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ईर्ष्या तथा अन्य कहानियाँ

राजेन्द्र प्रसाद मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1361
आईएसबीएन :81-263-0838-9

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नौकरशाही और भद्र वर्ग की विसंगति को जिस भोली सहजता से राजेन्द्र कुमार मिश्र चीरते चले जाते हैं,वह उन्हें अपने ढंग का अद्वितीय कथाकार बनाती है।

Irsya Thatha Anya Kahaniyan

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

मेरी रचनाओं के लगभग सभी पात्र शिक्षित मध्य वर्ग या उच्च मध्य वर्ग के ऐसे लोग हैं जिन्हें एक ओर तो समसामयिक बौद्धिक और नैतिक प्रश्न उत्तेजित करते हैं और दूसरी ओर जो अपने शारीरिक और मानसिक आवेगों, आसक्तियों और विरक्तियों से उत्पन्न समस्याओं से जूझने को विवश हैं।
इस संग्रह की अन्तिम चार लम्बी कहानियों के बारे में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात। पहली बार ये अपने मूल रूप में प्रकाशित हो रही हैं। यानी जैसी लिखी गयी थीं। मासिक पत्रिकाओं में इन्हें प्रकाशित करना उतना ही कठिन था जितना लम्बी कन्याओं की शादी करना ! खासतौर से ‘ईर्ष्या’ इतनी लम्बी थी कि कोई पत्रिका इसे छापने को तैयार नहीं थी। बेचारी दो साल तक भटकती रही। अन्त में मुझे इसे जगह-जगह बेरहमी से काटना पड़ा। इसके बत्तीस पृष्ठ काट-छाँटकर अठारह पृष्ठ किये गये ! इसी तरह ‘रंगमंच’ अट्ठाईस पृष्ठ से कट-छँटकर अठारह पृष्ठ की, ‘सखियाँ’ बाईस से घटकर सोलह पृष्ठ की तथा ‘पाप और पुण्य’ इक्कीस से घटकर पन्द्रह पृष्ठ की गयी।

मानवद्रोही


शाम के सात बजे थे। दिल्ली के एक महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र के आचार्य राममोहनजी टहलने की तैयारी कर रहे थे। उन्होंने खादी का धुला हुआ सफेद कुर्ता और पायजामा पहन लिया था और अब सूती मोजे और किरमिच के जूते पहन रहे थे। आधा मिनट के अन्दर वे टहलने की छड़ी लेकर रवाना हो जाएँगे। पर उनके दिमाग में यह खयाल मौजूद था कि टहलते वक्त पेट्रोल और डीजल की अनगिनत गाड़ियों का धुआँ उनके शरीर में प्रवेश करेगा। जिससे उनके स्वास्थ्य को क्षति पहुँचेगी। भोपाल में वे इस धुएँ से मुक्त थे। चार इमली की पहाड़ी पर घर था। जिधर इच्छा होती टहलने निकल जाते, शुद्ध वायु में। अपने घर से दस मीटर दूर पुट्ठा मिल की चिमनी को धुआँ उगलते देखते तो यह सोचकर प्रसन्न हो जाते कि वे वायु-प्रदूषण से बचे हुए हैं।
‘कोई बहुत फायदा नहीं इस टहलने से। जिधर जाओ उधर हर सेकण्ड कोई-न-कोई गाड़ी निकलकर फेफड़ों को गन्दे धुएँ से भर देती है,’ उन्होंने छड़ी की ओर बढ़ते हुए सोचा।

उनकी नजर आज के अखबार पर गयी और उन्हें विरक्ति हुई। अखबार में सबसे बड़ी खबर एक मन्त्री के भष्टाचार से सम्बन्धित थी। पूरा अखबार इसी तरह की घटनाओं से भरा रहता था, जिसे पढ़ते ही उनका मन खराब हो जाता था। इसलिए उन्होंने आजकल अखबार पढ़ना लगभग बन्द कर दिया था। सुर्खियों पर नजर डाल लेते थे। बाकी पत्नी से पूछ लेते कि आज की क्या खास खबरें हैं। वह जानती थी कि उन्हें कौन-सी खबरें बतानी चाहिए और कौन-सी नहीं। अखबार ही नहीं बल्कि सभी समाचार माध्यम गन्दी बातों का रस लेकर बयान करते थे। और अधिकांश पढ़े-लिखे लोग भी अनैतिकता और अनाचार के बारे में बातें सुनना और करना ज्यादा पसन्द करते थे।
‘महात्मा गाँधी के देश की आज यह दशा हो गयी है !’ वे अक्सर सोचते।

मन की तरह ही शरीर को शुद्ध रखना भी जरूरी है, इसलिए वे सुबह एक घण्टा योगासन करते थे। वरना सुबह टहलना ज्यादा मुफीद होता। पर आसन करना भी जरूरी था। इससे रक्त शुद्ध होता था और गाड़ियों के धुएँ के अतिरिक्त रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं का जहर, जो उनके शरीर में खाद्य पदार्थों के जरिये पहुँचता था, पूरा नहीं तो काफी हद तक बाहर निकल जाता था। पहले उन्हें एक योगी ने बताया था कि आसन से शरीर पूरी तरह शुद्ध हो जाता है। पर बाद में एक वैज्ञानिक लेख में उन्होंने पढ़ा था कि प्रदूषण के जहर का काफी हिस्सा शरीर में ही बना रहता है और गुर्दों, फेफड़ों और दिल को स्थायी रूप से नुकसान पहुँचाता है। तब से उनकी फिक्र वापस आ गयी थी। उन्हें इस तरह के वैज्ञानिकों पर भी गुस्सा आया कि जो ख्वाहमख्वाह चिन्ताएँ उत्पन्न करने वाले लेख लिखते हैं।
‘अगर मुझे यह मालूम न होता कि इस जहर का एक हिस्सा शरीर में ही रह जाता है तो मुझे इससे क्या नुकसान होता ?’ वे सोचते।

‘‘मैं टहलने जा रहा हूँ। दरवाजा बन्द कर लेना। सुना कि नहीं ! भूलना मत !’’ उन्होंने किचन में काम कर रही पत्नी को आवाज दी और यह चिन्ता करते हुए बाहर निकल गये कि दरवाजा देर में बन्द करेगी या बन्द ही नहीं करेगी। कई बार ऐसा होता कि वे टहलकर आते तो देखते कि दरवाजा उसी तरह खुला हुआ है। वे नाराज होकर कहते, ‘‘दरवाजा बन्द करने में जरा से आलस से तुम्हारी जान जा सकती है ! शहर अपराधियों से भरा हुआ है, कोई भी घुसकर तुम्हारा गला दबा देगा और सब-कुछ लेकर चल देगा। मुझे सामान की परवाह नहीं है लेकिन....’’
पत्नी चुप रहती। लेकिन कभी-कभी झल्लाकर जवाब देने से खुद को रोक न पाती, ‘‘अरे कुछ नहीं होगा जी ! तुम्हें दुनिया में सब बुरा-ही-बुरा दिखाई देता है ! अच्छा कुछ भी नहीं !’’
रिंग रोड से गुजर रही बसों, ट्रकों और कारों की आवाजें दूर से ही उनके कानों में पड़ने लगीं और उनका धुआँ उनके फेफड़ों में घुसने की प्रतीक्षा करने लगा।

‘यह घर बदलना जरूरी है,’ उन्होंने हमेशा की तरह सोचा। ‘किसी स्वास्थ्यप्रद वातावरण वाले मोहल्ले में जाकर रहूँगा। नहीं तो वापस भोपाल चला जाऊँगा।’
पर वे जानते थे कि वे भोपाल वापस नहीं जाएँगे। इस कॉलेज में पहली बार भारतीय दर्शन के एक आचार्य को यह पद मिला था। इसके पहले इसे काण्ट, हीगेल और मार्क्स के विद्वान ही सुशोभित करते रहे थे। उनका यहाँ रहना भारतीय दर्शन की प्रतिष्ठा के लिए आवश्यक था।
एकाएक बड़ा शोर करती हुई एक मोटरसाइकिल उनके घर के सामने आकर रुकी और पेट्रोल के धुएँ ने उनकी नाक में घुसकर उनके मन को खराब कर दिया।
‘घर से निकलते ही...’ उन्होंने झल्लाकर सोचा।

‘‘चाचाजी नमस्ते !’’ एक नवयुवक मोटरसाइकिल से उतरे बिना उनकी ओर देखते हुए हाथ जोड़कर बोला।
‘सुबोध, तुम कब आये ? धनबाद कैसा लगा ?’’ उन्होंने नाक पर रुमाल रखकर प्रकृतिस्थ होने का प्रयत्न करते हुए कहा। पर उनकी नजर मुजरिम मोटरसाइकिल पर टिक गयी। पेट्रोल का धुआँ अभी भी हवा में टँगा था और उन्हें एहसास हो रहा था कि दूषित वायु उनके फेफड़ों में घुसकर उनके खून को गन्दा कर रही है।
‘‘कितनी बढ़िया गाड़ी है ! सुधीर की है। पिछले महीने ही तो उसने ली है,’’ उन्हें मोटरसाइकिल की ओर ताकते हुए देखकर वह उससे उतरकर बोला।
‘‘तुम्हारी इस बढ़िया गाड़ी ने मेरा टहलने का मजा शुरू से ही बिगाड़ दिया।’’ उनकी आवाज में द्वेष था।
वह हँसा, ‘‘चाचाजी, आप इन चीजों को बहुत सीरियसली लेते हैं। इतने बड़े शहर में रहकर आप प्रदूषण से कैसे बच सकते हैं ?’’
उसने मोटरसाइकिल स्टैण्ड पर खड़ी कर दी।
‘‘जिन चीजों को गम्भीरता से लेना चाहिए, उन्हें लेता हूँ,’’ उन्होंने उत्तर दिया।

‘‘मैं परसों आया था। कल शाम को भी आपसे मिलने आनेवाला था, पर देर हो गयी,’’ सुबोध बोला।
‘‘पहली तनख्वाह मिल गयी ?’’ उन्होंने बमुश्किल अपनी बेसब्री पर काबू पाते हुए कहा। अब वे फौरन टहलने निकल जाना चाहते थे। इससे बातें होने लगीं तो देर हो जाएगी और उनका रुटीन बिगड़ जाएगा। जीवन में सबसे ज्यादा असुविधा उन्हें रुटीन बिगड़ जाने से होती थी।
‘मिल गयी।’’ उसने बिना उत्साह के जवाब दिया।
‘कितने का लाभ हुआ ?’’
‘‘पाँच हजार चार सौ अस्सी मिले।’’
‘‘अच्छा है ! बहुत अच्छा है !’’ उन्होंने कहा, ‘‘तुम अपनी चाचीजी से बात करो, मैं टहलकर आता हूँ। वे तुम्हारे बारे में पूछ रही थीं।’’
वे तेजी से रवाना हो गये।
‘‘मैं भी चलता हूँ आपके साथ !’’ वह मोटरसाइकिल में ताला लगाते हुए बोला।
उन्होंने उसे ताला लगाने का वक्त नहीं दिया और ‘‘तो आओ’’ कहकर आगे निकल गये। पहले कदम से ही उनकी फुल स्पीड आ गयी। वे एक घण्टे में चार मील की गति से चलते हैं। इससे सुस्त चाल से टहलने से पूरा फायदा नहीं मिलता।
वह दौड़कर उनके पास पहुँच गया। उसके साथ चलना उन्हें पसन्द नहीं आया। सुबोध को वे करीब बीस वर्षों से जानते थे। जब वह चार-पाँच साल का था और भोपाल में उसके पिता उसे सुबह अपने साथ टहलने ले जाते थे। उसकी उपस्थिति में वे सहज नहीं रह पाते थे। वह उनका आदर करता था पर बहस बहुत करता था। उसके स्वभाव में उन्हें संयम और विनय की कमी खटकती थी।

इसके अतिरिक्त टहलते वक्त वे अपने खयालों में डूबे रहना पसन्द करते थे। इसलिए अकेले ही टहलते थे। दिमाग में कितने बढ़िया खयाल पैदा होते हैं टहलते वक्त ! जैसे आदमी नशे में हो। टहलना एक सात्विक नशा है जो खयालों को धुँधला करने के बजाय अधिक स्पष्ट करता है। जब आप चल रहे होते हैं तो मुश्किल-से-मुश्किल समस्याओं के हल आपके दिमाग में ऐसे आ जाते हैं जैसे आप उनका नहीं, वे आपका इन्तजार कर रहे हों। अनेक ऐसी समस्याएँ थीं जो उनके दिमाग में बार-बार आकर उन्हें कष्ट दिया करती थीं। इनमें से कई के हल उन्होंने टहलने के दौरान निकाल लिये थे। चाहे दुनिया में और लोगों को ये अभी भी परेशान करती हों, उनके लिए अब इनका अस्तित्व नहीं बचा था।
एक बार टहलने के दौरान उन्हें सूझ गया था कि यदि नेहरू और पटेल ने यह करने के बजाय यह किया होता तो देश का विभाजन टल सकता था। बाद में अपनी यह सूझ उन्होंने जिन लोगों को बतायी थी उनमें से कई लोग मान गये थे कि वैसा करने से विभाजन टल सकता था। अतीत की और कई समस्याएँ भी वे इसी तरह सुलझा चुके थे। उनके ये समाधान किसी भी तरह के विवाद या कटुता से दूषित न होकर सर्वसम्मत होते थे।

दो मिनट में वे रिंग रोड पहुँचकर रुक गये। दोनों ओर से ट्रकों, बसों, कारों और स्कूटरों की कतारें चली आ रही थीं।
‘किस तरफ चला जाय ?’ वे सोचने लगे। किसी दिन वे दाहिनी ओर का रास्ता पकड़ते हैं तो किसी दिन बायीं ओर का। कभी उस तरफ चल देते हैं जिधर कम गाड़ियाँ जा रही होती हैं, तो कभी उस तरफ जिधर से कम आ रही होती हैं। बात एक ही होती है पर वे रोज रुककर रास्ते का चुनाव जरूर करते हैं। उनके जीवन में इस तरह के चुनावों का विशेष महत्त्व है।
‘‘अंकलजी, खड़े क्यों हो गये ?’’ सुबोध ने पूछा।
उन्होंने गाड़ियों की कतारों की ओर इशारा किया।
‘‘आप विवेकानन्द विहार टहलने क्यों नहीं जाते ? वहाँ प्रदूषण बहुत कम है।’’ सुबोध ने कहा।
‘‘यह किधर है ?’’
‘‘यहाँ से मुश्किल से एक किलोमीटर पर। आपको विवेकानन्द विहार नहीं मालूम !’’ उसने ताज्जुब के साथ कहा।
‘‘एक किलोमीटर तो कोई दूर नहीं है। मैं तो रोज छः किलोमीटर टहलता हूँ। पर मैंने तो इस जगह के बारे में कभी सुना ही नहीं। क्या वहाँ गाड़ियाँ नहीं निकलतीं ?’’
‘‘यहाँ की अपेक्षा बहुत कम। और ट्रकों और बसों का तो वहाँ कोई काम ही नहीं है। वहाँ कई सुन्दर पार्क भी हैं।’’

वे दोनों उस स्थान के लिए चल पड़े। तभी राममोहनजी को अन्देशा हुआ कि सुबोध शायद उनसे किसी विषय पर बात करना चाहता है, इसलिए उनके साथ चल रहा है। यह विषय क्या हो सकता था ? कोई भी हो, उन्हें उससे बात करने में मजा नहीं आता था। ज्यादातर वह राजनीति पर बात करता था। पर आज की गन्दी राजनीति से राममोहनजी को घृणा थी और वे इस पर बात करने से बचते थे। लेकिन सुबोध राजनीति पर सिर्फ इसलिए बात करता था कि वह गन्दी थी। वह व्यक्तिगत विषयों पर बातें करते हुए सार्वजनिक मामलों तक पहुँच जाता, जिनका केन्द्र अन्ततः राजनीति होता।
तभी सुबोध, जो उन्हें रास्ता दिखाने के लिए उनसे दो-तीन कदम आगे चल रहा था (दरअसल राममोहनजी उससे बात करने से बचने के लिए जान-बूझकर उससे पीछे चल रहे थे), रुककर उनके बराबर आ गया। उसने उनकी ओर देखा। उन्हें आशंका हुई कि वह कुछ कहने वाला है। इसके पहले कि वह बोले, उन्होंने कहा, ‘‘मिश्रजी कैसे हैं ? इधर कई दिनों से उनसे मुलाकात नहीं हो सकी।’’

‘‘पिताजी ठीक हैं,’’ सुबोध ने उत्तर दिया। ‘‘मैं एक जरूरी मामले में आपकी सलाह लेना चाहता हूँ।’’
‘‘तुम मुझसे सलाह लेकर क्या करोगे ?’’ उन्होंने उत्तर दिया। उन्होंने सोचा कि यह कोई ऐसी समस्या बताएगा जिसका हल उनके पास नहीं होगा और वे ख्वाहमख्वाह परेशान होंगे।
मनोवैज्ञानिकों की राय में चिन्ताएँ स्वास्थ्य के लिए सबसे ज्यादा हानिकारक होती हैं। इसलिए जीवन की तमाम वास्तविक समस्याओं को वे अनावश्यक, काल्पनिक और रुग्ण मस्तिष्क की उपज मानकर उनसे बचने की कोशिश करते थे।
सुबोध ने सोचा, ‘अपनी बात विवेकानन्द विहार पहुँचकर पर ही करूँगा। अभी ये सुनने के मूड में नहीं मालूम होते।’
‘‘मैं इस जगह की बात कर रहा था। यहाँ वायु-प्रदूषण बहुत कम है।’’ सुबोध ने विवेकानन्द विहार में प्रवेश करते हुए बोला।
राममोहनजी ने अपने दाहिने, बायें और सामने नजर डाली। ‘कितना सुन्दर स्थान है !’ उन्होंने प्रसन्न होकर सोचा। उन्हें अफसोस हुआ कि वे इस जगह के इतने नजदीक रहते हुए भी दो साल से गन्दी हवा में टहल रहे थे।

क्षण-भर के लिए सुबोध के दिमाग से अपनी बात निकल गयी। उसने कहा, ‘‘दस साल पहले यहाँ मजदूरों की एक बस्ती थी जिसे यह कॉलोनी बनाने के लिए उजाड़ दिया गया। हजारों लोग बेघर हो गये !’’
राममोहनजी चुप रहे। वे ऐसी बातें बहुत सुन चुके थे। अब तक हजारों पुरानी बस्तियाँ उजाड़कर नयी बसायी गयी होंगी। लाखों लोग बेघर हुए होंगे। भविष्य में भी यही होगा। वे इस बारे में सोचकर परेशान नहीं होना चाहते थे। और बिना पुरानी बस्ती उजाड़े नयी बसायी भी तो नहीं जा सकती।
वे जिस रास्ते पर चल रहे थे उसके दोनों तरफ गुलमोहर के पेड़ फूलों से लदे हवा में झूम रहे थे। वे अपने बायें हाथ की ओर स्थित एक खूबसूरत पार्क को देखने लगे। सुबोध उनके बराबर आ गया और उसने उनकी ओर देखा। उन्हें आशंका हुई कि वह उनसे कुछ कहने वाला है।
‘यह लड़का हमेशा फालतू की बातें करता है,’ उन्होंने सोचा।

सुबोध ने कहा, ‘‘उन मजदूरों को रहने के लिए यहाँ से पन्द्रह-बीस मील दूर भेज दिया गया। ज्यादातर लोगों की रोजी-रोटी चली गयी।’’
‘अब तक वे फिर धन्धे से लग गये होंगे। आदमी हर परिस्थिति से अन्ततः निपट ही लेता है।’ उन्होंने अपने फेफड़ों में शुद्ध वायु खींचते हुए सोचा और उनकी नजर पार्क से हटकर फिर गुलमोहर के पेड़ों पर चली गयी।
उन्होंने सोचा, ‘‘यह लड़का बड़ा विचित्र है ! स्वास्थ्यप्रद वातावरण का आनन्द लेने के बजाय निरर्थक बातें सोच रहा है।’’
सुबोध ने कहा, ‘‘उन्हें नाममात्र का मुआवजा दिया गया। जब उन्होंने यहाँ से जाने से इनकार किया और प्रदर्शन किया तो उन पर गोली चलायी गयी, जिसमें कई लोग मारे गये...’’
राममोहनजी का धैर्य समाप्त हो गया। उन्होंने कहा, ‘‘ये सब बातें तुम ख्वाहमख्वाह मुझे क्यों सुना रहे हो ? मेरा टहलने का आनन्द क्यों नष्ट कर रहे हो ?’’
सुबोध चुप हो गया।

वे एक बँगले के सामने से गुजरने लगे जिसके लॉन में एक सम्भ्रान्त, सौम्य और सात्त्विक प्रतीत होनेवाले बुजुर्ग खड़े हुए अपने सामने टकटकी लगाकर देख रहे थे। राममोहनजी को इनका चेहरा परिचित सा मालूम हुआ। वे उनकी ओर गौर से देखने लगे। जब भी उन्हें कोई ‘अच्छा’ आदमी दिखाई देता है, उन्हें लगता है कि जैसे वे इससे मिल चुके हैं और विभिन्न महत्त्वपूर्ण विषयों पर इससे अनुकूल चर्चा कर चुके हैं। इस आदमी से उनका ज्यादा नजदीक का रिश्ता है और इससे उनके विचार ज्यादा मिलते-जुलते हैं बजाय ज्यादातर उन लोगों से जिनसे वे दरअसल रोज मिलते हैं, जिनसे उनकी प्रकृति पूरी तरह मेल नहीं खाती है और जो अपने नकारात्मक दृष्टिकोण से अपनी और दूसरों की जिन्दगी का मजा बिगाड़ते हैं।
इस सात्त्विक बुजुर्ग के समान कई अन्य ‘अच्छे’ लोगों से भी उनकी ‘मित्रता’ थी जो उनकी सात्त्विक मित्रताओं से ज्यादा वास्तविक थीं और जिनसे कभी-कभी टहलते हुए वे मन-ही-मन विभिन्न विषयों पर विचारों का आदान-प्रदान और समस्याओं का समाधान कर लिया करते थे।
सुबोध मन-ही-मन उनसे अपनी बात करने की तैयारी करने लगा और उनकी सम्भावित प्रतिक्रिया का अनुमान लगाने लगा। वे एक मोड़ पर आ गये।

‘‘आप यहाँ से बायीं तरफ चलेंगे या दाहिनी तरफ ?’’ उसने पूछा। ‘इसके बाद मैं अपनी बात कहूँगा’, उसने सोचा।
‘‘किसी भी तरफ चलो। अब तो मैं यहाँ चारों तरफ टहला करूँगा,’’ राममोहनजी ने उस बुजुर्ग से भविष्य में किसी बढ़िया विषय पर मन-ही-मन सुखद और सार्थक चर्चा करने की प्रत्याशा के साथ कहा। यदि कोई उनका इन बुजुर्ग से परिचय कराने की बात कहता तो वे दुविधा में पड़ जाते। वास्तव में वह न जाने कैसा आदमी हो !
वे दाहिनी ओर मुड़ गये। पहला बँगला ही बेहद शानदार था। इसके विस्तृत बगीचे की घास हरे सिल्क जैसी लग रही थी और चारों ओर फूलों की क्यारियाँ थीं। लॉन के अन्त में एक छोटा-सा स्वीमिंग पुल था, जिसमें एक नवयुवक तैर रहा था।
सहसा सुबोध के चेहरे पर नजर जाते ही राममोहनजी को आशंका हुई कि वह फिर कुछ बोलनेवाला है। उन्होंने कहा, ‘‘इस बँगले की कीमत कम-से-कम पच्चीस लाख तो होगी ?’’
‘‘इससे कहीं ज्यादा होगी। लेकिन ‘व्हाइट’ में दस से भी कम होगी !’’
‘‘यह किसका बँगला है ? तुम तो यहाँ आते होगे ?’’

‘‘जी हाँ ! मैं यहाँ अक्सर आता हूँ। यहाँ मेरे कुछ दोस्त रहते हैं। यह एक भूतपूर्व मन्त्री का बँगला है। यहाँ कई भूतपूर्व मन्त्री, संसद सदस्य और रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट्स वगैरह रहते हैं।’’
वे चलते रहे। कुछ देर बाद सहसा सुबोध ने कहा, ‘‘इस मन्त्री के खिलाफ करीब पाँच साल पहले एक जाँच आयोग बैठा था, जिसने इसे भ्रष्टाचार का दोषी पाया था। इसे इसकी पार्टी से निकाल दिया गया तो इसने दूसरी पार्टी ज्वाइन कर ली। अब यह उस पार्टी का एम.पी. है और प्रतिनिधि मण्डलों का सदस्य बनकर गरीब टैक्सपेयर की कमाई से विदेश यात्रा किया करता है !’’
‘‘यह किस प्रकार के व्यक्ति का बँगला है, मुझे इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है ! मैं तो सिर्फ यह कह रहा हूँ कि यह बँगला भव्य है। क्या बँगला भी भ्रष्ट है ?’’ उन्होंने झल्लाकर कहा। ‘‘तुम्हारे दिमाग में कभी कोई स्वस्थ बात नहीं पैदा होती ?’’
करीब पाँच मिनट बाद वे एक दूसरे बँगले के सामने से निकलने लगे। यह उस भूतपूर्व मन्त्री के बँगले से भी ज्यादा बड़ा और शानदार था। सुबोध ने इस बँगले पर एक अर्थपूर्ण दृष्टि डाली जिसे राममोहनजी ने देख लिया। तत्काल उन्हें आशंका हुई कि सुबोध कहीं इस बँगले को लेकर भी कोई अरुचिकर बात न कहे जिस पर उन्हें क्रोध आ जाए। इस बार उन्हें अवश्य क्रोध आएगा और उनका टहलने का मजा बिल्कुल बिगड़ जाएगा। उनकी आशंका इतनी प्रबल हो उठी कि व्यग्र होकर इस बारे में उससे कुछ सुनने का इन्तजार करने लगे, ताकि सुबोध को जो कुछ कहना हो शीघ्र कहकर उन्हें इस आशंका से मुक्ति दिलाए।

सुबोध भी, जो क्षण-भर पहले उनकी झिड़की से ठण्डा पड़ गया था, सहसा उत्तेजित महसूस करने लगा, जैसे उनकी आशंका-व्यग्रता उसे सम्प्रेषित हो गयी हो। उसने खुद को रोकना चाहा, पर उसे लगा कि जैसे उसके गले में कोई चीज अटक गयी है जिसे वह निगल नहीं सकता। उसने विवश होकर कहा, ‘‘यह एक कुख्यात स्मगलर का बँगला है, जिसके बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों से घनिष्ठ सम्बन्ध हैं।’’
राममोहनजी को राहत हुई। फिर उनके मन में वितृष्णा उत्पन्न हुई सुबोध की मानसिकता रुग्णता के प्रति, जिसका फल उन्हें इस समय भोगना पड़ा रहा था।
सुबोध ने अपने गले में अटकी चीज को पूरी तरह उगलते हुए कहा, ‘‘पिछले महीने इसके लड़के की शादी में दिल्ली के बड़े-बड़े महानुभाव शामिल हुए थे जिनमें राजनीतिज्ञ, अफसर, पत्रकार वगैरह थे।’’

सुबोध हल्का महसूस करने लगा। राममोहनजी तिलमिला उठे, ‘‘तुम जान-बूझकर मुझे यह सब क्यों सुना रहे हो। तुम्हें अच्छी तरह मालूम है, मुझे इस तरह की बातें पसन्द नहीं हैं। तुम्हें खुद कीचड़ में जितना लोट लगाना हो लगाओ, मुझे क्यों सानते हो। मुझे तुम्हारी यह धृष्टता पसन्द नहीं है !’’
‘‘अगर आपको मेरी बातों से तकलीफ हुई तो क्षमा कर दें,’’ सुबोध ने कहा, ‘‘जान-बूझकर आपको तकलीफ देने की बात तो मैं सोच भी नहीं सकता। अब मैं कोई ऐसी बात नहीं करूँगा।’’
उसे अफसोस होने लगा। उसने सोचा, ‘मुझे इनसे ये बातें नहीं करनी चाहिए थीं। मुझे सिर्फ अपनी ही बात कहनी चाहिए थी।’
सुबोध द्वारा खेद प्रकट कर देने से राममोहनजी का असन्तोष कुछ हद तक दूर हो गया। उन्होंने कहा, ‘‘हरेक के मन में कभी-कभी अस्वस्थ विचार उत्पन्न होते हैं, पर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। तुम यह प्रयत्न शायद कभी नहीं करते।’’
थोड़ी देर बाद सुबोध ने बड़े संकोच के साथ कहा, ‘‘मैं आपसे एक व्यक्तिगत विषय पर बात करना चाहता हूँ।’’
‘‘उसके लिए तुम कल सुबह आना,’’ उन्होंने उत्तर दिया। ‘‘कल भी मैं तुमसे केवल व्यक्तिगत विषय पर ही बात करूँगा।’’
‘‘अगर आपको असुविधा न हो तो मैं आपसे अभी बात करना चाहूँगा। पाँच मिनट से अधिक आपका समय नहीं लूँगा।’’
‘‘तुमसे पाँच मिनट में कभी कोई बात पूरी होती है ? कम-से-कम एक घण्टा चाहिए।’’
‘‘मैं पाँच मिनट से अधिक आपका समय नहीं लूँगा। कल सुबह मुझे दो दिन के लिए कानपुर जाना है। नहीं तो आज आपको कष्ट न देता।’’



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