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पथ दंश

नीरजा माधव

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1363
आईएसबीएन :9789355184825

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प्रस्तुत है कहानी संग्रह पथ-दंश...

Path Dansh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

लिखना क्यों ?

रचनात्मक शून्यकाल में जब सारे आवेग, संवेग, उद्वेलन, संवेदन साम्यावस्था में आ जाते हैं तो कहीं से एक हठी प्रश्न आकर मेरी लेखनी को अपनी दोनों हथेलियों में जकड़ लेता है और मुझे अपलक निहारते हुए पूछता है—आखिर लिखना क्यों ? यह लेखनी माधव की मुरली तो नहीं, जिसकी टेर सुनते ही विश्वयारी में गलबाँहीं दिये वर्तमान यायावरी प्रवृत्तिरूपी गउएँ झुण्ड की झुण्ड भागतीं, दौड़तीं, रँभातीं आकर मुरली वाले को घेर खड़ी हो जाएँगी। कुछ क्षण मधुर तान पर सिर हिलाती, गले की रुनझुन घण्टियों से ताल मिलाती, पुनः वापस चल पड़ेंगी घर की ओर। पीछे-पीछे उन्हें हाँकते, उनकी पग-धूल से धूसरित कान्हा, आपादमस्तक विजय-रज लपेटे। और यह लेखनी माँ का वह विशाल आँचल भी तो नहीं जिसकी छाँह में लड़खड़ाते गिरते बच्चों को वर्जना और ताड़ना देने के बाद मीठी लोरी सुनाकर सुला दिया जाए और तब उनके घाव पर स्नेह-लेप लगाया जाए। फिर जब लेखनी माँ नहीं, माधव नहीं, तब क्यों मूल्यों की चौखट थामे थथमी सी पुकार लगाने और लौट आने की गुहार कर रही हैं ? और किससे ? क्या उनसे, जो इस चौखट को छोड़कर जा रहे हैं या जा चुके हैं ? अथवा उनसे जो इसकी पहरेदारी कर रहे हैं ?

हृदय का उद्वेलन चैतन्य होता है और उत्तर आता है—सभी से। उनसे भी जो धर्मान्तरण, मतान्तरण द्वारा प्रसार-लोलुप हैं और मूर्ति-स्थापना, पूजा, प्रार्थना, इबादत के नाम पर धर्म को लहूलुहान करने की साधना में तल्लीन हैं, उनसे भी जो चौहत्तर मन जनेऊ तौलवाने के बाद भी अक्षुण्ण धर्म के मद में चूर संयत भाव से राग दरबारी अलापते निष्क्रिय जीवन जीने की चेष्टा कर रहे हैं। धार्मिक सहिष्णुता, उच्च नैतिक मूल्य और संवेदनशीलता ही इस देश की आत्मा रही है जो इसे पाश्चात्य मशीनी संस्कृति और जीवन-दर्शन से आज तक पृथक किये हुए थी। परन्तु कहीं सेंध लगा कर तो कहीं प्रत्यक्ष प्रहार कर भारत की आत्मा को ही तोड़ने का प्रयास जारी है। इतिहास साक्षी है कि इस देश पर अतीत से लेकर आज तक न जाने कितने आक्रमण हुए, लूटपाट की नीयत से बाहरी शक्तियाँ आयीं और कभी हार कभी जीत के बाद वापस गयीं; परन्तु देश अक्षुण्ण रहा, संस्कृति अडिग, रही, मूल्य चुनौती की तरह बर्बर लुटेरों के सम्मुख तने रहे। परन्तु आज धार्मिक सहिष्णुता में सेंध लगी है। सांस्कृतिक विरासत को गा-गाकर तहस-नहस किया जा रहा है, मूल्य माटी के मोल बिक रहे हैं। इसी सरोकार से जूझते हुए इस संग्रह का सृजन चक्र मुख्य रूप से धार्मिक उन्माद, नैतिक पतन और संवेदनहीनता पर प्रहार करता है और उसके विकृत स्वरूप को अपनी महिमा-मण्डित अतीतारसी में दिखाने का कार्य करता है। यह विगत में पलायन नहीं बल्कि अतीत के शाश्वत मूल्यों को वर्तमान के हाथों भविष्य को सौंपने का गुरुतर दायित्व है। और यह दायित्व लेखनी सँभालती है।

महानगरीय रावण गाँवों को घसीटकर अपने साथ ले जा रहा है। सब चुप हैं। एक क्लीव सन्नाटा। परिस्थितियों के साथ समझौता करता सा। परन्तु दुरपदिया (द्रौपदी) को अपनी और सीता की लाज अब स्वयं बचानी है। दुरपदिया, जो विस्थापित हो महानगर में बसने के बाद भी ढल नहीं पाई है और लौट आना चाहती है अपने खेत और खरिहान, चौरा माई के चबूतरा, डीह बाबा के थान पर माथा नवा भौतिकता के पीछे दौड़ती अपनी अगली पीढ़ी के लिए चिन्तातुर, मनौती, मानती, उनके सकुशल लौट आने की आस लिये। दूसरी ओर राम करन अपने घर की लाज को कुदृष्टि की आँच से दूर रखने की जगह उस आँच में अपनी जेबें गर्म करने और विरासत में मिली गरीबी की चादर में मखमली पैबन्द का स्वप्न देख रहा है और दुरपदिया बौखलाई हिरनी की तरह इधर-उधर निरापद मार्ग तलाश रही है। दुरपदिया एक चरित्र ही नहीं, एक समूचा गाँव है। भारत का कोई भी गाँव। पुराना, मिट्टी की सोंधी गन्ध लिये, बैलों के गले की घण्टी की रुन-झुन, रहट पुरवट, लेजुर, धुरई, बड़ेरी से जुड़े सम्बोधनों के स्वर में मुखरित। रामकरन महानगर है संवेदनहीन। एकाकी, अर्थ की अर्थवत्ता में सीमित, यन्त्र-चालित। दोनों एक दूसरे के सम्मुख चुनौती की तरह खड़े हैं, एक दूसरे से असम्पृक्त भी, सम्पृक्त भी। इन दोनों के बीच खड़ी है लेखनी।
बारूद के ढेर पर बैठा दिया गया है भारत की आत्मा को। हल की मूठ छुड़ा राइफलों की बट पकड़ा दी गयी है भोले भाले हाथों में। दो जून की रोटी नहीं, कपड़ा नहीं। पर न जाने किन रास्तों से होकर छप्परों में घुसी जा रही हैं अत्याधुनिक राइफलें और बन्दूकें, जो निगल जा रही हैं रोटियाँ और फाड़ दे रही हैं कपड़े। निर्वस्त्र हो जा रही है घर की लाज और फिर बेघर होती है कोई सीता कोई रीतू। मन बहलाव के लिए ऊँट की पीठ पर बँधता है कोई नन्हा, कोई छोटू। उनकी भयभीत चीखों से गूँजता है ममता का कोना और भींगती आँखें थाम लेती हैं लेखनी का आँचल, किसी कवि की, लेखक की। और तब उत्तर प्रतिध्वनित होता है। लिखना इसीलिए।

पथ चाहे धर्मान्तरण की ओर जाता हो या धार्मिक कट्टरता की ओर, दोनों ही दशाओं में किसी भी राष्ट्र के लिए इसका दंश असहनीय होता है और तभी धर्म अपने वास्तविक जीवन मूल्यों से च्युत होकर विकृत रूप धारण करता है और जब धर्म के ऐसे विकृत स्वरूप को मनुष्य धारण करता है तो निःसन्देह वह भी विकृत हो उठता है, धर्म के सहज और उदात्त भाव से बिल्कुल दूर उसके आडम्बरों कट्टरता और प्रसार लोलुपता के साथ कदम-से-कदम मिलाता स्वार्थ भरी खीसें निपोरता। जरा-सा विरोध होते ही धर्म के मूल तत्त्व को एक किनारे ढकेलता खड़ा हो जाता है, आक्रामकता के साथ मुट्ठियाँ भींचे। धर्म को स्वयं के साथ पतित करता और इस सीमा तक पतित करता कि पशु तक उसकी नादानियों को समझ बैठने का विवेक जुटा लेता है। क्योंकि पशु-जगत का भी धर्म के प्रति सहज दृष्टिकोण है। वे भी अपने सहज धर्म का पालन करते हैं। किसी भी अतिवादी या प्रसार भावना से दूर। घोड़े नहीं चाहते कि हाथी घोड़े हो जाएँ या ऊँट, कुत्ते हो जाएँ। सभी सह-अस्तित्व के साथ अपने-अपने धर्म के अनुसार जीते हैं। फिर मानव में ही इस तरह की लिप्सा क्यों ? क्या उसे लगता है कि वह आदिशक्ति बिना भीड़ द्वारा ज़िन्दाबाद का नारा दिये अपनी दया का द्वार नहीं खोलेगी ? या किसी एक विशेष धर्म को ही उसमें प्रवेश मिलने की गुंजाइश है ? यदि वह सार्वभौम सत्ता इस तरह के पक्षपात और राग-द्वेष से रहित है तो क्या यह स्वतः प्रमाणित नहीं है कि इस तरह का सोच पूर्णतया सांसारिक भ्रम है और कुछेक धर्म-गुरुओं द्वारा रचित कुचक्र है। इन कुचक्रों का पर्दाफाश करने और धर्म की सहजता को स्थापित करने के सरोकार से जूझती हैं कहानियाँ ‘पथ-दंश’, ‘तूफान आनेवाला है’, ‘मिथकवध’ आदि।

एक तरह का और दंश भारत के पाँवों को तेजी से लहूलुहान करने में लगा है और वह है मूल और मूल्यों से पलायन का दंश। आज एक बड़ा समुदाय अपनी जड़ों से अपनी परम्पराओं और आदर्श नैतिक मूल्यों से मुँह फेरे ऊँट की तरह गर्दन ऊँची किये रेगिस्तान की ओर दौड़ लगा रहा है। साहित्य और संस्कृति में अवमूल्यन तेजी से पाँव पसार रहा है। ‘ग्लोबलाइजेशन’ में हमारा प्राचीन ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अपनी अर्थवत्ता ढूँढ़ने में लगा है। जब तक कुटुम्ब अर्थात् परिवार की भावना है तब तक भारत है, भारतीय संस्कृति है, क्योंकि दिन भर इधर-उधर दाना चुगने, जीविकोपार्जन के बाद अपने ही घोंसले की ओर क्यों लौटना चाहती है चिड़िया ? क्योंकि वहाँ उसे मिलता है परिवार का स्नेह, सुख-दुख का कोई साथी। मनुष्य भी इससे परे नहीं। परिवार के बिना उसका अस्तित्व नहीं, प्रेम और सौहार्द के बिना विकास नहीं। इसीलिए यहाँ आदिकाल से चली आ रही है परिवार की अवधारणा। सम्बन्धों की मिठास, बाबा-दादी की कहानियाँ, माँ की लोरी, पिता की बाँहों का सहारा। बाजार में यह सम्भव नहीं। हम सामान खरीद सकते हैं, होटल में रह सकते हैं, परन्तु सम्बन्ध नहीं खरीद सकते। लोरियाँ आकर्षित पैकों में नहीं मिल सकतीं। पिता की दुलार भरी बाँहें और बाबा-दादी की कहानियाँ अनुशासित बेयरों की ट्रे में नहीं ढूँढ़ी जा सकतीं क्योंकि वहाँ बाजार संस्कृति है और हम सदा से परिवार यानी कुटुम्ब संस्कृति के पोषक रहे हैं। इसीलिए भारत को बाजार बनानेवालों से सतर्क रहना आवश्यक है। कुटुम्ब को बचाए रखना जरूरी है अन्यथा विश्व बाजार में सब कुछ बिक जाने का खतरा है। हमारे कंगाल हो जाने की आशंका है। पाश्चात्य मूल्यों की मार से साहित्य और संस्कृति अपनी स्वाभाविक चमक खोकर रंग-रोगन से भर रहे हैं। अश्लीलता और मिटते बुझते सम्बन्ध, परिवार में बड़े बूढ़ों की उपेक्षा, भोले-भाले गाँवों का शहरीकरण, राजनीतिक दाँव-पेंच, भ्रष्टाचार और अपराध चाय की घूँट की तरह समाज चुपचाप गटक रहा है। बुद्धिजीवी चुप हैं, टी.वी. संस्कार युवाओं और बच्चों के सिर चढ़ चिल्ला रहा है-कैसे मूल्य ? कौन सा मूल ? हम रचेंगे नये मूल्य और हम स्वयं बनेंगे अपना मूल। राष्ट्रीय स्तर की एक प्रतिष्ठित पत्रिका में महानगरों के किशोरों और किशोरियों का सर्वेक्षण रिपोर्ट प्रकाशित हुआ—‘प्रणय-सुख : किस उम्र से ?

 तेरह वर्षीया बच्ची की बेबाक बयानी-परिणय की प्रतीक्षा क्यों ? कोई बन्धन स्वीकार्य नहीं।’’ क्षोभ हुआ, लज्जा आयी। इस तरह के विषय पर सर्वेक्षण कराने वालों की मानसिकता पर भी और उस बेबाक बच्ची के पारिवारिक संस्कार पर भी। क्या समस्त व्यापार स्त्री-पुरुष प्रसंग तक ही सिमट गये हैं ? क्या प्रतीचि की भाँति भारत के पास भी इससे भिन्न कोई गौरवशाली इतिहास नहीं था ? निश्चय ही उत्तर नकारात्मक नहीं होगा। फिर उस इतिहास को मिटाने का षडयन्त्र कौन कर रहा है, इसकी पड़ताल आवश्यक हो गयी है और वह पड़ताल साहित्य-सर्जक के हाथों है। पथच्युत और पलायनवादी पीढ़ी को घेरकर वापस लाने का कार्य सृजन का कार्य है। बुझते मिटते सम्बन्धों के दीये में तेल डाल, बाती उकसाने का काम रचनात्मकता है। मूल्यों और आदर्शों के नाम पर रूढ़ियों से चिपके रहना अभीप्सित नहीं, परन्तु प्रगतिशीलता के नाम पर प्राचीन सार-तत्त्वों को थोथा समझना भी हमारी सबसे बड़ी भूल प्रमाणित होगी। समय के साथ चलने के नाम पर हम पाखी-संस्कृति नहीं अपना सकते। किसी भी डाल पर बसेरा हमारा जीवन मूल्य नहीं।

अतः जो साहित्य हमें जोड़ऩ का कार्य करता है वह स्वीकार्य है। विखण्डनवादी साहित्य या प्रगतिशीलता के नाम पर आदर्शों की लाश पर खड़ा साहित्य हमारा ईप्सित नहीं। वाद और प्रतिक्रियाएँ तो रचना के जन्म के बाद जन्म लेती हैं, रचना का अपने अपने ढंग से आकलन करने के लिए। समय के साथ ये सब वाद और विवाद धूमिल पड़ जाते हैं। शेष रहती है केवल रचना। रचना में यदि अपने देश-काल परिस्थितियों का निष्ठापूर्वक चिन्तन है तो रचना दीर्घजीवी है अन्यथा आयातित मूल्यों की नींव पर टिकी रचना का अस्तित्व एक हल्के से काल-चक्र के झोंके के साथ धराशायी हो जाता है।
यह कहा जा सकता है कि मूल्यों की चौखट पर खड़े हो हाथ उठा उठाकर अपनी संस्कृति और आदर्शों की दुहाई देते रहना और समय के साथ न चल पाना क्या कायरता और पंगुता नहीं ? अपने धर्म की चारदीवारी में सिकुड़े सिमटे रहना क्या कट्टरता नहीं ? फिर किस उदारवादी दृष्टिकोण की दुहाई ? दुहाई इस बात की कि पलायन से पहले स्वयं अपना चेहरा तो परखो। देखने के लिए दर्पण आवश्यक होता है क्योंकि अपना सम्पूर्ण चेहरा अपनी ही आँखें नहीं देख पातीं। अपनी संस्कृति का स्वरूप जानने के लिए दूसरी संस्कृति के दर्पण में देखना जरूरी है। तभी अपनी संस्कृति का चेहरा स्पष्ट हो पाएगा और जब व्यक्ति ईमानदारी पूर्वक इस दर्पण में स्वयं को देख लेगा तो निश्चय ही लौट आएगा। इसी दर्पण को सम्मुख करने और चेहरा स्पष्ट करने का नन्हा प्रयास है यह संग्रह।

स्वयं को पूर्णतया अनुपस्थित कर एक दूसरी रचना बन जाना मृत्यु की कठिन प्रक्रिया से होकर पुनर्जन्म प्राप्त करना है। इसलिए हर रचना प्रक्रिया के बाद आता है एक शैथिल्य-दौर, जिसे रचनात्मक शून्यकाल कह सकते हैं। इसी शून्यकाल में सर्जक नवीन सृष्टि के लिए स्वयं को ऊर्जस्वी करने का प्रयास करता है और फिर शुरू होती है मृत्यु के लिए जीवन की प्रक्रिया। इसी ऊर्जस्विता और मृत्यु की प्रक्रिया से जूझते हुए अपने आस-पास के पथ-दंश को जैसा महसूस किया, वैसे का वैसा ही आपके सम्मुख पुस्तक के रूप में रख रही हूँ। इस दंश को मिटाने के पथ में आपका दो डग आगे बढ़ना ही लेखन की मजूरी होगी।

 

नीरजा माधवष


पथ-दंश

 

 

छिपुनी अपनी कोठरी पर पहुँची थी तो अँधेरा घिर आया था। उसके अपने अन्दर छाये गाढ़े अँधेरे की तरह ही काला, भाँय-भाँय करता हुआ। उस अँधेरे में उसकी कोठरी की मिट्टी की दीवार काली प्लास्टिक पर रखी झींगा मछली की तरह धुँधली-सी दिखाई दे रही थी। उसने नन्हकी की उँगली छुड़ाते हुए टार्च जलाकर कोठरी के दरवाजे की ओर देखा। छोटा-सा ताला उसके घर की रखवाली में चुपचाप लटका था। उसने टार्च बुझा दिया। बैटरी बिना मतलब क्यों खर्च करे। परसों कालीचरन काका के यहाँ नाग बाबा न दिखाई दिये होते तो वह इतना फालतू पैसा न खर्च करती। अपनी परवाह तो न भी करे, पर छोटी-सी जान नन्हकी की परवाह तो करनी ही है। कहीं अँधेरे में कुल्ला पेशाब करते हुए कुछ डँस बीन्ह ले तो...। आगे की बात सोचने से इंकार करते हुए उसने सोचों को झटक दिया था और मछली बेचकर लौटते हुए उसने टार्च खरीद लिया था।

‘‘अम्मा जलाओ न लैट।’’
अँधेरे से घबराकर नन्हकी ने माँ को टिहोका दिया।
‘‘हाँ, ले जरा इसे जलाकर तू पकड़। मैं भग्गू बाबा को हाथ जोड़ लूँ।’’
नन्हकी जलती हुई टार्च लिए माँ की ओर दिखाते हुए खड़ी हो गयी। छिपुनी ने सिर पर आँचल रखा और कोठरी की बगल में हाथ जोड़कर घुटनों के बल बैठ गयी।
‘‘...दोहाई भग्गू बाबा की...।’’
आगे की बुदबुदाहट अवरुद्ध हो गयी थी। उसकी कोठरी के पीछे कुछ दूर पर खड़ा बरगद का विशाल पेड़ और उसकी लटकी असंख्य जड़ें अँधेरे में और अधिक भयानक लग रही थीं। एक नन्हा दीपक जड़ों के पास टिमटिमा रहा था। शायद कोई जला गया था। भयंकरता से आस्था जूझ रही थी। सदियों पहले से आज तक।

छिपुनी ने सिर नवाकर उठाया। भरी आँखों से भग्गू बाबा से कुछ कहा और अपने दरवाजे की ओर लौट आयी। उसकी प्रतिदिन की यह आदत थी। बाजार से मछली बेचकर आने पर वह अपने ही दरवाजे पर खड़ी होकर भग्गू बाबा को हाथ जोड़ लेती है। यहीं से दर्शन हो जाता है। कभी-कभी वह भी दीया जलाने चली जाती है। लेकिन साफ सुथरी साड़ी-पहन कर। बिस्सैनी साड़ी पहनकर बाबा के पास कैसे जाया जा सकता है, और उसकी साड़ी तो रोज ही शाम होते-होते मछलियायिन महकने लगती है। सिर पर रखे मटके में मछलियों की उछल-कूद से छलक-छलक कर पानी उसके पूरे तन को भिंगोता जो रहता है।

ताला खोलकर नन्हकी के हाथ से उसने टार्च लिया था। खोजकर दियासलाई निकाली थी और ढेबरी लेसकर गउखा में रख दिया। चूल्हे की तरफ देखा। दोपहर की बुझी अधजली लकड़ी पड़ी थी। खाना बनाने का मन नहीं हो रहा था। दोपहर की बची हुई दो रोटियाँ और सरसों के मसाले वाली सिधरी मछली कढ़ाई में ढँकी रखी थी। उसने कढ़ाई सहित उसे नन्हकी के आगे जमीन पर रख दिया।
‘‘ले तू खा ले। मैं बिछौना लगा दूँ।’’
‘‘अम्मा तू नहीं...।’’
तीन वर्षीया नन्हकी ने माँ की ओर कौतूहल से देखा।
‘‘नहीं, मेरा जी ठीक नहीं है। मैं नहीं खाऊँगी। तू खाकर हाथ-मुँह धो ले।’’
छिपुनी ने कोने में खड़ी खटिया को धीरे से जमीन पर पटक दिया था।
‘‘क्यों, जी नहीं अच्छा अम्मा ?...वहाँ साधू बाबा को जो डाँट दी थी इसीलिए...।’’

नन्हकी बातों से अम्मा की चुप्पी तोड़ना चाह रही थी। रास्ते भर अम्मा चुप थी। नहीं तो रोज बाजार आते-जाते वह उससे कुछ-कुछ बतियाती रहती थी। कभी बउलिया की चुड़ैल के बारे में और तिरास्ते पर किए गये टोना-टोटका के बारे में तो कभी उसे अगले साल इस्कूल भेजने की तमाम तैयारियों के बारे में। आगे-आगे चकरोड़ पर पानी भरा मछलियों का मटका लिये अम्मा चलती और पीछे-पीछे हुँकारी भरती नन्हकी। कभी-कभी पानी छलककर नन्हकी के ऊपर आ गिरता तो वह अम्मा से थोड़ा पीछे हो जाती, लेकिन कुछ ही देर में अम्मा की कहानियों की चुड़ैल के डर से वह फिर सटकर चलने लगती। लेकिन आज न तो अम्मा मछली बेचने ही गयी और न ही लौटते वक्त रास्ते में कोई कहानी ही सुनाई। जाते समय गाँव की मिनती काकी, बुढ़िया अइया, ललिया, दीपुआ, महताबी फूआ, सुदामा मौसी, बदमिया, बड़की माई, भोला मम्मा सब थे, पर लौटते में अम्मा उसे लिये अकेले ही चल दी थी।

नन्हकी हैरान थी। जब सभी लोग साधू बाबा को वहाँ सुन रहे थे तो अम्मा ही क्यों गुस्सा गयी थीं ? क्यों उसने साधू को भरी सभा में डाँटना शुरू कर दिया था और फिर गुस्से में बड़बड़ाती उठकर चली आयी थी। वह बार-बार अम्मा के मुँह की ओर देख रही थी और उसके चेहरे की गम्भीरता देखकर कुछ नहीं पूछ पा रही थी। रास्ते में कई बार उसने आँचल से अम्मा को अपनी आँखें पोंछते भी देखा था।
‘‘खा चुकी तो आ सो...।’’
छिपुनी ने खटिया पर कथरी बिछाते हुए नन्हकी की ओर देखा। नन्हकी जल्दी-जल्दी हाथ-मुँह धो, आकर बिछौने पर लेट गयी। छिपुनी ने दरवाजे की सिकड़ी अन्दर से बन्द की और टार्च को सिरहाने रख ढिबरी को आँचल से बुझा दिया। कोठरी में घुप्प अँधेरा फैल गया। बाहर बरसाती कीड़ों की मिली-जुली आवाज रात के सन्नाटे को भँग कर रही थी। वह भी आकर नन्हकी की बगल में लेट गयी। नन्हकी के सिर पर हल्की-हल्की थपकी देते हुए उसका मन कई-कई छोरों से भटक कर वापस आने लगा।

‘‘अच्छा हुआ जो उसने आज भरी महज्जत में उसका पानी उतार दिया। बड़ा पाखण्ड बाँचने आया था। साधू...ऊँ क्या था...फादरी बना है...दूसरों को धरम सिखाने आया है..ई करो...ऊ करो..परभू कल्याण करेंगे।...लग रहा है परभू से साक्षात् मिलकर आया है।...ढोंगी कहीं का...भगोड़ा अपना दीन-धरम बदल लिया तो सब लोगों को धरम बदलने आया है।...सबके परिवार को डँसेगा...नाग कहीं का...।’’
छिपुनी ने बेचैनी में करवट बदल ली। मन को दूसरे छोर पर केन्द्रित करने की कोशिश की बस चार वर्ष पहले। चार वर्ष पल में खिसककर उसके पास आ गये। अतीत वर्तमान लगने लगा।
‘‘क्या नाम है तेरा ?’’

जाल में हाथ डालकर मछलियाँ पकड़ते हुए उसने पूछा था। हरे रँग की साड़ी को घुटनों के ऊपर तक खुँटियाये, दोनों हाथों से जाल पकड़े-पकड़े वह आँखें तरेरकर मुस्कुरा उठी।
‘‘बता न, क्या नाम है तेरा ? इतने दिन से हम दोनों साथ-साथ मछलियाँ मारते हैं, मालिक से खरीदकर एक ही रास्ते पर कुछ दूर चलते भी हैं, लेकिन नाम नहीं जानते।’’
एक बड़ी-सी रोहू को दोनों हाथों से सम्भालते हुए मँगरू ने उसकी ओर देखा था। उसकी आँखों में एक चमक थी। एकाएक रोहू उसके हाथों से फिसलकर पुनः जाल में जा गिरी थी। वह खिलखिलाकर हँस पड़ी थी।
‘‘देखा, तेरे नाम के चक्कर में यह भी फिसली जा रही है ससुरी।’’
वह पुनः रोहू की ओर लपका था।
‘‘नाम लेकर क्या करेगा तू ?’’

एक हाथ से जाल के दोनों टोक पकड़ दूसरा हाथ उसने भी अन्दर डाल दिया था। एक बड़ी-सी भाकुर मछली छटपटा रही थी। उसे उठाकर उसने पानी से भरे बड़े मटके में डाल दिया था। जीवन पाकर भाकुर उसमें हिलकने लगी।
‘‘तेरे हाथ से मछली फिसलती क्यों नहीं  ?’’
मँगरू उसकी ओर देखकर मन्द-मन्द मुस्कुराया। लजा उठी वह।
‘‘तू हल्के से पकड़ता होगा।’’
कहते हुए उसका गेहुँआँ रंग ताँबई हो उठा।
‘‘अच्छा, ये बात है ? तो ले, इस बार कसकर पकड़ता हूँ।
उसने एक साथ आठ-दस सिंही अँजुरी में भर कर दूसरे वाले मटके में डाल दिया और विजयी भाव से उसकी ओर निहारा। उसकी नँगी पीठ और छाती पर मटमैली पसीने की बूँदें सूरज की रोशनी में चमक उठी थीं।
‘‘नाम नहीं बताया तूने ?’’
उसने फिर याद दिलाया।

‘छिपुनी।’
अपना नाम बताने में वह लजा उठी थी। नाम सुनकर वह ठठाकर हँस पड़ा था।
‘‘यह भी कोई नाम है...? इससे अच्छा था कि सिधरी रख लेती।...छोटी-सी सीधी सादी पानी से बाहर निकलते ही बस...टें...।’’
वह लगातार हँसता जा रहा था। छिपुनी उसे एकटक निहार रही थी। साँवला-सा गठीला बदन, बाँहों की मछलियाँ कुछ ज्यादा ही उभरी हुईं, बढ़े हुए बेतरतीब बाल पसीने से माथे पर चिपक गये थे। कमर से नीचे तक पानी में डूबी हुई उसकी भारी जाघों के काले घने रोएँ छिपुनी की नसों में एक चिनगारी-सी छोड़ रहे थे। उसने अपनी आँखों को बालात खींचा था और जाल में कुलबुलाती मछलियों की ओर लगा दिया था। नदी का पानी चमक रहा था और जाल में पड़ी असंख्य छोटी-छोटी सिधरियाँ भी कूद-कूद कर चमक रही थीं।
‘‘क्यों, तेरा नाम सिधरी ठीक रहेगा ?’’

वह अब भी हँस रहा था।
‘‘इसमें इतना हँसने की क्या बात है ? मेरी बढ़वार नहीं हुई ज्यादा, इसीलिए सब लोग मुझे छिपुनी-छिपुनी ही कहने लगे। असली नाम तो माई ने सीता रखा था लेकिन...।’’
‘‘न सीता, न छिपुनी, अब से सिधरी...।’’
बड़े वाले पहिना को दोनों हाथों से उठाते हुए उसने मुस्करा कर कहा।
‘‘सिधरी क्यों ?...सिंही क्यों नहीं...?
छिपुनी ने एक बड़े माँगुर को सावधानी से उठाने के लिए जाल में हाथ डाला था और तभी उसी माँगुर को पकड़ने के लिए वह भी तेजी से लपका था। माँगुर फिसलकर अलग हो लिया था और छिपुनी के हाथ उसके हाथ में जकड़ गये थे। छिपुनी ने झटक कर अपना हाथ छुड़ा लिया था और झेंप मिटाने के लिए बोली—
‘‘माँगुर बहुत तेज डँक मारता है।’’

‘‘लेकिन सिंही भी कम नहीं।’’
वह शरारत से बोला।
‘‘तुम्हारा नाम मँगरू नहीं माँगुर होना चाहिए।’’
वह भी हँस पड़ी। एक लजीली हँसी।
मछलियाँ दोनों मटकों में भरी जा चुकी थीं। छिपुनी ने मटका अपने सिर पर उठवाने के लिए मँगरू की ओर देखा। वह पास आ गया था। झुककर मटके को उठवाकर उसने छिपुनी के सर पर रख दिया और सिर से पैर तक उसे नजरों से परख लिया। सामान्य से कम कद, गठीला बदन, गेहुँआ रँग, बड़ी-बड़ी आँखें और होंठों के ऊपर नन्हा-सा काला मस्सा। माथे तक साड़ी का आँचल होने के कारण माँग दिखाई नहीं दे रही थी।
‘‘तेरी शादी हो गई है ?’’
दूसरा मटका अपने सिर पर रख ताल के ठीकेदार के यहाँ चलते-चलते मँगरू ने आज पहली बार उससे पूछा। इतने दिनों से वह चाहकर भी उससे बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। आज छिपुनी की हल्की-सी ठिठोली ने उसके हिचक का द्वार खोल दिया था।
‘‘हाँ।’’

छिपुनी ने बहुत बेरुखी से उत्तर दिया। कुछ बुझ-सा गया मँगरू के मन में। बात आगे बढ़ाई –
‘‘कहाँ रहता है तेरा आदमी ?’’
‘‘दूसरी औरत के साथ।’’
उसके स्वर में घृणा थी, लेकिन मँगरू के अन्दर एक उल्लास।
    ‘‘और तू कहाँ रहती है ?’’
    ‘‘बिसेनपुरवा में, माई के साथ।....और तू कहाँ का है ?’’
     छिपुनी ने एक हाथ से मटका सम्भाले दूसरे हाथ से सिर की बिड़ई ठीक करते हुए पूछा।
     ‘‘मैं करिछियाँव का...मल्लाह टोले में रहता हूँ।...माँ बाप लड़िकइयाँ में ही मर गये। कक्का ने पाला।....काकी तो बस...।’’
    ‘‘और तेरा बियाह...।’’

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