नाटक-एकाँकी >> नेपथ्य राग नेपथ्य रागमीरा कांत
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प्रस्तुत है नेपथ्य राग...
Nepathya Rag
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कथासार
‘नेपथ्य राग’ उस रागिनी की कथा है जो युग-युगान्तर से समाजरूपी रंगमंच के केन्द्र में आने के लिए संघर्षरत है। इसी संघर्ष को नाटक प्रस्तुत करता है इतिहास और पौराणिक आख्यान की देहरी पर प्रज्वलित एक दीपशिखा के माध्यम से, जिसे नाम मिला है खना।
नाटक का आरम्भ आधुनिक परिवेश में कथावाचन शैली में होता है जहाँ एक कामकाजी युवती मेधा कार्यालय में अपने पुरुष सहकर्मियों से सहयोग न मिल पाने के कारण दुःखी है। मेधा इन स्थितियों की समीक्षा करना चाहती है कि तभी उच्च पदाधिकारी उसकी माँ उसे दृष्टान्त के रूप में एक कहानी सुनाती है जो मेधा के दर्द को एक बृहत्तर आयाम देती है-खना की कहानी। माँ और मेधा के सम्भाषण के सूत्र में खना यानी एक प्रतिभावान, अध्यवसायी स्त्री के दर्द की कथा को पिरोया गया है।
नाटक का पृष्ठाधार है चौथी-पाँचवीं शताब्दी की उज्जयिनी जब वहाँ मालवगणनायक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन था। इसी समय एक ग्रामबाला खना की ज्ञान-प्राप्ति की तृषा उसे साहित्य व कला के धाम उज्जयिनी ले आती है। अपनी विलक्षण बुद्धि एवं एकनिष्ठ जिज्ञासा के कारण उसे प्रख्यात ज्योतिषाचार्य वराह मिहिर का शिष्यत्व प्राप्त होता है। शीघ्र पृथुयशस खना के ज्ञान से ढँके अक्षत सौन्दर्य के प्रति आसक्त है। खना के गुरु आचार्य वराह अब उसके श्वसुर भी हैं।
वराह मिहिर विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक हैं। उनका राजसभा से सम्बन्ध खना देवी की बढ़ती ज्ञान-कीर्ति को वहाँ तक ले जाता है। विक्रमादित्य ज्ञान के आलोक से दीप्त इस व्यक्तित्व की ओर बहुत तेज़ी से आकृष्ट होते हैं। वे खना देवी को अपनी राजसभा में एक सभासद के रूप में अलंकृत करना चाहते हैं। यहीं पुरुषप्रधान समाज के प्रतिनिधि नवरत्न इस प्रयास को कुटिल चातुर्य से ध्वस्त कर देते हैं। इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि स्वयं खना के गुरु और श्वसुर आचार्य वराह तटस्थ रहकर इस षड्यंत्र का एक सक्रिय कारक बनते हैं। विक्रमादित्य के नवरत्न खना को सभासद के रूप में प्रत्यक्षतः स्वीकार करके राजसभा में एक मूक सभासद के रूप में उसके प्रवेश को ही अपनी सहमति प्रदान करते हैं। उनकी यह सहमति प्रकारान्तर से खना के विदुषी रूप का निषेध है।
नाटक के अन्त में मेधा यह जानने को उत्सुक है कि अन्ततः खना का क्या हुआ। माँ बताती है कि वास्तविक अन्त तो किसी को मालूम नहीं परन्तु कुछ का मानना है कि उसकी जिह्वा काट दी गयी, कुछ का मानना है कि अपने परिवार और श्वसुर को अपमान से बचाने के लिए उसने स्वयं अपनी जिह्वा काट ली। परन्तु तभी दादी इसे एक अन्य आयाम दे देती हैं यह कहकर कि उनकी दादी (दादी की दादी) बताती थीं कि खना की जिह्वा तो स्वयं वराह मिहिर ने काट ली थी।
दादी की इस उक्ति पर नाटक का अन्त होना प्रतीकात्मक है क्योंकि वैचारिक अभिव्यक्ति से रहित स्त्री ही समाज को स्वीकार्य रही है। यह दृष्टिकोण पीढ़ी-दर-पीढ़ी पारम्परिक रूप से शताब्दियों से बहता चला आया है और इसने जनमानस में अपनी ज़मीन तलाश ली है। इसी ज़मीन पर समय-समय पर कहीं-कहीं फूटते हैं पौधे दर्द के, चुभन के- इस एहसास के कि खना शताब्दियों पहले भी नेपथ्य में थी और आज भी सही मायने में नेपथ्य में ही है।
नाटक का आरम्भ आधुनिक परिवेश में कथावाचन शैली में होता है जहाँ एक कामकाजी युवती मेधा कार्यालय में अपने पुरुष सहकर्मियों से सहयोग न मिल पाने के कारण दुःखी है। मेधा इन स्थितियों की समीक्षा करना चाहती है कि तभी उच्च पदाधिकारी उसकी माँ उसे दृष्टान्त के रूप में एक कहानी सुनाती है जो मेधा के दर्द को एक बृहत्तर आयाम देती है-खना की कहानी। माँ और मेधा के सम्भाषण के सूत्र में खना यानी एक प्रतिभावान, अध्यवसायी स्त्री के दर्द की कथा को पिरोया गया है।
नाटक का पृष्ठाधार है चौथी-पाँचवीं शताब्दी की उज्जयिनी जब वहाँ मालवगणनायक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन था। इसी समय एक ग्रामबाला खना की ज्ञान-प्राप्ति की तृषा उसे साहित्य व कला के धाम उज्जयिनी ले आती है। अपनी विलक्षण बुद्धि एवं एकनिष्ठ जिज्ञासा के कारण उसे प्रख्यात ज्योतिषाचार्य वराह मिहिर का शिष्यत्व प्राप्त होता है। शीघ्र पृथुयशस खना के ज्ञान से ढँके अक्षत सौन्दर्य के प्रति आसक्त है। खना के गुरु आचार्य वराह अब उसके श्वसुर भी हैं।
वराह मिहिर विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक हैं। उनका राजसभा से सम्बन्ध खना देवी की बढ़ती ज्ञान-कीर्ति को वहाँ तक ले जाता है। विक्रमादित्य ज्ञान के आलोक से दीप्त इस व्यक्तित्व की ओर बहुत तेज़ी से आकृष्ट होते हैं। वे खना देवी को अपनी राजसभा में एक सभासद के रूप में अलंकृत करना चाहते हैं। यहीं पुरुषप्रधान समाज के प्रतिनिधि नवरत्न इस प्रयास को कुटिल चातुर्य से ध्वस्त कर देते हैं। इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि स्वयं खना के गुरु और श्वसुर आचार्य वराह तटस्थ रहकर इस षड्यंत्र का एक सक्रिय कारक बनते हैं। विक्रमादित्य के नवरत्न खना को सभासद के रूप में प्रत्यक्षतः स्वीकार करके राजसभा में एक मूक सभासद के रूप में उसके प्रवेश को ही अपनी सहमति प्रदान करते हैं। उनकी यह सहमति प्रकारान्तर से खना के विदुषी रूप का निषेध है।
नाटक के अन्त में मेधा यह जानने को उत्सुक है कि अन्ततः खना का क्या हुआ। माँ बताती है कि वास्तविक अन्त तो किसी को मालूम नहीं परन्तु कुछ का मानना है कि उसकी जिह्वा काट दी गयी, कुछ का मानना है कि अपने परिवार और श्वसुर को अपमान से बचाने के लिए उसने स्वयं अपनी जिह्वा काट ली। परन्तु तभी दादी इसे एक अन्य आयाम दे देती हैं यह कहकर कि उनकी दादी (दादी की दादी) बताती थीं कि खना की जिह्वा तो स्वयं वराह मिहिर ने काट ली थी।
दादी की इस उक्ति पर नाटक का अन्त होना प्रतीकात्मक है क्योंकि वैचारिक अभिव्यक्ति से रहित स्त्री ही समाज को स्वीकार्य रही है। यह दृष्टिकोण पीढ़ी-दर-पीढ़ी पारम्परिक रूप से शताब्दियों से बहता चला आया है और इसने जनमानस में अपनी ज़मीन तलाश ली है। इसी ज़मीन पर समय-समय पर कहीं-कहीं फूटते हैं पौधे दर्द के, चुभन के- इस एहसास के कि खना शताब्दियों पहले भी नेपथ्य में थी और आज भी सही मायने में नेपथ्य में ही है।
पात्र-परिचय
खनाः आयु लगभग 20 वर्ष। व्यक्तित्व में आत्मविश्वास व चेहरे पर तेजस्विता की कान्ति, विनम्र, सुदर्शना।
वराह मिहिरः आयु लगभग 60 वर्ष। सुविख्यात ज्योतिषाचार्य, विद्वान, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक रत्न। गणराज्य के भौतिकी व जनहित विभाग के प्रभारी। पृथुयशस के पिता और खना के गुरु व श्वसुर।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यः आयु लगभग 50 वर्ष। मालवगणराज्य के नरेश। भव्य व्यक्तित्व, संवेदनशील। लीक से हटकर कुछ करने की क्षमता वाले।
सुबन्धु भट्टः आयु लगभग 40 वर्ष। सौम्य व्यक्तित्व, सामान्य कद-काठी, अध्ययन में रुचि, खना के बन्धु काका।
मेधाः आयु लगभग 26 वर्ष। आधुनिक पात्र, दफ्तर में अपने विभाग की प्रभारी, ऊर्जा से भरपूर, मेधावी, कर्मठ।
माँ: आयु लगभग 58 वर्ष। आधुनिक पात्र, मेधा की माँ, सरकारी सेवा में उच्च पदासीन। महादेवीः आयु लगभग 35 वर्ष। मालवगणराज्य विक्रमादित्य की राजमहिषी, लावण्यमयी, बुद्धिमती,व्यवहारकुशल।
दादीः आयु लगभग 75 वर्ष। आधुनिक पात्र, मेधा की दादी।
पृथुयशसः आयु लगभग 26 वर्ष। उदीयमान ज्योतिषाचार्य, सुदर्शन, प्रभावशाली व्यक्तित्व। आचार्य वराह मिहिर का पुत्र और खना का पति।
धन्वन्तरिः आयु लगभग 80 वर्ष। आयुर्वेद के उद्भट विद्वान, ऊँचा कद, सफेद बाल व सफेद दाढ़ी। विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक रत्न। गणराज्य के स्वास्थ्य विभाग के प्रभारी। वररुचिः आयु लगभग 55 वर्ष। प्राकृत के सुप्रसिद्ध वैयाकरण। विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक रत्न। गणराज्य के शिक्षा विभाग के प्रभारी।
क्षपणकः आयु लगभग 60 वर्ष। मालवगणराज्य के सुप्रसिद्ध न्यायविद् एवं गणराज्य की न्याय व्यवस्था के प्रभारी। विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक रत्न।
घटखर्परः आयु लगभग 50 वर्ष। मालवगणराज्य के नवरत्नों में से एक रत्न। गणराज्य में
आविष्कार विभाग के प्रभारी।
निर्धन पुरुषः आयु लगभग 50 वर्ष। मैले-फटे वस्त्र व कम्बल धारण किये, मुख पर लम्बी (विक्रमादित्य का छद्म रूप) धारण किये, मुख पर लम्बी मैली दाढ़ी,कमर दुःखों के बोझ से झुकी हुई-सी।
द्वारपाल
प्रतिहारी
वराह मिहिरः आयु लगभग 60 वर्ष। सुविख्यात ज्योतिषाचार्य, विद्वान, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक रत्न। गणराज्य के भौतिकी व जनहित विभाग के प्रभारी। पृथुयशस के पिता और खना के गुरु व श्वसुर।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यः आयु लगभग 50 वर्ष। मालवगणराज्य के नरेश। भव्य व्यक्तित्व, संवेदनशील। लीक से हटकर कुछ करने की क्षमता वाले।
सुबन्धु भट्टः आयु लगभग 40 वर्ष। सौम्य व्यक्तित्व, सामान्य कद-काठी, अध्ययन में रुचि, खना के बन्धु काका।
मेधाः आयु लगभग 26 वर्ष। आधुनिक पात्र, दफ्तर में अपने विभाग की प्रभारी, ऊर्जा से भरपूर, मेधावी, कर्मठ।
माँ: आयु लगभग 58 वर्ष। आधुनिक पात्र, मेधा की माँ, सरकारी सेवा में उच्च पदासीन। महादेवीः आयु लगभग 35 वर्ष। मालवगणराज्य विक्रमादित्य की राजमहिषी, लावण्यमयी, बुद्धिमती,व्यवहारकुशल।
दादीः आयु लगभग 75 वर्ष। आधुनिक पात्र, मेधा की दादी।
पृथुयशसः आयु लगभग 26 वर्ष। उदीयमान ज्योतिषाचार्य, सुदर्शन, प्रभावशाली व्यक्तित्व। आचार्य वराह मिहिर का पुत्र और खना का पति।
धन्वन्तरिः आयु लगभग 80 वर्ष। आयुर्वेद के उद्भट विद्वान, ऊँचा कद, सफेद बाल व सफेद दाढ़ी। विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक रत्न। गणराज्य के स्वास्थ्य विभाग के प्रभारी। वररुचिः आयु लगभग 55 वर्ष। प्राकृत के सुप्रसिद्ध वैयाकरण। विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक रत्न। गणराज्य के शिक्षा विभाग के प्रभारी।
क्षपणकः आयु लगभग 60 वर्ष। मालवगणराज्य के सुप्रसिद्ध न्यायविद् एवं गणराज्य की न्याय व्यवस्था के प्रभारी। विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक रत्न।
घटखर्परः आयु लगभग 50 वर्ष। मालवगणराज्य के नवरत्नों में से एक रत्न। गणराज्य में
आविष्कार विभाग के प्रभारी।
निर्धन पुरुषः आयु लगभग 50 वर्ष। मैले-फटे वस्त्र व कम्बल धारण किये, मुख पर लम्बी (विक्रमादित्य का छद्म रूप) धारण किये, मुख पर लम्बी मैली दाढ़ी,कमर दुःखों के बोझ से झुकी हुई-सी।
द्वारपाल
प्रतिहारी
देश-काल
चौथी-पाँचवी शताब्दी। मालवगणनायक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की उज्जयिनी तथा आचार्य वराह मिहिर के कापित्थक ग्राम की पृष्ठभूमि में संयोजित दृश्य-विधानों तथा किसी भी आधुनिक शहर को दर्शाती स्थितियों का सम्मिश्रण।
दृश्यः एक
[आधुनिक घर का एक कमरा। किसी उच्चाधिकारी के घर जैसा जहाँ अभिजात्य की छाप स्पष्ट है। कमरे में बहती हवा में तनाव है। माँ और मेधा में किसी गम्भीर विषय पर चल रही चर्चा के बीच ही अचानक पर्दा उठता है। माँ एक कुर्सी पर बैठी है जबकि मेधा खड़ी है। माँ प्रौढ़ा है जिसके बालों में चाँदनी झलक रही है। माँ ने हैण्डलूम की साड़ी पहन रखी है। छरहरे बदन की मेधा माँ का प्रतिरूप प्रतीत हो रही है। उसने पैण्ट व टी-शर्ट पहन रखी है। मेज़ पर चाय की दो प्यालियाँ हैं।]
मेधाः तुम मेरी प्रॉब्लम नहीं समझ रही हो...(स्वगत) या शायद समझ नहीं सकतीं...(मुखरित) तुम इसे अपने टाइम से इक्वेट कर रही हो। थिंग्स आर वेरी डिफ्रेण्ट नाव।
माँ (संयत स्वर में) आई नो..आई नो...मगर मेधा...
मेधाः (स्वर में परेशानी) नहीं ममा नहीं...
माँ ऐसे परेशान होने से...मेरा मतलब...तुम समझने की कोशिश करो...ऑफिस में तो ये सब चलता ही रहता है।
मेधाः तुम मेरी प्रॉब्लम को जनेरेलाइज़ कर रही हो...मेरा ऑफिस....
माँ क्यों ? तुम्हारे ऑफिस में क्या खास बात है ? तुम क्या इसे आज के ज़माने की कोई नयी प्रॉब्लम समझ रही हो ? तुम्हारे ही शब्दों में....क्या है वो...पोस्ट मॉडर्न प्रॉब्लम!
(तभी दादी का प्रवेश। उनके हाथ में तह की हुई एक साड़ी है। वह मेज पर रखे चाय के प्यालों को देख रुकती हैं।)
दादीः (प्याले में झाँकते हुए) अरे चाय तो वैसी ही रखी है...अब तो ठण्डी हो गयी होगी।
(माँ और मेधा दादी की ओर देखती हैं। फिर दादी माँ की ओर बढ़ती है।)
बहू प्रेस के लिए मेरी यह साड़ी भी भिजवा देना...सोचती हूँ इन गर्मियों में इसे पहन ही डालूँ।
(माँ खड़ी होकर साड़ी लेती है मगर ध्यान बराबर अपनी बीच में ही रुक गयी बात में और मेधा पर है।)
माँ जी माँजी...भिजवा दूँगी।
दादीः (दर्शकों को सम्बोधित करते मानो स्वगत) सन्ध्या बाती के समय न जाने क्या गूदड़ झगड़े लिए बैठी हैं दोनों!
(कहते-कहते मंच से निकल जाती है।)
मेधाः (स्वर में आर्द्रता) ममा...ममा, मन में एक घुटन-सी होती है। समझ में नहीं आता क्या करूँ...
माँ (पास आकर कन्धे पकड़ती है और कोमल उदास स्वर में) मैं समझती हूँ मेधा...समझती हूँ पर...(ज़रा हटकर उदासी से उबरने का प्रयास करते हुए) अच्छा बताओ वॉक पर चलोगी ?
मेधाः (चौंककर) वॉक!!
माँ हाँ..मैं तुम्हें एक कहानी सुनाना चाहती हूँ।
मेधाः (खीझ के साथ) ओ ममा...प्लीज़...मैं अपनी प्रॉब्लम्स में...
माँ (संयत स्वर में) जानती हूँ...तभी तो...
मेधाः क्या तभी तो ?
माँ तभी तो कहानी सुनाऊँगी। (मंच पर आगे की ओर आते हुए) सदियों से चली आ रही कहानी...वॉक करते हुए एक चली आ रही कहानी। (ठहरकर सोचते हुए) नहीं ठहरी हुई स्थिति की कहानी!
मेधाः कौन-सी कहानी ? किसकी कहानी ?
माँ औरत की कहानी..पढ़ी-लिखी प्रतिभावान औरत की कहानी....खना की कहानी।
मेधाः (माँ के पास आकर) खना ? खना कौन ?
माँ पहली महिला ज्योतिषी...जिसके ज्योतिष सम्बन्धी वचन आज तक प्रचलित हैं।
मेधाः तुम हिस्ट्री की बात कर रही हो या माइथॉलोजी की ?
माँ (मेज़ से प्याला उठाकर एक घूँट भरती है, प्याला वापस रखते हुए) यही तो मुश्किल है इस देश में...समय बह रहा है..लगातार एक गोल घेरे में...कहाँ कब माइथॉलोजी खत्म होती है और हिस्ट्री शुरू होती है..सब....सब इतना घुला-मिला है दूध में पानी की तरह कि कभी लगता है पानी नहीं दूध है और कभी लगता है दूध नहीं पानी है। क्यों ? भूल गयीं ? एक अँग्रेज़ अफसर ने अपने आका को यहाँ का हाल सुनाते हुए नहीं लिखा था अपने एक खत में कि.... (याद-सा करती है।)
मेधाः हाँ...हाँ..शायद यही कि ‘देव हैव नो सेंस ऑफ हिस्ट्री’....इतिहास का बोध नहीं है इन्हें।
माँ (स्वर में उत्तेजना) जी हाँ....उसके शब्द थे....‘दीज़ इण्डियन्स आर सच ईडियट्स दैट दे यूज सेम वर्ड फॉर येस्टरडे एण्ड दुमॉरो।
मेधाः क्या ?
माँ हाँ...हम येस्टरडे और टुमॉरो दोनों के लिए क्या एक ही शब्द-इस्तेमाल नहीं करते ? कल...यानी एक बीता हुआ कल और एक आनेवाला!
मेधाः हाँ...मगर ऐसा है क्यों ?
माँ क्योंकि अनुभव हमारे लिए समय से बाहर हैं...कालातीत अनुभवों में विश्वास करते हैं हम। तभी तो हमारे यहाँ मिथक और इतिहास के बीच की रेखा स्पष्ट नहीं हो पाती है कभी-कभी....चलो वॉक करते हुए सुनाती हूँ।
मेधाः (खुद को निरखकर) क्या चेंज करूँ ?
माँ (बेपरवाही से) नहीं, ठीक हो।
(दोनों चलने लगती हैं।)
ये जो खना थी...माइथॉलोजी के अनुसार सिंहलद्वीप के मय दानव की बेटी थी...पर अब हमें इससे क्या! मेरी कहानी चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के युग की कहानी है..यही कोई चौथी-पाँचवी शताब्दी का उज्जैन....लगभग डेढ़ हजार साल पहले। पता नहीं खना कहाँ की होगी....मान लो उज्जैन के आस-पास के किसी गाँव या प्रदेश में रहती थी। ज्ञान की चाह उसे शहर खींच लायी होगी। उस युग में हॉस्टल में तो रहती नहीं होगी। अपने किसी सम्बन्धी के यहाँ ही रही होगी। ज़ाहिर है वह सम्बन्धी विद्वान भी होगा। शायद उसका मामा हो या चाचा। कोई (मुस्कराकर) भी हो सकता है। मान लो चाचा था।
मेधाः (खीझकर) ओ हो...अब असली बात पर आएँ।
माँ बिना भटके...इतनी जल्दी! फास्ट फूड की तरह ?
मेधाः (झल्लाकर) ममा प्लीज़!
माँ (दूर की कहानी में खोते हुए) चलो, वह अपने चाचा सुबन्धु भट्ट के पास रहने आयी थी। वो सुबन्धु भट्ट जिन्हें वह प्यार से बन्धु काका कहती थी।
मेधाः (मां को कहानी में डूबता देख स्वयं भी उस कहानी की वीथि की ओर बढ़ते हुए) बन्धु काका!
मेधाः तुम मेरी प्रॉब्लम नहीं समझ रही हो...(स्वगत) या शायद समझ नहीं सकतीं...(मुखरित) तुम इसे अपने टाइम से इक्वेट कर रही हो। थिंग्स आर वेरी डिफ्रेण्ट नाव।
माँ (संयत स्वर में) आई नो..आई नो...मगर मेधा...
मेधाः (स्वर में परेशानी) नहीं ममा नहीं...
माँ ऐसे परेशान होने से...मेरा मतलब...तुम समझने की कोशिश करो...ऑफिस में तो ये सब चलता ही रहता है।
मेधाः तुम मेरी प्रॉब्लम को जनेरेलाइज़ कर रही हो...मेरा ऑफिस....
माँ क्यों ? तुम्हारे ऑफिस में क्या खास बात है ? तुम क्या इसे आज के ज़माने की कोई नयी प्रॉब्लम समझ रही हो ? तुम्हारे ही शब्दों में....क्या है वो...पोस्ट मॉडर्न प्रॉब्लम!
(तभी दादी का प्रवेश। उनके हाथ में तह की हुई एक साड़ी है। वह मेज पर रखे चाय के प्यालों को देख रुकती हैं।)
दादीः (प्याले में झाँकते हुए) अरे चाय तो वैसी ही रखी है...अब तो ठण्डी हो गयी होगी।
(माँ और मेधा दादी की ओर देखती हैं। फिर दादी माँ की ओर बढ़ती है।)
बहू प्रेस के लिए मेरी यह साड़ी भी भिजवा देना...सोचती हूँ इन गर्मियों में इसे पहन ही डालूँ।
(माँ खड़ी होकर साड़ी लेती है मगर ध्यान बराबर अपनी बीच में ही रुक गयी बात में और मेधा पर है।)
माँ जी माँजी...भिजवा दूँगी।
दादीः (दर्शकों को सम्बोधित करते मानो स्वगत) सन्ध्या बाती के समय न जाने क्या गूदड़ झगड़े लिए बैठी हैं दोनों!
(कहते-कहते मंच से निकल जाती है।)
मेधाः (स्वर में आर्द्रता) ममा...ममा, मन में एक घुटन-सी होती है। समझ में नहीं आता क्या करूँ...
माँ (पास आकर कन्धे पकड़ती है और कोमल उदास स्वर में) मैं समझती हूँ मेधा...समझती हूँ पर...(ज़रा हटकर उदासी से उबरने का प्रयास करते हुए) अच्छा बताओ वॉक पर चलोगी ?
मेधाः (चौंककर) वॉक!!
माँ हाँ..मैं तुम्हें एक कहानी सुनाना चाहती हूँ।
मेधाः (खीझ के साथ) ओ ममा...प्लीज़...मैं अपनी प्रॉब्लम्स में...
माँ (संयत स्वर में) जानती हूँ...तभी तो...
मेधाः क्या तभी तो ?
माँ तभी तो कहानी सुनाऊँगी। (मंच पर आगे की ओर आते हुए) सदियों से चली आ रही कहानी...वॉक करते हुए एक चली आ रही कहानी। (ठहरकर सोचते हुए) नहीं ठहरी हुई स्थिति की कहानी!
मेधाः कौन-सी कहानी ? किसकी कहानी ?
माँ औरत की कहानी..पढ़ी-लिखी प्रतिभावान औरत की कहानी....खना की कहानी।
मेधाः (माँ के पास आकर) खना ? खना कौन ?
माँ पहली महिला ज्योतिषी...जिसके ज्योतिष सम्बन्धी वचन आज तक प्रचलित हैं।
मेधाः तुम हिस्ट्री की बात कर रही हो या माइथॉलोजी की ?
माँ (मेज़ से प्याला उठाकर एक घूँट भरती है, प्याला वापस रखते हुए) यही तो मुश्किल है इस देश में...समय बह रहा है..लगातार एक गोल घेरे में...कहाँ कब माइथॉलोजी खत्म होती है और हिस्ट्री शुरू होती है..सब....सब इतना घुला-मिला है दूध में पानी की तरह कि कभी लगता है पानी नहीं दूध है और कभी लगता है दूध नहीं पानी है। क्यों ? भूल गयीं ? एक अँग्रेज़ अफसर ने अपने आका को यहाँ का हाल सुनाते हुए नहीं लिखा था अपने एक खत में कि.... (याद-सा करती है।)
मेधाः हाँ...हाँ..शायद यही कि ‘देव हैव नो सेंस ऑफ हिस्ट्री’....इतिहास का बोध नहीं है इन्हें।
माँ (स्वर में उत्तेजना) जी हाँ....उसके शब्द थे....‘दीज़ इण्डियन्स आर सच ईडियट्स दैट दे यूज सेम वर्ड फॉर येस्टरडे एण्ड दुमॉरो।
मेधाः क्या ?
माँ हाँ...हम येस्टरडे और टुमॉरो दोनों के लिए क्या एक ही शब्द-इस्तेमाल नहीं करते ? कल...यानी एक बीता हुआ कल और एक आनेवाला!
मेधाः हाँ...मगर ऐसा है क्यों ?
माँ क्योंकि अनुभव हमारे लिए समय से बाहर हैं...कालातीत अनुभवों में विश्वास करते हैं हम। तभी तो हमारे यहाँ मिथक और इतिहास के बीच की रेखा स्पष्ट नहीं हो पाती है कभी-कभी....चलो वॉक करते हुए सुनाती हूँ।
मेधाः (खुद को निरखकर) क्या चेंज करूँ ?
माँ (बेपरवाही से) नहीं, ठीक हो।
(दोनों चलने लगती हैं।)
ये जो खना थी...माइथॉलोजी के अनुसार सिंहलद्वीप के मय दानव की बेटी थी...पर अब हमें इससे क्या! मेरी कहानी चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के युग की कहानी है..यही कोई चौथी-पाँचवी शताब्दी का उज्जैन....लगभग डेढ़ हजार साल पहले। पता नहीं खना कहाँ की होगी....मान लो उज्जैन के आस-पास के किसी गाँव या प्रदेश में रहती थी। ज्ञान की चाह उसे शहर खींच लायी होगी। उस युग में हॉस्टल में तो रहती नहीं होगी। अपने किसी सम्बन्धी के यहाँ ही रही होगी। ज़ाहिर है वह सम्बन्धी विद्वान भी होगा। शायद उसका मामा हो या चाचा। कोई (मुस्कराकर) भी हो सकता है। मान लो चाचा था।
मेधाः (खीझकर) ओ हो...अब असली बात पर आएँ।
माँ बिना भटके...इतनी जल्दी! फास्ट फूड की तरह ?
मेधाः (झल्लाकर) ममा प्लीज़!
माँ (दूर की कहानी में खोते हुए) चलो, वह अपने चाचा सुबन्धु भट्ट के पास रहने आयी थी। वो सुबन्धु भट्ट जिन्हें वह प्यार से बन्धु काका कहती थी।
मेधाः (मां को कहानी में डूबता देख स्वयं भी उस कहानी की वीथि की ओर बढ़ते हुए) बन्धु काका!
दृश्य : दो
[दृश्य- एक में से ही दृश्य- दो प्रस्फुटित होता है। मंच पर दूसरी ओर से सुबन्धु भट्ट का दूरवीक्षक (दूरबीन) लिये प्रवेश। पीछे-पीछे उत्साहित खना भी चली आ रही है। उन दोनों के आते ही मंच पर चौथी-पाँचवीं शताब्दी के परिवेश की सृष्टि होती है। मंच पर नीला प्रकाश छा जाता है जो रात्रि का संकेत देता है। सुबन्धु भट्ट दूरवीक्षक एक ओर रख खना को आकाश के ग्रह-नक्षत्र देखने का संकेत करते हैं। खना देखना शुरू करती है। अचानक एक स्थान पर स्थिर होकर देखती है। चेहरे पर आश्चर्य व उत्साह का मिश्रित भाव उभरता है। सुबन्धु भट्ट एक मूढ़े पर बैठे उत्साहित होकर उसका देखना देखते हैं। मेधा और माँ एक ओर बैठ उन्हें निहारते हैं।]
सुबन्धु भट्ट : (जिज्ञासापूर्वक) क्या देखा खना ?
खना : (चेहरा पलटकर बताती है) पश्चिम के आकाश में शुक्र...सुन्दर...अति सु्न्दर! (दोबारा दूरवीक्षक में व्यस्त हो जाती है।)
सुबन्धु भट्ट : (मुस्कराकर) सुन्दर है!
खना : यह धनु का शुक्र होगा न बन्धु काका ?
सुबन्धु भट्ट : (गम्भीर स्वर में) इतने शीघ्र किसी निष्कर्ष पर मत पहुँचो। अभी देखो।
खना : देख तो रही हूँ।
सुबन्धु भट्ट : तुम सब कुछ बहुत शीघ्र जान लेना चाहती हो...अभी तो आयी हो उज्जयिनी...इस कला के धाम में...धीरे-धीरे सब सीख जाओगी।
खना : (प्रफुल्लित होकर) बन्धु काका! देखिए वो...अरून्धती...सप्तर्षियों के पास का तारा अरुन्धती! (दूरवीक्षक छोड़कर पलटती है। एक क्षण विचार कर) पर मैं ऐसा क्या कहती या करती हूँ कि आपको लगा...
सुबन्धु भट्ट : क्या ?
खना : यही कि सब कुछ बहुत शीघ्र जान लेना चाहती हूँ।
सुबन्धु भट्ट : क्यों, वह तुम्हारा आचार्य वराह मिहिर से मिलने का हठ...(छेड़ते हुए) दिन में दस बार स्मरण कराती हो।
खना : (रूठे से स्वर में) पर आपने तो कहा था कि वे प्राय: आपके यहाँ आते हैं।
सुबन्धु भट्ट : हाँ भई, आते हैं पर इधर कुछ दिनों से...मुझसे तो उनका पुत्रवत् व्यवहार है...परन्तु सुनता हूँ आजकल मालवगणनायक विक्रमादित्य अपने नवरत्नों को अलग-अलग परियोजनाओं में व्यस्त कर रहे हैं।
खना :(स्वर में अधैर्य) घर नहीं आ पा रहे तो क्या पाठशाला में भी भेंट नहीं हो पाती ?
सुबन्धु भट्ट : (मुस्कराकर) पाठशाला में उनका क्या काम! भोली हो...वे मालवगणनायक के नवरत्नों में हैं....देश के भौतिकी और जनहित विभाग के प्रभारी हैं....यह तो मेरा पूर्व पुण्य है कि वे स्नेहवश मुझे उपकृत करने यहाँ चले आते हैं। (विचारों में डूबकर) इधर न जाने क्यों कुछ अधिक ही समय हो गया।)
(तभी आचार्य वराह मिहिर का प्रवेश)
वराह मिहिर : (पुकारते स्वर में) सुबन्धु...सुबन्धु...भीतर हो क्या ?
सुबन्धु भट्ट : (अचम्भित होकर खड़े होते हुए) आचार्य वराह! आइए गुरुदेव!
(सुबन्धु भट्ट हाथ जोड़कर वराह मिहिर का स्वागत करते हैं।)
खना : (झटके के साथ उस ओर पलटती है) आचार्य वराह मिहिर! (आगे जाकर श्रद्धा से चरण स्पर्श करती है और फिर उनके चरण छोड़ती नहीं है।)
वराह मिहिर : (अचम्भित स्वर में) कौन ?
सुबन्धु भट्ट : मेरे स्वर्गीय पूज्य भाई की पुत्री है...खना...कुछ ही दिन हुए उज्जयिनी आयी है।
वराह मिहिर : उठो पुत्री!
खना : क्या आशीर्वाद नहीं मिलेगा गुरुवर ?
वराह मिहिर : सुखी रहो!
खना : (चरण नहीं छोड़ती) केवल इतना ही ?
वराह मिहिर : (नीचे खना की ओर देखते हैं) शून्य ललाट पर शीघ्र किसी के अनुराग का सौभाग्य-चिह्न दिखाई दे।
खना : (ऊपर से देखकर) बस, इतना ही गुरुवर ?
वराह मिहिर : (मुस्कराते हुए) केवल इतने से संतोष नहीं है तो चलो आज तुम्हें यह आशीष देते हैं कि किसी कुलीन सम्भ्रान्त श्रीमन्त के घर की कुललक्ष्मी बनो।
खना : (चरण छोड़ उठती है। फिर हाथ जोड़कर) मुझे आश्रय चाहिए...ज्ञान का आश्रय...आपका आश्रय....ज्ञानमार्गी होने का वरदान दीजिए।
वराह मिहिर : (अचम्भित होकर) ज्ञानमार्गी! उसके लिए सामान्य जीवन का त्याग करना पड़ता है। नहीं...ज्ञान के साथ निभ नहीं पाता है सामान्य जीवन।
खना : जानती हूँ गुरुवर। धृष्टता क्षमा करें...क्या हम साधारण को सामान्य नहीं कहते ? असाधारण उपलब्धि के लिए सामान्य जीवन का त्याग करना ही होता है।
वराह मिहिर : (खना को ठहरकर ध्यान से देखते हैं। क्षण भर के लिए विचार करते हैं। फिर अनिमेष देखते हुए) ओ...जीवन से तुम्हारी अपेक्षा क्या है ?
खना : (प्रसन्न हो स्वप्नलोक में खो-सी जाती है) जीवन से अपेक्षा! मेरी अपेक्षा! (प्रफुल्लित स्वर में) मैं...मैं..जीवन को अवनि से अम्बर तक आत्मसात करना चाहती हूँ। अपने इन स्थूल चक्षुओं को ज्ञान-चक्षु बनाना चाहती हूँ जिससे स्थूल आकृतियों के पार देख सकूँ। देश और काल की कारा से मुक्त दृष्टि चाहती हूँ।
सुबन्धु भट्ट : (स्वर में परेशानी) खना...तनिक...
खना : (सुबन्धु भट्ट की बात न सुन अपने लोक में बहती चली जाती है) पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक फैले गगन मण्डल में कभी चमकते, कभी ठिठकते, कभी विमुख होते ग्रह, नक्षत्रों व तारों का सत्त्व ग्रहण करना चाहती हूँ। उनसे बातें करना चाहती हूँ। आह! जीवन से अपेक्षा! (सारे मंच पर घूमते हुए) सूर्य से आत्मप्रकाश चाहती हूँ। चन्द्रमा से मन का संसार चाहती हूँ, मन की उधेड़बुन को समझना चाहती हूँ। मंगल से उत्साह और ऊर्जा चाहती हूँ। बुध से अभिव्यक्ति चाहती हूँ। बृहस्पति से विवेक चाहती हूँ। शुक्र से कलात्मक रचाव का सुख चाहती हूँ और शनि से....शनि से उचित-अनुचित की पहचान की सूक्ष्म दृष्टि! और हमारे जो तिरस्कृत, उपेक्षित छायाग्रह हैं-राहु और केतु, उनकी कृपा चाहती हूँ।
(आचार्य वराह के पास आती है।)
मुझे ज्योतिष की ज्योति का आशीर्वाद दीजिए गुरुवर...जिससे सृष्टि को समझ सकूँ..ग्रह-नक्षत्रों को साक्षात् देख पाऊँ....उनकी गति जानने-समझने में मेरी गति हो। ऐसा ज्ञान चाहिए जो भय से मुक्ति दे।
(मेधा आनन्दित हो आश्चर्य के साथ खना की ओर बढ़ने लगती है। तभी माँ उसे बाँह से खींच वापस ले आती है और खामोशी से देखने का संकेत करती है।)
वराह मिहिर : पुत्री, तुम्हारे ललाट की रेखाओं को जितना पढ़ पाया हूँ...वे कहती हैं कि तुम्हारी वाणी कहावतों की तरह मौखिक कविता बन जाएगी। जनमानस में फैलकर अमर हो जाएगी। जब तक पृथ्वी पर सूर्य रहेगा तुम पर गुरु की अक्षय अनुकम्पा रहेगी।
खना : (हाथ जोड़कर) आप को आकाश के गुरु की बात कर रहे हैं...बृहस्पति की...मैं तो पृथ्वी के गुरु की अनुकम्पा चाहती हूँ। आचार्य आपकी अनुकम्पा...
वराह मिहिर : (कुछ प्रसन्न कुछ हतप्रभ मुद्रा में मानो स्वयं से कह रहे हों) आज के दिन क्या दूसरे की इच्छा के आगे परास्त होने का मुहूर्त है ? (सुबन्धु भट्ट से) सुबन्धु भट्ट, आज का नक्षत्र तुम्हारी इस वत्सला की इच्छापूर्ति लेकर आया है।
(दर्शकों की ओर देखकर घोषणा करते स्वर में) मालवगणनायक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की राजसभा का यह नवरत्न वराह मिहिर आज इस बालिका खना को ज्योतिषशास्त्र में दीक्षित करने का वचन देता है।
सुबन्धु भट्ट : (नत होकर आर्द्र स्वर में) कल्पना में भी न सोचा था कि इस अबोध बालिका का स्वप्न में देखा गया स्वप्न इस प्रकार साकार होगा। आपकी हमारे समस्त परिवार पर अनुकम्पा है। आजीवन ऋणी रहूँगा, गुरुवर।
वराह मिहिर : (सुबन्धु भट्ट से कुछ धीमे स्वर में) यह नक्षत्रों की पूर्व निर्धारित नियति है सुबन्धु भट्ट। लगता है आज यहाँ आने का यही प्रयोजन रहा होगा। अब निकलता हूँ।
(वराह मिहिर तेज़ कदमों से प्रस्थान करते हैं। सुबन्धु भट्ट खना की ओर बढ़ते हैं। स्नेह से उसके कन्धे पर हाथ रखते हैं।)
खना : (द्रवित स्वर में) बन्धु काका....क्या यह सच है ?
सुबन्धु भट्ट : (दूरवीक्षक की ओर संकेत करके) जा आकाश से पूछ ले!
(दोनों हँसते हैं और दूसरी ओर प्रस्थान करते हैं।)
सुबन्धु भट्ट : (जिज्ञासापूर्वक) क्या देखा खना ?
खना : (चेहरा पलटकर बताती है) पश्चिम के आकाश में शुक्र...सुन्दर...अति सु्न्दर! (दोबारा दूरवीक्षक में व्यस्त हो जाती है।)
सुबन्धु भट्ट : (मुस्कराकर) सुन्दर है!
खना : यह धनु का शुक्र होगा न बन्धु काका ?
सुबन्धु भट्ट : (गम्भीर स्वर में) इतने शीघ्र किसी निष्कर्ष पर मत पहुँचो। अभी देखो।
खना : देख तो रही हूँ।
सुबन्धु भट्ट : तुम सब कुछ बहुत शीघ्र जान लेना चाहती हो...अभी तो आयी हो उज्जयिनी...इस कला के धाम में...धीरे-धीरे सब सीख जाओगी।
खना : (प्रफुल्लित होकर) बन्धु काका! देखिए वो...अरून्धती...सप्तर्षियों के पास का तारा अरुन्धती! (दूरवीक्षक छोड़कर पलटती है। एक क्षण विचार कर) पर मैं ऐसा क्या कहती या करती हूँ कि आपको लगा...
सुबन्धु भट्ट : क्या ?
खना : यही कि सब कुछ बहुत शीघ्र जान लेना चाहती हूँ।
सुबन्धु भट्ट : क्यों, वह तुम्हारा आचार्य वराह मिहिर से मिलने का हठ...(छेड़ते हुए) दिन में दस बार स्मरण कराती हो।
खना : (रूठे से स्वर में) पर आपने तो कहा था कि वे प्राय: आपके यहाँ आते हैं।
सुबन्धु भट्ट : हाँ भई, आते हैं पर इधर कुछ दिनों से...मुझसे तो उनका पुत्रवत् व्यवहार है...परन्तु सुनता हूँ आजकल मालवगणनायक विक्रमादित्य अपने नवरत्नों को अलग-अलग परियोजनाओं में व्यस्त कर रहे हैं।
खना :(स्वर में अधैर्य) घर नहीं आ पा रहे तो क्या पाठशाला में भी भेंट नहीं हो पाती ?
सुबन्धु भट्ट : (मुस्कराकर) पाठशाला में उनका क्या काम! भोली हो...वे मालवगणनायक के नवरत्नों में हैं....देश के भौतिकी और जनहित विभाग के प्रभारी हैं....यह तो मेरा पूर्व पुण्य है कि वे स्नेहवश मुझे उपकृत करने यहाँ चले आते हैं। (विचारों में डूबकर) इधर न जाने क्यों कुछ अधिक ही समय हो गया।)
(तभी आचार्य वराह मिहिर का प्रवेश)
वराह मिहिर : (पुकारते स्वर में) सुबन्धु...सुबन्धु...भीतर हो क्या ?
सुबन्धु भट्ट : (अचम्भित होकर खड़े होते हुए) आचार्य वराह! आइए गुरुदेव!
(सुबन्धु भट्ट हाथ जोड़कर वराह मिहिर का स्वागत करते हैं।)
खना : (झटके के साथ उस ओर पलटती है) आचार्य वराह मिहिर! (आगे जाकर श्रद्धा से चरण स्पर्श करती है और फिर उनके चरण छोड़ती नहीं है।)
वराह मिहिर : (अचम्भित स्वर में) कौन ?
सुबन्धु भट्ट : मेरे स्वर्गीय पूज्य भाई की पुत्री है...खना...कुछ ही दिन हुए उज्जयिनी आयी है।
वराह मिहिर : उठो पुत्री!
खना : क्या आशीर्वाद नहीं मिलेगा गुरुवर ?
वराह मिहिर : सुखी रहो!
खना : (चरण नहीं छोड़ती) केवल इतना ही ?
वराह मिहिर : (नीचे खना की ओर देखते हैं) शून्य ललाट पर शीघ्र किसी के अनुराग का सौभाग्य-चिह्न दिखाई दे।
खना : (ऊपर से देखकर) बस, इतना ही गुरुवर ?
वराह मिहिर : (मुस्कराते हुए) केवल इतने से संतोष नहीं है तो चलो आज तुम्हें यह आशीष देते हैं कि किसी कुलीन सम्भ्रान्त श्रीमन्त के घर की कुललक्ष्मी बनो।
खना : (चरण छोड़ उठती है। फिर हाथ जोड़कर) मुझे आश्रय चाहिए...ज्ञान का आश्रय...आपका आश्रय....ज्ञानमार्गी होने का वरदान दीजिए।
वराह मिहिर : (अचम्भित होकर) ज्ञानमार्गी! उसके लिए सामान्य जीवन का त्याग करना पड़ता है। नहीं...ज्ञान के साथ निभ नहीं पाता है सामान्य जीवन।
खना : जानती हूँ गुरुवर। धृष्टता क्षमा करें...क्या हम साधारण को सामान्य नहीं कहते ? असाधारण उपलब्धि के लिए सामान्य जीवन का त्याग करना ही होता है।
वराह मिहिर : (खना को ठहरकर ध्यान से देखते हैं। क्षण भर के लिए विचार करते हैं। फिर अनिमेष देखते हुए) ओ...जीवन से तुम्हारी अपेक्षा क्या है ?
खना : (प्रसन्न हो स्वप्नलोक में खो-सी जाती है) जीवन से अपेक्षा! मेरी अपेक्षा! (प्रफुल्लित स्वर में) मैं...मैं..जीवन को अवनि से अम्बर तक आत्मसात करना चाहती हूँ। अपने इन स्थूल चक्षुओं को ज्ञान-चक्षु बनाना चाहती हूँ जिससे स्थूल आकृतियों के पार देख सकूँ। देश और काल की कारा से मुक्त दृष्टि चाहती हूँ।
सुबन्धु भट्ट : (स्वर में परेशानी) खना...तनिक...
खना : (सुबन्धु भट्ट की बात न सुन अपने लोक में बहती चली जाती है) पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक फैले गगन मण्डल में कभी चमकते, कभी ठिठकते, कभी विमुख होते ग्रह, नक्षत्रों व तारों का सत्त्व ग्रहण करना चाहती हूँ। उनसे बातें करना चाहती हूँ। आह! जीवन से अपेक्षा! (सारे मंच पर घूमते हुए) सूर्य से आत्मप्रकाश चाहती हूँ। चन्द्रमा से मन का संसार चाहती हूँ, मन की उधेड़बुन को समझना चाहती हूँ। मंगल से उत्साह और ऊर्जा चाहती हूँ। बुध से अभिव्यक्ति चाहती हूँ। बृहस्पति से विवेक चाहती हूँ। शुक्र से कलात्मक रचाव का सुख चाहती हूँ और शनि से....शनि से उचित-अनुचित की पहचान की सूक्ष्म दृष्टि! और हमारे जो तिरस्कृत, उपेक्षित छायाग्रह हैं-राहु और केतु, उनकी कृपा चाहती हूँ।
(आचार्य वराह के पास आती है।)
मुझे ज्योतिष की ज्योति का आशीर्वाद दीजिए गुरुवर...जिससे सृष्टि को समझ सकूँ..ग्रह-नक्षत्रों को साक्षात् देख पाऊँ....उनकी गति जानने-समझने में मेरी गति हो। ऐसा ज्ञान चाहिए जो भय से मुक्ति दे।
(मेधा आनन्दित हो आश्चर्य के साथ खना की ओर बढ़ने लगती है। तभी माँ उसे बाँह से खींच वापस ले आती है और खामोशी से देखने का संकेत करती है।)
वराह मिहिर : पुत्री, तुम्हारे ललाट की रेखाओं को जितना पढ़ पाया हूँ...वे कहती हैं कि तुम्हारी वाणी कहावतों की तरह मौखिक कविता बन जाएगी। जनमानस में फैलकर अमर हो जाएगी। जब तक पृथ्वी पर सूर्य रहेगा तुम पर गुरु की अक्षय अनुकम्पा रहेगी।
खना : (हाथ जोड़कर) आप को आकाश के गुरु की बात कर रहे हैं...बृहस्पति की...मैं तो पृथ्वी के गुरु की अनुकम्पा चाहती हूँ। आचार्य आपकी अनुकम्पा...
वराह मिहिर : (कुछ प्रसन्न कुछ हतप्रभ मुद्रा में मानो स्वयं से कह रहे हों) आज के दिन क्या दूसरे की इच्छा के आगे परास्त होने का मुहूर्त है ? (सुबन्धु भट्ट से) सुबन्धु भट्ट, आज का नक्षत्र तुम्हारी इस वत्सला की इच्छापूर्ति लेकर आया है।
(दर्शकों की ओर देखकर घोषणा करते स्वर में) मालवगणनायक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की राजसभा का यह नवरत्न वराह मिहिर आज इस बालिका खना को ज्योतिषशास्त्र में दीक्षित करने का वचन देता है।
सुबन्धु भट्ट : (नत होकर आर्द्र स्वर में) कल्पना में भी न सोचा था कि इस अबोध बालिका का स्वप्न में देखा गया स्वप्न इस प्रकार साकार होगा। आपकी हमारे समस्त परिवार पर अनुकम्पा है। आजीवन ऋणी रहूँगा, गुरुवर।
वराह मिहिर : (सुबन्धु भट्ट से कुछ धीमे स्वर में) यह नक्षत्रों की पूर्व निर्धारित नियति है सुबन्धु भट्ट। लगता है आज यहाँ आने का यही प्रयोजन रहा होगा। अब निकलता हूँ।
(वराह मिहिर तेज़ कदमों से प्रस्थान करते हैं। सुबन्धु भट्ट खना की ओर बढ़ते हैं। स्नेह से उसके कन्धे पर हाथ रखते हैं।)
खना : (द्रवित स्वर में) बन्धु काका....क्या यह सच है ?
सुबन्धु भट्ट : (दूरवीक्षक की ओर संकेत करके) जा आकाश से पूछ ले!
(दोनों हँसते हैं और दूसरी ओर प्रस्थान करते हैं।)
दृश्य : तीन
[सुबन्धु भट्ट और खना के प्रस्थान के साथ दृश्य- दो भी विदा होता है। अब मंच पर मेधा और माँ हैं जिनके संवाद दृश्य- तीन का सूत्रपात्र करते हैं।]
मेधा : फिर वराह मिहिर ने खना को ज्योतिष की शिक्षा दी ?
माँ : (चलते-चलते रुककर) हाँ खना बहुत प्रसिद्ध भविष्यवक्ता बनी। उसके जीवन का लक्ष्य एकाग्र अध्ययन ही था जिसमें उसे सफलता मिली पर....
मेधा : (रुककर) पर ?
माँ : उसके ज्ञान...उसकी प्रसिद्धि को वे लोग कहाँ पचा पाये जो हमेशा से उस दुनिया को हथियाये बैठे थे!
मेधा : क्या ?
माँ : हाँ, एक स्त्री और भविष्यवक्ता! सोचो कितनी मेहनत की होगी उसने...कोई किसी को घोलकर तो पिला नहीं सकता कोई शास्त्र...पर उन लोगों ने खना की इस कड़ी मेहनत को एक स्वांग में बदल दिया।
मेधा : क्या मतलब ?
माँ : हाँ...बिलकुल...कहा गया कि खना ने वराह मिहिर द्वारा तैयार किया गया ज्योतिष्मति तैल पी लिया था!
मेधा : तैल! तैल यू मीन सम सॉर्ट ऑफ टॉनिक!
माँ : चलो, मान लिया टॉनिक...पर क्या सिर्फ टॉनिक पीकर तुम गोल्ड मैडल ला सकती थीं ?
मेधाः (हँसते हुए) तुम मेरे गोल्ड मैडल को छोड़ो...ये बताओ फिर हुआ ?
माँ : (चलने लगती है) होना तो कुछ और ही था...ऐसा जो...कम से कम खना ने तो कभी नहीं सोचा था।
मेधा : (पीछे-पीछे तेज कदमों से चलते हुए) क्या ?
माँ : वराह मिहिर का पुत्र पृथुयशस, जो खुद भी बहुत बड़ा विद्वान था और बाद में प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य हुआ, खना पर आसक्त हो गया!
मेधा : (हँसते हुए) क्या!
माँ : वराह मिहिर ने बहुत समझाया पर....
मेधा : पर क्या ?
(मेधा रुकती है तो माँ भी खड़ी हो जाती है।)
माँ : (तिरछी दृष्टि मेधा पर डालकर मुस्कराते हुए) ऐसे में समझ आता है क्या कुछ ? भूल गयीं एम.ए.प्रीवियस में जब तुम भी...कितना समझाया था पर...
मेधा : ममा, तुम अब ये सब...
माँ : हिश्श्श....
(मुँह पर उँगली रख इशारा करती है कि मंच का दृश्य देखो। दोनों दूसरी ओर देखते हैं जहाँ से तेज कदमों से चले आ रहे आचार्य वराह मिहिर के पीछे-पीछे पृथुयशस आ रहा है। दोनों उनके लिए मानो स्थान छोड़ एक ओर हो जाती हैं।)
वराह मिहिर : (तेज कदमों से चलते हुए) नहीं-नहीं..ऐसा कैसे हो सकता है!
पृथुयशस : क्यों नहीं हो सकता ?
वराह मिहिर : खना मेरी शिष्या है....फिर वह सुबन्धु भट्ट की भतीजी है...वह सुबन्धु भट्ट जो मेरे पुत्र के समान है।
पृथुयशस : यह तो उत्तम स्थिति हुई।
वराह मिहिर : परन्तु...पुत्र पृथुयशस, तुम्हें तो अगले माह....मेरा अर्थ था कि मालवगणनायक विक्रमादित्य की इच्छानुसार तुम्हें शीघ्र उज्जयिनी से प्रस्थान करना है। तुम्हारा ध्येय उनकी आज्ञा का पालन करते हुए एक नयी वेधशाला के लिए वास्तु के अनुरूप स्थान का चयन होना चाहिए।
पृथुयशस : (सँभले स्वर में बात की पुष्टि-सी करते हुए) मेरा ध्येय वह है...अपितु वही है...उसमें विवाह कोई बाधा नहीं बनेगा।
वराह मिहिर : तुम इस नगरी से जा रहे हो। जाने कितने मास बाद लौटो...ऐसे में यही उचित होगा कि विवाह की चर्चा तुम्हारे लौटने के उपरान्त हो।
पृथुयशस : (स्वर में हल्का दु:ख) पिताश्री, यह अन्तर है...यही अन्तर है साधारण और असाधारण का!
वराह मिहिर : अन्तर ?
(मेधा और माँ अब तक वहीं खड़ी होकर वराह मिहिर व पृथुयशस का वार्तालाप सुन रही थीं। अब माँ मेधा को चलने का संकेत करती है तो दोनों मंच से प्रस्थान करती हैं।)
पृथुयशस : हाँ...यदि मैंने साधारण कुल में जन्म लिया होता तो मेरे माता-पिता हठ कर रहे होते कि पहले विवाह करो उसके पश्चात् नगर से दूर जाओ और यहाँ मैं हूँ कि...
वराह मिहिर : तर्क अच्छा कर लेते हो..लगता है न्यायशास्त्री क्षपणक का प्रभाव है यह!
पृथुयशस : (स्वर में उद्धिग्नता) मैं समझ नहीं पा रहा हूँ....इस विवाह में क्या आपको कोई सैद्धान्तिक आपत्ति है ?
वराह मिहिर : सैद्धान्तिक आपत्ति मुझे क्या हो सकती है! तुम स्वयं विद्वान हो...पर इतना समझ पा रहा हूँ कि कन्या के ग्रह अधिक प्रबल हैं..तुम ज्योतिष में एक परम्परावादी लोक पर चल रहे हो...
पृथुयशस : जानता हूँ, और यह भी कि आपके विचार उदार हैं...पर मैं अभी ज्योतिष की नहीं, विवाह की चर्चा...
वराह मिहिर : (स्वर में हल्का गुस्सा) अबोध हो...मूल्य और विचार व्यक्तित्व के अंग होते हैं...क्या ज्योतिष में परम्परावादी होकर गृहस्थ में उदार हो सकोगे ?
पृथुयसश : गृहस्थ शास्त्रार्थ नहीं है।
वराह मिहिर : (पृथुयशस की आँखों में देखते हुए) गृहस्थ शास्त्रार्थ न भी सही परन्तु,...तुम दोनों एक ही मार्ग के पथिक हो। उसे उसी मार्ग पर अपने से आगे निकलता देखने का...साहस जुटा पाओगे ? जानते हो उसके ग्रह....
पृथुयशस : (विनम्र स्वर में) आपकी कृपा से अपने सामर्थ्य पर विश्वास है मुझे। यदि दोनों की रुचियाँ, दोनों का मार्ग एक हो तो गृहस्थ में सजीवता बनी रहती है...गृहस्थ की नयी दिशाएँ खुलने लगती हैं।
वराह मिहिर : (पृथुयशस को ताड़ते हुए) वास्तव में समझ नहीं पा रहे हो कि मैं क्या कह रहा हूँ या समझना नहीं चाहते ?
पृथुयशस : (झल्लाकर) पिताश्री आप...
वराह मिहिर : पुत्र, समय अनुकूल न हो तो प्रखर से प्रखर बुध भी तर्क के स्थान पर कुतर्क को बढ़ावा देता है। यह तो न भूले होगे कि तुम्हारी शुक्र की दशा चल रही है। शुक्र...जिसे एकाक्षी भी कहा जाता है...कौवे की भाँति अवश, जो एक बार में केवल एक ही ओर देख सकता है...जैसे आजकल तुम देख रहे हो।
पृथुयशस : (स्वयं को संयत करते हुए) पर आप तो स्वयं खना से इतने प्रभावित हैं...पहली बार कोई शिष्या घर की देहरी में प्रवेश कर पायी है।
वराह मिहिर : हाँ, परन्तु शिष्या के रूप में...सोचता हूँ पुत्रवधू के रूप में आयी तो...
पृथुयशस : (चहककर) तो कुछ नहीं...आप ही कहते हैं हम सब ग्रह-गृहीत हैं...तो इतना सोचना क्या!
वराह मिहिर : (ठहरकर देखते हुए) अर्थात् तुम संकल्प कर चुके हो... (कुछ क्षण रुककर विचार करते हैं।) यह तुम्हारा एकल संकल्प है या इसमें खना की भी सहमति है ?
पृथुयशस : (कुछ डूबकर) कह नहीं सकता।
वराह मिहिर : अर्थात् ?
पृथुयशस : इस सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं हुई है उससे कभी।
वराह मिहिर : तो कैसे ?
पृथुयशस : कुलीन परिवारों की कन्याओं के लिए सम्बन्धों का प्रस्ताव तो अभिभावक करते हैं। हम सूर्यवंशी हैं...मिहिर कुल है...हमारी मर्यादा है...मेरा तात्पर्य था कि (स्वर में कोमलता आती है) यह तो आपका अधिकार है...मैं कैसे हस्तक्षेप कर...
वराह मिहिर : (गुस्से को नियन्त्रित करते हुए) समझ रहा हूँ..सब समझ रहा हूँ...
पृथुयशस : आप जानते हैं आगामी माह के अन्त में मुझे प्रस्थान करना है...समय अधिक नहीं है।
वराह मिहिर : इतना शीघ्र तो मुहूर्त भी नहीं निकल पाएगा।
पृथुयशस : मुहूर्त शास्त्र में ऐसा दक्ष पिता जिसके भाग्य में हो, उसके लिए इन प्रश्नों पर विचार करना क्यों आवश्यक है!
(वराह मिहिर पलटकर देखते हैं परन्तु कुछ कहते नहीं।)
अर्थात् मैं निश्चिन्त रहूँ...
वराह मिहिर : (हल्के व्यंग्य के साथ) निस्सन्देह...चिन्ता तो अब मेरी हुई।
मेधा : फिर वराह मिहिर ने खना को ज्योतिष की शिक्षा दी ?
माँ : (चलते-चलते रुककर) हाँ खना बहुत प्रसिद्ध भविष्यवक्ता बनी। उसके जीवन का लक्ष्य एकाग्र अध्ययन ही था जिसमें उसे सफलता मिली पर....
मेधा : (रुककर) पर ?
माँ : उसके ज्ञान...उसकी प्रसिद्धि को वे लोग कहाँ पचा पाये जो हमेशा से उस दुनिया को हथियाये बैठे थे!
मेधा : क्या ?
माँ : हाँ, एक स्त्री और भविष्यवक्ता! सोचो कितनी मेहनत की होगी उसने...कोई किसी को घोलकर तो पिला नहीं सकता कोई शास्त्र...पर उन लोगों ने खना की इस कड़ी मेहनत को एक स्वांग में बदल दिया।
मेधा : क्या मतलब ?
माँ : हाँ...बिलकुल...कहा गया कि खना ने वराह मिहिर द्वारा तैयार किया गया ज्योतिष्मति तैल पी लिया था!
मेधा : तैल! तैल यू मीन सम सॉर्ट ऑफ टॉनिक!
माँ : चलो, मान लिया टॉनिक...पर क्या सिर्फ टॉनिक पीकर तुम गोल्ड मैडल ला सकती थीं ?
मेधाः (हँसते हुए) तुम मेरे गोल्ड मैडल को छोड़ो...ये बताओ फिर हुआ ?
माँ : (चलने लगती है) होना तो कुछ और ही था...ऐसा जो...कम से कम खना ने तो कभी नहीं सोचा था।
मेधा : (पीछे-पीछे तेज कदमों से चलते हुए) क्या ?
माँ : वराह मिहिर का पुत्र पृथुयशस, जो खुद भी बहुत बड़ा विद्वान था और बाद में प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य हुआ, खना पर आसक्त हो गया!
मेधा : (हँसते हुए) क्या!
माँ : वराह मिहिर ने बहुत समझाया पर....
मेधा : पर क्या ?
(मेधा रुकती है तो माँ भी खड़ी हो जाती है।)
माँ : (तिरछी दृष्टि मेधा पर डालकर मुस्कराते हुए) ऐसे में समझ आता है क्या कुछ ? भूल गयीं एम.ए.प्रीवियस में जब तुम भी...कितना समझाया था पर...
मेधा : ममा, तुम अब ये सब...
माँ : हिश्श्श....
(मुँह पर उँगली रख इशारा करती है कि मंच का दृश्य देखो। दोनों दूसरी ओर देखते हैं जहाँ से तेज कदमों से चले आ रहे आचार्य वराह मिहिर के पीछे-पीछे पृथुयशस आ रहा है। दोनों उनके लिए मानो स्थान छोड़ एक ओर हो जाती हैं।)
वराह मिहिर : (तेज कदमों से चलते हुए) नहीं-नहीं..ऐसा कैसे हो सकता है!
पृथुयशस : क्यों नहीं हो सकता ?
वराह मिहिर : खना मेरी शिष्या है....फिर वह सुबन्धु भट्ट की भतीजी है...वह सुबन्धु भट्ट जो मेरे पुत्र के समान है।
पृथुयशस : यह तो उत्तम स्थिति हुई।
वराह मिहिर : परन्तु...पुत्र पृथुयशस, तुम्हें तो अगले माह....मेरा अर्थ था कि मालवगणनायक विक्रमादित्य की इच्छानुसार तुम्हें शीघ्र उज्जयिनी से प्रस्थान करना है। तुम्हारा ध्येय उनकी आज्ञा का पालन करते हुए एक नयी वेधशाला के लिए वास्तु के अनुरूप स्थान का चयन होना चाहिए।
पृथुयशस : (सँभले स्वर में बात की पुष्टि-सी करते हुए) मेरा ध्येय वह है...अपितु वही है...उसमें विवाह कोई बाधा नहीं बनेगा।
वराह मिहिर : तुम इस नगरी से जा रहे हो। जाने कितने मास बाद लौटो...ऐसे में यही उचित होगा कि विवाह की चर्चा तुम्हारे लौटने के उपरान्त हो।
पृथुयशस : (स्वर में हल्का दु:ख) पिताश्री, यह अन्तर है...यही अन्तर है साधारण और असाधारण का!
वराह मिहिर : अन्तर ?
(मेधा और माँ अब तक वहीं खड़ी होकर वराह मिहिर व पृथुयशस का वार्तालाप सुन रही थीं। अब माँ मेधा को चलने का संकेत करती है तो दोनों मंच से प्रस्थान करती हैं।)
पृथुयशस : हाँ...यदि मैंने साधारण कुल में जन्म लिया होता तो मेरे माता-पिता हठ कर रहे होते कि पहले विवाह करो उसके पश्चात् नगर से दूर जाओ और यहाँ मैं हूँ कि...
वराह मिहिर : तर्क अच्छा कर लेते हो..लगता है न्यायशास्त्री क्षपणक का प्रभाव है यह!
पृथुयशस : (स्वर में उद्धिग्नता) मैं समझ नहीं पा रहा हूँ....इस विवाह में क्या आपको कोई सैद्धान्तिक आपत्ति है ?
वराह मिहिर : सैद्धान्तिक आपत्ति मुझे क्या हो सकती है! तुम स्वयं विद्वान हो...पर इतना समझ पा रहा हूँ कि कन्या के ग्रह अधिक प्रबल हैं..तुम ज्योतिष में एक परम्परावादी लोक पर चल रहे हो...
पृथुयशस : जानता हूँ, और यह भी कि आपके विचार उदार हैं...पर मैं अभी ज्योतिष की नहीं, विवाह की चर्चा...
वराह मिहिर : (स्वर में हल्का गुस्सा) अबोध हो...मूल्य और विचार व्यक्तित्व के अंग होते हैं...क्या ज्योतिष में परम्परावादी होकर गृहस्थ में उदार हो सकोगे ?
पृथुयसश : गृहस्थ शास्त्रार्थ नहीं है।
वराह मिहिर : (पृथुयशस की आँखों में देखते हुए) गृहस्थ शास्त्रार्थ न भी सही परन्तु,...तुम दोनों एक ही मार्ग के पथिक हो। उसे उसी मार्ग पर अपने से आगे निकलता देखने का...साहस जुटा पाओगे ? जानते हो उसके ग्रह....
पृथुयशस : (विनम्र स्वर में) आपकी कृपा से अपने सामर्थ्य पर विश्वास है मुझे। यदि दोनों की रुचियाँ, दोनों का मार्ग एक हो तो गृहस्थ में सजीवता बनी रहती है...गृहस्थ की नयी दिशाएँ खुलने लगती हैं।
वराह मिहिर : (पृथुयशस को ताड़ते हुए) वास्तव में समझ नहीं पा रहे हो कि मैं क्या कह रहा हूँ या समझना नहीं चाहते ?
पृथुयशस : (झल्लाकर) पिताश्री आप...
वराह मिहिर : पुत्र, समय अनुकूल न हो तो प्रखर से प्रखर बुध भी तर्क के स्थान पर कुतर्क को बढ़ावा देता है। यह तो न भूले होगे कि तुम्हारी शुक्र की दशा चल रही है। शुक्र...जिसे एकाक्षी भी कहा जाता है...कौवे की भाँति अवश, जो एक बार में केवल एक ही ओर देख सकता है...जैसे आजकल तुम देख रहे हो।
पृथुयशस : (स्वयं को संयत करते हुए) पर आप तो स्वयं खना से इतने प्रभावित हैं...पहली बार कोई शिष्या घर की देहरी में प्रवेश कर पायी है।
वराह मिहिर : हाँ, परन्तु शिष्या के रूप में...सोचता हूँ पुत्रवधू के रूप में आयी तो...
पृथुयशस : (चहककर) तो कुछ नहीं...आप ही कहते हैं हम सब ग्रह-गृहीत हैं...तो इतना सोचना क्या!
वराह मिहिर : (ठहरकर देखते हुए) अर्थात् तुम संकल्प कर चुके हो... (कुछ क्षण रुककर विचार करते हैं।) यह तुम्हारा एकल संकल्प है या इसमें खना की भी सहमति है ?
पृथुयशस : (कुछ डूबकर) कह नहीं सकता।
वराह मिहिर : अर्थात् ?
पृथुयशस : इस सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं हुई है उससे कभी।
वराह मिहिर : तो कैसे ?
पृथुयशस : कुलीन परिवारों की कन्याओं के लिए सम्बन्धों का प्रस्ताव तो अभिभावक करते हैं। हम सूर्यवंशी हैं...मिहिर कुल है...हमारी मर्यादा है...मेरा तात्पर्य था कि (स्वर में कोमलता आती है) यह तो आपका अधिकार है...मैं कैसे हस्तक्षेप कर...
वराह मिहिर : (गुस्से को नियन्त्रित करते हुए) समझ रहा हूँ..सब समझ रहा हूँ...
पृथुयशस : आप जानते हैं आगामी माह के अन्त में मुझे प्रस्थान करना है...समय अधिक नहीं है।
वराह मिहिर : इतना शीघ्र तो मुहूर्त भी नहीं निकल पाएगा।
पृथुयशस : मुहूर्त शास्त्र में ऐसा दक्ष पिता जिसके भाग्य में हो, उसके लिए इन प्रश्नों पर विचार करना क्यों आवश्यक है!
(वराह मिहिर पलटकर देखते हैं परन्तु कुछ कहते नहीं।)
अर्थात् मैं निश्चिन्त रहूँ...
वराह मिहिर : (हल्के व्यंग्य के साथ) निस्सन्देह...चिन्ता तो अब मेरी हुई।
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