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आलोचना से आगे

सुधीश पचौरी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13379
आईएसबीएन :9788171195688

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सुधीश पचौरी ने उत्तर-आधुनिकतावादी और उत्तर-संरचनावादी विमर्शों को हिंदी में स्थापित किया है

उत्तर-आधुनिकतावाद हिंदी में अब एक निर्णायक विमर्श बन चला है और उत्तर-सरच्नावादी 'पाठ' की रणनीतियां हिंदी साहित्य की उपलब्ध व्यखायाओ में नए-नए विपर्यास और उपद्रव पैदा कर रही हैं। विखान्दंवादी पाठ-प्रविधियों ने हिंदी में नव्या-समीक्षा को रिटायर कर दिया है। 'आलोचना' पद भी, अपनी व्यतीत आधुनिकतावादी प्रकृति और उत्तर-संरचनावादी रणनीतियों की मार के चलते, संकटग्रस्त होकर संदिग्ध हो चला है। ये दिन आलोचन के 'विमर्श' में बलाद जाने के दिन हैं! विमर्श जो 'अर्थ' का 'उत्पादन' ही नहीं करते, उन्हें 'संगठित' भी करते हैं और अनिवार्यतः सत्तात्मक होते हैं। विच्मर्ष वस्तुतः आलोचना का विखंडन है, इसीलिए आलोचन से आगे है। सुधीश पचौरी ने उत्तर-आधुनिकतावादी और उत्तर-संरचनावादी विमर्शों को हिंदी में स्थापित किया है। गत एक दशक के सभी अग्रगामी विमर्श, इन उत्तर-आधुनिकतावादी और उत्तर-संरचनावादी पदावलियों से उलझते-सुलझते चलते हैं। समज्शास्त्रो में इन्हें लगातार जगह मिल रही है। साहित्याध्यायनों में, पुनश्चर्या पाठ्यकर्मो में और शोधों में ये विमर्श निर्णायक होने लगे हैं। ये वर्तमान की माँग हैं और उसका भवितव्य भी। सुधीश पचौरी की यह किताब हिंदी के जागरूक पथाकर्ताओं के लिए एक जरूरी किताब है।

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