सामाजिक >> सुब्बण्णा सुब्बण्णामास्ति वेंकटेश अय्यंगार
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प्रस्तुत है कन्नड़ उपन्यास का हिन्दी रूपान्तर...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित महान् कन्नड़ कथाकार मस्ति वेंकटेश
अय्यंगार को अपनी प्रथम उपन्यासिका ‘सुब्बण्णा’ के लिए मात्र
इतना ही कथा-सूत्र अपने एक मित्र से प्राप्त हुआ था कि एक वारांगना ने
एक व्यक्ति को सौ रुपये दिये। इसी सूत्र को पकड़कर उन्होंने इस उपन्यासिका
का ताना-बाना बुन डाला और जीवन-दर्शन संगीत एवं मानव चरित्र के अनेक आयाम
अति संक्षिप्त कलेवर में गुम्फित कर दिये। जिस समय यह कालजयी रचना प्रकाश
में आयी, तब कन्नड़ के कथा-प्रेमी पाठक लघु-उपन्यास के इस रूप से अपरिचित
ही थे। मास्ति का यह प्रथम लघु उपन्यास हिन्दी के सुधी पाठकों को भेंट
करते हुए भारतीय ज्ञानपीठ को गौरव का अनुभव हो रहा है।
दिव्य चेतना की सन्तानः मास्ति वेंकटेश अय्यंगार
नवम्बर 1904 में मैंसूर के एक तेरह वर्षीय किशोर के साथ घटित हुआ था यह
संयोग। एक सुबह एक महत्त्वपूर्ण बाजार में निरुद्देशय इधर-उधर भटक रहा था।
अकस्मात बाज़ार के सामने स्थित घण्टाघर की घड़ी पर उसकी दृष्टि गयी और
सहसा ही उसे याद आया कि अरे, आज तो उसे लेकर सेकेण्डरी की परीक्षा में
बैठना है। परीक्षा-केन्द्र था महाराजा कॉलेज और उस समय दस बजने वाले थे।
वह धक् से रह गया। फिर भी वह दौड़कर अपने घर आ गया, अपने प्रवेश-पत्र
उठाया और किसी प्रकार ठीक समय पर परीक्षा-भवन पहुँच गया। परीक्षा प्रारम्भ
होने ही वाली थी। बाद में इस घटना पर सोच-विचार करते-करते, कि किस प्रेरणा
ने उसकी दृष्टि घड़ी की ओर उठा दी जिसे देखकर उसे अपनी परीक्षा का स्मरण
हो आया और कैसे वह ठीक समय पर परीक्षा-भवन पहुंच गया, उसे विश्वास हो गया
था कि इस सबके पीछे दिव्य करुणा का हाथ था।
यह घटना मास्ति वेंकटेश अय्यंगार प्रायः सुनाते हैं और यह है भी उन्हीं से सम्बन्धित। परम सत्ता की अनुकम्पा की गरिमा एवं बुद्धिमत्ता में मास्तिजी की असीम श्रद्धा है और वह स्वयं उसी दिव्य-चेतना की सन्तान मानते हैं। वह यह मानते हैं कि विभिन्न अवसरों पर वह दिव्य शक्ति उनका पक्ष लेती रही है और उससे लाभान्वित होने के अनेक संस्मरण उदाहरण स्वरूप उनके पास हैं।
परन्तु मास्ति की आस्था किसी संकीर्ण धार्मिक मताग्रह से सम्पृक्त नहीं है। उन्होंने बुद्ध, ईसा, मुहम्मद तथा रामकृष्ण परमहंस सभी पर पूर्ण श्रद्धा के साथ लिखा है। उनकी आस्था उन्हें नैतिक जगत् की सर्वोच्चता स्थापित करने के लिए उत्प्रेरित करती है जिसका हमारी संस्कृति की मनीषा से पूर्ण सामंजस्य है। यह आस्था जीवनमूल्य एवं अर्थवत्ता की ओर गतिशील रहती है और उनका लेखन मूलभूत मानव मूल्यों के प्रतिष्ठान की उनकी अन्तःप्रेरणा का मात्र एक संवाहक बन जाता है।
ये मूल्य ही तो हैं जो मनुष्य की अन्तर्निहित महत्ता को उद्घाटित करनेवाली अन्तर्दृष्टि की सृष्टि करते हैं यही कारण है कि मास्ति सोल्लास ऐसे चरित्रों की रचना करते हैं, और अत्यधिक कुशलता के साथ करते हैं, जिनमें मनुष्य किसी भी आवेग द्वारा धूमिल नहीं पड़ती; मनुष्य जो एषणा-विजय में देववत् है परन्तु फिर भी अत्यन्त मानव-स्वभाव के ‘दूसरे पक्ष’ की अवहेलना करते हैं। वह निश्चित रूप से मानव-दुर्बलता के प्रति सहानुभूति व्यक्त कर सकते हैं। किंतु यह तो कहना ही होगा कि उनकी मूल रुचि मानव-प्रकृति की पवित्रता एवं शुभता में है। वह जीवन की पारदर्शी स्वच्छता के प्रति पूर्णतः संवेदनशील रहे हैं। मास्तिजी की अन्तर्दृष्टि मूलतः नैतिक है। उनकी चेतना परम्परा-सिंचित मूल्यों से ओत-प्रोत है। मास्तिजी का यह गुण उनकी‘ सांस्कृतिक जड़ों की गहराई में निष्ठा’ के रूप में पहचाना गया है। उनके मंच का महत्त्वपूर्ण स्थान ‘यशोधरा’ में बुद्ध, ‘चेन्नवसवनायक’ में नेय्या, ‘भट्टर मगलु’ में भट्टारू’ ‘बेंकिटगण हैंडल्ली’ में प्रशिक्षित लकड़हारे आदि के लिए सुरक्षित है। उनके गौण पात्रों तक में जीवन की कान्ति और प्रसन्नता झलकती है जो सामान्यतः समाज की पतनोन्मुखता के मध्य भी मानव जीवन के मूल्य की साग्रह पुष्टि करती है।
चेन्नवसवनायक की नौकरानी मल्लिगे इस प्रकार के चरित्र-चित्रण का श्रेष्ठ उदाहरण है।
परन्तु मास्ति यह कभी विस्मृत नहीं करते कि मनुष्य दिव्य शक्ति के उपकरण मात्र हैं। ‘भाव’ में वह कहते हैं: ‘‘समुद्र की लहरें लट्ठों को कूल से समुद्र में खींच लाती हैं और इच्छानुसार दूर तक उससे खिलवाड़ करती रहती हैं और फिर उन्हें उलट-पुलट करती हुई वापस कूल में फेंक देती हैं।’’ तथापि उनकी इस धारणा ने उन्हें जन-साधारण के हर्ष-विषाद के संसार में प्रवेश करने से कहीं रोका नहीं। बहुत पहले उन्होंने कहा था—‘‘ईश्वरीय हर्ष-विषाद से हमारा सम्बन्ध नहीं, हमारा सम्बन्ध तो मानवीय हर्ष-विषाद से है। हमें ऐसे साहित्य की आवश्यकता है जो मनुष्य को पोषक आस्था प्रदान करता है। एक ऐसी अवस्था जो उनके जीवन के सुख-दुखों को समान भाव से स्वीकार करने की सामर्थ्य देती है।’’ उनके लेखन में यह दर्शन कभी धूमिल नहीं पड़ता। इतनी ही नहीं, उनके लिए, ‘‘साहित्य का प्रयोजन समष्टि एवं व्यष्टि के लिए मंगलकारी होना है।’’
इन विशेषताओं ने मास्तिजी के लेखन को एक अद्वितीय परिपूर्णता से मण्डित कर दिया है। एक प्रख्यात कन्नड़ विद्वान एवं आलोचक ने उन्हें ठीक ही ‘परिपक्वता का कवि’ कहा है। वह तो यहाँ तक कहता है कि ‘‘मास्ति के लिए दुनिया, किट्स की अभिव्यंजना ‘आत्मा के निर्माण की एक वादी है।’ इस परिपक्वका की चारित्रिक विशेषता शान्तिचित्तता है, आवेश नहीं। किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मास्ति वेदना एवं यंत्रणा के प्रति उदासीन हैं। वस्तुतः तो उनके समस्त प्रमुख पात्र, उदाहरणतः सुब्बण्णा और उसकी पत्नी ललिता, बुद्ध की अर्धांगिनी यशोधरा, राजसी दम्पती चिक्क वीरराजेन्द्र और गौरम्मा, नेमय्या और उसकी पुत्री शान्तव्वा तथा गौतमी विषाद और उत्पीड़न से घनिष्ठ रूप से परिचित हैं। उनमें से प्रत्येक एक जीता-जागता इन्सान है और फिर भी एक प्रतीक है। और इसलिए, क्योंकि यह भूलना नहीं चाहिए कि वेदना के अंगीकरण के अभाव में परिपक्वता प्राप्त हो ही नहीं सकती। तथापि वेदना, विषाद और कुण्ठा से उत्पन्न होनेवाले विकारों से आत्मा (जो कि मास्तिजी का लक्ष्य है) का सौष्ठव प्रभावित नहीं होना चाहिए। मास्तिजी के अनुसार ‘‘वेदना और उथल-पुथल के बीच भी आत्मा का सौष्ठव बना रहना चाहिए।’’ उनकी मान्यता है कि मान-आवेश का विक्षोभ ही उसे विनाश की ओर ले जाता है और ‘चिक्क वीरराजेन्द्र’ का यही कथानक भी है।
मास्तिजी का उल्लेख प्रायः एक स्वच्छन्दतावादी के रूप में किया जाता है। इसका किंचित स्पष्टीकरण अपेक्षित है—मनुष्य की चारित्रिक विशेषताओं, आवेश एवं उत्तेजना को उन्होंने अधिक महत्त्व नहीं दिया; न ही उनमें कोई रहस्वादी अन्तर्दृष्टि है। उनकी अन्तर्दृष्टि तो मानवीय जीवन में एक पवित्र उद्देश्य पर टिकी है, अतः सौष्ठव, संयम और दिव्य चेतना उनके लेखन को अभिजात कान्ति से दीप्त कर देते हैं। यही वह दीप्ति है जिसने अपने अन्य समकालीनों के साथ कन्नड़ साहित्य में पुनरुत्थान युग का आविर्भाव किया।
मास्तिजी की रचनाओं का आस्वादन इसी सन्दर्भ में होना चाहिए। वह उन महान् कन्नड़ लेखकों में से हैं जिन्होंने साहित्य की समृद्धि में विशिष्ठ योगदान किया है। किन्तु मास्तिजी के सम्बन्ध में सर्वाधिक उल्लेखनीय तो यह है कि उन्होंने साहित्य की समस्त विधाओं—कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक, आख्यानेतर गद्य, समालोचना आदि में समान रूप से सफलता प्राप्त की है। मात्र परिणाम ही आश्चर्यजनक है और सहज ही आदर उत्पन्न करता है। सत्तर वर्षों से भी अधिक समय में विस्तीर्ण उनकी विपुल साहित्यिक सृजनात्मकता में हमारी सांस्कृतिक धरोहर की सर्वोत्कृष्ट और गहन मानता तथा मानव-गरिमा में उनकी अटूट आस्था की बहुमुखी अभिव्यक्तियों के दर्शन होते हैं। मास्तिजी ‘आधुनिक कन्नड़ कहानी के जनक’ के रूप में प्रख्यात हैं। उन्होंने अपनी प्रारम्भिक कहानियाँ 1910-11 में लिखीं और अब तक उनके 15 कहानी-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। वह ‘‘एक वातावरण एवं एक जीवन-शैली की पुनर्रचना करते हैं और उनमें जीने का सहज उल्लास महक उठता है।’’ मास्तिजी ने उपन्यास भी लिखे हैं जिनमें उनके दो प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास ‘चेन्नबसवनायक’ और ‘चिक्क वीरराजेन्द्र’ सम्मिलित हैं। पहले उपन्यास की पृष्ठभूमि अठारहवीं शताब्दी में दक्षिण भारत की एक जागीर बिडानूर है और दूसरे उपन्यास का कथासूत्र कुर्ग, 1934 में जिसका शासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपने आधिपत्य में ले लिया था, के अन्तिम शासक से सम्बन्ध है।
कन्नड़ के कुछ ही उपन्यासों में समाज और बहुमुखी सामाजिक सम्बन्धों का इन दो उपन्यासों के समकक्ष सूक्ष्म एवं गहन चित्रण हुआ है और तब भी मास्ति मात्र उत्तेजित एवं प्रेरित करने के लिए प्राचीन सामन्तवादी समाज की पुनःसृष्टि करते हुए-से प्रतीत नहीं होते। उनमें तो एक राज्य के पतन एवं विघटन का अध्ययन किया है और स्वयं स्त्री-पुरुषों में उनके कारण खोज निकाले हैं। उनकी गद्यशैली की विशेषता शालीनता एवं संयम है। उनकी भाषा बोलचाल की भाषा है। इन्हीं के कारण उनका सरल वर्णन गहन अनुभव की महत्ता प्राप्त कर लेता है। मास्तिजी की शैली को न्यूनतम शब्दों में एक सम्पूर्ण अनुभव सम्प्रेषित करने की विलक्षण क्षमता है। वर्णन यही विलक्षणता और शैली की यही सादगी उनके काव्य में भी व्याप्त है। ‘नवरात्र’ एवं ‘श्रीरामपट्टाभिषेक’ उनके दो महत्त्वपूर्ण काव्य हैं। एक समालोचक के अनुसार ‘‘उनकी सभी कविताओं में अन्तर्जात विनयशीलता एवं परिष्कार का रंग है। शब्द चयन सर्वत्र सरल है और भाषा शब्दकोशीय एककों तथा उनमें मेल बिठाने, दोनों ही दृष्टियों से दैनन्दिनी जीवन की भाषा के निकट है।’’
साहित्यलोचन के क्षेत्र में भी मास्तिजी का योगदान अमूल्य है। जब आधुनिक कन्नड़ साहित्य और साहित्य-समीक्षा अपनी शैशवावस्था में थे, ‘‘उन्होंने साहित्य के महत्त्व को पहचाना और इस बात पर बल दिया कि इसका मूल्यांकन साहित्यिक सृजनात्मकता के रूप में किया जाना चाहिए, धर्म अथवा दर्शन के रूप में नहीं।’’ हो सकता है कि उनकी साहित्य सम्बन्धी कतिपय उक्तियों से हम सहमत न भी हों तब भी उनकी इस आधारभूत धारणा की वैधता कालातीत है कि सत्साहित्य को व्यक्ति को परिपक्वता और समाज को मंगल प्रदान करना चाहिए। और उनकी रचनाओं का यही सन्देश भी है।
यह घटना मास्ति वेंकटेश अय्यंगार प्रायः सुनाते हैं और यह है भी उन्हीं से सम्बन्धित। परम सत्ता की अनुकम्पा की गरिमा एवं बुद्धिमत्ता में मास्तिजी की असीम श्रद्धा है और वह स्वयं उसी दिव्य-चेतना की सन्तान मानते हैं। वह यह मानते हैं कि विभिन्न अवसरों पर वह दिव्य शक्ति उनका पक्ष लेती रही है और उससे लाभान्वित होने के अनेक संस्मरण उदाहरण स्वरूप उनके पास हैं।
परन्तु मास्ति की आस्था किसी संकीर्ण धार्मिक मताग्रह से सम्पृक्त नहीं है। उन्होंने बुद्ध, ईसा, मुहम्मद तथा रामकृष्ण परमहंस सभी पर पूर्ण श्रद्धा के साथ लिखा है। उनकी आस्था उन्हें नैतिक जगत् की सर्वोच्चता स्थापित करने के लिए उत्प्रेरित करती है जिसका हमारी संस्कृति की मनीषा से पूर्ण सामंजस्य है। यह आस्था जीवनमूल्य एवं अर्थवत्ता की ओर गतिशील रहती है और उनका लेखन मूलभूत मानव मूल्यों के प्रतिष्ठान की उनकी अन्तःप्रेरणा का मात्र एक संवाहक बन जाता है।
ये मूल्य ही तो हैं जो मनुष्य की अन्तर्निहित महत्ता को उद्घाटित करनेवाली अन्तर्दृष्टि की सृष्टि करते हैं यही कारण है कि मास्ति सोल्लास ऐसे चरित्रों की रचना करते हैं, और अत्यधिक कुशलता के साथ करते हैं, जिनमें मनुष्य किसी भी आवेग द्वारा धूमिल नहीं पड़ती; मनुष्य जो एषणा-विजय में देववत् है परन्तु फिर भी अत्यन्त मानव-स्वभाव के ‘दूसरे पक्ष’ की अवहेलना करते हैं। वह निश्चित रूप से मानव-दुर्बलता के प्रति सहानुभूति व्यक्त कर सकते हैं। किंतु यह तो कहना ही होगा कि उनकी मूल रुचि मानव-प्रकृति की पवित्रता एवं शुभता में है। वह जीवन की पारदर्शी स्वच्छता के प्रति पूर्णतः संवेदनशील रहे हैं। मास्तिजी की अन्तर्दृष्टि मूलतः नैतिक है। उनकी चेतना परम्परा-सिंचित मूल्यों से ओत-प्रोत है। मास्तिजी का यह गुण उनकी‘ सांस्कृतिक जड़ों की गहराई में निष्ठा’ के रूप में पहचाना गया है। उनके मंच का महत्त्वपूर्ण स्थान ‘यशोधरा’ में बुद्ध, ‘चेन्नवसवनायक’ में नेय्या, ‘भट्टर मगलु’ में भट्टारू’ ‘बेंकिटगण हैंडल्ली’ में प्रशिक्षित लकड़हारे आदि के लिए सुरक्षित है। उनके गौण पात्रों तक में जीवन की कान्ति और प्रसन्नता झलकती है जो सामान्यतः समाज की पतनोन्मुखता के मध्य भी मानव जीवन के मूल्य की साग्रह पुष्टि करती है।
चेन्नवसवनायक की नौकरानी मल्लिगे इस प्रकार के चरित्र-चित्रण का श्रेष्ठ उदाहरण है।
परन्तु मास्ति यह कभी विस्मृत नहीं करते कि मनुष्य दिव्य शक्ति के उपकरण मात्र हैं। ‘भाव’ में वह कहते हैं: ‘‘समुद्र की लहरें लट्ठों को कूल से समुद्र में खींच लाती हैं और इच्छानुसार दूर तक उससे खिलवाड़ करती रहती हैं और फिर उन्हें उलट-पुलट करती हुई वापस कूल में फेंक देती हैं।’’ तथापि उनकी इस धारणा ने उन्हें जन-साधारण के हर्ष-विषाद के संसार में प्रवेश करने से कहीं रोका नहीं। बहुत पहले उन्होंने कहा था—‘‘ईश्वरीय हर्ष-विषाद से हमारा सम्बन्ध नहीं, हमारा सम्बन्ध तो मानवीय हर्ष-विषाद से है। हमें ऐसे साहित्य की आवश्यकता है जो मनुष्य को पोषक आस्था प्रदान करता है। एक ऐसी अवस्था जो उनके जीवन के सुख-दुखों को समान भाव से स्वीकार करने की सामर्थ्य देती है।’’ उनके लेखन में यह दर्शन कभी धूमिल नहीं पड़ता। इतनी ही नहीं, उनके लिए, ‘‘साहित्य का प्रयोजन समष्टि एवं व्यष्टि के लिए मंगलकारी होना है।’’
इन विशेषताओं ने मास्तिजी के लेखन को एक अद्वितीय परिपूर्णता से मण्डित कर दिया है। एक प्रख्यात कन्नड़ विद्वान एवं आलोचक ने उन्हें ठीक ही ‘परिपक्वता का कवि’ कहा है। वह तो यहाँ तक कहता है कि ‘‘मास्ति के लिए दुनिया, किट्स की अभिव्यंजना ‘आत्मा के निर्माण की एक वादी है।’ इस परिपक्वका की चारित्रिक विशेषता शान्तिचित्तता है, आवेश नहीं। किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मास्ति वेदना एवं यंत्रणा के प्रति उदासीन हैं। वस्तुतः तो उनके समस्त प्रमुख पात्र, उदाहरणतः सुब्बण्णा और उसकी पत्नी ललिता, बुद्ध की अर्धांगिनी यशोधरा, राजसी दम्पती चिक्क वीरराजेन्द्र और गौरम्मा, नेमय्या और उसकी पुत्री शान्तव्वा तथा गौतमी विषाद और उत्पीड़न से घनिष्ठ रूप से परिचित हैं। उनमें से प्रत्येक एक जीता-जागता इन्सान है और फिर भी एक प्रतीक है। और इसलिए, क्योंकि यह भूलना नहीं चाहिए कि वेदना के अंगीकरण के अभाव में परिपक्वता प्राप्त हो ही नहीं सकती। तथापि वेदना, विषाद और कुण्ठा से उत्पन्न होनेवाले विकारों से आत्मा (जो कि मास्तिजी का लक्ष्य है) का सौष्ठव प्रभावित नहीं होना चाहिए। मास्तिजी के अनुसार ‘‘वेदना और उथल-पुथल के बीच भी आत्मा का सौष्ठव बना रहना चाहिए।’’ उनकी मान्यता है कि मान-आवेश का विक्षोभ ही उसे विनाश की ओर ले जाता है और ‘चिक्क वीरराजेन्द्र’ का यही कथानक भी है।
मास्तिजी का उल्लेख प्रायः एक स्वच्छन्दतावादी के रूप में किया जाता है। इसका किंचित स्पष्टीकरण अपेक्षित है—मनुष्य की चारित्रिक विशेषताओं, आवेश एवं उत्तेजना को उन्होंने अधिक महत्त्व नहीं दिया; न ही उनमें कोई रहस्वादी अन्तर्दृष्टि है। उनकी अन्तर्दृष्टि तो मानवीय जीवन में एक पवित्र उद्देश्य पर टिकी है, अतः सौष्ठव, संयम और दिव्य चेतना उनके लेखन को अभिजात कान्ति से दीप्त कर देते हैं। यही वह दीप्ति है जिसने अपने अन्य समकालीनों के साथ कन्नड़ साहित्य में पुनरुत्थान युग का आविर्भाव किया।
मास्तिजी की रचनाओं का आस्वादन इसी सन्दर्भ में होना चाहिए। वह उन महान् कन्नड़ लेखकों में से हैं जिन्होंने साहित्य की समृद्धि में विशिष्ठ योगदान किया है। किन्तु मास्तिजी के सम्बन्ध में सर्वाधिक उल्लेखनीय तो यह है कि उन्होंने साहित्य की समस्त विधाओं—कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक, आख्यानेतर गद्य, समालोचना आदि में समान रूप से सफलता प्राप्त की है। मात्र परिणाम ही आश्चर्यजनक है और सहज ही आदर उत्पन्न करता है। सत्तर वर्षों से भी अधिक समय में विस्तीर्ण उनकी विपुल साहित्यिक सृजनात्मकता में हमारी सांस्कृतिक धरोहर की सर्वोत्कृष्ट और गहन मानता तथा मानव-गरिमा में उनकी अटूट आस्था की बहुमुखी अभिव्यक्तियों के दर्शन होते हैं। मास्तिजी ‘आधुनिक कन्नड़ कहानी के जनक’ के रूप में प्रख्यात हैं। उन्होंने अपनी प्रारम्भिक कहानियाँ 1910-11 में लिखीं और अब तक उनके 15 कहानी-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। वह ‘‘एक वातावरण एवं एक जीवन-शैली की पुनर्रचना करते हैं और उनमें जीने का सहज उल्लास महक उठता है।’’ मास्तिजी ने उपन्यास भी लिखे हैं जिनमें उनके दो प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास ‘चेन्नबसवनायक’ और ‘चिक्क वीरराजेन्द्र’ सम्मिलित हैं। पहले उपन्यास की पृष्ठभूमि अठारहवीं शताब्दी में दक्षिण भारत की एक जागीर बिडानूर है और दूसरे उपन्यास का कथासूत्र कुर्ग, 1934 में जिसका शासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपने आधिपत्य में ले लिया था, के अन्तिम शासक से सम्बन्ध है।
कन्नड़ के कुछ ही उपन्यासों में समाज और बहुमुखी सामाजिक सम्बन्धों का इन दो उपन्यासों के समकक्ष सूक्ष्म एवं गहन चित्रण हुआ है और तब भी मास्ति मात्र उत्तेजित एवं प्रेरित करने के लिए प्राचीन सामन्तवादी समाज की पुनःसृष्टि करते हुए-से प्रतीत नहीं होते। उनमें तो एक राज्य के पतन एवं विघटन का अध्ययन किया है और स्वयं स्त्री-पुरुषों में उनके कारण खोज निकाले हैं। उनकी गद्यशैली की विशेषता शालीनता एवं संयम है। उनकी भाषा बोलचाल की भाषा है। इन्हीं के कारण उनका सरल वर्णन गहन अनुभव की महत्ता प्राप्त कर लेता है। मास्तिजी की शैली को न्यूनतम शब्दों में एक सम्पूर्ण अनुभव सम्प्रेषित करने की विलक्षण क्षमता है। वर्णन यही विलक्षणता और शैली की यही सादगी उनके काव्य में भी व्याप्त है। ‘नवरात्र’ एवं ‘श्रीरामपट्टाभिषेक’ उनके दो महत्त्वपूर्ण काव्य हैं। एक समालोचक के अनुसार ‘‘उनकी सभी कविताओं में अन्तर्जात विनयशीलता एवं परिष्कार का रंग है। शब्द चयन सर्वत्र सरल है और भाषा शब्दकोशीय एककों तथा उनमें मेल बिठाने, दोनों ही दृष्टियों से दैनन्दिनी जीवन की भाषा के निकट है।’’
साहित्यलोचन के क्षेत्र में भी मास्तिजी का योगदान अमूल्य है। जब आधुनिक कन्नड़ साहित्य और साहित्य-समीक्षा अपनी शैशवावस्था में थे, ‘‘उन्होंने साहित्य के महत्त्व को पहचाना और इस बात पर बल दिया कि इसका मूल्यांकन साहित्यिक सृजनात्मकता के रूप में किया जाना चाहिए, धर्म अथवा दर्शन के रूप में नहीं।’’ हो सकता है कि उनकी साहित्य सम्बन्धी कतिपय उक्तियों से हम सहमत न भी हों तब भी उनकी इस आधारभूत धारणा की वैधता कालातीत है कि सत्साहित्य को व्यक्ति को परिपक्वता और समाज को मंगल प्रदान करना चाहिए। और उनकी रचनाओं का यही सन्देश भी है।
सुब्बण्णा
महाराज श्री मुम्मडी कृष्णराज ओडेयर के मैसूर के सिंहासन पर बैठने के बाद
मैसूर के दरबार में विद्वानों, कलाकारों, संज्ञीतज्ञों को पहले से अधिक
आश्रय प्राप्त हुआ। महाराज स्वभाव से उदार होने के साथ-साथ स्वयं पण्डित,
शास्त्रवेत्ता तथा कवि भी थे। उन्हें विद्या में बड़ी श्रद्धा थी। अतः
उनके पास आनेवाले सबको आश्रय मिलता था। उनके यहाँ पुराणवेत्ता नारायण
शास्त्री को भी आश्रय मिला। शास्त्री जी के पूर्वज चामराजनगर के थे।
परन्तु तीन-चार पीढ़ियों से वे मैसूर में ही रहते थे। नारायण शास्त्री को
संस्कृत के सभी अंगों पर अधिकार था, परन्तु पुराणों की कथा बाँचने तथा
उनकी व्याख्या करने में विशेष रूप से वे सिद्धहस्त थे। उनकी ध्वनि मधुर और
गम्भीर थी। सभी में वे अबाध गति से बोलते पर सदा संयत और सतर्क रहते अतः
दूसरे पंडितों की अपेक्षा उन्हें इसमें अधिक सुविधा थी। ईश्वरभक्त महाराज
ने शास्त्री जी को पुराण बाँचने के प्रवचन के लिए नियुक्त किया और समय
मिलने पर स्वयं उनसे पुराण सुनते थे। इसलिए शास्त्री जी का उपनाम
‘पुराण शास्त्री’ पड़ा।
नारायण शास्त्री के दो बेटियाँ और एक बेटा था। बेटा बेटियों से छोटा था। उसका नाम सुब्बण्णा था। पिता सोचते थे कि सुब्बण्णा संस्कृत पढ़कर पण्डित बनेगा और सुब्रह्मण्य शास्त्री कहलाएगा। आगे चलकर वह भी पुराण-प्रवचन करेगा। पर बेटे का मन संस्कृत की ओर नहीं गया, संगीत की ओर झुका। उसके परिचित उसे सुब्बण्णा कहते थे। सुब्रह्मण्य तक भी नहीं कहते थे। संस्कृति के विद्वान को सुब्रह्मण्य कहा जा सकता था। संगीतकार के लिए इतना ही बहुत था। वह अन्त तक सुब्बण्णा ही रह गया। सुब्बण्णा शास्त्री नहीं बना। हमारी यह कहानी सुब्बण्णा के जीवन के बारे में ही है।
नारायण शास्त्री के दो बेटियाँ और एक बेटा था। बेटा बेटियों से छोटा था। उसका नाम सुब्बण्णा था। पिता सोचते थे कि सुब्बण्णा संस्कृत पढ़कर पण्डित बनेगा और सुब्रह्मण्य शास्त्री कहलाएगा। आगे चलकर वह भी पुराण-प्रवचन करेगा। पर बेटे का मन संस्कृत की ओर नहीं गया, संगीत की ओर झुका। उसके परिचित उसे सुब्बण्णा कहते थे। सुब्रह्मण्य तक भी नहीं कहते थे। संस्कृति के विद्वान को सुब्रह्मण्य कहा जा सकता था। संगीतकार के लिए इतना ही बहुत था। वह अन्त तक सुब्बण्णा ही रह गया। सुब्बण्णा शास्त्री नहीं बना। हमारी यह कहानी सुब्बण्णा के जीवन के बारे में ही है।
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