उपन्यास >> अकबर अकबरशाज़ी जमाँ
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। बादशाह अकबर का संयम टूट रहा था और उनकी जिन्दगी का सबसे बड़ा संघर्ष शुरू होने को था।
‘हिन्दू गाय खाएँ, मुसलमान सूअर खाएँ...’ 3 मई, 1578 की चाँदनी रात को कोई भी हिन्दुस्तान के बादशाह अबुल मुज़फ़्फ़र जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर की इस बात को समझ नहीं पाया। इसीलिए उस वक्त उनकी इस कैफियत को ‘हालते अजीब’ कहा गया। सत्ता के शीर्ष पर खड़ा ये बादशाह अपनी ज़िन्दगी में कभी कोई जंग नहीं हारा। लेकिन अब एक बहुत बड़ी और ताक़तवर सत्ता उसके सब्र का इम्तिहान ले रही थी। बादशाह अकबर का संयम टूट रहा था और उनकी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा संघर्ष शुरू होने को था।
कई रोज़ पहले लगभग पचास हज़ार शाही फौजियों ने सल्तनत की सरहद के करीब एक बहुत बड़ा शिकारी घेरा बाँधा था। बादशाह अकबर के पूर्वज अमीर तैमूर और चंगेज़ खान के तौर तरीके के मुताबिक ये घेरा पल-पल कसता गया और अब वो वक्त आ पहुँचा जब शिकार बादशाह सलामत के पहले वार के लिए तैयार था। लेकिन उस मुकाम पर आकर बादशाह अकबर ने एक हैरतअंगेज़ कदम उठा लिया... ये उपन्यास लेखक ने बाज़ार से दरबार तक के ऐतिहासिक प्रमाण के आधार पर रचा है।
बादशाह अकबर और उनके समकालीन के दिल, दिमाग और दीन को समझने के लिए और उस दौर के दुनियावी और वैचारिक संघर्ष की तह तक जाने के लिए शाज़ी ज़माँ ने कोलकाता के इंडियन म्यूज़ियम से लेकर लन्दन के विक्टोरिया एंड ऐल्बर्ट तक बेशुमार संग्रहालयों में मौजूद अकबर की या अकबर द्वारा बनवाई गई तस्वीरों पर गौर किया, बादशाह और उनके करीबी लोगों की इमारतों का मुआयना किया और ‘अकबरनामा’ से लेकर ‘मुन्तखबुत्तवारीख’, ‘बाबरनामा’, ‘हुमायूँनामा’ और ‘तजि़्करातुल वाकयात’ जैसी किताबों का और जैन और वैष्णव सन्तों और ईसाई पादरियों की लेखनी का अध्ययन किया।
इस खोज में ‘दलपत विलास’ नाम का अहम दस्तावेज़ सामने आया जिसके गुमनाम लेखक ने ‘हालते अजीब’ की रात बादशाह अकबर की बेचैनी को करीब से देखा। इस तरह बनी और बुनी दास्तान में एक विशाल सल्तनत और विराट व्यक्तित्व के मालिक की जद्दोजहद दर्ज है। ये वो शख्सियत थी जिसमें हर धर्म को अक्ल की कसौटी पर आँकने के साथ-साथ धर्म से लोहा लेने की हिम्मत भी थी। इसीलिए तो इस शक्तिशाली बादशाह की मौत पर आगरा के दरबार में मौजूद एक ईसाई पादरी ने कहा, ‘‘ना जाने किस दीन में जिए, ना जाने किस दीन में मरे।’’
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