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उत्सवा
उत्सवा
प्रकाशक :
लोकभारती प्रकाशन |
प्रकाशित वर्ष : 2000 |
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 13349
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आईएसबीएन :0 |
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कविता, सर्वत्र तथा सार्वकालिक भाव से नित्य उपस्थित है
यदि यह कहा जाए कि ये कविताएँ अभिव्यक्त होने के पूर्व भी थीं तो इसका तात्पर्य यही है कि कविता, सर्वत्र तथा सार्वकालिक भाव से नित्य उपस्थित है। अपनी अभिव्यक्ति के लिए इन कविताओं ने मुझे माध्यम चुना, तो इसका तात्पर्य भी यही है कि कविता का कोई कर्ता नहीं होता; और यदि कोई है, तो वह स्वयं अपनी आत्मकर्ता है, स्वयंसृष्टा है। जिसे कवि कहा जाता है वह तो मात्र प्रस्तोता होता है, वह इसलिए कवि नहीं बल्कि उसका मनीषी-व्यक्तित्व या चैत्यपुरुष उस काव्य-साक्षात का अनुभवकर्ता या दृष्टा था। उस अनभिव्यक्त को उस कवि ने मात्र अभिव्यक्त करने की चेष्टा की। मैं भी प्रस्तोता के अर्थ में ही इन कविताओं का कवि हूँ, कर्ता के अर्थ में नहीं; मेरा यह कथन शायद रचनात्मक की प्रक्रिया या वस्तुस्थिति की वास्तविकता के अधिक निकट हो। वैसे यह कि–यह आरोपित मुद्रा है, अथवा यह कि कवि और कविता की रचनात्मक पारस्परिकता को अधिक रहस्यात्मक ही बनाया गया है–ऐसा लगना तो नहीं चाहिए, क्योंकि जिस प्रकार कुछ स्थितियों और जिज्ञासाओं के विषय में 'नेति' के द्वारा ही 'अस्ति' का इंगित सम्भव है अथवा अस्वीकृति के द्वारा ही स्वीकृति की प्रतीति करायी जा सकती है, उसी प्रकार कवि और कविता की रचनात्मक पारस्परिकता या सृजन-प्रक्रिया के सन्दर्भ में भी अविश्वसनीय ही विश्वनीय हो सकता है। सन्तों की 'सन्ध्या-भाषा' के तात्पर्य और प्रकार की प्रकृति भी बहुत कुछ ऐसी ही है।
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