संस्मरण >> अतीत का चेहरा अतीत का चेहराजाबिर हुसैन
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जाबिर हुसेन अपनी डायरी के इन पन्नों को बेखाब तहरीसे' का नाम देते हैं। वो इन्हे अपने 'वसीयतनामे का आखिरी बाब' भी कहते है।
जाबिर हुसेन अपनी डायरी के इन पन्नों को बेखाब तहरीसे' का नाम देते हैं। वो इन्हे अपने 'वसीयतनामे का आखिरी बाब' भी कहते है। ये तहरीरें उनकी डायरी में दर्ज इबारतें हैं। इबारतें, जो समय की रेत पर अनुभूतियों की एक व्यापक दुनिया उकेरती हैं। इबारते, जो किसी रचनाकार की कलम को उसकी जिंदगी के तल्ख आयामो से दूर ले जाती हैं। खुले आकाश तले, लंबे, ऊंचे पेड़ों के अंतहीन सिलसिलों की अजनबी अपनाइयत की ओर, जिससे निकलनेवाली रौशनी की किरणे उसे अपने जिस्म की गहराइयों में उतरती महसूस होती है। किरणें, जो उसे आत्म-सम्मान और वफादारी के साथ जिंदा रहने का हौसला देती हैं। जाबिर हुसेन अपनी रचनाओं में किसी काल्पनिक समाज की अच्छाइयां नहीं उभारते। वो अपने आस-पास के किरदारो, देखे-समझे, अनुभव की तपिश में परखे, लोगों की बाबत लिखते हैं। उनके सामाजिक सरोकार उनकी तमाम तहरीरों से बखूबी झलकते हैं। इंसानी रिश्तों के बीच पैदा होने वाली दरारे, रंग और नस्ल की पहचान, सत्ता के अवजार के रूप मे पुलिस का इस्तेमाल, जैसी कुछ सच्चाइयों से जाबिर हुसेन अपनी तहरीरों का शिल्प तैयार करते है। शिल्प, जो डायरी की सामान्य परिभाषा से कहीं अलग है। और जो अपने प्रतीक और बिंब के कारण मर्मस्पर्शी, बल्कि रोमांचकारी बन जाता है। इस शिल्प में जिंदगी की उदासियां भी विश्वास का संकेत बनकर उभरती हैं। तो फिर जाबिर हुसेन की ये तहरीरें उनके बेखाब वसीयतनामे' का आखिरी बाब कैसे हैं? अतीत का चेहरा इस सवाल की परतें खोलता है।
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