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ज्ञानगंगा

नारायणप्रसाद जैन

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :252
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1372
आईएसबीएन :81-263-1098-7

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प्रस्तुत है ज्ञानगंगा....

Gyanganga

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुति

स्व. श्री नारायणप्रसाद जैन द्वारा संकलित सूक्तियों का संग्रह ‘ज्ञानगंगा’ दो भागों में क्रमशः 1951 और 1960 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ था। इसके द्वितीय एवं तृतीय संस्करण भी प्रकाशित हुए हैं। उसके बाद लगभग 35 वर्षों से इसके दोनों भाग अनुपलब्ध हैं।

संकलन की महत्त्, उपयोगिता और पाठकों की माँग को देखते हुए भारतीय ज्ञानपीठ ने निर्णय लिया कि दोनों भागों में से कुछ विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण सूक्तियों का चयन कर ‘ज्ञानगंगा’ का एक लघु संस्करण तैयार किए जाए, ताकि कम मूल्य में प्रकाशित इस दुर्लभ ग्रन्थ को पाठक अपने संग्रह में रख सकें।

ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही अनुक्रमणिका दे दी गयी है। इससे पाठक को शब्द और विषय के सहारे सूक्ति तक पहुँचने में आसानी होगी।
इसके सम्पादन और संक्षेपण में श्री ओम निश्चल के सहयोग के लिए हम उनके आभारी हैं।

प्रभाकर श्रोत्रिय

भूमिका

प्रथम संस्करण से
श्री नारायणप्रसाद, ‘साहित्यरत्न’, हिन्दी के उन इने-गिने लेखकों में से हैं जो साहित्य को साधना का मार्ग मानकर चलते हैं और जिनकी सफलता का अनुमान विज्ञापन की बहुलता से न लगाकर सम्पर्क की घनिष्ठता से ही लगाया जा सकता है। साहित्य के अतिरिक्त यदि किसी दिशा में उनकी रुचि हुई है तो वह है राष्ट्रीय कार्य और लोक-सेवा। इस प्रकार का कार्य-क्षेत्र वही व्यक्ति चुनते हैं जिन्हें जीवन के साधनों को जुटाने की अपेक्षा साधना की उपलब्धि में अधिक सन्तोष और सुख मिलता है।

सुकुमार प्राण, भावुक मन और कर्मठ साधना से जिस व्यक्ति ने जीवन को देखा और परखा है उसकी अन्तर्दृष्टि कितनी निर्मल और निखरी हुई होगी। श्री नारायणप्रसाद की इसी अन्तर्दृष्टि और परिष्कृत रुचि ने उन्हें प्रेरणा दी है कि उन्हें अपने जीवनव्यापी अध्ययन में जहाँ कहीं से जो सत्यं, शिवं और सुन्दरं प्राप्त हो वह यत्न से संग्रह करके लोकजीवन के लिए वितरित कर दें।

भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित ‘मुक्तिदूत’ के ख्यातनामा साहित्य-शिल्पी श्री वीरेन्द्र कुमार ने हमें सूचना दी थी कि श्री नारायणप्रसाद जी के पास ज्ञानोक्तियों, लोकोक्तियों और सुभाषितों का एक बृहत् संग्रह है जिसे उन्होंने परिश्रम से संकलित किया है और जिसका प्रकाशन ज्ञानपीठ के लिए उपादेय होगा। श्री नारायणप्रसाद जी को हमने एक पत्र लिखकर पाण्डुलिपि भेज देने का आग्रह किया। जब पाण्डुलिपि प्राप्त हुई तो कागजों का पुलिन्दा और कतरनों का ढेर देखकर हम अवाक् रह गये। कितने प्रकार और कितने ही आकार के कागजों में अनेक प्रकार की स्याही से लिखे गए हजारों ज्ञान-वाक्य संगृहीत थे, बिना विषय-क्रम और बिना योजना के। उस मूल रूप में संग्रह अपने जन्म और विकास की कहानी अपने-आप की कह रहा था। एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी सूक्ति किस प्रकार कब मिली और किस ‘मूड’ (mood=मनःस्थित) में लेखक ने उसे लिपिबद्ध किया यह स्पष्ट झलक रहा था। संग्रह की उस क्रम-हीनता में भी एक विशेष आकर्षण और प्रभाव था।
‘ज्ञानगंगा’ की मूल पाण्डुलिपि में आरंभिक सूक्तियों का क्रम इस प्रकार था :

(1) हे प्रभो, मुझे अभी तक प्रकाश नहीं मिला, तो क्या मैं केवल कवि बनकर रह जाऊँ ?

सन्त तुकाराम

(2) पाप की सारी जड़ खुदी में है।

गीता

(3) अतिशोक्ति वह सत्य है जो बौखलायी हुई हालत में है।

ख़लील जिब्रान

(4) अपना उल्लू सीधा करने के लिए शैतान भी धर्मशास्त्र के हवाले दे सकता है।

शेक्सपीयर

(5) सच तो यह है कि गरीब हिन्दुस्तान स्वतन्त्र हो सकता है लेकिन चरित खोकर धनी बने हुए हिन्दुस्तान का स्वतन्त्र होना मुश्किल है।

गाँधी

(6) अपने प्रेम में ईश्वर सान्त को चूमता है और आदमी अनन्त को।

टैगोर

(7) जिसे दोषविहीन मित्र की तलाश है वह मित्रविहीन रहेगा।

एक तुरकी कहावत

(8) माया के दो भेद हैं—अविद्या और विद्या।

रामायण

(9) जोश-आदि गरम, मध्य नर्म, अन्त सर्द।

जर्मन कहावत

(10) स्याही की एक बूँद दस लाख आदमियों को विचारमग्न कर सकती है।

बायरन

(11) शब्दों का अर्थ नहीं; अनुभव देखना चाहिए।

शीलनाथ

इन सूक्तियों को पढ़कर पता चलता है कि मनुष्य के जागरित मन ने पृथ्वी के विभिन्न खण्डों में रहकर अनन्त युगों तक जीवन से जूझकर और जीवन को अपनाकर अपने अनुभव सत्य को किस प्रकार प्राप्त किया है और उसे किस अमर वाणी में व्यक्त किया है। यह मानव-सन्तति का अक्षय भण्डार और अखण्ड उत्तराधिकार है। यहाँ देश, काल, जाति और भाषा की सीमाओं से परे सारा विश्व ज्ञान के प्रकाश से उद्भासित सत्य के बल से अनुप्राणित और सौन्दर्य के आकर्षण से एकाकार प्रतीत होता है। ज्ञान की इतनी बड़ी करामात है कि वह मानवमात्र में अभेद ही उत्पन्न करता, जीवन की मौलिक एकता का आधार साक्षर-वाणी में व्यक्त करता है और इतिहास के पृष्ठों पर अमरत्व की छाप लगा देता है।

संग्रह की समस्त सूक्तियों को विषय के अनुसार अकारादि क्रम से व्यवस्थित कर दिया गया है। उदाहरणार्थ, उपर्युक्त 11 सूक्तियों को अकारादि क्रम से ‘ज्ञानगंगा’ की विभिन्न तरंगों के अन्तर्गत क्रमशः इन विषयाशीर्षकों में संकलित किया गया है :
1 कवि, 2 पाप, 3 अतिशयोक्ति, 4 धर्मशास्त्र, 5 चरित्र, 6 चुम्बन, 7 मित्र, 8 माया, 9 जोश, 10 स्याही और 11 अनुभव।

उक्त विषयों पर जिनती सूक्तियाँ मिली हैं सब विषयवार इन्हीं शीर्षकों के अन्तर्गत दे दी गयी हैं। फिर भी विभाजन में विषय की दृष्टि से पुनरावृत्ति हुई है क्योंकि एक ही विषय से सम्बन्धित सूक्ति उस सूक्ति में प्रयुक्त प्रमुख शब्द के आदि अक्षर के अनुसार अन्य तरंग में सम्मिलित करनी पड़ी है।

ऊपर जिन 11 सूक्तियों को उद्धृत किया है उनपर दृष्टि डालने से मालूम होगा कि प्रायः सूक्तियाँ मूल से या मूल के अन्य अनुवाद से अनूदित हैं। इस प्रकार की सूक्तियों का अनुवाद बहुत कठिन होता है क्योंकि मूल सूक्ति अपनी भाषा और शब्दयोजना में इतनी चुस्त, सीधी और मुहावरेदार होती है कि इन्हीं गुणों के कारण उसका प्रभाव टिकाऊ बनता है। भाषा और मुहावरे की इस शक्ति को अनुवाद में लाने के लिए अनुवादक को कभी-कभी एक-एक शब्द के पीछे घण्टों मग़ज मारना पड़ता है और फिर भी ऐसा होता है कि पूरा प्रयत्न करने पर भी सफलता नहीं मिलती अथवा लेखक का मन नहीं भरता। ‘ज्ञानगंगा’ के संकलन की यह खूबी है कि श्रीनारायणप्रसाद ने अनुवाद की भाषा को रवानगी दी है और मुहावरे की शक्ति को कायम रखने की कोशिश की है। उदाहरण के लिए, शेक्सपीयर की उपर्युक्त प्रसिद्ध सूक्ति ‘Even the devil can quote scriptures’ का अनुवाद इससे अच्छा और क्या हो सकता था ? ‘अपना उल्लू सीधा करने के लिए शैतान भी धर्मशास्त्र के हवाले दे सकता है।’ माना कि अनुवाद में मूल की सूत्रता (aphorism) और करारापन (crispness) नहीं है पर उसका प्राण और मुहावरा जरूर है। इसी प्रकार ख़लील ज़िब्रान की सूक्ति ‘अतिशयोक्ति वह सत्य है जौ बौखलायी हुई हालत में है’ में अनुवाद के लिए ‘बौखलायी हुई हालत’ की शब्दयोजना सुन्दर और सप्राण है। अतिशयोक्ति का यह सहज चित्रांकन अन्य प्रकार से कठिन था। लेखक ने कहीं-कहीं धर्मशास्त्र के गूढ़ और परम्परागत शब्दों का अनुवाद उर्दू फ़ारसी अथवा ‘हिन्दुस्तानी’ के अनेक ऐसे शब्दों से किया है कि पढ़ने पर अटपटा लगता है पर जैसे बिजली-सी कौंध जाती है और गूढ़ अर्थ उजागर हो जाता है।

इन सूक्तियों के पढ़ते हुए पाठक को अवश्य सोचना होगा कि जिस सूक्ति के अनुवाद के पीछे इतना श्रम और चिन्तन है उस मूल शक्ति के जन्म के पीछे जन्मदाता के जीवन का कितना विशाल अनुभव और मनन छिपा हुआ है। सूक्तिकार द्रष्टा, मनीषी, साधक और कवि सब कुछ एक साथ है और शायद फिर भी वह कहीं-कहीं निपट निरक्षर भी हो सकता है। पाठक की जिम्मेदारी है कि वह प्रत्येक सूक्ति और सुभाषित को ध्यान से पढ़े, अर्थ पर विचार करे और अर्थ के पीछे वक्ता का जो ज्ञान, अनुभव तथा साधना है उसको, उसके अंशमात्र, को आत्मसात करने का प्रयत्न करे। युद्धिष्ठिर ने गुरु की एक सूक्ति, एक शिक्षा, ‘सत्यं वद’ को ही सीखने में सारा जीवन लगा दिया था, किन्तु फिर भी महाभारत में अश्वत्थामा के प्रसंग में ‘नरो वा कुंजरो वा’ के असत्य जाल में फँस ही गये थे। इसलिए, समूची पुस्तक को कहानी या लेख की तरह पढ़ डालने का प्रयत्न करना ‘ज्ञानगंगा’ के साथ और स्वयं अपने साथ अन्याय करना होगा। महात्मा भगवानदीन जी ने आपको सावधान कर दिया है—‘देखिए’ !
ज्ञानपीठ की इस लोकोदय ग्रन्थ माला का मुख्य उद्देश्य इस प्रकार के सांस्कृतिक ग्रंथों का प्रकाशन है जो लोकजीवन को चेतना और गति दें, जो साहित्य के जागृति और सजीव रूप का प्रतिनिधित्व कर सकें। ‘ज्ञानगंगा’ इसी साहित्य-श्रृंखला की कड़ी है।
आशा है ‘ज्ञानगंगा’ की अक्षय धार पाठकों के मन को पावन और हृदय को शीतल करेगी।


नायं प्रयाति विकृतिं विरसो न यः स्यात्
न क्षीयते बहुजनैर्नितरां निपीतः।
जाडयं निहन्ति रुचिमेति करोति तृप्तिं
नूनं सुभाषितरसोऽन्यरसातिशायी।।

लक्ष्मीचन्द्र जैन


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