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त्रिमूर्ति
त्रिमूर्ति
प्रकाशक :
लोकभारती प्रकाशन |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :129
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 13340
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आईएसबीएन :9788180311949 |
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सुन्दर स्त्री के विषय में पुरुष में सहज ही आकर्षण विद्यमान रहता है
"तुम नहीं समझतीं सुगन्धा, मैं हकीकत बयान कर रहा हूँ। सुन्दर स्त्री के विषय में पुरुष में सहज ही आकर्षण विद्यमान रहता है।"
"होगा।"
"इसीलिए तो कह रहा हूँ कि जो स्वाभाविक बात है उसे स्वाभाविक समझो और आगे की सोचो।"
"मुझे तो उस पाजी की नीयत साफ नहीं दिखाई देती।"
"न हो नीयत साफ, तुम्हारा क्या बिगड़ेगा। वह काम देने के लिए कह रहा है। काम ले लो और उल्लू सीधा करो।"
"लानत है ऐसे पैसे पर।"
"फिर नहीं समझी, मैं कह रहा हूँ, जो उल्लू बनता है उसे उल्लू बनाओ, मैं समझता हूँ कि कोई भी स्त्री बिना अपनी शालीनता खोए किसी भी पुरुष को उल्लू बना सकती है, तुमसे भी मैं यही चाहता हूँ।"
"और यही मैं नहीं करूँगी, कान खोलकर सुन लो। तुम पुरुष हो, पुरुष की लोलुपता के प्रति तुम्हें सहानुभूति हो सकती है पर नारी के लिए वह एक अपमान की बात है। मैं अपने नारी सुलभ शील को दाँव पर लगाना नहीं चाहती, समझे, दुबारा ऐसी बात मुँह से निकाली तो ठीक न होगा।"
"तुम तो एकदम फूहड़ स्त्री-सी बातें कर रही हो।"
"मैं फूहड़ ही सही - तुम्हें तुम्हारी सभ्यता मुबारक हो, परन्तु सुगन्धा के विषय में ऐसी बात फिर कभी न सोचना। इसे अच्छी तरह से समझ लो।"
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