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अरण्यपंथा

संजय तिगनाथ

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13720
आईएसबीएन :9788126727810

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अरन्यपन्था' अरन्यपन्था में वे समस्त मौलिक दुविधाएँ अंतर्निहित हैं जो ज्ञान के गहन प्रांतरों में विद्यमान हैं,

अरन्यपन्था' अरन्यपन्था में वे समस्त मौलिक दुविधाएँ अंतर्निहित हैं जो ज्ञान के गहन प्रांतरों में विद्यमान हैं, क्योंकि अरन्यपन्था उन्हीं के अपार और संकीर्ण पथ से निकलती है। इसमें मात्र आशय है किन्तु प्रयोजन स्पष्ट नहीं है। यदि परोजन के आग्रह को त्यागा जा सकता हो तो संभवतः अरन्यपन्था रुचिकर लगे। मैंने उपनिषद ग्रंथों का पुनर्ध्ययन किया और यहाँ पाया कि मैं उनकी अनुभूतियों को पहले की अपेक्षा अधिक निकटता से अनुभव कर रहा था, तथापि अरन्यपन्था न तो वैज्ञानिक व्याख्याओं में घुसती है और न ही उपनिषद को अपने तर्क का हिस्सा बनाने की चेष्टा करती है। सचमुच उपनिषद को तो इस पुस्तक के कथ्य में बिना स्पर्थ करते हुए ही मात्र आनन्द के स्त्रोत की तरह उद्धृत किया गया है।

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