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यात्रा वृत्तांत >> अनेक शरत्

अनेक शरत्

सीताकान्त महापात्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2024
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1373
आईएसबीएन :9789357759915

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**डॉ. सीताकांत महापात्र : 'अनेक शरत्' – संस्कृतियों और संबंधों की काव्यात्मक खोज**

 

एक समर्थ कवि के इस यात्रा-वृत्तान्त को समूची कविता-यात्रा या रागात्मक सांस्कृतिक यात्रा कहा जाय तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यानी एक ऐसा यात्रा वृत्तान्त जो अनन्त दूरियों के बीच मनुष्य और मनुष्य को एक करने की सार्थक कोशिश करता है।

वसुन्धरा और बटोही

बृक्षर तळे जेन्हे आसि। पथिके विश्रामन्ति बसि।।
पुणि चळन्ति श्रमसारि। से बृक्ष नुहइ काहारि।।
(जगन्नाथ दास रचित भागवत से उद्धृत)

 

अगस्त के आखिरी हफ्ते तक भुवनेश्वर या दिल्ली में शरद् ठीक से पहुँचा नहीं होता। वर्षा समाप्त होने पर थी। ‘‘निर्मल चन्द्र मण्डळ शरदे बिराजि, दिशे जथा...’’ धीरे-धीरे तैरते धवल मेघ, रात के अन्त में ओस, क्रमश: स्वच्छ होता जा रहा रात का आकाश, नदी के कछार में काँस के फूल, फैलता-पसरता पूजा का बाज़ार, भादों-क्वार की धूप, ये सब बस कुछ ही दिन की बातें हैं, समय के स्रोत पर तैर-तैर मेरी पहुँच में आने तक, मैं चल पड़ा था। और लौटना था अक्तूबर के दूसरे हफ्ते में, दशहरे की नौबत बजने के साथ-साथ। बीच-बीच में मेघ एक-दो बौछार छींट जाते। भुवनेश्वर से हवाई जहाज़ में कलकत्ता जाते समय बंगोपसागर से उग आते जम्बू, पाराद्वीप और महानदी के मुहाने पर छावनी डाले सफ़ेद मेघों के पहाड़। और मेरे दिमाग़ में तैर रही थी पीछे छोड़ आये जीवन की अनेक शरद् की बातें। वे सब कैसे भी तो स्मृति और स्वप्न में धीरे-धीरे बदलती जाती हैं। नदी चित्रोत्पला की धारा धीमी हो आती है। तोरई फूल, ककड़ी के फूल समाप्त होने को आये। भीतों पर फूल ही फूल, मोर, हाथी-तरह-तरह के चित्र आँके गये हैं। मुरचा रहा खाँड़ा निकाला जाता है ऊपर से, अलन्धू पोंछ-पाँछकर लेखनी सह पूजा जो होगी। कलश स्थापना होगी। रामचन्द्र को इसी ऋतु में देवी आराधना करनी पड़ी थी। दादा इन्हीं दिनों में कहा करते-‘‘त्वं जीव शरद: शतम्।’’ शरद् का आकाश, शरद् के मेघ, पेड़-सब पर वह आन्नद चारों ओर, हर किसी पर बिखरा है। अब दादाजी की आँख पता नहीं आकाश के कौन-सा तारा है ! पर, तब ज़रूर उस तारे को मैं पहचानता था, एक-दो बार औरों को भी दिखाया था। भाई लोकनाथ भट्टाचार्य और श्रीमती अमृता प्रीतम ने बताया था कि युगोस्लाविया की अखरीद झील तथा स्ट्रूगा शहर के दृश्य दुनिया में अपना सानी नहीं रखते। पहले वे सम्मेलनों में वहाँ भाग ले चुके हैं। दिल्ली एयरपोर्ट पर भाई लोकनाथ, श्रीकान्त वर्मा एवं औरों ने विदा दी। मलयालम कवि अय्यप्पा पणिक्कर बम्बई से हमारे साथ शामिल हो गये। बम्बई छोड़ा तब तक रात का एक बज रहा था। नींद आ रही थी। पलकें बोझिल हो रही थीं। मेरी सीट के दोनों ओर महिलाएँ। मीना क्षत्री, नवविवाहिता नेपाली वधू। रोम में उनके पति इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हैं। पीहर से लौटकर पति के पास जा रही हैं। उधर खिड़की के पास श्रीमती पामेला राचेल। वाइ.एम.सी.ए. की एक उच्च पदाधिकारी महिला। सेनेगल की रहने वाली। भारत, इण्डोनेशिया, थाइलैण्ड आदि में इस संस्था का काम देखती हैं। इस समय स्वीडन जा रही हैं। स्ट्रूगा की बात चली। जब पता चला कि इस बार उनके देश के प्रसिद्ध कवि लियोपोल्ड सेदार सेंगर को सम्मानित किया जा रहा है, वे बहुत खुश हो गयीं। सेंगर मुख्यत: फ्रेंच में लिखा करते हैं। बीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। बाद में स्ट्रूगा में उनके सम्बन्ध में लिखी आलोचनात्मक पुस्तकों की संख्या देखकर अचम्भे में भर गया। वे किताबें कई भाषाओं में थीं। मार्शल मेक्लूहन का कहना है-आज जेट-युग में सारी धरती सिमटकर कोई बड़ा आदिवासी गाँव बन गयी है। अपनी दोनों ओर उनकी बात समझकर मेक्लूहन की बात का मर्म समझ रहा हूँ। कभी-कभी ट्रेन में जाते समय लगता-‘‘ये लोग किस-किस गाँव के होंगे, मन में कितने तरह की साँझ-सुबह के सपने आते होंगे-मगर सबका भाग्य एक डोर में बँधा है। ये गाँव किधर खिंचे जा रहे हैं ? मित्रता, क्रोध-दोष आदि सारे अनुभव एक पल में समाप्त हो जाते हैं। समय बीत जाता है। फिर अपनी-अपनी राह चल पड़ते हैं। पेड़ की छाँव में पथिक के विश्राम लेने की तरह।

नींद टूटी तो भोर होने में देर थी। मगर प्लेन एयरपोर्ट पर था। बाहर आया। आकाश में नन्हे-नन्हे तैरते मेघ-खण्ड। उनमें से आँखें टिमटिमाते तारे। सामने पर्वत के कटि-प्रदेश और निम्न देश पर थाक की थाक में सजा है बेरुत शहर। बेरुत अभी भी गहरी नींद में है। पश्चिम में थोड़ा फर्चा दिखने लगा। उधर भूमध्य सागर है। बेरुत एयरपोर्ट भूमध्यसागर के पास ही बना है। सुबह की हवा-देह-मन दोनों को हुलसा रही है। याद आ जाता है बचपन में देर से उठने पर पिताजी का उपदेश-
‘‘सुबह उठ हाथ मुँह धो घूमूँगा बाहर।..
भोर की हवा देह में बहुत उपकार करे।’’

 

हालाँकि आज हाथ-मुँह धोये नहीं था मैं। मगर एयरपोर्ट में बेरुत शहर मुझे मुग्ध करता रहा है। मैं पहले भी दो बार ऐसी ही भोर में यहाँ उतर चुका हूँ। भूमध्यसागर तट पर भोर की हवा में टहलते देखा है- सागर-तट पर विदेशी ताड़ के पत्ते हवा में थिरकते हैं, बेरुत शहर नींद में सोया सपने देखता होगा। पता नहीं कैसा सपना ! कोई भयावह दु:स्वप्न-नाइटमेयर। आज जिसने आकार लिया है, हत्या, लूटपाट, हिंसा, उपद्रव आदि भयंकर काण्डों का। पास ही वह होटलों का इलाक़ा-कितना समृद्ध है ! मध्यप्राच्य की रानी ! भोग-विलास और टूरिस्ट आकर्षण के लिए प्रसिद्ध वह इलाका अब मशीनगन, मोर्टार की लड़ाई में ध्वस्त हो चुका है, उजड़ गया है। कोई वामपन्थी तो कोई दक्षिण-पन्थी, कोई इस्लामी तो कोई ईसाई। मृत्यु, वेदना, शोक किसी को तो नहीं छोड़ता। सब के लिए वह समान करुण इतिहास है। कुछ दिन पहले अमेरिकी पत्रिका में देखा था-पचास आदमियों का चित्र। हर फोटो के नीचे उनका गाँव, नाम, उम्र परिवार..लिखा था। पाठकों के लिए सूचना थी: ‘‘पिछले छ: महीनों में इन्होंने वियतनाम वार में प्राण गँवाये हैं। इनके चेहरे को देखें, क्या है ? हँसी ? मान ? क्रोध ? रूठना ?...कितनी बातें। वे भी जीना चाहते होंगे। इस माटी, परिवार को, बाल-बच्चों को चाहते होंगे। पर आज वे नहीं रहे। इसका अर्थ क्या है ? एक क्षण ठहर कर सोचें।’’ आज शान्ति भंग, शान्ति-समझौते की बातें, सारे लेबनान में विनाश लीला की बातें अखबारों में पढ़ते समय न मालूम क्यों भोर का स्तवन, मन हुलसाने वाला भूमध्यसागरीय पवन, शान्त-निरीह वह शहर-तीन बार एक ही परिवेश में देख चुका हूँ अचानक आँखों में तैर जाता है। मन कहता है-सच, आदमी ने इतिहास से कुछ नहीं सीखा। लड़ने की खातिर पत्थर का टुकड़ा, एक फरसा या दो अणुबम- कुछ भी चल सकता है। चन्द्रलोक में अपोलो पर से या मंगल पर वाइकिंग से देखें तो कुछ न दिखेगा।-दिखेगा एक और बिन्दु महाकाश की शून्यता में भूत की तरह फिर रहा है। प्लेन चल पड़ा।

साइप्रस-छोटे-छोटे ग्रीक द्वीप। दूर है एट्रियाटिक किनारा, उधर रोम। प्लेन से द्वीप-समूह, तीखी पहाड़ी चोटियाँ बहुत सुन्दर दिखती हैं। रोम में उतरकर हम दोनों ने अपना लगेज इटालियन एयरलाइंस के आलिटालिया में बेलग्रेड भेज दिया। इसके बाद एयर-इण्डिया के होटल में गये, टैक्सी पकड़ कर।
प्रेम-धर्म मिहाइलो भुज़ानिक और रवीन्द्रनाथ
अगले दिन सुबह दस बजे रोम से रवाना हुए। बेलग्रेड सिर्फ़ घण्टे भर की दूरी पर है। एयरपोर्ट पर युगोस्लाविया सरकार के प्रोटोकोल अफ़सर स्टेवानोव भिलोरोड एवं भारतीय दूतावास के अफ़सर राम केवल मिल गये। अगले दिन सुबह बेलग्रेड से अखरीद को हमारी बुकिंग हो चुकी थी। बेलग्रेड शहर से एयरपोर्ट काफ़ी दूर है। कोई बीस मील होगा। पहले पड़ता है नया शहर-नोवी बेलग्रेड। मैंने पढ़ा था कि बेलग्रेड काफी सुन्दर और सुगढ़ शहर है। होटल स्लाविज़ा शहर के बीच में है। वहाँ सामान रखकर लंच लिया। हमारे दूतवास के चार्ज द अफेयर्स शिवपुरी साहब और काउंसेलर शेखर से मिले। स्ट्रूगा से लौटकर बेलग्रेड में दो दिन रुककर वास्को पोपा, लालिच तथा अन्य युगोस्लाव कवियों से मिलने का कार्यक्रम बनाया। अब स्टेवानोव के साथ बेलग्रेड-दर्शन का प्रथम पर्याय शुरु हुआ।

पहले गये प्रसिद्ध कालेमगदान-जिसका अर्थ है क़िला मैदान। दो हज़ार वर्ष पुराना मैदान और दुर्ग। बेलग्रेड का दृश्य डेन्यूब नदी के पास में इस मैदान से खूब सुन्दर, किसी चित्र की तरह सज़ा है। बीच में टापू की तरह छोटा-सा द्वीप। बेलग्रेड की स्काइ लाइन खूब ऊँची अट्टालिकाओं से भरपूर। पश्चिमी देशों को उन गगनचुम्बी प्रासादों के मोह ने पकड़ रखा है। अब इन्हें ‘स्काई स्क्रेपर’ की बजाय ‘हाइ-राइज़’ कहना बेहतर होगा। डेन्यूब नदी में स्टीमर हैं, पर बहुत नीचे दिख रहे हैं। छोटे-छोटे चित्र-से। नदी के उस ओर जंगल याद दिला देता है पृथ्वी की उस प्राथमिक अवस्था की। आदमी ने जंगल साफ़ कर शहर बसाये। अब नये जंगल पैदा कर रहा है। ओक और चेस्टनट की कतार, उनके सहारे-सहारे पार्क में हरी घास पर एक-दूसरे की कमर में हाथ डाले युवक-युवतियों के जोड़े बैठे हैं-नदी की ओर मुँह किये सीमेण्ट की बेंच पर। टी-शर्ट पर लिखा है-‘‘All you need is love’’ ‘‘Love me’’ मेघ बरसने को हैं-उनकी स्नेह-प्रवणता की तरह। कुछ ईवनिंग-वाक पर है। नदी किनारे खड़े होकर उस पार देखने में पता नहीं क्या आनन्द है ! याद करो तो लगता है जीवन में पता नहीं कितनी बार ऐसे देखा है ! बचपन से लेकर कॉलेज छोड़ने तक चित्रोत्पला नदी का किनारा। बरखा झर रही होगी, काँस के फूल कछार में खिलखिलाते होंगे, चन्द्र-किरणों में बालू चमकदार दिखती होगी-और उस पार का गाँव, समाधि मन्दिर खो गया होगा- वर्षा की कोमलता, चाँदनी की माया अथवा साँझ के मुग्ध ध्यान में। बूँदों की झरी में सिर पर टोपी लगाये माझी बैठे होंगे नाव में। फिर इलाहाबाद में पढ़ने के दिनों में रविवार की रात संगम पर जाते, या फिर फाफामऊ रेलवे पुल पर जाकर गंगा के उस पार देखा करते। बूँदा-बाँदी हुई कि सब छू। भीगे कुछ जोड़े धीरे-धीरे ग़ायब हो रहे हैं। कुछ बड़े मज़े में जा रहे हैं। मानो इस बूँदा-बाँदी में भींगने में भी असीम आनन्द मिल रहा है। यह मेघ ही प्रेम है। सरसता और जीवन का रूप है।

बारिश तेज होने लगी। हमने छोटे से सुन्दर रेस्तराँ में आश्रय लिया। मेरे सवाल के उत्तर में स्टेवानोव बता रहे हैं सर्बियन चर्च के बारे में। आकाश कॉफी रंग का, खूब घना हो गया है। स्टेवानोव कह रहे हैं-कॉफी शैतान की तरह काली, नरक की तरह गरम, पाप की तरह मीठी होनी चाहिए। मैंने ‘History of Serbian Church’ वहीं खरीदी। युगोस्लाविया का घना इलाका बेलग्रेड, मेसिडोनिया की राजधानी स्टोपिया- सब लम्बे अर्से तक ऑटोमन साम्राज्य के अधीन था। तब अनेक मोनास्ट्री, कैथेड्रल एवं चर्च में बने प्रेस्को चित्रों, आइकॉनों पर अकथनीय अत्याचार हुए। काला रंग, अलकतरा या फिर कीचड़ फेंफकर युगोस्लाविया रोमानिया के अनेक मोनास्ट्री व कैथेड्रल के इन चित्रों को नष्ट किया गया। बाद में इनमें से कुछ को पुन: व्यवस्थित किया गया। मगर अधिकांश फ्रेस्को नष्ट कर डाले गये। मगदान में वैसे दो पुराने गिरजे हैं। छ: सदी पुरानी संस्था-धर्म-विद्वेष और अमानुषिकता की मूक साक्षी। छोटी-छोटी ऊँचाई वाला झुका गिरिजाघर। काठ पर अन्दरूनी बोझ टिका है। उस बरसाती अपराह्न में गिरने की दीवारें ईसा, मेरी आदि महापुरुषों के चित्र से सजी कितनी भव्य दिख रही थीं ! बिजली और गड़गड़ाहट ! मानो आकाश अब टूटने वाला है। कोई पन्द्रह बूढ़े लोग अन्दर होंगे। छोटी-छोटी पीली मोमबत्ती मिलती हैं। अन्दर आँगन में टिन व लकड़ी के चौकोर बक्सों में बालू भरी थी। उसी बालू पर मोमबत्तियाँ कतार में सजी जल रही थीं। एक अद्भुत विश्वास की झलक भरी थी उन बूढ़ों की आँखों में। आकाश की बिजली की तरह का रंग, विश्वास, धर्म, भाव, क्या सिर्फ़ उमर की बात हैं ? उमर होने पर जीवन की अनेक अनुभूतियों के साथ, हँसते-रोते गति करने के बाद आदमी समझता है-मुझसे बाहर भी कोई शक्ति है जिसके हम खिलौने हैं। जिसकी इच्छा से हवा बहती है, सागर किनारा नहीं लाँघ पाता। चाँद-सूरज अपने कक्ष पर घूमते हैं। ‘‘ब्रह्माण्ड माळ माल होइ। जा लोभ कूपे छंति रहि’’ (अगणित ब्रह्माण्ड जिसके रोम-रोम में बसे हैं-भागवत) पर आदमी का आत्मविश्वास, समाज की सत्ता कभी-कभी इस तथाकथित दुर्बलता को दबा देने की कोशिश करती है। यूक्रेन की राजधानी कीव में भी ऐसे दृश्य मिले। वहाँ गिरजे में सैकड़ों वृद्धजन ईसामसीह के मण्डप के सामने अश्रुसिक्त नयनों से प्रार्थना कर रहे थे। भगवान् के सामने आदमी का दु:ख, मान, गुहार, राग-रोष सब निकाल रहे थे। केवल दया नहीं चाहता आदमी भगवान् से, अपने साथी के रूप में भी चाहता है। समय आने पर भगवान् को गाली देता है। ‘‘तुभंकु जगन्नाथ मो मनोरथ भरति करि देबि गाळि।’’ खैर, अब गिरजों में जाना वहाँ सिर्फ़ बूढ़ों की बात रह गयी है। गिरजे कुछ हद तक सामाजिक संस्था में परिणत हो गये हैं (लड़के-लड़कियाँ वहाँ एक-दूसरे से मिलते हैं, प्रेम का उदय होता है...आदि)। किसी आदिवासी गाँव के अखाड़ाघर की तरह हो गये हैं ये गिरजे। रविवार के दिन वहां जाने वालों की संख्या घट गयी है। उनमें युवक तो कम और भी कम हैं।
नदी-किनारे का विशाल इनडोर स्टेडियम, फेडरल ऐसेम्बली, कम्युनिस्ट पार्टी का कार्यालय, प्रसिद्ध सुपर मार्केट, वगैरह देखकर लौटे तब तक रात के आठ बज चुके थे। स्टेवानोव हमें होटल में छोड़ चले गये।

बेलग्रेड की आबादी सा़ढ़े सात लाख के क़रीब है। शहर के निचले इलाके मिलाकर दस लाख। छह गणतन्त्रों को मिलाकर युगोस्लाविया का फेडरल रिपब्लिक बना है। बोस्निया, हर्जगोविना, क्रोशिया, मेसिडोनिया, मोण्टेनेग्रो, सर्बिया एवं स्लोवेनिया। भारत की तरह यहाँ भी बहु भाषाभाषी क्षेत्र हैं। मगर मुख्यत: क्रोशियन, मेसिडोनियन और स्लोवेन भाषाएँ प्रचलित हैं। सर्वो तथा क्रोट के अलावा मोण्टेनेग्रो एवं मुसलमान भी सर्वे क्रोशियन भाषा बोलते हैं। तीनों ही सरकारी भाषा के रूप में स्वीकृत हैं। दो लिपि व्यवहृत होती हैं-लेटिन और चिरिलिक्। युगोस्लाविया में भाषा की तरह धर्म भी अनेक हैं। इस्लाम, रोमन, कैथॉलिक, ऑर्थाडॉक्स मेसिडोनियन, सर्बियन ऑर्थाडॉक्स वगैरह।

स्लाव लोग बालकन द्वीप पर सातवीं सदी में आकर बसे थे। नौवीं सदी में ग्रीक मिशनरियों के जरिये वे ईसाई बने। मध्ययुग में संस्कृति और कला की बहुत उन्नति हुई इस बालकन द्वीप पर। आज का युगोस्लाविया व रोमानिया तब मध्यपूर्व भूमध्यसागर एशिया व अफ्रीका का मिलन-स्थल था। व्यवसाय का केन्द्र-स्थल था। यहाँ कितनी संस्कृतियाँ आयी हैं, गयी हैं, सभ्यताओं का उत्थान-पतन हुआ है। मेसीडोनिया के कई इलाक़े घूमने के बाद यह बात स्पष्ट हो गयी। ग्रीस, रोम, बेंजाटियम, यूरोप एवं प्राच्य संस्कृति- इन सब का मिलन है युगोस्लाविया एवं रोमानिया संस्कृति। इन दोनों देशों के इलाके समय-समय पर अलग-अलग राष्ट्र शक्तियों के अधीन रहे। पर आंचलिक लोक संस्कृति सदा सजीव व सशक्त रही है। स्वयं सम्पूर्ण राष्ट्र बनने से पहले सांस्कृतिक विकास खण्डित रूप में था। मगर युगोस्लाविया के अनेक कलाकार, शिल्पी, लेखक यूरोप में फासिस्ट शक्तियों के उत्थान के समय पेरिस में रहकर नाम कमा रहे थे। जून 1914 को सर्बिया की राजधानी सेराजेवो में आस्ट्रिया के युवराज की हत्या के फलस्वरूप पहले महायुद्ध का सूत्रपात हुआ। और, सेराजेवो के प्रसिद्ध युगोस्लाव कवि इजेट ने स्ट्रूगा में मुझे सुनाया था आस्ट्रिया के युवराज की पत्नी और उनके बीच हुई काल्पनिक बातचीत का काव्य रूप। कवि सेराजेवो का आदमी है ! सुनते ही युवराज्ञी चौंक पड़ती हैं। ओह सेराजेवो ! कौन नहीं डरेगा ?
ज़रूर उसकी जेब में छोटी बन्दूक होगी (स्वगत) कवि पूछते हैं-
Do you think it is easy to be from Sarajevo and
to do this which I do ?
To be from Sarajevo, and to write of love.

 

बेलग्रेड की 26 मंज़िली इमारत के डिपार्टमेण्टल स्टोर पहुँचे तब फिर बिजली की गड़गड़ाहट के साथ बारिश शुरू हो गयी। जैसा कि हमारे इलाके में होता है, किसी ने लेकर मटका ही उँडेल दिया हो ! युगोस्लाविया के डिपार्टमेण्टल स्टोर में सजी चीजें विलास या गुण किसी बात में लन्दन-न्यूयार्क या पेरिस से कम नहीं। युगोस्लाविया अपने को पूर्व यूरोपीय देशों की गिनती में रखना नहीं चाहता। उसका अपना स्वातन्त्र्य है। दो तरह की विचारधारा, समाजदर्शन व अर्थनीति में वे समझौता कर पाये हैं-ऐसी धारणा है उनमें। उपभोक्ता सामग्री निस्सन्देह पूर्वी यूरोप वालों से यहाँ बहुत अधिक है।
सुबह छह बजे अखरीद को प्लेन पकड़ने हम बेलग्रेड एयरपोर्ट पहुँचे। हमेशा हँस-मुख, बात-बात में मज़ाक करने वाले प्रोटोकल अधिकारी मित्र स्टेवानोव पहुँचाने आये थे। मेरा ख़्याल था कि ये प्रोटोकल वाले आम तौर पर मिलनसार नहीं होते। फॉर्मल ही रहते हैं। मगर स्टेवानोव तो उल्टे निकले ! एयरपोर्ट पर हमें मिलवाया सेराजेवो में ओस्लो बोजेनी अखबार के साहित्य-प्रतिनिधि मिखाइल बुजानिक से। टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में मजेदार बातें हुईं। बात-बात में उनके Complicated शब्द आता। साहित्य हो या कोई और विषय-अपनी बात कहकर यह शब्द वे जरूर लाते। मैंने ज़रा मज़ाक़ के लहजे में कहा तो उन्होंने समझाया-दरअसल मुझे जीवन में हर बात कुछ जटिल लगती है। जिसे हम छोटी, सरल मान लेते हैं, जिस बारे में हम सोचते हैं कि खूब जानकारी है, एक घड़ी ऐसी आती है जब उस बारे में हमारी अज्ञता झलक जाती है। विज्ञान यही तो कहता है। एक पत्ती लें, अणुवीक्षण के नीचे रखें-जो विश्वरूप दिखेगा...उसकी कोई तुलना नहीं। ब्लेक ने यही बात कही थी। एक पल में इस जंगली फूल में चिरन्तन, समूचा विश्व दिख जाता है। बुजानिक ने ‘गीतांजलि’ का अनुवाद पढ़ा है। ‘‘मुझे याद है आठ वर्ष पहले मैंने अपनी प्रेमिका को पत्र लिखा तथा ‘टागोरे’ की कुछ पंक्तियाँ लिखी थीं।’’ युगोस्लाविया, रोमानिया, सोवियत यूनियन-तीनों देशों में भारतीय साहित्य का अनुवाद बहुत कम हुआ है।

रामायण, महाभारत, गीता से थोड़ा-बहुत हुआ है। रवीन्द्रनाथ प्राय: सब जगह अनूदित हुए हैं। फिर कुछ प्रेमचन्द, आर.के.नारायण, खुशवन्त सिंह, क़ुर्रतुल-ऐन-हैदर आदि कोई एक-दो। सोवियत यूनियन में अनुवाद कुछ अधिक है। सब उच्चारण करेंगे ‘टागोरे’। बुजानिक ने टैगोर के अलावा कामसूत्र का अनुवाद भी पढ़ा है। वे हँसकर बोले-‘‘आज, विवाह के तीन वर्ष बाद, उस पुस्तक की बात याद आ रही है।’’ दक्षिण युगोस्लाविया में है मेसिडोनिया। कभी इसका कुछ हिस्सा ग्रीस का भाग था। सिकन्दर का जन्मस्थान होने की बात इतिहास में पढ़ी थी। प्लेन से लैण्डस्केप खूब सुन्दर दिखता है। मानो कोरापुट की मालभूमि है। पहाड़, घाटी, छोटी-छोटी नदियाँ, फिर थाक की थाक सजे हुए पहाड़। अल्बानिया और ग्रीस दक्षिण व पश्चिम में हैं। बाद में पता चला कि मेसिडोनिया भी युगोस्लाविया का अनुन्नत इलाक़ा है। उद्योगों से भरे लूबियाना या जग्रेब की तरह नहीं। राजधानी स्कोपिया 1963 के भूकम्प में ध्वस्त हो गयी। बेलिको बुजालिक युगोस्लाविया के प्रसिद्ध सिनेमा निर्देशक हैं। उनके बनाये ‘स्कोपिये 1963’ को बाद में देखा था। मार्मिक चित्र है। युनेस्को ने उसे उस वर्ष के सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेण्टरी के रूप में घोषित किया था। लिपजिग एवं वेनिस आदि फ़िल्म समारोहों में पुरस्कृत भी हुआ था।

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