गये। वह नंगे बदन मालिक के सामने खड़ा हो गया। आधी तनख्वाह मालिक ने उसके हाथ पर रख दी।
‘‘बस्स, छह ही रुपये ?’’
‘‘छह रुपये तेरे घर में दे दिये !’’
‘‘आपको बताया नहीं था मैंने कि मुझे पूरे बारह रुपये चाहिए ?
‘‘बूढ़ा भी पखवाड़े के पूरे पैसे माँग रहा था। कह रहा था कि घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं है। फिर मैंने सोचकर छह रुपये उसे दिये और छह रुपये तेरे लिए लेते आया। मेले में ही ये पैसे खर्च करेगा न ? ‘‘.................’’ मैले पाँच के नोट की ओर देखते हुए वह चुप रहा।
‘‘अरे, फिर घर के बाल-बच्चे क्या खाएँगे ?’’
‘‘मेला रोज थोड़े ही आता है मालिक ?’’
‘‘छह रुपये काफी हैं, एक रात के लिए,...तेरे बाल-बच्चे मेला कब देखेंगे ?
‘‘काफी समय है, उनके लिए पूरी जिन्दगी बाकी है अभी !’’
दोनों नोट तह करके उसने बटुए में डाल लिये, निराश हो गया। दोपहर की रोटी खाते वक्त पत्नी सामने ही बैठी थी, परन्तु वह कुछ बोली नहीं। पल भर के लिए उसे गुस्सा आया। उसने निचोड़े हुए कपड़े झटके। खलिहान की काली मिट्टी कपड़ों पर न चिपके इसलिए कपड़े झोपड़ी के सामने की बाड़ पर सूखने के लिए डाल दिये। बहती हवा के अन्दर जाने से कपड़े फड़फड़ाने लगे। उन्हें निहारते वह क्षणभर खड़ा रहा। मन बदला। कुछ हल्का हुआ....जाने दे उसकी माँ को; इतना तो मिला। अभी दुपहर है। घण्टा भर में दुपहर की मोट। मोट दिन डूबने पर खतम। मोट खुलते ही थोड़ी ही देर में रात का चारा काटकर रखना है। रोटी खाने के बाद उसी वक्त सुलकूड़ को चल देना है। दो-ढाई घण्टे का रास्ता है। जल्दी की तो डेढ़ घण्टे में भी पहुँच जाऊँगा।
उसी धुन में शरीर पर दो बाल्टियाँ उड़ेल लीं। कपड़े का साबुन ही लगाकर जोर-जोर से शरीर को मला। बहुत सारा झाग निकलने पर फिर दो बाल्टियाँ पानी सिर पर डालीं। चीकट धुल जाने से ताजा लगने लगा। पसीने की बास चली गयी। मिट्टी और पसीने से बनी परत छूट गयी और मेले जाने लायक जान हल्की हो गयी।
कल ही मेले में जाना था। परन्तु सप्ताह आज पूरा हो रहा था। सप्ताह पूरा होने तक तनख्वाह नहीं मिल सकती। मालिक ने मेले में जाने की उसकी तीव्र इच्छा देखकर उसके हाथ में केवल छह रुपये थमा दिये थे। बारह के बारह दिये होते तो बाद में वह कहता, ‘‘पेट के लिए कुछ नही है।’’ काम के दिनों में भी एकाध दिन मेले में ज्यादा ही गुजारता और यहाँ नागा करता।
दोपहर के विश्राम के समय उसे लगा, आम के नीचे थोड़ी देर के लिए झपकी ले लें। रात को तमाशा देखने जाना होगा। इसलिए आँखें बन्द करके पड़ा रहा। आँखें बन्द थीं, लेकिन अन्दर-ही-अन्दर सारा सुलकूड़ घूमने लगा। वैसे ही पड़ा रहा। थोड़ी देर नींद लेने की कोशिश करने लगा, लेकिन नींद नहीं आ रही थी। इसलिए झोंपड़ी में जाकर बक्से में से पुस्तक लेकर आया और पढ़ते हुए लेट गया। किसी पुराने जगत् में खो गया। कल्पना की दुनिया में रम जाने से उसे अच्छा लगने लगा।
दोपहर की मोट पकड़ी। श्रीपति मोट टेक रहा था। बैलों के पेशाब-जैसा पानी बहुत थोड़ा-थोड़ा आने लगा।...इस तरह कबतक खेत सींचा जाएगा ? वह बेचैन हो गया। दूसरी क्यारी में पानी काटकर वह पुनः मोट के पास आ गया। ‘‘मालिक थके हुए जान पड़ते हो !’’
‘‘थकान कैसी ? कितना सींचना और कितना चलना ?’’
‘‘इधर दो रस्सा, देखो मोट को कितनी तेजी से चलाता हूँ। सुबह बारह क्यारियों को पानी दिया है, उतना ही खेत दोपहर में सींचने के बाद मोट खोल देनी है; मंजूर ?’’
‘‘कभी भी खोल। बारह क्यारियाँ सींच दी गयीं तो काफी है।’’
‘‘दो तो रस्सा। मुझे भी जरा जल्दी जाने के लिए मिलेगा। रात में कहाँ अकेले ही रास्ता नापते सुलकूड़ जाऊँगा।
श्रीपति ने उसे रस्सा थमा दिया और स्वयं खेत की ओर गया। किसी का एक घोड़ा उसी दोपहरी के सन्नाटे में बाड़ों के बीच भागा और उसकी मोट भी तेज हो गयी। बुलन्द आवाज में नवयौवना से सम्बन्धित लावणी का गीत गूँजने लगा। उसका स्फुरण बैलों के शरीर में हुआ, तो उससे बैल हगते-मूतते मुँह से झाग गिराते, जोर से हाँफते और पउदर की धूल उड़ाते हुए मोट की खींचने लगे। मन में तमाशा, बोलियाँ खूब नाच रही थीं।
घण्टा भर दिन रह गया था तब मोट खोल दी, दिन डूबने तक पउदर का गोबर, जानवरों की सार आदि को साफ करना था, बैलों का चारा गॅजहर से निकाल कर, काटकर सुरक्षित जगह पर रख दिया। दिन डूबा तो वह रात की रोटी खाने बैठ गया।
श्रीपति ने गाय का दूध दुहा। चूल्हे पर चाय रख दी। तब तक रोटी खत्म हुई और चाय के लिए कसोरा सामने बढ़ाया।
शाम हो गयी। शरीर पर साफ-सुथरे कपड़े पहन लिये। टोपी की कोर सीधी करता हुआ वह मैदान की ओर रास्ते पर चल पड़ा और अँधेरे में खो गया। मेले में जाते समय मुँडासा-धोती की अपेक्षा पतलून टोपी ही सुविधाजनक होती है। कभी धोती तो कभी पतलून, ऐसी थी उसकी विचित्र आदत। खेत से बाहर आते ही पैरों में ताकत आ गयी। दिन भर बहुत काम किया था। शरीर थक गया था, फिर भी नाक की सीध में रास्ता बनाते हुए, नाले-नालियाँ पार करते हुए दो घण्टे में वह सुलकूड़ पहुँच गया। गैस की बत्तियाँ झाड़ियों के बीच से दिखने लगीं। आकाश और धरती दोनों पर चाँदनी की लुकाछिपी चल रही थी।
वह सीधे मेले में घुस गया। इधर-उधर मुर्गों के पंखों के ढेर लगे हुए थे।...पिछले वर्ष पाँच सौ मुर्गे काटे गये थे। इस साल कितने काटे गये होंगे, किसको पता ? ज्यादा ही होंगे, कम नहीं।
घूमते-घूमते वह तमाशे की ओर जा पहुँचा। अब तक टिकट बेचना शुरु नहीं हुआ था। नाचने वाली औरतें मुँह रंगकर पान खाकर बाहर आकर नहीं बैठी थीं। मन्दिर की ओर जाकर मसोबा के सामने मत्था टेका। हे ईश्वर ! वर्ष में ऐसा एकाध मेला होता रहे और उसमें दो-चार तमाशे भी होते रहें।
एक ओर पत्थरों के चूल्हों पर पतीलों में मुर्गे पक रहे थे। उसकी उग्र गन्ध फैली हुई थी। एक-एक चूल्हे के पास लोगों के झुण्ड बैठे हुए थे। कहीं-कहीं खाने के लिए छोटी-छोटी पाँतें बैठी हुई थीं। उसके मुँह में पानी भर आया। पेट में पड़ा हुआ अन्न भी चलने के कारण अब तक हजम हो गया था। ...उसने सोचा—मुर्गा खाया जाय। जीभ को कुछ चटपटा लगना चाहिए।
इधर-उधर देखा, कोई परिचित नहीं दिख रहा था। एक जगह लोग पत्तलें बिछा रहे थें, वहाँ उसने पूछा—
‘‘क्यों बिरादर, किस गाँव के हो ?’’
‘‘लिंगनूर के, आप कहाँ के ?’’
‘‘हम कागल के।’’
‘‘बैठोगे पाँत में ? खाओगे भगवान का प्रसाद ?’’
‘‘खा लूँगा’’—वह वहीं बैठ गया।
मुँह जल रहा था फिर भी रसा पी लिया, चावल में मिलाकर खाया, फिर नाक का पसीना पोंछते हुए उठ गया।
राम-राम करते हुए मेले में जा घुसा। अभी भी तमाशा शुरू होने में देर थी। फिर बन्दूक लेकर निशाना साधा और दो—तीन गुब्बारे फोड़े। एक घूमती हुई पट्टी पर छुट्टे सिक्के दाँव पर लगाये। चमचमाती चौकोनी टिकलियाँ दस बार लगायीं, तभी एक बार दावँ मिला। झूले, दुकानें, खिलौने, फोटो की दुकान के फोटो देखते हुए समय काटने लगा। बीच में ही याद आयी और उसने ‘दया’ के लिए मोती जैसी मणियों की एक प्लास्टिक की माला खरीदी। राजा के लिए एक रंगीन रबड़ की गेंद खरीदी। एक पूड़ा भर के बताशा और गुलाबी देशी बिस्कुट खरीद लिये। जेब से थैली निकाली और उसमें सब कुछ भर लिया। आँखों के सामने दया और राजा का खिला हुआ चेहरा दिख गया। बटुए में पान और सुपारी भर लीं। कहीं बैठकर पत्थर से सुपारी तोड़ ली। पान खाया।
डफली की आवाज उसके कानों में गूँजी और उसके पैर अपने-आप तमाशा-मंच की ओर मुड़ गये। लाउडस्पीकर की आवाज कानों में पड़ते ही उसका मन उल्लसित हो गया। बाहर आकर बैठी हुई नाचने वाली स्त्रियों को जीभर देखने के बाद उसने हरे रंग का टिकट खरीदा। एक कप चाय पी और अन्दर जाकर एकदम सामने, सब कुछ भूलकर पाल्थी मारकर बैठ गया, मानो खाना खाने बैठा हो।
सामने मण्डप तानकर तमाशे के लिए जगह की गयी थी। गैस-बत्तियाँ टँगी हुई थीं। देसाई के उजड़े बाड़े की नंगी दीवार का आधार लेकर मण्डप बनाया गया था। उसे ऐसा लग रहा था जैसे किसी मन्दिर में आया हो। वन्दना शुरू हुई तो वह हवा में तैरने लगा, मस्त होकर वह गीत सुनने लगा। स्वांग करने वाले की नकलें उसके मन को गुदगुदाने लगीं। स्त्रियों के गीत की नकल करते हुए विदूषक अपनी बेसुरी आवाज में गाता, बीच में ही अपने अश्लील शब्दों को बड़े कौशल से जोड़कर उस गाने का उपहास कर देता। उसके हूबहू हावभाव, उसकी हाजिर-जवाबी पर वह मुग्ध होने लगा। लावणी को कानों में प्राण केन्द्रित करके सुनने लगा....ढोलक की थाप के साथ रात चढ़ रही थी। मन एक जगमगाती दुनिया में जा बसा। वह अपनी सुध भूल गया। तमाशे की ग्वालिन का खुला श्रृंगार मौसी के विनोद के फव्वारे, लावणी का मुकाबला, लावणी गाने वाले स्त्री-पुरुषों का कामुक श्रृंगार डफ-ढोलक की ऊँची आवाज वाली कड़कड़ाहट मदहोश कर देने वाला वातावरण, ऐसा लग रहा था जै
वह जोर-जोर से कुरता धोने लगा। सफेद झाग उड़कर खुले शरीर पर चवन्नियों-अठन्नियों सा चिपक गया...‘मेरे देश में कुछ कमी नहीं, पेड़-पौधों पर लगते हैं नोट। मेरे मुल्क में आ, चल नारी। तुझे सोने से सजाऊँगा पूरी...।’ वह जोर से गुनगुनाने लगा। कपड़े धोना खत्म हुआ नहीं था कि उसी वक्त बड़े मालिक आ गये। वह नंगे बदन मालिक के सामने खड़ा हो गया। आधी तनख्वाह मालिक ने उसके हाथ पर रख दी।
‘‘बस्स, छह ही रुपये ?’’
‘‘छह रुपये तेरे घर में दे दिये !’’
‘‘आपको बताया नहीं था मैंने कि मुझे पूरे बारह रुपये चाहिए ?
‘‘बूढ़ा भी पखवाड़े के पूरे पैसे माँग रहा था। कह रहा था कि घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं है। फिर मैंने सोचकर छह रुपये उसे दिये और छह रुपये तेरे लिए लेते आया। मेले में ही ये पैसे खर्च करेगा न ? ‘‘.................’’ मैले पाँच के नोट की ओर देखते हुए वह चुप रहा।
‘‘अरे, फिर घर के बाल-बच्चे क्या खाएँगे ?’’
‘‘मेला रोज थोड़े ही आता है मालिक ?’’
‘‘छह रुपये काफी हैं, एक रात के लिए,...तेरे बाल-बच्चे मेला कब देखेंगे ?
‘‘काफी समय है, उनके लिए पूरी जिन्दगी बाकी है अभी !’’
दोनों नोट तह करके उसने बटुए में डाल लिये, निराश हो गया। दोपहर की रोटी खाते वक्त पत्नी सामने ही बैठी थी, परन्तु वह कुछ बोली नहीं। पल भर के लिए उसे गुस्सा आया। उसने निचोड़े हुए कपड़े झटके। खलिहान की काली मिट्टी कपड़ों पर न चिपके इसलिए कपड़े झोपड़ी के सामने की बाड़ पर सूखने के लिए डाल दिये। बहती हवा के अन्दर जाने से कपड़े फड़फड़ाने लगे। उन्हें निहारते वह क्षणभर खड़ा रहा। मन बदला। कुछ हल्का हुआ....जाने दे उसकी माँ को; इतना तो मिला। अभी दुपहर है। घण्टा भर में दुपहर की मोट। मोट दिन डूबने पर खतम। मोट खुलते ही थोड़ी ही देर में रात का चारा काटकर रखना है। रोटी खाने के बाद उसी वक्त सुलकूड़ को चल देना है। दो-ढाई घण्टे का रास्ता है। जल्दी की तो डेढ़ घण्टे में भी पहुँच जाऊँगा।
उसी धुन में शरीर पर दो बाल्टियाँ उड़ेल लीं। कपड़े का साबुन ही लगाकर जोर-जोर से शरीर को मला। बहुत सारा झाग निकलने पर फिर दो बाल्टियाँ पानी सिर पर डालीं। चीकट धुल जाने से ताजा लगने लगा। पसीने की बास चली गयी। मिट्टी और पसीने से बनी परत छूट गयी और मेले जाने लायक जान हल्की हो गयी।
कल ही मेले में जाना था। परन्तु सप्ताह आज पूरा हो रहा था। सप्ताह पूरा होने तक तनख्वाह नहीं मिल सकती। मालिक ने मेले में जाने की उसकी तीव्र इच्छा देखकर उसके हाथ में केवल छह रुपये थमा दिये थे। बारह के बारह दिये होते तो बाद में वह कहता, ‘‘पेट के लिए कुछ नही है।’’ काम के दिनों में भी एकाध दिन मेले में ज्यादा ही गुजारता और यहाँ नागा करता।
दोपहर के विश्राम के समय उसे लगा, आम के नीचे थोड़ी देर के लिए झपकी ले लें। रात को तमाशा देखने जाना होगा। इसलिए आँखें बन्द करके पड़ा रहा। आँखें बन्द थीं, लेकिन अन्दर-ही-अन्दर सारा सुलकूड़ घूमने लगा। वैसे ही पड़ा रहा। थोड़ी देर नींद लेने की कोशिश करने लगा, लेकिन नींद नहीं आ रही थी। इसलिए झोंपड़ी में जाकर बक्से में से पुस्तक लेकर आया और पढ़ते हुए लेट गया। किसी पुराने जगत् में खो गया। कल्पना की दुनिया में रम जाने से उसे अच्छा लगने लगा।
दोपहर की मोट पकड़ी। श्रीपति मोट टेक रहा था। बैलों के पेशाब-जैसा पानी बहुत थोड़ा-थोड़ा आने लगा।...इस तरह कबतक खेत सींचा जाएगा ? वह बेचैन हो गया। दूसरी क्यारी में पानी काटकर वह पुनः मोट के पास आ गया। ‘‘मालिक थके हुए जान पड़ते हो !’’
‘‘थकान कैसी ? कितना सींचना और कितना चलना ?’’
‘‘इधर दो रस्सा, देखो मोट को कितनी तेजी से चलाता हूँ। सुबह बारह क्यारियों को पानी दिया है, उतना ही खेत दोपहर में सींचने के बाद मोट खोल देनी है; मंजूर ?’’
‘‘कभी भी खोल। बारह क्यारियाँ सींच दी गयीं तो काफी है।’’
‘‘दो तो रस्सा। मुझे भी जरा जल्दी जाने के लिए मिलेगा। रात में कहाँ अकेले ही रास्ता नापते सुलकूड़ जाऊँगा।
श्रीपति ने उसे रस्सा थमा दिया और स्वयं खेत की ओर गया। किसी का एक घोड़ा उसी दोपहरी के सन्नाटे में बाड़ों के बीच भागा और उसकी मोट भी तेज हो गयी। बुलन्द आवाज में नवयौवना से सम्बन्धित लावणी का गीत गूँजने लगा। उसका स्फुरण बैलों के शरीर में हुआ, तो उससे बैल हगते-मूतते मुँह से झाग गिराते, जोर से हाँफते और पउदर की धूल उड़ाते हुए मोट की खींचने लगे। मन में तमाशा, बोलियाँ खूब नाच रही थीं।
घण्टा भर दिन रह गया था तब मोट खोल दी, दिन डूबने तक पउदर का गोबर, जानवरों की सार आदि को साफ करना था, बैलों का चारा गॅजहर से निकाल कर, काटकर सुरक्षित जगह पर रख दिया। दिन डूबा तो वह रात की रोटी खाने बैठ गया।
श्रीपति ने गाय का दूध दुहा। चूल्हे पर चाय रख दी। तब तक रोटी खत्म हुई और चाय के लिए कसोरा सामने बढ़ाया।
शाम हो गयी। शरीर पर साफ-सुथरे कपड़े पहन लिये। टोपी की कोर सीधी करता हुआ वह मैदान की ओर रास्ते पर चल पड़ा और अँधेरे में खो गया। मेले में जाते समय मुँडासा-धोती की अपेक्षा पतलून टोपी ही सुविधाजनक होती है। कभी धोती तो कभी पतलून, ऐसी थी उसकी विचित्र आदत। खेत से बाहर आते ही पैरों में ताकत आ गयी। दिन भर बहुत काम किया था। शरीर थक गया था, फिर भी नाक की सीध में रास्ता बनाते हुए, नाले-नालियाँ पार करते हुए दो घण्टे में वह सुलकूड़ पहुँच गया। गैस की बत्तियाँ झाड़ियों के बीच से दिखने लगीं। आकाश और धरती दोनों पर चाँदनी की लुकाछिपी चल रही थी।
वह सीधे मेले में घुस गया। इधर-उधर मुर्गों के पंखों के ढेर लगे हुए थे।...पिछले वर्ष पाँच सौ मुर्गे काटे गये थे। इस साल कितने काटे गये होंगे, किसको पता ? ज्यादा ही होंगे, कम नहीं।
घूमते-घूमते वह तमाशे की ओर जा पहुँचा। अब तक टिकट बेचना शुरु नहीं हुआ था। नाचने वाली औरतें मुँह रंगकर पान खाकर बाहर आकर नहीं बैठी थीं। मन्दिर की ओर जाकर मसोबा के सामने मत्था टेका। हे ईश्वर ! वर्ष में ऐसा एकाध मेला होता रहे और उसमें दो-चार तमाशे भी होते रहें।
एक ओर पत्थरों के चूल्हों पर पतीलों में मुर्गे पक रहे थे। उसकी उग्र गन्ध फैली हुई थी। एक-एक चूल्हे के पास लोगों के झुण्ड बैठे हुए थे। कहीं-कहीं खाने के लिए छोटी-छोटी पाँतें बैठी हुई थीं। उसके मुँह में पानी भर आया। पेट में पड़ा हुआ अन्न भी चलने के कारण अब तक हजम हो गया था। ...उसने सोचा—मुर्गा खाया जाय। जीभ को कुछ चटपटा लगना चाहिए।
इधर-उधर देखा, कोई परिचित नहीं दिख रहा था। एक जगह लोग पत्तलें बिछा रहे थें, वहाँ उसने पूछा—
‘‘क्यों बिरादर, किस गाँव के हो ?’’
‘‘लिंगनूर के, आप कहाँ के ?’’
‘‘हम कागल के।’’
‘‘बैठोगे पाँत में ? खाओगे भगवान का प्रसाद ?’’
‘‘खा लूँगा’’—वह वहीं बैठ गया।
मुँह जल रहा था फिर भी रसा पी लिया, चावल में मिलाकर खाया, फिर नाक का पसीना पोंछते हुए उठ गया।
राम-राम करते हुए मेले में जा घुसा। अभी भी तमाशा शुरू होने में देर थी। फिर बन्दूक लेकर निशाना साधा और दो—तीन गुब्बारे फोड़े। एक घूमती हुई पट्टी पर छुट्टे सिक्के दाँव पर लगाये। चमचमाती चौकोनी टिकलियाँ दस बार लगायीं, तभी एक बार दावँ मिला। झूले, दुकानें, खिलौने, फोटो की दुकान के फोटो देखते हुए समय काटने लगा। बीच में ही याद आयी और उसने ‘दया’ के लिए मोती जैसी मणियों की एक प्लास्टिक की माला खरीदी। राजा के लिए एक रंगीन रबड़ की गेंद खरीदी। एक पूड़ा भर के बताशा और गुलाबी देशी बिस्कुट खरीद लिये। जेब से थैली निकाली और उसमें सब कुछ भर लिया। आँखों के सामने दया और राजा का खिला हुआ चेहरा दिख गया। बटुए में पान और सुपारी भर लीं। कहीं बैठकर पत्थर से सुपारी तोड़ ली। पान खाया।
डफली की आवाज उसके कानों में गूँजी और उसके पैर अपने-आप तमाशा-मंच की ओर मुड़ गये। लाउडस्पीकर की आवाज कानों में पड़ते ही उसका मन उल्लसित हो गया। बाहर आकर बैठी हुई नाचने वाली स्त्रियों को जीभर देखने के बाद उसने हरे रंग का टिकट खरीदा। एक कप चाय पी और अन्दर जाकर एकदम सामने, सब कुछ भूलकर पाल्थी मारकर बैठ गया, मानो खाना खाने बैठा हो।
सामने मण्डप तानकर तमाशे के लिए जगह की गयी थी। गैस-बत्तियाँ टँगी हुई थीं। देसाई के उजड़े बाड़े की नंगी दीवार का आधार लेकर मण्डप बनाया गया था। उसे ऐसा लग रहा था जैसे किसी मन्दिर में आया हो। वन्दना शुरू हुई तो वह हवा में तैरने लगा, मस्त होकर वह गीत सुनने लगा। स्वांग करने वाले की नकलें उसके मन को गुदगुदाने लगीं। स्त्रियों के गीत की नकल करते हुए विदूषक अपनी बेसुरी आवाज में गाता, बीच में ही अपने अश्लील शब्दों को बड़े कौशल से जोड़कर उस गाने का उपहास कर देता। उसके हूबहू हावभाव, उसकी हाजिर-जवाबी पर वह मुग्ध होने लगा। लावणी को कानों में प्राण केन्द्रित करके सुनने लगा....ढोलक की थाप के साथ रात चढ़ रही थी। मन एक जगमगाती दुनिया में जा बसा। वह अपनी सुध भूल गया। तमाशे की ग्वालिन का खुला श्रृंगार मौसी के विनोद के फव्वारे, लावणी का मुकाबला, लावणी गाने वाले स्त्री-पुरुषों का कामुक श्रृंगार डफ-ढोलक की ऊँची आवाज वाली कड़कड़ाहट मदहोश कर देने वाला वातावरण, ऐसा लग रहा था जै
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