सामाजिक >> अवज्ञा अवज्ञाशिमाजाकि तोसोन
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प्रस्तुत है जापानी मूल का हिन्दी रूपान्तर...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘अवज्ञा’ का जापानी मूल नाम है ‘हकाई’। यह जापान
के यथार्थवादी लेखकों में अग्रणी शिमाज़ाकि तोसोन का अत्यधिक लोकप्रिय
उपन्यास है। उन्नीसवीं शती के उत्तारार्द्ध से लेकर बीसवीं शती के
पूर्वार्द्ध तक—यह वह कालखण्ड है जब आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के
फलस्वरूप जापान के सामाजिक जीवन में, वहाँ के लोगों की चिन्तनधारा में
काफ़ी परिवर्तन आ चुका था। समाज में प्रचलित जातिगत भेदभाव और विषमताओं को
दूर करने के लिए हो रहे आन्दोलनों के इस दौर में वहाँ की सर्वाधिक हीन एवं
अछूत मानी जाने वाली एक जाति ‘एता’ को बहुत संघर्ष करना पड़ा
था।
उपन्यास का कथानायक सेगावा उशिमात्सु भी जन्म से ‘एता’ है। उसकी पैदाइश की इस बात को छिपाने के लिए उसका पिता प्रयास करता है ताकि समाज के उच्चवर्गीय लोगों की तरह उसके बेटे को तरक्की का बराबर अवसर मिलता रहे। निधन के पहले ही वह अपने बेटे को आदेश दे गया था कि वह अपनी जाति के रहस्य को प्रकट न होने देगा अतः उच्चवर्गीय समाज से बहिष्कृत होकर वह अब तक अर्जित अपनी सम्पूर्ण प्रतिष्ठा को खो बैठेगा और फिर कभी श्रेष्ठ तथा शान्तिपूर्ण जीवन नहीं जी सकेगा। लेकिन जातिगत हीनभावना और अन्तर्मन की पीड़ा उसे ऐसा करने से रोक नहीं पाती और एक दिन वह अपने पिता को दिये वचन की अवज्ञा कर अपनी जाति के रहस्य को खुलकर स्वीकार करता है। ऐसा करके ही वह अपने आपको पहचान पाता है और मानसिक व्यथा एवं घुटन से मुक्त होकर नवजीवन प्रारम्भ करने की आत्मशक्ति प्राप्त करता है।
उपन्यास लिखने का तोसोन का उद्देश्य समाज में प्रचलित बुराई और अन्याय पर उँगली उठाकर दलित समाज के अधिकारों को जतलाना है। वास्तव में दलित जीवन से मुक्ति का यहाँ उतना महत्त्व नहीं जितना दलित वर्ग के आत्म-विश्लेषण का, उसके एहसास का है।
जापनी साहित्य की यह मूल्यवान कृति हिन्दी पाठक-जगत् को समर्पित करते हुए ज्ञानपीठ गौरव का अनुभव करता है।
उपन्यास का कथानायक सेगावा उशिमात्सु भी जन्म से ‘एता’ है। उसकी पैदाइश की इस बात को छिपाने के लिए उसका पिता प्रयास करता है ताकि समाज के उच्चवर्गीय लोगों की तरह उसके बेटे को तरक्की का बराबर अवसर मिलता रहे। निधन के पहले ही वह अपने बेटे को आदेश दे गया था कि वह अपनी जाति के रहस्य को प्रकट न होने देगा अतः उच्चवर्गीय समाज से बहिष्कृत होकर वह अब तक अर्जित अपनी सम्पूर्ण प्रतिष्ठा को खो बैठेगा और फिर कभी श्रेष्ठ तथा शान्तिपूर्ण जीवन नहीं जी सकेगा। लेकिन जातिगत हीनभावना और अन्तर्मन की पीड़ा उसे ऐसा करने से रोक नहीं पाती और एक दिन वह अपने पिता को दिये वचन की अवज्ञा कर अपनी जाति के रहस्य को खुलकर स्वीकार करता है। ऐसा करके ही वह अपने आपको पहचान पाता है और मानसिक व्यथा एवं घुटन से मुक्त होकर नवजीवन प्रारम्भ करने की आत्मशक्ति प्राप्त करता है।
उपन्यास लिखने का तोसोन का उद्देश्य समाज में प्रचलित बुराई और अन्याय पर उँगली उठाकर दलित समाज के अधिकारों को जतलाना है। वास्तव में दलित जीवन से मुक्ति का यहाँ उतना महत्त्व नहीं जितना दलित वर्ग के आत्म-विश्लेषण का, उसके एहसास का है।
जापनी साहित्य की यह मूल्यवान कृति हिन्दी पाठक-जगत् को समर्पित करते हुए ज्ञानपीठ गौरव का अनुभव करता है।
प्रस्तुति
भारतीय वाङ्मय के संवर्धन में भारतीय ज्ञानपीठ के बहुमुखी प्रयास रहे हैं।
एक ओर उसने भारतीय साहित्य की शिखर उपलब्धियों को रेखांकित कर ज्ञानपीठ
पुरस्कार के माध्यम से साहित्य को समर्पित अग्रणी भारतीय रचनाकारों को
सम्मानित किया है, जिससे उनकी श्रेष्ठ कृतियाँ अन्य रचनाकारों के लिए
प्रकाशस्तम्भ बनें। दूसरी ओर वह समग्र भारतीय साहित्य में से कालजयी
रचनाओं का चयन कर उन्हें हिन्दी के माध्यम से अनेक साहित्य-शृंखलाओं के
अन्तर्गत प्रकाशित कर बृहत्तर पाठक समुदाय तक ले जाता है ताकि एक भाषा का
सर्वोकृष्ट साहित्य दूसरी भाषा तक पहुँचे और इस प्रकार विभिन्न भाषाओं के
रचनाकारों एवं प्रबुद्ध पाठकों के बीच तादात्म्य और परस्पर वैचारिक
सम्प्रेषण सम्भव हो सके।
इस साहित्यिक अनुष्ठान को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए भारतीय ज्ञानपीठ ने विश्वभारती साहित्य-शृंखला के अन्तर्गत विगत दो वर्षों में वैदेशिक साहित्यकारों की कृतियों के हिन्दी रूपान्तर भी अपने सहृदय पाठकों को समर्पित किये हैं। उदाहरण के लिए नोबेल पुरस्कार विजेता, नाइजीरियाई कवि बोले शोयिंका की श्रेष्ठ कविताओं के संकलन ‘बोले शोयिंका की कविताएँ’ और चीन के नौवीं शती के प्रख्यात कवि एवं प्रशासक वाई जूई की कविताओं के संकलन ‘तुम ! हाँ बिल्कुल तुम’ का नाम लिया जा सकता है। धर्मवीर भारती का ‘देशान्तर’ (कविता-संग्रह) हम पहले ही प्रकाशित कर चुके हैं जिसमें यूरोप और अमेरिका (उत्तर और दक्षिण) के इक्कीस देशों के बीसवीं शती के प्रख्यात कवियों की प्रमुख रचनाएँ संकलित हैं।
‘अवज्ञा’ जापान के यथार्थवादी लेखकों में अग्रणी शिमाज़ाकि तोसोन (1872-1943 ई.) का सर्वाधिक चर्चित उपन्यास है। इसका जापानी मूल नाम है-‘हकाई’। उन्नीसवीं शती के उत्तरार्ध से लेकर बीसवीं शती के पूर्वार्ध तक-यह वह काल खण्ड है जब आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप जापान के सामाजिक जीवन में, वहाँ के लोगों की चिन्तनधारा में काफी परिवर्तन आ चुका था। समाज में प्रचलित जातिगत भेद-भाव और विषमताओं को दूर करने के लिए हो रहे आन्दोलनों के इस दौर में वहाँ की सर्वाधिक हीन एवं अछूत मानी जाने वाली एक जाति ‘एता’ को बहुत संघर्ष करना पड़ा था।
उपन्यास का कथानायक सेगावा उशिमात्सु भी जन्म से ‘एता’ है। उसकी पैदाइश की इस बात को छिपाने के लिए उसका पिता अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक प्रयास करता है ताकि समाज के उच्चवर्गीय लोगों की तरह उसके बेटे को तरक्की का बराबर अवसर मिलता रहे। निधन के पहले ही वह अपने बेटे को आदेश दे गया था कि वह कभी अपनी जाति के रहस्य को प्रकट न होने देगा अन्यथा उच्चवर्गीय समाज से बहिष्कृत होकर वह अब तक अर्जित अपनी सम्पूर्ण प्रतिष्ठा खो बैठेगा और फिर कभी श्रेष्ठ एवं शान्तिपूर्ण जीवन नहीं जी सकेगा। लेकिन जातिगत हीनभावना और अन्तर्मन की पीड़ा उशिमात्सु को ऐसा करने से नहीं रोक पाती और एक दिन वह अपने पिता को दिये गये वचन की अवज्ञा कर अपनी जाति के रहस्य को खुलकर स्वीकार करता है। ऐसा करके ही वह अपने आपको पहचान पाता है और मानसिक व्यथा एवं घुटन से मुक्त होकर नवजीवन प्रारम्भ करने की आत्मशक्ति प्राप्त करता है।
उपन्यास लिखने का तोसोन का उद्देश्य समाज में प्रचलित बुराई और अन्याय पर उँगली उठाकर दलित समाज के अधिकारों को जतलाना है। वास्तव में दलित जीवन से मुक्ति का यहाँ उतना महत्व नहीं जितना दलित वर्ग के आत्म-विश्लेषण का, उसके एहसास का है।
भारतीय ज्ञानपीठ को इस बात का गौरव है कि उसे जापानी साहित्य की यह महत्त्वपूर्ण कृति हिन्दी पाठकों को समर्पित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसका अनुवाद चीनी एवं जापानी अध्ययन विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर सावित्री विश्वनाथन एवं उनकी बड़ी बहन श्रीमती आनन्दी रामनाथन ने किया है। हम उनके बहुत कृतज्ञ हैं। तोयोता फाउण्डेशन के प्रति भी हम आभारी हैं जिसने इस कृति के हिन्दी अनुवाद एवं संपादन कार्य के लिए वित्तीय सहयोग प्रदान किया। हम श्री माकिता तोइचि के भी अत्यंत आभारी हैं जो इस योजना के सूत्रधार हैं। साथ ही, पाण्डुलिपि के सम्पादन कार्य में विशेष योगदान के लिए श्रीमती वर्षा दास तथा डां. रणवीर रांग्रा के प्रति भी हम अपना आभार प्रकट करते हैं।
पाण्डुलिपि अवलोकन एवं मुद्रण प्रकाशन कार्य में हमारे सहयोगी डाँ. गुलाबचन्द्र जैन ने अपने दायित्व का भलीभाँति निर्वाह किया है, उन्हें साधुवाद। पुस्तक के सुन्दर आवरण-शिल्प के लिए श्री सत्यसेवक मुखर्जी के प्रति विशेष आभार।
इस साहित्यिक अनुष्ठान को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए भारतीय ज्ञानपीठ ने विश्वभारती साहित्य-शृंखला के अन्तर्गत विगत दो वर्षों में वैदेशिक साहित्यकारों की कृतियों के हिन्दी रूपान्तर भी अपने सहृदय पाठकों को समर्पित किये हैं। उदाहरण के लिए नोबेल पुरस्कार विजेता, नाइजीरियाई कवि बोले शोयिंका की श्रेष्ठ कविताओं के संकलन ‘बोले शोयिंका की कविताएँ’ और चीन के नौवीं शती के प्रख्यात कवि एवं प्रशासक वाई जूई की कविताओं के संकलन ‘तुम ! हाँ बिल्कुल तुम’ का नाम लिया जा सकता है। धर्मवीर भारती का ‘देशान्तर’ (कविता-संग्रह) हम पहले ही प्रकाशित कर चुके हैं जिसमें यूरोप और अमेरिका (उत्तर और दक्षिण) के इक्कीस देशों के बीसवीं शती के प्रख्यात कवियों की प्रमुख रचनाएँ संकलित हैं।
‘अवज्ञा’ जापान के यथार्थवादी लेखकों में अग्रणी शिमाज़ाकि तोसोन (1872-1943 ई.) का सर्वाधिक चर्चित उपन्यास है। इसका जापानी मूल नाम है-‘हकाई’। उन्नीसवीं शती के उत्तरार्ध से लेकर बीसवीं शती के पूर्वार्ध तक-यह वह काल खण्ड है जब आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप जापान के सामाजिक जीवन में, वहाँ के लोगों की चिन्तनधारा में काफी परिवर्तन आ चुका था। समाज में प्रचलित जातिगत भेद-भाव और विषमताओं को दूर करने के लिए हो रहे आन्दोलनों के इस दौर में वहाँ की सर्वाधिक हीन एवं अछूत मानी जाने वाली एक जाति ‘एता’ को बहुत संघर्ष करना पड़ा था।
उपन्यास का कथानायक सेगावा उशिमात्सु भी जन्म से ‘एता’ है। उसकी पैदाइश की इस बात को छिपाने के लिए उसका पिता अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक प्रयास करता है ताकि समाज के उच्चवर्गीय लोगों की तरह उसके बेटे को तरक्की का बराबर अवसर मिलता रहे। निधन के पहले ही वह अपने बेटे को आदेश दे गया था कि वह कभी अपनी जाति के रहस्य को प्रकट न होने देगा अन्यथा उच्चवर्गीय समाज से बहिष्कृत होकर वह अब तक अर्जित अपनी सम्पूर्ण प्रतिष्ठा खो बैठेगा और फिर कभी श्रेष्ठ एवं शान्तिपूर्ण जीवन नहीं जी सकेगा। लेकिन जातिगत हीनभावना और अन्तर्मन की पीड़ा उशिमात्सु को ऐसा करने से नहीं रोक पाती और एक दिन वह अपने पिता को दिये गये वचन की अवज्ञा कर अपनी जाति के रहस्य को खुलकर स्वीकार करता है। ऐसा करके ही वह अपने आपको पहचान पाता है और मानसिक व्यथा एवं घुटन से मुक्त होकर नवजीवन प्रारम्भ करने की आत्मशक्ति प्राप्त करता है।
उपन्यास लिखने का तोसोन का उद्देश्य समाज में प्रचलित बुराई और अन्याय पर उँगली उठाकर दलित समाज के अधिकारों को जतलाना है। वास्तव में दलित जीवन से मुक्ति का यहाँ उतना महत्व नहीं जितना दलित वर्ग के आत्म-विश्लेषण का, उसके एहसास का है।
भारतीय ज्ञानपीठ को इस बात का गौरव है कि उसे जापानी साहित्य की यह महत्त्वपूर्ण कृति हिन्दी पाठकों को समर्पित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसका अनुवाद चीनी एवं जापानी अध्ययन विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर सावित्री विश्वनाथन एवं उनकी बड़ी बहन श्रीमती आनन्दी रामनाथन ने किया है। हम उनके बहुत कृतज्ञ हैं। तोयोता फाउण्डेशन के प्रति भी हम आभारी हैं जिसने इस कृति के हिन्दी अनुवाद एवं संपादन कार्य के लिए वित्तीय सहयोग प्रदान किया। हम श्री माकिता तोइचि के भी अत्यंत आभारी हैं जो इस योजना के सूत्रधार हैं। साथ ही, पाण्डुलिपि के सम्पादन कार्य में विशेष योगदान के लिए श्रीमती वर्षा दास तथा डां. रणवीर रांग्रा के प्रति भी हम अपना आभार प्रकट करते हैं।
पाण्डुलिपि अवलोकन एवं मुद्रण प्रकाशन कार्य में हमारे सहयोगी डाँ. गुलाबचन्द्र जैन ने अपने दायित्व का भलीभाँति निर्वाह किया है, उन्हें साधुवाद। पुस्तक के सुन्दर आवरण-शिल्प के लिए श्री सत्यसेवक मुखर्जी के प्रति विशेष आभार।
र. श. केलकर, सचिव
प्राक्कथन
विश्वयुद्ध के पूर्व पाश्चात्य सैनिक शक्तियों को चुनौती देने वाला और
युद्धोत्तर काल में अभूतपूर्व आर्थिक उन्नति और विकास की ओर अग्रसर होने
वाला एशियाई देश जापान विशिष्ट आदर और गौरव का पात्र है। जापान की प्रगति
के वेग ने उसे एशिया के विकासशील देशों की पहुँच से परे कर दिया है। भारत
भी उसमें शामिल है। फिर भी जापान के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का अध्ययन
एवं तत्कालीन समस्याओं का अनुशीलन उसे भारत की अपनी समस्याओं के समीप ले
आता है।
आधुनिकीकरण की समस्या में प्रमुख है समाज में शताब्दियों से प्रचलित जातिगत भेदभाव और उस विषमता को दूर करने के लिए बनाये गये शासकीय कानून की परिधि और सीमाएँ। परम्परा से अछूत और भ्रष्ट मानी जाने वाली जाति के लोगों के लिए यह एक विकट प्रश्न है।
प्रस्तुत रचना ‘अवज्ञा’ जापानी उपन्यास ‘ह काई’ का हिन्दी रूपान्तर है। शिमाज़ाकि तोसोन1 इसके लेखक हैं। यह उपन्यास जापान की एक ऐसी सामाजिक समस्या को लेकर लिखा गया है जिससे भारतीय समाज भी अपरिचित नहीं है।
जापान के इतिहास में सन् 1868-1912 की अवधि मेइजिकाल के नाम से विख्यात है। इस उपन्यास का रचनाकाल उस ऐतिहासिक परिवर्तन के पूर्व के समय का निर्देशन करता है जब देश में कई प्रकार की उथल-पुथल हो रही थी।
जापानी उपन्यास साहित्य में से हिन्दी अनुवाद के लिए इस उपन्यास को चुनने का विशेष कारण यह है कि इसमें उल्लिखित समस्याओं से भारत आज भी जूझ रहा है।
ई. 1603-1868 तक के, तोकुगावा काल के अन्तर्गत जापान में समाज का विभाजन लोगों के पेशों के अनुसार बड़ी सख्ती से किया गया था। तोकुगावा शासन ने जन्मजात जाति के सिद्धान्त को कायम करके अलग-अलग जातियों के बीच किसी प्रकार के सम्बन्ध रखने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। व्यवसाय अनुसार जाति निर्धारित की गयी थी। इस सामाजिक व्यवस्था में चार जातियां थीं—सामुराई, काश्तकार, कारीगर और व्यापारी। इनसे नीचे के स्तर में ‘हिनिन’ नामक एक वर्ग था जिसे अनाम या
1. जापानी नामों में पहले अपने वंश का नाम और बाद में अपना नाम जोड़ने की पद्धति है। यहाँ शिमाज़ाकि वंशनाम है, तोसोन उनका अपना नाम है। अन्य स्थानों में भी ऐसा ही समझना चाहिए।
जाति व्यवस्था के बाहर कहा जा सकता है। इस वर्ग में भिखारी, वेश्याएँ, दण्डित, अपराधी, नाच-गाने से मनोरंजन करने वाले, घुमक्कड़ धार्मिक साधु-सन्त आदि आ जाते थे।
‘हिनिन’ से भी निम्न स्तर पर ‘एता’ जाति थी। यह शब्द अशुचि और गन्दगी का संकेत था। इस जाति के लोगों का पेशा धार्मिक दृष्टि से दूषित था। उनकी आजीविका का साधन था पशु-वध और उससे सम्बन्धित चमड़े-खाल का व्यापार आदि।
आधुनिकीकरण की समस्या में प्रमुख है समाज में शताब्दियों से प्रचलित जातिगत भेदभाव और उस विषमता को दूर करने के लिए बनाये गये शासकीय कानून की परिधि और सीमाएँ। परम्परा से अछूत और भ्रष्ट मानी जाने वाली जाति के लोगों के लिए यह एक विकट प्रश्न है।
प्रस्तुत रचना ‘अवज्ञा’ जापानी उपन्यास ‘ह काई’ का हिन्दी रूपान्तर है। शिमाज़ाकि तोसोन1 इसके लेखक हैं। यह उपन्यास जापान की एक ऐसी सामाजिक समस्या को लेकर लिखा गया है जिससे भारतीय समाज भी अपरिचित नहीं है।
जापान के इतिहास में सन् 1868-1912 की अवधि मेइजिकाल के नाम से विख्यात है। इस उपन्यास का रचनाकाल उस ऐतिहासिक परिवर्तन के पूर्व के समय का निर्देशन करता है जब देश में कई प्रकार की उथल-पुथल हो रही थी।
जापानी उपन्यास साहित्य में से हिन्दी अनुवाद के लिए इस उपन्यास को चुनने का विशेष कारण यह है कि इसमें उल्लिखित समस्याओं से भारत आज भी जूझ रहा है।
ई. 1603-1868 तक के, तोकुगावा काल के अन्तर्गत जापान में समाज का विभाजन लोगों के पेशों के अनुसार बड़ी सख्ती से किया गया था। तोकुगावा शासन ने जन्मजात जाति के सिद्धान्त को कायम करके अलग-अलग जातियों के बीच किसी प्रकार के सम्बन्ध रखने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। व्यवसाय अनुसार जाति निर्धारित की गयी थी। इस सामाजिक व्यवस्था में चार जातियां थीं—सामुराई, काश्तकार, कारीगर और व्यापारी। इनसे नीचे के स्तर में ‘हिनिन’ नामक एक वर्ग था जिसे अनाम या
1. जापानी नामों में पहले अपने वंश का नाम और बाद में अपना नाम जोड़ने की पद्धति है। यहाँ शिमाज़ाकि वंशनाम है, तोसोन उनका अपना नाम है। अन्य स्थानों में भी ऐसा ही समझना चाहिए।
जाति व्यवस्था के बाहर कहा जा सकता है। इस वर्ग में भिखारी, वेश्याएँ, दण्डित, अपराधी, नाच-गाने से मनोरंजन करने वाले, घुमक्कड़ धार्मिक साधु-सन्त आदि आ जाते थे।
‘हिनिन’ से भी निम्न स्तर पर ‘एता’ जाति थी। यह शब्द अशुचि और गन्दगी का संकेत था। इस जाति के लोगों का पेशा धार्मिक दृष्टि से दूषित था। उनकी आजीविका का साधन था पशु-वध और उससे सम्बन्धित चमड़े-खाल का व्यापार आदि।
पात्र-परिचय
सेगावा उशिमात्सु
अध्यापक,कथानायक
त्सुचिया गिन्नोसुके अध्यापक,सेगावा का मित्र
कज़ामा केइनोशिन पुराना अध्यापक
कात्सुनो बुनपेई नया अध्यापक
ओहिनाता एक धनी एता
ओतोसाकु केइनोशिन का पुराना सेवक
इनोको रेन्तारो एता लीडर, उशिमात्सु का पूजनीय गुरु
वकील इचिमुरा इनोको रेन्तारो का मित्र, ‘डायड’ सभा का उम्मीदवार
तकायनागि रिसाबुरो डायड का उम्मीदवार
रोकुज़ायेमोन एक धनी एता
ओ-शियो केइनोशिन की बेटी, रेंगेजी मन्दिर की सेवा में समर्पित
शोगो केइनोशिन का बेटा
सुसुमु केइनोशिन का छोटा बेटा
ओसाकु और ओसुए केईनोशिन की छोटी बेटियाँ
ओत्सुमा उशिमात्सु के बचपन की एक सहेली
ओशो मन्दिर का प्रधान पुजारी
शो मन्दिर का पुराना सेवक, जो मन्दिर का घण्टा बजाने का काम करता आ रहा है
केसाजी मन्दिर की नौकरानी
त्सुचिया गिन्नोसुके अध्यापक,सेगावा का मित्र
कज़ामा केइनोशिन पुराना अध्यापक
कात्सुनो बुनपेई नया अध्यापक
ओहिनाता एक धनी एता
ओतोसाकु केइनोशिन का पुराना सेवक
इनोको रेन्तारो एता लीडर, उशिमात्सु का पूजनीय गुरु
वकील इचिमुरा इनोको रेन्तारो का मित्र, ‘डायड’ सभा का उम्मीदवार
तकायनागि रिसाबुरो डायड का उम्मीदवार
रोकुज़ायेमोन एक धनी एता
ओ-शियो केइनोशिन की बेटी, रेंगेजी मन्दिर की सेवा में समर्पित
शोगो केइनोशिन का बेटा
सुसुमु केइनोशिन का छोटा बेटा
ओसाकु और ओसुए केईनोशिन की छोटी बेटियाँ
ओत्सुमा उशिमात्सु के बचपन की एक सहेली
ओशो मन्दिर का प्रधान पुजारी
शो मन्दिर का पुराना सेवक, जो मन्दिर का घण्टा बजाने का काम करता आ रहा है
केसाजी मन्दिर की नौकरानी
अन्य पात्र, जिनके नाम निर्दिष्ट नहीं हैं
श्रमणी ओकुसामा प्रधान पुजारी की पत्नी
मुख्याध्यापक स्कूल के प्रधान-अध्यापक
इन्स्पेक्टर स्कूल-इन्स्पेक्टर
इनोको रेन्तारो की पत्नी
सेगावा उशिमात्सु के बाबूजी (पिता) और चाचा-चाची
केनोशिन की पत्नी
ओतोसाकु की पत्नी
मुख्याध्यापक स्कूल के प्रधान-अध्यापक
इन्स्पेक्टर स्कूल-इन्स्पेक्टर
इनोको रेन्तारो की पत्नी
सेगावा उशिमात्सु के बाबूजी (पिता) और चाचा-चाची
केनोशिन की पत्नी
ओतोसाकु की पत्नी
एक
रेंगजी1 मन्दिर में किराये के लिए कमरे थे। वहीं भोजन की व्यवस्था थी।
उशिमात्सु सेगावा ने अचानक वहीं अपना निवास बदलने का निश्चय किया। रेंगेजी
मन्दिर के पुजारी के घर में ही पहले तल्ले पर कोने वाला कमरा उसे अच्छा
लगा।
रेंगेजी का भव्य मन्दिर ‘शिंश्यू’ के पहाड़ी प्रदेश में था। वहाँ के ‘इईयामा’ शहर में बीस से अधिक मन्दिर थे जिनमें रेंगेजी का मन्दिर बौद्ध धर्म की ‘जोदो शिंश्यू’2 शाखा का सबसे प्राचीन और प्रसिद्ध मन्दिर माना जाता था।
पहले तल्ले की खिड़कियों से ऊंचे गिंको पेडों की शाखाओं के बीच से ‘इईयामा’ शहर का काफ़ी भाग दिखाई देता था। उस शिंश्यू प्रदेश में इईयामा शहर बौद्ध तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध था। लगता था जैसे इईयामा का अतीत हमारे सामने प्रकट हो रहा हो। उत्तरी जापान की अपनी विशेष निर्माण-शैली में बनाये गये मकानों की छत ‘शिंगल’ के खपरैलों से बनायी जाती थी जो वहाँ की सर्दी के दिनों में बर्फ़ से बचने के लिए नीचे ज़मीन तक लम्बी होती थी। मन्दिरों के ऊँचे शिखर जगह-जगह पेड़ों के हरे मुकुट के ऊपर उठते हुए-से दीखते थे। अगरबत्तियों की महक और धुआँ-धुन्ध-सा वातावरण-ऐसा ही कुछ उस पुराने शहर का दृश्य था। इस पुरानेपन में आधुनिकता का कोई संकेत था तो वह सफ़ेदी से पुता प्रथामिक शाला का भवन, जहाँ उशिमात्सु पढ़ाता था। उशिमात्सु के एकाएक अपना आवास बदलने के निर्णय के पीछे एक विशेष कारण था। जिस मकान में वह रहता था उसमें एक बहुत ही अप्रिय घटना घट गयी थी। मन्दिर वाले कमरे का किराया अगर इतना कम न होता तो वहाँ कोई भी नहीं ठहरता। कमरे की दीवार पर चढ़ाया गया कागज पुराना पड़ जाने के कारण रसोईघर की दीवार की तरह पीला नज़र आ रहा था।
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1. जापान के नगानो प्रान्त के इईयामा शहर का बौद्ध मन्दिर लेखक शिमाज़ाकि तोसोन की कथा की पार्श्वभूमि रहा है।
2. बारहवीं शताब्दी के बौद्ध आचार्य सिंरान (1173-1262) ने जोदो शाखा से हटकर जोदो शिंश्यू शाखा को प्रचलित किया। इन शाखावलम्बियों का विश्वास था कि ‘नमो अमिदा बुद्ध’ का जाप करते रहने से कोई भी व्यक्ति मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। सामान्य लोगों में, विशेषकर ग्रामीण जनता के बीच यह शाखा काफ़ी लोकप्रिय रही।
इसलिए कमरे में उजाला कम लगता था। कमरे के तोकोनोमा1 में टँगे एक चित्र और एक हिबाचि2 के सिवा वहाँ बैठने का आसन या कोई अन्य साधन नहीं था। एक कमरा क्या था मानो एक परिव्राजक भिक्षु का कक्ष था। प्राइमरी स्कूल के एक अदने-से मास्टर के लिए वह कमरा इतना बुरा भी नहीं था। किन्तु उशिमात्सु को वहाँ एक अजीब सूनापन, मायूस करनेवाला अकेलापन महसूस हुआ। वह जिस मकान में रहता था वहाँ बात कुछ यों हुई। कोई दो सप्ताह पहले शिमोतकाई इलाके का कोई सम्पन्न व्यक्ति, ओहिनाता उसका नाम था, इईयामा के अस्पताल में भर्ती होने के लिए आया था। वहाँ प्रवेश मिलने तक वह भी उसी मकान में थोड़े दिनों के लिए रुका था। उसके साथ उसका नौकर भी था। जल्दी ही वह अस्पताल में भर्ती भी हो गया था। पहले से ही उसकी चाल-ढाल-जैसे कि अस्पताल में उसका सबसे बढ़िया कमरे में रहना, एक नर्स का सहारा लेकर अस्पताल के लम्बे बरामदे में उसका टहलना-घूमना आदि-उसकी सम्पन्नता की दुहाई दे रहे थे और यह बात किसी की नज़र से छिपी भी न रही।
न जाने कब किसने ईर्ष्या के कारण या और किसी उद्देश्य से यह बात अस्पताल में फैला दी कि ओहिनाता नीच जाति का एता है। बस अस्पताल में ज्योंही यह खबर आग की तरह फैली कि सारे के सारे मरीज आग-बबूला होकर विद्रोह कर उठे। अस्पताल के निदेशक के पास उन्होंने धमकी भेजी-‘उसे इसी वक्त बाहर करो वरना हम सभी इसी क्षण अस्पताल खाली करते हैं’ इस तरह के वहम को ऐसी भ्रमजनित धारणा को क्या पैसे के बल से दूर किया जा सकता था उस हंगामे के तुरन्त बाद, शाम के धुँधलके में ओहिनाता लुक-छिपकर एक पालकी में बैठकर स्वयं अस्पताल से निकल आया। और उसी आवास घर में आ गया जहाँ वह पहले रुका था। अस्पताल का डॉक्टर रोज यहाँ आकर उसका इलाज कर जाता था। अब आवासघर के सदस्यों की ओहिनाता के खिलाफ आवाज़ उठाने की नौबत आयी।
एक दिन दोपहर की बात थी। उशिमात्सु स्कूल में पढ़ाने का अपना काम पूरा करके घर लौटा तो देखा कि वहाँ कुहराम मचा हुआ है। सभी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर मकान की मालकिन से कह रहे हैं-‘भ्रष्ट है वह दूषित है, पतित जाति का है वह।’
उशिमात्सु समझ गया कि उनका इशारा ओहिनाता की ओर था। उसकी वैसी बदनामी, घोर अपमान देखकर उशिमात्सु दुःख से विह्वल हो गया। लोगों के ऐसे अमानुषिक व्यवहार से वह मन-ही मन रो पड़ा। भ्रष्ट जाति के, एता कहे जाने वाले लोगों की बदनसीबी के बारे में वह सोचने लगा। वह स्वयं भी तो उन्हीं में से था।
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1. जापान के मकानों के कमरे में एक हिस्से को फ़र्श की सतह से ऊँचा बनाया जाता है जहाँ कमरे की सजावट की वस्तुएँ होती हैं। उस ऊँचे स्थान से लगी दीवार पर कोई लम्बा-सा चित्र और सामने फूलदान या सजावट की कोई और चीज़ रखने का रिवाज़ है। उस स्थान को छोड़कर और कहीं सजावट नहीं होती।
2. पुराने जापानी घरों में कमरे को गरम रखने के लिए काम में लायी जाने वाली लकड़ी के कोयले की अँगीठी, जो लोहा या चीनी मिट्टी से बनती है। इस पर पानी भरी केतली भी रखी जाती है जो चाय बनाने के लिए काम आती है।
जो कोई उशिमात्सु से मिलेगा वह यही समझेगा कि वह उत्तरी शिंश्यू इलाके की धरती पर पला है। तभी वह हट्टा-कट्टा है और उसे साकुचिकता के पथरीले प्रदेश ने सख़्त और सुदृढ़ बनाया है। बाईस वर्ष की कम उम्र में ही उसने नगानो के टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज से प्रथम श्रेणी में पास होकर अध्यापक का प्रमाण-पत्र भी पा लिया था। भाग्य उसे इईयामा तक खींच लाया। अब तीन साल होने को आ गये। यहाँ के लोगों की दृष्टि में वह एक प्रबुद्ध युवा अध्यापक था। किसी को इसकी भनक तक नहीं थी कि वह असल में निन्दित ‘एता’ जाति का था जिस वर्ग के लोगों को उस जमाने में ‘नये पामर’ की संज्ञा भी दी जाती थी।
‘‘आप यहाँ रहने के लिए कब से आ रहे हैं ? रेंगेजी मन्दिर के पुजारी की पत्नी ने कमरे में दाखिल होते ही पूछा।
उसकी आयु पचास वर्ष की होगी। भूरे रंग की बारीक़ नमूनों में बुनी ‘हाओरी’1 पहने हुए थी। उसके सफेद पतले हाथ में जपमाला थी। श्रमणी बन जाने की दीक्षा ली थी किन्तु सिर के केश मुँड़ाये नहीं थे। आदर से लोग उसे ‘श्रमणी’ जी बुलाते थे। पुराने जमाने के विचार रखते हुए भी वह थोड़ी-बहुत शिक्षित थी। उसकी बोलचाल से लगता था कि उसे शहरी तहजीब की जानकारी थी। दूसरों की सेवा करने की उसके मन की तत्परता उसके चेहरे पर झलकती थी। दबी आवाज में ‘नेम्बुत्सु’ जपती हुई वह खड़ी रही जैसे कि वह उशिमात्सु के उत्तर की प्रतीक्षा कर रही थी।
उशिमात्सु भी सोच रहा था। कहना तो चाहता था-‘कल या आज की शाम को ही आ जाऊँगा।’ लेकिन उसका हाथ तंग था। सामान के अदल-बदल के लिए उसके पास जो सैंतालीस सेन3 बचे थे, वे पर्याप्त नहीं थे। जिस मकान को वह छोड़ रहा था वहाँ के कमरे का किराया भी तो उसे चुकाना था। स्कूल का वेतन पाने के लिए परसों तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। इसी असमंजस में पड़ा हुआ बोला, ‘‘सोचता हूँ, परसों दोपहर के बाद आ जाऊँ तो कैसा रहेगा ?’’
‘‘परसों ?’’ कहकर पुजारी की पत्नी उसे आश्चर्य से देखने लगी।’’
‘‘क्यों ? परसों मेरे यहाँ आने में आपको कोई आपत्ति है ? उशिमात्सु अचानक उत्तेजित हो गया।’’
‘‘नहीं नहीं, कोई आपत्ति नहीं है। परसों 28 तारीख जो है। मैंने सोचा, आप शायद पहली तारीख को ही आना चाहेंगे।’’
सो तो ठीक है। अक्सर होता भी ऐसा ही है। लेकिन मैंने एकाएक कमरा बदलने का जो निर्णय कर लिया था। उशिमात्सु ने बात वहीं खत्म की और दूसरी उस मकान में घटी हुई घटना उसके
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1. जापानी पोशाक किमोनो के ऊपर पहना जाने वाला कोट।
2. ‘नमो अमिदा बुद्ध’ का विकृत रूप।
3. जापानी सिक्का। सौ सेन का एक ‘येन’ बनता है। किन्तु आजकल सेन प्रचलन में नहीं है।
मन में उथल-पुथल मचा रही थी। वहाँ की बात कोई न पूछ बैठे, इसका उसे डर था। ‘एता’ के बारे में किसी भी तरह की चर्चा को टाल देना, मानो उसका दस्तूर-सा बन गया था।
‘नेम्बुत्सु नेम्बुत्सु’ जपती हुई श्रमणीजी कमरे से निकल गयी। बातचीत को आगे बढ़ाकर उशिमात्सु का मन टटोलने की शायद उसे कोई इच्छा नहीं थी।
रेंगेजी का भव्य मन्दिर ‘शिंश्यू’ के पहाड़ी प्रदेश में था। वहाँ के ‘इईयामा’ शहर में बीस से अधिक मन्दिर थे जिनमें रेंगेजी का मन्दिर बौद्ध धर्म की ‘जोदो शिंश्यू’2 शाखा का सबसे प्राचीन और प्रसिद्ध मन्दिर माना जाता था।
पहले तल्ले की खिड़कियों से ऊंचे गिंको पेडों की शाखाओं के बीच से ‘इईयामा’ शहर का काफ़ी भाग दिखाई देता था। उस शिंश्यू प्रदेश में इईयामा शहर बौद्ध तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध था। लगता था जैसे इईयामा का अतीत हमारे सामने प्रकट हो रहा हो। उत्तरी जापान की अपनी विशेष निर्माण-शैली में बनाये गये मकानों की छत ‘शिंगल’ के खपरैलों से बनायी जाती थी जो वहाँ की सर्दी के दिनों में बर्फ़ से बचने के लिए नीचे ज़मीन तक लम्बी होती थी। मन्दिरों के ऊँचे शिखर जगह-जगह पेड़ों के हरे मुकुट के ऊपर उठते हुए-से दीखते थे। अगरबत्तियों की महक और धुआँ-धुन्ध-सा वातावरण-ऐसा ही कुछ उस पुराने शहर का दृश्य था। इस पुरानेपन में आधुनिकता का कोई संकेत था तो वह सफ़ेदी से पुता प्रथामिक शाला का भवन, जहाँ उशिमात्सु पढ़ाता था। उशिमात्सु के एकाएक अपना आवास बदलने के निर्णय के पीछे एक विशेष कारण था। जिस मकान में वह रहता था उसमें एक बहुत ही अप्रिय घटना घट गयी थी। मन्दिर वाले कमरे का किराया अगर इतना कम न होता तो वहाँ कोई भी नहीं ठहरता। कमरे की दीवार पर चढ़ाया गया कागज पुराना पड़ जाने के कारण रसोईघर की दीवार की तरह पीला नज़र आ रहा था।
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1. जापान के नगानो प्रान्त के इईयामा शहर का बौद्ध मन्दिर लेखक शिमाज़ाकि तोसोन की कथा की पार्श्वभूमि रहा है।
2. बारहवीं शताब्दी के बौद्ध आचार्य सिंरान (1173-1262) ने जोदो शाखा से हटकर जोदो शिंश्यू शाखा को प्रचलित किया। इन शाखावलम्बियों का विश्वास था कि ‘नमो अमिदा बुद्ध’ का जाप करते रहने से कोई भी व्यक्ति मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। सामान्य लोगों में, विशेषकर ग्रामीण जनता के बीच यह शाखा काफ़ी लोकप्रिय रही।
इसलिए कमरे में उजाला कम लगता था। कमरे के तोकोनोमा1 में टँगे एक चित्र और एक हिबाचि2 के सिवा वहाँ बैठने का आसन या कोई अन्य साधन नहीं था। एक कमरा क्या था मानो एक परिव्राजक भिक्षु का कक्ष था। प्राइमरी स्कूल के एक अदने-से मास्टर के लिए वह कमरा इतना बुरा भी नहीं था। किन्तु उशिमात्सु को वहाँ एक अजीब सूनापन, मायूस करनेवाला अकेलापन महसूस हुआ। वह जिस मकान में रहता था वहाँ बात कुछ यों हुई। कोई दो सप्ताह पहले शिमोतकाई इलाके का कोई सम्पन्न व्यक्ति, ओहिनाता उसका नाम था, इईयामा के अस्पताल में भर्ती होने के लिए आया था। वहाँ प्रवेश मिलने तक वह भी उसी मकान में थोड़े दिनों के लिए रुका था। उसके साथ उसका नौकर भी था। जल्दी ही वह अस्पताल में भर्ती भी हो गया था। पहले से ही उसकी चाल-ढाल-जैसे कि अस्पताल में उसका सबसे बढ़िया कमरे में रहना, एक नर्स का सहारा लेकर अस्पताल के लम्बे बरामदे में उसका टहलना-घूमना आदि-उसकी सम्पन्नता की दुहाई दे रहे थे और यह बात किसी की नज़र से छिपी भी न रही।
न जाने कब किसने ईर्ष्या के कारण या और किसी उद्देश्य से यह बात अस्पताल में फैला दी कि ओहिनाता नीच जाति का एता है। बस अस्पताल में ज्योंही यह खबर आग की तरह फैली कि सारे के सारे मरीज आग-बबूला होकर विद्रोह कर उठे। अस्पताल के निदेशक के पास उन्होंने धमकी भेजी-‘उसे इसी वक्त बाहर करो वरना हम सभी इसी क्षण अस्पताल खाली करते हैं’ इस तरह के वहम को ऐसी भ्रमजनित धारणा को क्या पैसे के बल से दूर किया जा सकता था उस हंगामे के तुरन्त बाद, शाम के धुँधलके में ओहिनाता लुक-छिपकर एक पालकी में बैठकर स्वयं अस्पताल से निकल आया। और उसी आवास घर में आ गया जहाँ वह पहले रुका था। अस्पताल का डॉक्टर रोज यहाँ आकर उसका इलाज कर जाता था। अब आवासघर के सदस्यों की ओहिनाता के खिलाफ आवाज़ उठाने की नौबत आयी।
एक दिन दोपहर की बात थी। उशिमात्सु स्कूल में पढ़ाने का अपना काम पूरा करके घर लौटा तो देखा कि वहाँ कुहराम मचा हुआ है। सभी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर मकान की मालकिन से कह रहे हैं-‘भ्रष्ट है वह दूषित है, पतित जाति का है वह।’
उशिमात्सु समझ गया कि उनका इशारा ओहिनाता की ओर था। उसकी वैसी बदनामी, घोर अपमान देखकर उशिमात्सु दुःख से विह्वल हो गया। लोगों के ऐसे अमानुषिक व्यवहार से वह मन-ही मन रो पड़ा। भ्रष्ट जाति के, एता कहे जाने वाले लोगों की बदनसीबी के बारे में वह सोचने लगा। वह स्वयं भी तो उन्हीं में से था।
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1. जापान के मकानों के कमरे में एक हिस्से को फ़र्श की सतह से ऊँचा बनाया जाता है जहाँ कमरे की सजावट की वस्तुएँ होती हैं। उस ऊँचे स्थान से लगी दीवार पर कोई लम्बा-सा चित्र और सामने फूलदान या सजावट की कोई और चीज़ रखने का रिवाज़ है। उस स्थान को छोड़कर और कहीं सजावट नहीं होती।
2. पुराने जापानी घरों में कमरे को गरम रखने के लिए काम में लायी जाने वाली लकड़ी के कोयले की अँगीठी, जो लोहा या चीनी मिट्टी से बनती है। इस पर पानी भरी केतली भी रखी जाती है जो चाय बनाने के लिए काम आती है।
जो कोई उशिमात्सु से मिलेगा वह यही समझेगा कि वह उत्तरी शिंश्यू इलाके की धरती पर पला है। तभी वह हट्टा-कट्टा है और उसे साकुचिकता के पथरीले प्रदेश ने सख़्त और सुदृढ़ बनाया है। बाईस वर्ष की कम उम्र में ही उसने नगानो के टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज से प्रथम श्रेणी में पास होकर अध्यापक का प्रमाण-पत्र भी पा लिया था। भाग्य उसे इईयामा तक खींच लाया। अब तीन साल होने को आ गये। यहाँ के लोगों की दृष्टि में वह एक प्रबुद्ध युवा अध्यापक था। किसी को इसकी भनक तक नहीं थी कि वह असल में निन्दित ‘एता’ जाति का था जिस वर्ग के लोगों को उस जमाने में ‘नये पामर’ की संज्ञा भी दी जाती थी।
‘‘आप यहाँ रहने के लिए कब से आ रहे हैं ? रेंगेजी मन्दिर के पुजारी की पत्नी ने कमरे में दाखिल होते ही पूछा।
उसकी आयु पचास वर्ष की होगी। भूरे रंग की बारीक़ नमूनों में बुनी ‘हाओरी’1 पहने हुए थी। उसके सफेद पतले हाथ में जपमाला थी। श्रमणी बन जाने की दीक्षा ली थी किन्तु सिर के केश मुँड़ाये नहीं थे। आदर से लोग उसे ‘श्रमणी’ जी बुलाते थे। पुराने जमाने के विचार रखते हुए भी वह थोड़ी-बहुत शिक्षित थी। उसकी बोलचाल से लगता था कि उसे शहरी तहजीब की जानकारी थी। दूसरों की सेवा करने की उसके मन की तत्परता उसके चेहरे पर झलकती थी। दबी आवाज में ‘नेम्बुत्सु’ जपती हुई वह खड़ी रही जैसे कि वह उशिमात्सु के उत्तर की प्रतीक्षा कर रही थी।
उशिमात्सु भी सोच रहा था। कहना तो चाहता था-‘कल या आज की शाम को ही आ जाऊँगा।’ लेकिन उसका हाथ तंग था। सामान के अदल-बदल के लिए उसके पास जो सैंतालीस सेन3 बचे थे, वे पर्याप्त नहीं थे। जिस मकान को वह छोड़ रहा था वहाँ के कमरे का किराया भी तो उसे चुकाना था। स्कूल का वेतन पाने के लिए परसों तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। इसी असमंजस में पड़ा हुआ बोला, ‘‘सोचता हूँ, परसों दोपहर के बाद आ जाऊँ तो कैसा रहेगा ?’’
‘‘परसों ?’’ कहकर पुजारी की पत्नी उसे आश्चर्य से देखने लगी।’’
‘‘क्यों ? परसों मेरे यहाँ आने में आपको कोई आपत्ति है ? उशिमात्सु अचानक उत्तेजित हो गया।’’
‘‘नहीं नहीं, कोई आपत्ति नहीं है। परसों 28 तारीख जो है। मैंने सोचा, आप शायद पहली तारीख को ही आना चाहेंगे।’’
सो तो ठीक है। अक्सर होता भी ऐसा ही है। लेकिन मैंने एकाएक कमरा बदलने का जो निर्णय कर लिया था। उशिमात्सु ने बात वहीं खत्म की और दूसरी उस मकान में घटी हुई घटना उसके
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1. जापानी पोशाक किमोनो के ऊपर पहना जाने वाला कोट।
2. ‘नमो अमिदा बुद्ध’ का विकृत रूप।
3. जापानी सिक्का। सौ सेन का एक ‘येन’ बनता है। किन्तु आजकल सेन प्रचलन में नहीं है।
मन में उथल-पुथल मचा रही थी। वहाँ की बात कोई न पूछ बैठे, इसका उसे डर था। ‘एता’ के बारे में किसी भी तरह की चर्चा को टाल देना, मानो उसका दस्तूर-सा बन गया था।
‘नेम्बुत्सु नेम्बुत्सु’ जपती हुई श्रमणीजी कमरे से निकल गयी। बातचीत को आगे बढ़ाकर उशिमात्सु का मन टटोलने की शायद उसे कोई इच्छा नहीं थी।
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