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अँधेरे से आगे

मृदुला बिहारी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1993
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1352
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पाँच नाटकों का संग्रह....

Andhere Se Aage a hindi book by Mridula Bihari - अँधेरे से आगे - मृदुला बिहारी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


प्रस्तुत कृति में मृदुला जी के पाँच नाटक संकलित हैं। ये नाटक नारी मन के विभिन्न पक्षों का उद्घाटन करते हैं। नारी की संवेदनशीलता उसकी दृष्टि उसका व्यवहार ज्ञान और कर्म का क्षेत्र अपना अलग ही होता है। उसकी समस्याएँ कई अर्थों में पुरुषवर्ग की समस्याओं से भिन्न होती हैं।

अपनी बात


अपनी नाटक-रचनाओं के संबंध में लेखिका का भला क्या वक्तव्य हो सकता है ? यह कठिन काम है। फिर भी कुछ बातें हैं जिन्हें कहना चाहती हूँ, अन्यथा ये अप्रकाशित ही रह जाएँगी।
मेरे नाटकों का स्रोत्र मेरे ही भीतर है। मेरे अन्तस्तल में गहरे कहीं एक निर्जन द्वीप है। इसका आकाश अनन्त है और यहाँ रोशनी है। भीतर ही भीतर एक आदि स्रोत्र प्रवाहित रहता है यहाँ। इन सारी घटनाओं का उद्गम भी यही है, यहीं से भाव शब्द-रूप लेते हैं। सर्जनात्मक स्फूर्ति अपने समग्र रूप में इसी द्वीप से आती है। लेकिन यह बाहर से विमुख नहीं है, स्रोत्र की खोज में यह भीतर चली गयी है। वास्तविकता के संसार के साथ कल्पना का एक समानान्तर संसार बनता चला जाता है जो इस संसार में संबद्ध भी है और साथ-साथ स्वायत्त भी है। यह अपनी निजता में स्वाधीन है। यहाँ कोई कानून नहीं होता, किसी का प्रतिबन्ध नहीं होता। पर यहाँ अन्त:करण होता है, संस्कारों का दबाव होता है। अक्सर ऐसे अवसर आते हैं जब ये संस्कार मेरी कलम रोकते हैं या मेरी अबाध अभिव्यक्ति के आड़े आते हैं। फिर भी मेरे अपने सृजन की एक प्रक्रिया है जिसके अपने नियम हैं और अपना अनुशासन है।

प्रस्तुत कृति में जिन पाँच नाटकों का संकलन किया गया है उनके नाम है- (1) भँवर, (2) तीसरे रास्ते का राही, (3) वे पाँच शब्द, (4) देहरी, और (5) अँधेरे से आगे। इन सभी नाटकों के सभी पात्र सहज मानवीय चरित्र हैं। इन नाटकों के केन्द्र में नारी है। नारी की संवेदना, दृष्टि, व्यवहार, ज्ञान और कर्म के अपने क्षेत्र हैं। नारी की समस्याएँ पुरुषों की समस्याओं से कुछ भिन्न हैं। मूल्यों और समाज-व्यवस्था के बीच नारी का जीवन, मन, विचार विभिन्न स्तरों पर आहत होते हैं। इन नाटकों की मुख्य पात्र हीरा, रंजना, जानकी, माया और अंजना संवेदनशील मानवी हैं। इनका अपना संसार है, अपनी जीवन स्थितियाँ हैं, अपनी दृष्टि है जिनके अलग-अलग आयाम हैं। इन सभी के व्यक्तित्व में बेचैनी है-कुछ करने की, कुछ पाने की, कुछ होने की, कुछ बदलने की बेचैनी। ये जहाँ अपने को देखना चाह रही हैं, वहाँ नहीं देख पा रही हैं। परिस्थितियों के बीच ये भँवर में फँस जाती हैं। इनकी नियति एक सरल भारतीय नारी की नियति है। इनके सामने आत्म-साक्षात्कार के क्षण आते हैं, पर ये क्षण आसानी से नहीं आते-भय, पीड़ा, असुरक्षा की भावना, अकेलापन आदि अनेक परिस्थितियों से गुजरने के बाद ही ये क्षण आते हैं।

संसार में हर चीज़ परिवर्तनशील है, यह सृष्टि का नियम है। व्यक्ति को हर ‘कल’ बदल देता है। जो बात इस क्षण नहीं सोची जा सकती वह अगले क्षण विचार-वीथि में प्रवेश कर सकती है। मेरे पात्र और स्थितियाँ भी अन्त तक जाते-जाते बदल जाते हैं।
नाटक के सभी पात्रों के साथ मेरा एक भावात्मक रिश्ता होता है। रचना-प्रक्रिया प्रारम्भ होने के बाद धीरे-धीरे ये पात्र अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व ग्रहण कर लेते है और अपनी परिस्थितियों के बीच अपने चरित्र के अनुसार आचरण करने लगते हैं। इन सभी पात्रों की मूल प्रवृत्तियों, संस्कारों, चरित्रगत दुर्बलताओं और विशेषताओं को मैं पूरी तरह जानती हूँ। मेरे नाटकों का अन्त होता है, लेकिन इनके जीवन का नहीं, मेरे पात्र नाटक समाप्त होने के बाद भी जीते रहते हैं।
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो नाटक में लेखिका को ढूँढ़ते हैं। उनसे हमारा यह निवेदन है कि जिस तरह नाटकों की घटनाएँ कल्पित हैं उसी तरह पात्र भी। सम्भव है ऐसे पात्र संसार में हों, पर कल्पित और यथार्थ व्यक्तियों में एक अन्तर तो होगा ही, ईश्वर और ईश्वर-निर्मित मानव-सृष्टि की भाँति। मैंने ऐसे चरित्रों को गढ़ने की कोशिश की है, जिन्हें देखकर लगे कि इनका अस्तित्व है।

भाषा मेरा उपकरण है। भाषा नाटक की सम्पूर्ण प्रक्रिया को स्वरूप प्रदान करता है। शब्द की शक्ति अपार। शब्द-साधना लेखन-शैली का मुख्य तत्त्व है। शब्दों के माध्यम से ही रचनाकार संवेदना के उच्च से उच्चतम और सूक्ष्म से सूक्ष्मतम बिन्दुओं को छूता है। संवेदना आन्तरिक ऊर्जा है। संवेदना और भाषा का बहुत गहरा रिश्ता है। संवाद शून्य में जन्म नहीं लेते। पात्रों के जीवन से जन्म लेते हैं। संवाद आन्तरिक उद्वेलन की परिणति के रूप में आते हैं।
मैं अपने नाटकों में शब्दों के प्रति मितव्ययी हूँ। शब्दों का खर्चीला इस्तेमाल नहीं करती। नाटक की भाषा की विशेषता है कि यह प्रत्यक्षत: लिखित होकर भी मूलत: उच्चरित होती है। अत: इस बात का ध्यान रखना पड़ता है। नाटक लिखने से पहले मैं अपनी भाषा को अपनी आवश्यकतानुसार कुम्हार की मिट्टी की तरह हर बार नयी तरह से गढ़ने का प्रयास करती हूँ। मैं चाहती हूँ कि मेरे कथ्य सहज ही सुनने वालों तक सम्प्रेषित हो जाएँ। मैंने लिखते समय यह भी महसूस किया कि भले ही हमारी भाषाएँ अलग-अलग हों, स्थानीय जीवन की विशिष्टताएँ अलग-अलग हों, लेकिन साहित्य और संस्कृति की दृष्टि से हम एक हैं। यह संस्कृति हमारे प्राणों में है।

नाटक लिखते समय माध्यम का ध्यान रखना पड़ता है। चूँकि ये नाटक दूरदर्शन के लिए लिखे गये हैं, पूरे देश के लिए हैं ये, इसलिए इनमें आंचलिक भाषा का प्रयोग नहीं किया जा सका है।
शब्दों की यात्रा में बहुत बार बहुत कुछ अनकहे भी कह दिया जाता है। ये अनकहीं बातें शब्दों के साथ-साथ चलती हैं और बिना कुछ कहे ही अपना अर्थ ध्वनित कर देती हैं। जहाँ शब्द चूक जाते हैं, निरर्थक हो जाते हैं, वहाँ मौन बहुत कुछ कह देता है।
मैंने अपने नाटकों में कभी जान-बूझकर दार्शनिक होने की चेष्टा नहीं की, न ही सिद्धान्त बघारने की। कोई भी मुद्रा अख्तियार नहीं की। ये नाटक तो हृदय की अनुभूतियों के प्रतिफल हैं, इसलिए इनका प्रतिपादन सीधे और सरल ढंग से हुआ है। समाज के साथ एक जीवन्त रिश्ते के कारण कहीं अध्यात्म, कहीं दर्शन आ गया है तो अलग बात है। शायद मैं जीवन को उस मानवीय बिन्दु से देखती हूँ जहाँ से सहानुभूति की किरण नज़र आती है।
मेरे लिखने की कोई पद्धति नहीं है। लिखने की यात्रा भावों, विचारों और अनुभूतियों से शुरू होती है। चलना शुरू करने के बाद स्वयं मार्ग बनता जाता है। यहाँ अतीत, वर्तमान, भविष्य निरन्तर एक साथ चलते हैं। ये सत्य के शोध हैं, इनकी लगन सत्य की दिशा में है।
ये नाटक केवल नाटक के लिए नहीं है, ये नाटक यथार्थ की सृष्टि के लिए भी नहीं हैं। ये नाटक ये बताने के लिए हैं कि जो यथार्थ है वह क्या है। ये सीधे जीवन से जुड़े हैं। अपने देश और काल की सारी मान्यताओं, अवधारणाओं और आस्थाओं को लेकर लिखे गये हैं ये।

मैं साहित्य की अन्य विधाओं में भी लिखती हूँ। मेरे कथ्य स्वयं ही अपना माध्यम चुन लेते हैं।
मेरे भीतर एक सामाजिक प्रतिबद्धता है और वह स्वाभाविक है। मैं लिखने के समय भले ही अकेले होऊँ, पर रचना दूसरों के सामने आते ही एक सामाजिक प्रक्रिया हो जाती है। मुझे लगता है कि नाटक प्रसारित होते ही एक अलिखित अनुबन्ध लेखक और दर्शक के बीच में हो जाता है, जो प्रत्येक दर्शक को लेखक से यह पूछने का अधिकार दे देता है कि आपने यह क्यों लिखा ? किसके लिए लिखा ? आप क्या कहना चाहते हैं ? इसलिए नाटककार से एक खास अनुशासन अपेक्षित रहता है। मेरे अपने लेखन का मानदण्ड जहाँ दूसरों की पसन्द है, वह अपनी निजी ईमानदारी भी है।
नाटक एक सामूहिक प्रयास है। सबके सहयोग और साझेदारी से ही एक नाटक सफल हो सकता है। सभी तत्त्व भिन्न होते हुए भी एक हैं, क्योंकि सम्पूर्णता में केन्द्रीय चेतना तो एक ही है। नाटक में किसी का अलग अस्तित्व नहीं रह जाता, सब मिलकर एक हो जाते हैं।
निर्देशक के हाथ में स्क्रिप्ट देने के बाद, उस पर विचार करने के लिए मैंने सदैव को तैयार रखा। बातचीत से बहुत बार नये आयाम भी मिलते हैं। परिवर्तन का जहाँ तक प्रश्न है- यदि परिवर्तन मुझे जँचता है तो मुझे कोई परेशानी नहीं होती। यह तो टीम वर्क है।

इन पाँच नाटकों में दो नाटकों के शीर्षक दूरदर्शन में बदल दिये गये। ‘देहरी’ का मूल शीर्षक ‘मौन स्वीकार’ और ‘तीसरे रास्ते का राही’ का ‘तीसरा रास्ता’ था। इनमें ‘देहरी’ की रचना मेरे बीकानेर प्रवास के समय की है तथा शेष चार मैंने दिल्ली में रहते हुए लिखे हैं। लिखने के क्रम वैसे ही हैं जैसे ये प्रसारित हुए हैं। हर विधा की अपनी मर्यादा होती है और उनसे जुड़ी शर्तें होती हैं। रचनाकार को उन शर्तों को पहले स्वीकार करना पड़ता है। किसी भी सफल नाट्य-कृति के लिए अपेक्षित विशेषताओं का दूरदर्शन नाटक में भी होना ज़रूरी है। दूरदर्शन के नाटकों का अभी व्यावसायीकरण नहीं हुआ है। इसमें सम्भावनाएँ बहुत हैं। यहाँ अच्छे नाटकों की माँग सदा बनी रहेगी।
दूरदर्शन का हमारी संस्कृति पर पड़ा प्रभाव अवर्णनीय है। यह अभिव्यक्ति का अत्यन्त निकट का माध्यम है। न चाहते हुए भी लोग टेलीविजन देखना बन्द नहीं कर सकते।
दूरदर्शन पर नाटक प्रसारित होने के बाद मैंने महसूस किया कि मैंने अपनी पूर्ण निष्ठा से जो कुछ लिखा वे स्थायी नहीं हैं। एक बार या दो बार दर्शकों तक पहुँचकर इनकी मंजिल पूरी हो गई। इन नाटकों को लिखते समय मैंने सृजनात्मक बेचैनी और आनन्द की अनुभूति की है। इसलिए इन्हें मुद्रित रूप देकर सदा के लिए सुरक्षित रखना चाहती हूँ। वक़्त आगे निकल जाता है, पर हमारे जीवन की गूँज अगर इन नाटकों में सुन पड़े तो मुझे और क्या चाहिए ?
कहा जाता है कि दूरदर्शन के सम्मुख मुद्रित शब्द अपना आकर्षण खो रहे हैं। तथ्य फिर भी यह है कि किताबें पहले से ज्यादा छप रही हैं और पढ़ी जा रही हैं।

यदि इस पुस्तक से दूरदर्शन नाटक में पाठकों की अभिरुचि बढ़ी, समीक्षकों और प्रसारणकर्त्ताओं को कुछ लाभ हुआ तो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी। मेरे अन्दर की शक्ति मुझे नया लिखने के लिए प्रेरित करेगी।
मैं उन सबकी कृतज्ञ हूँ जिन्होंने प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से इन नाटकों को सफल बनाने में अपना सहयोग दिया। मैं विशेष रूप से श्री राजमणि राय, श्रीधर जोशी, श्री गुलशन सचदेव, श्री योगराज टण्डन, श्री राकेश भटनागर और श्री शान्तिवीर काल की आभारी हूँ।
इन शब्दों को रूपाकर देने में भारतीय ज्ञानपीठ के इस उदार सहयोग के लिए मैं कृतज्ञ हूँ।
पाँच नाटकों के इस संग्रह को मैं आपको सौंपती हूँ।

पात्र-परिचय


रंजना: नायिका लगभग28 वर्ष
सुधीर: रंजना का पति, दफ़्तर में अधिकारी लगभग 32 वर्ष
मीरा: रंजना की सहेली लगभग 28 वर्ष
सुनन्द: मीरा का पति लगभग 35 वर्ष
दीपा: रंजना और सुधीर की लड़की लगभग 7 वर्ष
मिसेज चन्द्रा: रंजना की पड़ोसन लगभग 45 वर्ष
मैनेजर: लगभग 50 वर्ष
बाबू: लगभग 40 वर्ष

भँवर


[रंजना दरवाजे का ताला खोलकर अंदर प्रवेश करती है। घर अस्त व्यस्त पड़ा है। एक-एक कर सब पर कैमरा जाता है। सुधीर का पजामा, दीपा के कपड़े, साबुन के झाग में बोथा हुआ शेविंग ब्रश, धोने के कपड़े, माँजने के बर्तन, और बिखरी हुई रसोई। रंजना खुद बहुत थकी है, इन्हें देखकर और थकावट महसूस करती है। तभी बाहर से दीपा भागती हुई आती है।]
दीपाः (शिकायत भरे स्वर में) मम्मी ! मुझे लेने क्यों नहीं आयी ?
रंजनाः आ ही रही थी बेटे !
दीपाः माँ ! मुझे चंद्रा आण्टी अच्छी नहीं लगतीं, मैं नहीं रहूँगी उनके पास !
रंजनाः ऐसे नहीं कहते बेटे !
दीपाः वे सब खाते रहते हैं और मुझे कुछ नहीं देते।

रंजनाः तुम वहाँ मत खाया करो...देखो तुम्हारे लिए बिस्कुट लायी हूँ...। (बैग से बिस्कुट निकाल कर देती है। तभी कॉल बेल बजती है। दीपा भागकर दरवाज़ा खोलती है)
दीपाः माँ ! चन्द्रा आण्टी आयी हैं...
रंजनाः आइए, आइए मिसेज चंद्रा...
चंद्राः आपके पास चीनी होगी...?
रंजनाः हाँ...
चन्द्राः थोड़ी सी देंगी ?..आज खत्म हो गई कल बजार से मँगवाकर दे दूँगी...
रंजनाः नहीं, भिजवाने की कोई जरूरत नहीं..(अन्दर से चीनी लाकर देती है)...ये लीजिए...
चन्द्राः क्या तबियत ठीक नहीं ?

रंजनाः नहीं बस ऐसे ही थक गयी हूँ...
चन्द्राः अरे बहन जी, रुपये ऐसे ही थोड़े कमाये जाते हैं..ये आपकी दीपा बड़ी शर्मीली है...कुछ खाने को दो तो खाती ही नहीं...अच्छा चलती हूँ...हाँ, कल हम लोग दीपा को नहीं रख पाएँगे, हम सब कहीं जा रहे हैं...
रंजनाः ठीक है...
दीपाः ये चन्द्रा आण्टी रोज कुछ न कुछ माँगकर ले जाती हैं...
रंजनाः हूँ...(फिर घर के चारों तरफ नजरें घुमाती है)...जिधर देखो उधर बिखराव !
(दृश्य समाप्त)
[दूसरे दिन सुबह, दफ्तर जाने के समय]
रंजनाः (सुधीर से) ये लो टिफिन। आज पराँठे कच्चे नहीं हैं...और तुम्हारे पसंद का भरवाँ करेला भी है।
सुधीरः (बिना रंजना की ओर देखे) आज इतना समय पर सब कैसे हो गया ?...(देखकर) अरे, तुम तैयार नहीं, दफ्तर नहीं जाना क्या ?
रंजनाः नहीं सुधीर !
सुधीरः क्यों ?
रंजनाः आज सामने वाली चन्द्रा नहीं हैं, दीपा को कहाँ छोड़ूँगी ?
सुधीरः अरे आधा घण्टा ही तो रहना पड़ता है उसे वहाँ, आज बाहर ही वेट कर लेगी...
रंजनाः नहीं, वैसे भी आज घर ठीक करना है, आफिस से आकर बहुत थक जाती हूँ, फिर मुझसे काम नहीं होता...
सुधीरः तुम्हारा मैनेजर बड़ा अजीब लगता है, मैं नहीं जाऊँगा, तुम खुद जाकर दे आओ एप्लीकेशन...
रंजनाः प्लीज़ ! दे आओ न ! जाने-आने में मेरा कितना समय बर्बाद होगा...फिर...
सुधीरः (बेमन से) अच्छा, लाओ दो...

(सुधीर जाता है, रंजना दरवाज़ा बंद करती है)
रंजनाः (स्वगत) सफ़ाई की शुरुआत बेडरूम से...
(फिर एक-एक करके सब सफ़ाई करना, खाना बनाना और अंत में खुद नहा धोकर तैयार होना, टेप ऑन करके पास ही कुर्सी पर बैठ जाना। आँखें मूँद कर सुनना)

‘‘सुर्ख फूलों से महक उठती है दिल की राहें...दिन ढले यूँ तेरी आवाज़ बुलाती है हमें...’’

(स्वगत)...ये सुख अब मेरे मुकद्दर में कितनी मुश्किल से नसीब होता है...(गाना धीमा होता जाता है) नौकरी में कैसी उलझन है, परेशानी है...लेकिन किसे दोष दूँ ?...खुद ही तो जिम्मेदार हूँ...सुधीर ने तो कितना मना किया था....
(गाने की आवाज़ तेज़ होती है। रंजना आँखें बंद किये बोलती है)
रंजनाः तब हम नये-नये दिल्ली आये थे।...
‍[फ्लैश बैक]
[रंजना मशीन पर फ्रॉक सिलाई कर रही है। दीपा का फ्रॉक है, फिर उठाकर देखती है...तभी रेडियो पर यह गाना आता है और वह भाग कर टेप करती है। गाना टेप होने के बाद दरवाज़े पर घंटी बजती है। रंजना दरवाज़ा खोलती है। मिसेज चन्द्रा हँसती हुई अंदर आती हैं]
चन्द्राः नमस्कार बहन जी, मैं आपके पड़ोस में रहती हूँ...
रंजनाः नमस्कार, बैठिये न !
चन्द्राः कहाँ से आयी हैं आप लोग ?

रंजनाः (प्रेम से) वीरगंज से... अभी चाय लाती हूँ।
चन्द्राः नहीं, नहीं, इतनी गर्मी में चाय नहीं पीती मैं. बस ठण्डा पानी...(रंजना अंदर जाती है, मिसेज चन्द्रा नजरें घुमाकर घर के मामूलीपन का जायजा लेती हैं। रंजना मिसेज चन्द्रा को पानी का गिलास देती है। गिलास हाथ में लेते हुए मिसेज चन्द्रा पूछतीं हैं) क्या आपका फ्रिज खराब है ?
रंजनाः (कुछ झेंपते हुए) हमारे पास फ्रिज नहीं है...
चन्द्राः बाबा रे, तब तो बड़ी तकलीफ़ होती होगी, दिल्ली में फ्रिज और कूलर न हो तो ...
रंजनाः (बात बदलते हुए) आप शायद चार नम्बर फ्लैट में रहती हैं...?
चन्द्राः हाँ, इसमें छः फ्लैट हैं...दो और तीन में सिर्फ आदमी लोग रहते हैं।...पाँच नंबर वाली औरत ठीक नहीं...आप उनसे मिलिएगा भी मत...और उधर छः नंबर वाली किसी दफ्तर में काम करती है...आपको यहाँ देखकर बहोत खुशी हुई...कि चलो...वो छोटी बच्ची आप ही की है न...?
रंजनाः हाँ..
चन्द्राः बड़ी प्यारी बच्ची है। किस स्कूल में दाखिला करवाया है उसका...?
रंजनाः पास ही, बरगद के पेड़ के पास जो स्कूल है।...
चन्द्राः वो तो मामूली स्कूल है।..उसकी फीस तो केवल चालीस रुपये है...
रंजनाः दरअसल पास है न !

चन्द्राः (समझाने के स्वर में) नहीं, नहीं बहन जी ! बच्चों की पढ़ाई में कटौती नहीं करते...। हमें देखिये, चाहते तो बहुत बड़े फ्लैट में रह सकते थे, पर रिंकी के पापा बोले कि भाई छोटे फ्लैट में रह लेंगे पर बच्चों को मँहगे स्कूल में पढ़ाएँगे...
रंजनाः हूँ...
(चन्द्रा जाने के लिए उठती हैं। पास ही रखी एक टूटी बाल्टी को घूर कर देखती हैं।)
चन्द्राः अच्छा चलूँ ! अपनी बेटी को मेरे यहाँ भेजिएगा, मेरी बेटियों को छोटे बच्चे बहुत अच्छे लगते हैं...
(मिसेज चन्द्रा जाती हैं। दीपा स्कूल से आती है। उसके कपड़े बदल कर, खिला पिलाकर नर्सरी राइम्स याद याद कराती है। तभी प्रसन्नचित सुधीर ऑफिस से आता है।)
रंजनाः (दीपा से) तुम तब तक ये लिखो ...मैं पापा के लिए चाय बनाती हूँ...(रंजना आकर वही टेप लगाती है। सुर्ख फूलों से महक उठती है..) खास तुम्हें सुनाने के लिए टेप किया है...तुम सुनो, मैं चाय लायी...(सुधीर गाना सुनता है, तभी दीपा आ जाती है, सुधीर उसे प्यार करता है। रंजना हाथ में चाय का ट्रे लिए आती है) ये लो। तुम दोनों के लिए समोसे लायी हूँ...(दोनों खुश होकर समोसे खाते हैं) देखो बचे हुए कपड़ों से दीपा का फ्रॉक बनाया है...
सुधीरः (प्यार से) यू आर एन एंजेल ! रियली।
रंजनाः आज आने में देर कैसे हो गयी ?
सुधीरः ट्रैफिक बहुत था...यहाँ...
रंजनाः (फ्रॉक समेटते हुए, प्लेट उठाते हुए)...सुधीर ! मुझे तुम्हारी दिल्ली अच्छी नहीं लगी...यहाँ ट्रैफिक...शोर...और सड़कें बाप रे ! लगता है इनमें मैं खो जाऊँगी...
सुधीरः (बहुत प्यार से) हम लोग बहुत छोटी और शांत जगह से आये हैं न ! इसलिए ऐसा लग रहा है, रहते-रहते ठीक लगने लगेगा...

दीपाः पापा ! मुझे भी वीरगंज अच्छा लगता था, वहीं चलो...दिल्ली अच्छी जगह नहीं लग रही...
सुधीरः (रंजना से) देखो तुम्हारी वजह से बेटी को भी दिल्ली अच्छी नहीं लग रही है। (दीपा से) बेटे, दिल्ली बहुत अच्छी जगह है, चलो तुम्हें घुमाकर लाते हैं...चलो रंजना ! जल्दी तैयार हो जाओ...
रंजनाः मुझे अभी खाना बनाना है...
सुधीरः चलो न ! आकर बना लेना...
रंजनाः दीपा को लेकर चले जाओ...
सुधीरः तुम्हारे बिना क्या मजा आएगा...चलो न !..
रंजनाः अभी बहुत काम...
सुधीरः इतना काम क्यों करती हो ?
दीपाः (जिद्दी स्वर में) चलो न मम्मी !
रंजनाः अच्छा बाबा, चलती हूँ...बाप-बेटी पीछे ही पड़ जाते हैं (जाते हुए)...अभी आयी...(रंजना तैयार होकर पर्स लेकर निकालती है) सुधीर ! मुझे एक बाल्टी लेनी है। आज पड़ोस की मिसेज चन्द्रा आयी थीं, टूटी बाल्टी को इस तरह घूर-घूरकर देख रहीं थीं कि बुरा लगा...
सुधीरः चलो, ले लेना...मुझे भी शेविंग क्रीम लेनी है...
रंजनाः इतने पैसे कहाँ हैं ? आज छब्बीस तारीख है।
सुधीरः हाँ...हाँ ! जाने दो, मेरा काम चल जायगा...चलो भी तो...चलो, देर मत करो...
दीपाः जल्दी करो न माँ !

(दृश्य समाप्त)

[सुधीर, रंजना और दीपा बाजार में हैं। दीपा ललचायी आँखों से खिलौने की दुकान में खिलौना देख रही है, सुधीर इससे बेखबर है, पर रंजना को हल्की कसक- सी लगती है। दीपा कुछ माँगती नहीं है। तीनों एक बड़ी दुकान में जाते हैं। सुधार दीपा को टॉफी कार्नर की तरफ ले जाता है। रंजना बच्चों के टँगे फ्रॉक देखती है]
दीपाः पापा, ये वाली टॉफी !
सुधीरः (दुकानदार से)...ये टॉफी दीजिए...
(उसी समय दुकान में मीरा और सुनन्द आते हैं। मीरा की वेशभूषा बहुत आधुनिक है। मीरा की नजर रंजना पर पड़ती है और वह कुछ पलों तक रंजना को देखती रहती है।)
मीराः ...ओ...इ...रंजना ! (रंजना के पास आती है) रंजना ! मुझे पहचाना ?
रंजनाः (पहचान की खुशी के साथ) अरी..मीरा तुम ! तुम यहाँ कैसे ?
मीराः मैं तो यहीं हूँ...लेकिन तुम...
रंजनाः हम हाल में ही यहाँ आये हैं...
मीराः (सुनन्द से) मीट माइ फ्रेण्ड रंजना !

(वहाँ सुधीर और दीपा आ जाते हैं।)
रंजनाः (मीरा से) ये हैं मेरे श्रीमान्...सुधीर।
मीराः (दीपा को प्यार करते हुए) तेरी बेटी बड़ी प्यारी है...
रंजनाः तेरे बच्चे...?
मीराः एक डाक्टर है, शिमला बोडिंग में रह कर पढ़ रही है...सुनो रंजना, अभी मैं जरा जल्दी में हूँ, घर पर मिलेंगे तो इतमीनान से बातें करूँगी...
सुनन्दः (हँसकर) इन्हें घर का पता तो दे दो...
मीराः ओह...मैं तो भूल ही गयी...
सुनन्दः (हँसकर) ‘‘इश्क नाजुक मिजाज है बेहद
अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता...’’
सुनन्दः ये लीजिए मेरा कार्ड...
सुधीरः मेरे पास कार्ड नहीं..जस्ट अ मिनट !
(सुधीर पाकेट से कलम निकाल कर एक कागज पर जल्दी से अपना पता लिखकर सुनन्द को देता है)
सुनन्दः ओ.के...बॉय...

(सुनन्द और मीरा दुकान से बाहर जाते हैं, और कार से निकल जाते हैं)
[रास्ते पर रंजना, सुधीर और दीपा चल रहे हैं।]
सुधीरः बहुत स्मार्ट है तुम्हारी दोस्त !
रंजनाः कॉलेज में भी बड़ी तेज-तर्रार थी। देख नहीं रहे थे कैसी चुस्त लग रही थी...
सुधीरः हूँ...थोड़ी ज्यादा ही मार्डन है...
रंजनाः (सुधीर के अंदाज में) यहाँ रहते-रहते सब ठीक लगने लगेगा...अभी छोटी जगह से आये हो न...इसीलिए। (दोनों हँसते हुए) तुम भी अपना विजिटिंग कार्ड क्यों नहीं बनवा लेते...?
सुधीरः छोड़ो भी...बेकार का खर्चा...
(दृश्य समाप्त)

[कुछ दिनों बाद। रंजना अपने घर का सारा काम निपटा कर एक कविता की किताब पढ़ रही थी। पास में टेप में मधुर गाना आता है, तभी कॉल बेल बजती है। रंजना दरवाज़ा खोलती है। सामने मीरा खड़ी है।]
मीराः हैल्लो ! रंजना ! कैसी हो ?
रंजनाः (खुश होकर) हाय...मीरा ! आओ, आओ ! मैं कब से तुम्हारा इन्तज़ार कर रही थी...
मीराः सच ! तुम्हें बहुत इन्तज़ार करना पड़ा। आज आफिस से छुट्टी ले रखी है। पहले ब्यूटी पार्लर गयी, वहाँ से सीधे तेरे पास आ रही हूँ...
रंजनाः तुम्हें घर खोजने में दिक्कत तो नहीं हुई ?
मीराः नहीं, घर खोजने में तो नहीं हुई, लेकिन कार पार्क करने में बहुत हुई। क्या इधर किसी के पास कार नहीं ? (रंजना एक पल के लिए हीन भावना महसूस करती है। वहां रखी कविता की किताब हाथ में लेकर मीरा देखती है) क्या पढ़ रही हो ?

रंजनाः कविता...बस यों ही कभी-कभी कविता को छूना अच्छा लगता है...
मीराः (याद करते हुए) कविता तो उन दिनों भी तुम किया करती थी...क्या मजमा जुटता था...!
रंजनाः तुम भी तो कितना अच्छा शेर पढ़ा करती थी, अब भी...
मीराः अरे अब लाइफ़ में इतना स्ट्रगल है कि ऐसी भावुकता के लिए कहाँ समय मिल पाता है ?...तब की बात और थी ?...
रंजनाः याद है उस लड़के की ?...बेचारा तुम्हे दिल दे बैठा था और तुमने जो खबर ली उसकी...
मीराः (हँसकर) ओ...वो पोएट ! आशिक बनता था, भूल उसकी थी...
रंजनाः ‘ऐसे खिलते हैं फूल फागुन में,
लोग करते हैं भूल फागुन में’

(दोनो हँसती हैं)

मीराः क्या करती हो सारा दिन ?
रंजनाः (हँसकर) बस ! तुम्हारा इन्तज़ार । यहाँ तो मैं किसी को जानती नहीं, बैठी-बैठी तेरी बाट जोहती रहती हूँ...
मीराः अरी तो मिला-जुला करो लोगों से, घर में बन्द रहोगी तो केवल हाउस होल्ड प्राब्लेम्स से घिरी रहोगी... लगता है तुम अभी भी वही सपने देखने वाली रंजना हो...
रंजनाः क्या तुम सपने नहीं देखती ?
मीराः मैं केवल सपने ही नहीं देखती, उन्हें पूरा करने का हौसला भी रखती हूँ। सब कुछ यों ही हासिल नहीं हो जाता...उन्हें हासिल करना पड़ता है ! यही तो जिंदगी है...
रंजनाः अच्छा पहले तुम्हें चाय बनाती हूँ...

(रसोई में रंजना गैस पर चाय का पानी रखती है। मीरा वहीं आ जाती है)

मीराः बेटी कहाँ है तुम्हारी ?
रंजनाः खेलने गयी है...(चाय बनाते-बनाते) अरी मीरा ! तुम तो ज्यों की त्यों धरी हो, दुबली-पतली...
मीराः यों ही नहीं धरी, मेनटेन करना पड़ता है, महीने में दो बार ब्यूटी पार्लर जाती हूँ, ऊपर से एक्सरसाइज, डाइटिंग...पर तुम क्यों इतनी लापरवाह हो...हेयर स्टाइल वही दस साल पुराना और...
रंजनाः अब क्या फर्क पड़ता है...
मीराः वाह फर्क क्यों नही पड़ता ?..(अर्थपूर्ण स्वर में) बहुत पड़ता है औरत का धन उसकी सुंदरता है...
रंजनाः मुझे तो लगता है औरत की असली सुंदरता मन की...
मीराः अरी रंजना, छोड़ इन बातों को...जिंदगी के प्रति पॉजिटिव एप्रोच की जरूरत है...(घड़ी देखते हुए) माई गॉड ! पाँच बज गये...चलूँ फिर...अच्छा सुनो ! परसों मेरा आफ है, मैं आकर तुम्हें ले जाऊँगी अपने घर, हम साथ ही लंच करेंगें...ओ.के.बॉय-बॉय...

(मीरा चली जाती है)

[रंजना दरवाज़ा बंद कर उसी दिशा में सोचती है, एक हल्की सी उदासी छा जाती है उसके चेहरे पर। दरवाज़े के नीचे से डाकिया एक पत्र डालता है। रंजना उसे उठाकर देखती है।]
रंजनाः (स्वगत) हूँ...अम्मा जी का है...(रंजना पत्र पढ़ती है) ‘प्यारे बेटे सुधीर’ कुशल से कुशल जानना। पिछले महीने मैंने रुपये मँगवाये थे आया नहीं। तुम तो जानते हो अपने बाबू जी का स्वभाव। बहुत बिगड़ जाते हैं। गुस्से में उनका ब्लड प्रेशर हाई हो जाता है। तुम पत्र पाते रुपया भेज देना। सुनीत की अगले महीने एडमिशन फ़ीस लगेगी। बहू से कहना किफायत से रहे...। कुछ जोड़ो, निम्मो की शादी की चिन्ता दिन रात खाये जाती है। बहू और दीपा को आशीर्वाद देना।
-तुम्हारी अम्मा।’

[सुधीर और दीपा हँसते हुए अन्दर आते हैं, रंजना का चेहरा उतरा हुआ है।]
सुधीरः (जल्दी में) चलो, पार्क चलें, दीपा चिल्ड्रेन पार्क जाना चाहती है...
रंजनाः पहले चाय तो पी लो, मुझे तुमसे कुछ बात करनी है...
सुधीरः (रंजना की उदासी की तरफ ध्यान नहीं जाता)...नहीं देर हो जायगी...आज आफिस में बहुत चाय हो गयी...
रंजनाः साड़ी बदल लूँ...अम्मा जी की चिट्ठी आयी है...
सुधीरः नहीं, ऐसे ही सुंदर लग रही हो...चिट्ठी रख लो, वहीं पढ़ेंगे...
(दृश्य समाप्त)

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