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यशोदानन्दन
यशोदानन्दन
प्रकाशक :
लोकभारती प्रकाशन |
प्रकाशित वर्ष : 2017 |
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 13362
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आईएसबीएन :9789386863140 |
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औपन्यासिक विधा में लिखा गया यह उपन्यास श्रीकृष्ण का यशोदानंदन के रूप में वर्णित भांति-भांति की लीलाएँ अपने उदार में समेटे हुए है
श्रीकृष्ण और गोपियों का सम्बन्ध पूर्ण रूप से परमात्मा को समर्पित जीवात्मा का सम्बन्ध है। स्वयं श्रीकृष्ण कहते हैं—“मेरी प्रिय गोपियों! तुम लोगों ने मेरे लिए घर-गृहस्थी की उन समस्त बेड़ियों को तोड़ डाला है, जिन्हें बड़े-बड़े योगी-यति भी नहीं तोड़ पाते! मुझसे तुम्हारा यह मिलन, यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और निर्दोष है। यदि मैं अमर शरीर से अनंत काल तक तुम्हारे प्रेम, सेवा और त्याग का प्रतिदान देना चाहूँ, तो भी नहीं दे सकता। मैं जन्म-जन्म के लिए तुम्हारा ऋणी हूँ। तुम अपने सौम्य स्वाभाव और प्रेम से मुझे उऋण कर सकती हो, परंतु मैं इसकी कामना नहीं करता। मैं सदैव चाहूँगा कि मेरे सर पर सदा तुम्हारा ऋण विद्यमान रहे। एक ऐसा उपन्यास जिसे आप पढना शुरू करेंगे, तो बिना समाप्त किए रख नहीं पायेंगे। ऐसी अदभुत कृति की रचना वर्षों बाद होती हैं। औपन्यासिक विधा में लिखा गया यह उपन्यास श्रीकृष्ण का यशोदानंदन के रूप में वर्णित भांति-भांति की लीलाएँ अपने उदार में समेटे हुए है, जो समस्त हिंदी पाठकों के लिए सिर्फ पठनीय ही नहीं संग्रहणीय भी है।
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